Skip to main content

मुण्डकोपनिषद

मुण्डकोपनिषद (Mundaka Upanishad)

मुण्डकोपनिषद अथर्ववेद का उपनिषद है।. इस उपनिषद में 64 मन्त्र, तीन मुण्डक के 2-2 खण्ड है। संस्कृत भाषा, मन्त्रोपनिषद भी कहा जाता है। 'सत्यमेव जयते' मुण्डकोपनिषद से ही लिया गया है।
परा-अपरा विद्या का ज्ञान। यज्ञों का वर्णन। सात लोकों का वर्णन। ब्रह्म को बींधने का मार्ग बताया गया है। ब्रह्म के गुणों के बारे में बताया गया है। इस उपनिषद में ब्रह्म विद्या का उपदेश किया गया है।
ब्रह्म विद्या-
ब्रह्मा विद्या का उपदेश सबसे पहले ब्रह्मा ने क्रमश: दिया:- ब्रह्मा-  अर्थवा-  अंगिर-  सत्यवाह-  अंगिरा-  शौनक
ब्रह्म के तीन विशेषण दिए गए है- देवों में प्रथम देव हैं।  जगतकर्ता हैं।  जगत रक्षक है। ब्रह्मा शब्द का अर्थ-वृद्धि की इच्छा करने वाला है।

जीव रूप में पुरूष शुरू में अकेला होने से भयभीत या जब तक अकेला (पुरूष) होता है भयभीत रहता है। स्त्री और पुरूष मिलकर एक दाने की तरह पूर्ण पुरुष बनता है।
सृष्टि के आरम्भ में चारों वेदों से 1-1 का ज्ञान
ऋग्वेद -      अग्नि               
यजुर्वेद -     वायु            
सामवेद -  आदित्य          
अथर्ववेद-  अंगिरा

मुंडकोपनिषद में अक्षर ब्रह्मा (पराविद्या) की बात की गई है।
प्रश्न- वह अक्षर ब्रह्मा इस सृष्टि का निर्माण कैसे करता है?
उत्तर- जिस प्रकार मकड़ी से जाले की उत्पत्ति जो स्वयं मकड़ी के भीतर ही होता है तथा जब उसका प्रयोजन पूर्ण हो जाता है तब वह उसे फिर अपने शरीर में समेट लेती है उसी प्रकार ब्रह्मा भी सृष्टि का निर्माण करते हैं। तथा प्रयोजन पूर्ण हो जाने पर फिर अपने में समेट लेता है।
प्रश्न- अक्षर ब्रह्मा से सृष्टि उत्पन्न कैसे हुई हैं?
उत्तर- ब्रह्मा के “तप' से (ज्ञान ही तप है)

शौनक नाम के ऋषि अंगिरा के पास आये तथा प्रश्न किया- किसके जान लेने से सब कुछ जान लेते हैं?
उत्तर- अंगिरा ऋषि ने उत्तर दिया कि ' ब्रह्मा ' या ' ब्रह्मां विद्या' को जान लेने से सब कुछ जान लेते हैं। यह ब्रंह्म विद्या दो प्रकार की होती है- 

i. अपरा विद्या-  चार वेद-  (ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद),   6 वेदांत- (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद, ज्योतिष),  18 कर्म हैं।  इन्हें कर्मकाण्ड, रूढ़िवाद भी कहते हैं, सकाम कर्म,  इनसे ब्रह्म की प्राप्ति नहीं होती।

ii. परा विद्या-  इसमें 'अक्षर ब्रंह्मा' का ज्ञान होता है। इसे सुक्रितकर्म, प्रगतिवाद भी कहते हैं। ब्रह्मा की प्राप्ति होती है।
ब्रह्म ने तप किया तो-  तप  से - गति , गति से - सत, रज, तम की समता टूटी , विषमता (हलचल) पैदा हुई।
इससे महत् तत्व की उत्पति हुई -  महत् तत्व से अन्न -  अन्न से 5 तन्‍नमात्राएँ (सूक्ष्म भूत) + 1 मन - स्थूल भूत (इन्द्रियाँ आदि) इस प्रकार सृष्टि उत्पन्न हुई है। इस विकास क्रम में (आदि/शुरुआत) में तप था और अन्त में अन्न (5 तन्मात्राएँ) व मन था।
यज्ञ या अग्नियाँ - 7 प्रकार की है (ये ग्रहस्थ की धर्म हैं) 

    यज्ञ                         समय                   अग्नि/लपटे
1.  दर्श                       अमावस्या                 काली
2. पौर्णमास्य               पूर्णिमा                    कराली
3. चातुर्मास्यमू/यष्षि    वर्षा ऋतु                 मनोजवा
4. अतिथि यज्ञ/पूजा      नैत्यिक/प्रतिदिन    सुर्धुम्रवर्णा  
5. आग्रयण                   शीत ऋतु                    -
6. आहुती                            -                   स्फुलिंगिनी
7. वैश्वदेव                    दैनिक/नैत्यिक       विश्वरूचि
8. नवान्येष्ठि                      -                    सुलोहिता
सुक्रित कर्म: पराविद्या में ही सुक्रित कर्म हैं।
कौन करता है सुक्रित कर्म?
जो शांत चित्त, जो आरण्य (वन) में रहता हो, जो शिक्षा आचरण करता हो। तप व श्रद्धा रखता हो।
(तप = शारारिक साधना), (श्रद्धा = आत्मिक आरामदायक कर्म)
सकाम कर्म- स्वार्थिक कर्म सकाम कर्म हैं। सांसारिक ( भौतिक) व्यक्ति करता है। चंचल, अविद्या से रहित हो वो करता है। ये कृत्त कर्म होते हैं जो सांसारिक हैं।
सात लोक- i. पृथ्वी लोक , ii. वायु लोक , iii. अंतरिक्ष लोक, iv. आदित्य लोक , v. चन्द्रमा लोक , vi. नक्षत्र लोक  
vii. ब्रह्मलोक
सृष्टि उत्पत्ति का आरम्भ- अक्षर ब्रह्म से भाग जगत की उत्पत्ति हुई क्रमशः
अक्षर ब्रंह्मा =  भाव जगत-  i. जड़ सृष्टि  ii. चेतन सृष्टि

विराट पुरुष- ब्रह्मां का विराट रूप शरीर है जिसमें :-
1. मूर्धा  =   अग्नि
2. आँखें  =  सूर्य/चन्द्र
3. श्रोत्र   =   दिशा
4. वाणी  =   वेद
5. प्राण   =   वायु
6. हृदय  =   विश्व
7. पॉव   =   पृथ्वी
इस विराट पुरुष से 3 ही वेद उत्पन्न हुए- 1. ऋग्वेद 2. सामवेद 3. यजुर्वेद
उच्च जीव- मुण्डकोपनिषद्‌ के अनुसार 3 उच्च जीव है-
i. देव       =   जिसने पूर्व जन्म में अच्छे कर्म किए हो।
ii. साशर्य/साध्य  =  इस जन्म में अच्छे कर्म करें।
iii. मनुष्य  = सामान्य।

ध्यान का लक्ष्य- ब्रह्मा / ईश्वर प्राप्ति का मार्ग- प्रणव ध्वनि द्वारा लक्ष्य का भेदन किया जा सकता है-
प्रणव / ओमकार =  धनुष है- जीवात्मा / आत्मा =  बाण है- तथा लक्ष्य =  ब्रह्मा को बताया गया है।
उपर्युक्त धनुष द्वारा लक्ष्य बीधने। निशानें के लिए 2 बातें - साधक जिज्ञासु व आलस्य रहित हो। एक दम एकाग्रचित (प्राण व मन का सीधा सम्बन्ध है)।

वेदान्त विज्ञान से जीवन लक्ष्य को जानकर भी ब्रह्मा की प्राप्ति होती है। जो संभास व योग के रति हो गए हो। जो यह जान लेता है सब ब्रंह्मा में लीन होता है उसे तीन अवस्थाएँ प्राप्त होती हैं-  i. आत्मा क्रीड़   ii. आत्म रति    iii. क्रियावान
ईश्वर मार्ग सत्य से शुरू होता है, साधन सम्पन्न होकर कामना रहित ईश्वर तक जल्द पहुँचते हैं।  ईश्वर तर्क विषय नहीं अपितु आत्मानुभव है।
कौन नहीं प्राप्त कर सकते- बल हीन, प्रयोजन हीन तपस्या, वैराग्य विहीन

योगबीज

Yoga Question Answers for practice (MCQ)

Comments

Popular posts from this blog

सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति सामान्य परिचय

प्रथम उपदेश- पिण्ड उत्पति विचार सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति अध्याय - 2 (पिण्ड विचार) सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार नौ चक्रो के नाम 1. ब्रहमचक्र - मूलाधार मे स्थित है, कामनाओं की पूर्ति होती हैं। 2. स्वाधिष्ठान चक्र - इससे हम चीजो को आकर्षित कर सकते है। 3. नाभी चक्र - सिद्धि की प्राप्ति होती है। 4. अनाहत चक्र - हृदय में स्थित होता है। 5. कण्ठचक्र - विशुद्धि-संकल्प पूर्ति, आवाज मधुर होती है। 6. तालुचक्र -  घटिका में, जिह्वा के मूल भाग में,  लय सिद्धि प्राप्त होती है। 7. भ्रुचक्र -     आज्ञा चक्र - वाणी की सिद्धि प्राप्त होती है। 8. निर्वाणचक्र - ब्रहमरन्ध्र, सहस्त्रार चक्र, मोक्ष प्राप्ति 9. आकाश चक्र - सहस्त्रारचक्र के ऊपर,  भय- द्वेष की समाप्ति होती है। सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार सोहल आधार (1) पादांगुष्ठ आधार (2) मूलाधार (3) गुदाद्वार आधार (4) मेद् आधार (5) उड्डियान आधार (6) नाभी आधार (7) हृदयाधार (8) कण्ठाधार (9) घटिकाधार (10) तालु आधार (11) जिह्वा आधार (12) भ्रूमध्य आधार (13) नासिका आधार (14) नासामूल कपाट आधार (15) ललाट आधार (16) ब्रहमरंध्र आधार सिद्ध...

हठयोग प्रदीपिका के अनुसार षट्कर्म

हठप्रदीपिका के अनुसार षट्कर्म हठयोगप्रदीपिका हठयोग के महत्वपूर्ण ग्रन्थों में से एक हैं। इस ग्रन्थ के रचयिता योगी स्वात्माराम जी हैं। हठयोग प्रदीपिका के द्वितीय अध्याय में षटकर्मों का वर्णन किया गया है। षटकर्मों का वर्णन करते हुए स्वामी स्वात्माराम  जी कहते हैं - धौतिर्बस्तिस्तथा नेतिस्त्राटकं नौलिकं तथा।  कपालभातिश्चैतानि षट्कर्माणि प्रचक्षते।। (हठयोग प्रदीपिका-2/22) अर्थात- धौति, बस्ति, नेति, त्राटक, नौलि और कपालभोंति ये छ: कर्म हैं। बुद्धिमान योगियों ने इन छः कर्मों को योगमार्ग में करने का निर्देश किया है। इन छह कर्मों के अतिरिक्त गजकरणी का भी हठयोगप्रदीपिका में वर्णन किया गया है। वैसे गजकरणी धौतिकर्म के अन्तर्गत ही आ जाती है। इनका वर्णन निम्नलिखित है 1. धौति-  धौँति क्रिया की विधि और  इसके लाभ एवं सावधानी- धौँतिकर्म के अन्तर्गत हठयोग प्रदीपिका में केवल वस्त्र धौति का ही वर्णन किया गया है। धौति क्रिया का वर्णन करते हुए योगी स्वात्माराम जी कहते हैं- चतुरंगुल विस्तारं हस्तपंचदशायतम। . गुरूपदिष्टमार्गेण सिक्तं वस्त्रं शनैर्गसेत्।।  पुनः प्रत्याहरेच्चैतदुदितं ध...

घेरण्ड संहिता में वर्णित "प्राणायाम" -- विधि, लाभ एवं सावधानियाँ

घेरण्ड संहिता के अनुसार प्राणायाम घेरण्डसंहिता में महर्षि घेरण्ड ने आठ प्राणायाम (कुम्भको) का वर्णन किया है । प्राण के नियन्त्रण से मन नियन्त्रित होता है। अत: प्रायायाम की आवश्यकता बताई गई है। हठयोग प्रदीपिका की भांति प्राणायामों की संख्या घेरण्डसंहिता में भी आठ बताई गईं है किन्तु दोनो में थोडा अन्तर है। घेरण्डसंहिता मे कहा गया है- सहित: सूर्यभेदश्च उज्जायी शीतली तथा। भस्त्रिका भ्रामरी मूर्च्छा केवली चाष्टकुम्भका।। (घे.सं0 5 / 46) 1. सहित, 2. सूर्य भेदन, 3. उज्जायी, 4. शीतली, 5. भस्त्रिका, 6. भ्रामरी, 7. मूर्च्छा तथा 8. केवली ये आठ कुम्भक (प्राणायाम) कहे गए हैं। प्राणायामों के अभ्यास से शरीर में हल्कापन आता है। 1. सहित प्राणायाम - सहित प्राणायाम दो प्रकार के होते है (i) संगर्भ और (ii) निगर्भ । सगर्भ प्राणायाम में बीज मन्त्र का प्रयोग किया जाता हैँ। और निगर्भ प्राणायाम का अभ्यास बीज मन्त्र रहित होता है। (i) सगर्भ प्राणायाम- इसके अभ्यास के लिये पहले ब्रह्मा पर ध्यान लगाना है, उन पर सजगता को केन्द्रित करते समय उन्हें लाल रंग में देखना है तथा यह कल्पना करनी है कि वे लाल है और रजस गुणों से...

"चक्र " - मानव शरीर में वर्णित शक्ति केन्द्र

7 Chakras in Human Body हमारे शरीर में प्राण ऊर्जा का सूक्ष्म प्रवाह प्रत्येक नाड़ी के एक निश्चित मार्ग द्वारा होता है। और एक विशिष्ट बिन्दु पर इसका संगम होता है। यह बिन्दु प्राण अथवा आत्मिक शक्ति का केन्द्र होते है। योग में इन्हें चक्र कहा जाता है। चक्र हमारे शरीर में ऊर्जा के परिपथ का निर्माण करते हैं। यह परिपथ मेरूदण्ड में होता है। चक्र उच्च तलों से ऊर्जा को ग्रहण करते है तथा उसका वितरण मन और शरीर को करते है। 'चक्र' शब्द का अर्थ-  'चक्र' का शाब्दिक अर्थ पहिया या वृत्त माना जाता है। किन्तु इस संस्कृत शब्द का यौगिक दृष्टि से अर्थ चक्रवात या भँवर से है। चक्र अतीन्द्रिय शक्ति केन्द्रों की ऐसी विशेष तरंगे हैं, जो वृत्ताकार रूप में गतिमान रहती हैं। इन तरंगों को अनुभव किया जा सकता है। हर चक्र की अपनी अलग तरंग होती है। अलग अलग चक्र की तरंगगति के अनुसार अलग अलग रंग को घूर्णनशील प्रकाश के रूप में इन्हें देखा जाता है। योगियों ने गहन ध्यान की स्थिति में चक्रों को विभिन्न दलों व रंगों वाले कमल पुष्प के रूप में देखा। इसीलिए योगशास्त्र में इन चक्रों को 'शरीर का कमल पुष्प” कहा ग...

चित्त विक्षेप | योगान्तराय

चित्त विक्षेपों को ही योगान्तराय ' कहते है जो चित्त को विक्षिप्त करके उसकी एकाग्रता को नष्ट कर देते हैं उन्हें योगान्तराय अथवा योग के विध्न कहा जाता।  'योगस्य अन्तः मध्ये आयान्ति ते अन्तरायाः'।  ये योग के मध्य में आते हैं इसलिये इन्हें योगान्तराय कहा जाता है। विघ्नों से व्यथित होकर योग साधक साधना को बीच में ही छोड़कर चल देते हैं। विध्न आयें ही नहीं अथवा यदि आ जायें तो उनको सहने की शक्ति चित्त में आ जाये, ऐसी दया ईश्वर ही कर सकता है। यह तो सम्भव नहीं कि विध्न न आयें। “श्रेयांसि बहुविध्नानि' शुभकार्यों में विध्न आया ही करते हैं। उनसे टकराने का साहस योगसाधक में होना चाहिए। ईश्वर की अनुकम्पा से यह सम्भव होता है।  व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तिदर्शनालब्धभूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाः (योगसूत्र - 1/30) योगसूत्र के अनुसार चित्त विक्षेपों  या अन्तरायों की संख्या नौ हैं- व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरति, भ्रान्तिदर्शन, अलब्धभूमिकत्व और अनवस्थितत्व। उक्त नौ अन्तराय ही चित्त को विक्षिप्त करते हैं। अतः ये योगविरोधी हैं इन्हें योग के मल...

सांख्य दर्शन परिचय, सांख्य दर्शन में वर्णित 25 तत्व

सांख्य दर्शन के प्रणेता महर्षि कपिल है यहाँ पर सांख्य शब्द का अर्थ ज्ञान के अर्थ में लिया गया सांख्य दर्शन में प्रकृति पुरूष सृष्टि क्रम बन्धनों व मोक्ष कार्य - कारण सिद्धान्त का सविस्तार वर्णन किया गया है इसका संक्षेप में वर्णन इस प्रकार है। 1. प्रकृति-  सांख्य दर्शन में प्रकृति को त्रिगुण अर्थात सत्व, रज, तम तीन गुणों के सम्मिलित रूप को त्रिगुण की संज्ञा दी गयी है। सांख्य दर्शन में इन तीन गुणो कों सूक्ष्म तथा अतेनद्रिय माना गया सत्व गुणो का कार्य सुख रजोगुण का कार्य लोभ बताया गया सत्व गुण स्वच्छता एवं ज्ञान का प्रतीक है यह गुण उर्ध्वगमन करने वाला है। इसकी प्रबलता से पुरूष में सरलता प्रीति,अदा,सन्तोष एवं विवेक के सुखद भावो की उत्पत्ति होती है।    रजोगुण दुःख अथवा अशान्ति का प्रतीक है इसकी प्रबलता से पुरूष में मान, मद, वेष तथा क्रोध भाव उत्पन्न होते है।    तमोगुण दुख एवं अशान्ति का प्रतीक है यह गुण अधोगमन करने वाला है तथा इसकी प्रबलता से मोह की उत्पत्ति होती है इस मोह से पुरूष में निद्रा, प्रसाद, आलस्य, मुर्छा, अकर्मण्यता अथवा उदासीनता के भाव उत्पन्न होते है सा...

Yoga MCQ Questions Answers in Hindi

 Yoga multiple choice questions in Hindi for UGC NET JRF Yoga, QCI Yoga, YCB Exam नोट :- इस प्रश्नपत्र में (25) बहुसंकल्पीय प्रश्न है। प्रत्येक प्रश्न के दो (2) अंक है। सभी प्रश्न अनिवार्य ।   1. किस उपनिषद्‌ में ओंकार के चार चरणों का उल्लेख किया गया है? (1) प्रश्नोपनिषद्‌         (2) मुण्डकोपनिषद्‌ (3) माण्डूक्योपनिषद्‌  (4) कठोपनिषद्‌ 2 योग वासिष्ठ में निम्नलिखित में से किस पर बल दिया गया है? (1) ज्ञान योग  (2) मंत्र योग  (3) राजयोग  (4) भक्ति योग 3. पुरुष और प्रकृति निम्नलिखित में से किस दर्शन की दो मुख्य अवधारणाएं हैं ? (1) वेदांत           (2) सांख्य (3) पूर्व मीमांसा (4) वैशेषिक 4. निम्नांकित में से कौन-सी नाड़ी दस मुख्य नाडियों में शामिल नहीं है? (1) अलम्बुषा  (2) कुहू  (3) कूर्म  (4) शंखिनी 5. योगवासिष्ठानुसार निम्नलिखित में से क्या ज्ञानभूमिका के अन्तर्गत नहीं आता है? (1) शुभेच्छा (2) विचारणा (3) सद्भावना (4) तनुमानसा 6. प्रश्नो...

Teaching Aptitude MCQ in hindi with Answers

  शिक्षण एवं शोध अभियोग्यता Teaching Aptitude MCQ's with Answers Teaching Aptitude mcq for ugc net, Teaching Aptitude mcq for set exam, Teaching Aptitude mcq questions, Teaching Aptitude mcq in hindi, Teaching aptitude mcq for b.ed entrance Teaching Aptitude MCQ 1. निम्न में से कौन सा शिक्षण का मुख्य उद्देश्य है ? (1) पाठ्यक्रम के अनुसार सूचनायें प्रदान करना (2) छात्रों की चिन्तन शक्ति का विकास करना (3) छात्रों को टिप्पणियाँ लिखवाना (4) छात्रों को परीक्षा के लिए तैयार करना   2. निम्न में से कौन सी शिक्षण विधि अच्छी है ? (1) व्याख्यान एवं श्रुतिलेखन (2) संगोष्ठी एवं परियोजना (3) संगोष्ठी एवं श्रुतिलेखन (4) श्रुतिलेखन एवं दत्तकार्य   3. अध्यापक शिक्षण सामग्री का उपयोग करता है क्योंकि - (1) इससे शिक्षणकार्य रुचिकर बनता है (2) इससे शिक्षणकार्य छात्रों के बोध स्तर का बनता है (3) इससे छात्रों का ध्यान आकर्षित होता है (4) वह इसका उपयोग करना चाहता है   4. शिक्षण का प्रभावी होना किस ब...

योग के साधक तत्व

योग के साधक तत्व - हठप्रदीपिका के अनुसार योग के साधक तत्व-   उत्साहात्‌ साहसाद्‌ धैर्यात्‌ तत्वज्ञानाच्च निश्चयात्‌। जनसंगपरित्यागात्‌ षडभियोंगः प्रसिद्दयति: || 1/16 अर्थात उत्साह, साहस, धैर्य, तत्वज्ञान, दृढ़-निश्चय तथा जनसंग का परित्याग इन छः तत्वों से योग की सिद्धि होती है, अतः ये योग के साधक तत्व है। 1. उत्साह- योग साधना में प्रवृत्त होने के लिए उत्साह रूपी मनोस्थिति का होना आवश्यक है। उत्साह भरे मन से कार्य प्रारभं करने से शरीर, मन व इन्द्रियों में प्राण संचार होकर सभी अंग साधना में कार्यरत होने को प्रेरित हो जाते है। अतः उत्साहरूपी मनोस्थिति योग साधना में सफलता की कुजी है। 2. साहस- योगसाधना मार्ग मे साहस का भी गुण होना चाहिए। साहसी साधक योग की कठिन क्रियांए जैसे- वस्त्रधौति, खेचरी आदि की साधना कर सकता है। पहले से ही भयभीत साधक योग क्रियाओं के मार्ग की और नहीं बढ़ सकता। 3. धैर्य- योगसाधक में घीरता का गुण होना अत्यावश्यक हैं। यदि साधक रातो-रात साधना में सफलता चाहता है तो ऐसा अधीर साधक बाधाओं से घिरकर पथ भ्रष्ट हो जाता है। साधक को गुरूपदेश से संसार की बाधाओं या आन्तरिक स्तर की...

कठोपनिषद

कठोपनिषद (Kathopanishad) - यह उपनिषद कृष्ण यजुर्वेद की कठ शाखा के अन्तर्गत आता है। इसमें दो अध्याय हैं जिनमें 3-3 वल्लियाँ हैं। पद्यात्मक भाषा शैली में है। मुख्य विषय- योग की परिभाषा, नचिकेता - यम के बीच संवाद, आत्मा की प्रकृति, आत्मा का बोध, कठोपनिषद में योग की परिभाषा :- प्राण, मन व इन्दियों का एक हो जाना, एकाग्रावस्था को प्राप्त कर लेना, बाह्य विषयों से विमुख होकर इन्द्रियों का मन में और मन का आत्मा मे लग जाना, प्राण का निश्चल हो जाना योग है। इन्द्रियों की स्थिर धारणा अवस्था ही योग है। इन्द्रियों की चंचलता को समाप्त कर उन्हें स्थिर करना ही योग है। कठोपनिषद में कहा गया है। “स्थिराम इन्द्रिय धारणाम्‌” .  नचिकेता-यम के बीच संवाद (कहानी) - नचिकेता पुत्र वाजश्रवा एक बार वाजश्रवा किसी को गाय दान दे रहे थे, वो गाय बिना दूध वाली थी, तब नचिकेता ( वाजश्रवा के पुत्र ) ने टोका कि दान में तो अपनी प्रिय वस्तु देते हैं आप ये बिना दूध देने वाली गाय क्यो दान में दे रहे है। वाद विवाद में नचिकेता ने कहा आप मुझे किसे दान में देगे, तब पिता वाजश्रवा को गुस्सा आया और उसने नचिकेता को कहा कि तुम ...