सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

चक्र


7 Chakras in Human Body

हमारे शरीर में प्राण ऊर्जा का सूक्ष्म प्रवाह प्रत्येक नाड़ी के एक निश्चित मार्ग द्वारा होता है। और एक विशिष्ट बिन्दु पर इसका संगम होता है। यह बिन्दु प्राण अथवा आत्मिक शक्ति का केन्द्र होते है। योग में इन्हें चक्र कहा जाता है। चक्र हमारे शरीर में ऊर्जा के परिपथ का निर्माण करते हैं। यह परिपथ मेरूदण्ड में होता है। चक्र उच्च तलों से ऊर्जा को ग्रहण करते है तथा उसका वितरण मन और शरीर को करते है।

'चक्र' शब्द का अर्थ- 

'चक्र' का शाब्दिक अर्थ पहिया या वृत्त माना जाता है। किन्तु इस संस्कृत शब्द का यौगिक दृष्टि से अर्थ चक्रवात या भँवर से है। चक्र अतीन्द्रिय शक्ति केन्द्रों की ऐसी विशेष तरंगे हैं, जो वृत्ताकार रूप में गतिमान रहती हैं। इन तरंगों को अनुभव किया जा सकता है। हर चक्र की अपनी अलग तरंग होती है। अलग अलग चक्र की तरंगगति के अनुसार अलग अलग रंग को घूर्णनशील प्रकाश के रूप में इन्हें देखा जाता है।
योगियों ने गहन ध्यान की स्थिति में चक्रों को विभिन्न दलों व रंगों वाले कमल पुष्प के रूप में देखा। इसीलिए योगशास्त्र में इन चक्रों को 'शरीर का कमल पुष्प” कहा गया है।
कुण्डलिनी शक्ति के मूल में छ: द्वारों द्वारा पहुँचा जा सकता है। इन्हे छ: द्वार या छ: ताले भी कहा जा सकता है। यह द्वार या ताले खोलकर ही उन शक्ति केन्द्रों तक साधक पहुँच सकता है। आध्यात्मिक भाषा में इन्हीं छः: अवरोधों को 'षट् चक्र' कहते हैं। 
सुषुम्ना के अन्तर्गत सबसे भीतर स्थित ब्रहम नाड़ी से ये छ: चक्र सम्बन्धित है इनकी उपमा माला के सूत्र में पिरोये हुए कमल पुष्पों से की जाती है। 
7 chakras in human body
 
चित्र द्वारा यह समझा जा सकता है कि कौन सा चक्र किस स्थान पर है मूलाधार चक्र योनि की सीध में स्वाधिष्ठान चक्र पेड़ू की सीध में, मणिपुर चक्र नाभि की सीध में, अनाहत चक्र हृदय की सीध में, विशुद्धि चक्र कंठ की सीध में और आज्ञा चक्र भृकुटि के मध्य में अवस्थित है। उनसे ऊपर सहस्त्रार है। चक्रों का विस्तृत वर्णन इस प्रकार है।


1. मूलाधार चक्र- यह ऊर्जा चक्र मेरूदण्ड के मूल में स्थित है। मूलाधार का शाब्दिक अर्थ मूल का अर्थ जड़ तथा आधार का अर्थ जगह होता है। मनुष्यों में विकास यात्रा का प्रस्थान बिन्दु मूलाधार होता है। मूलाधार उत्सर्जन संस्थान तथा जनन अंगों को नियन्त्रित करता है। इसका सम्बन्ध नासिका तथा प्राण शक्ति से होता है। मूलाधार को सक्रिय नासिकाग्र दृष्टि के अभ्यास द्वारा किया जा सकता है।
मूलाधार चक्र की आकृति चतुष्कोण रक्त वर्ण चार दलों वाला कमल होता है। इसके भीतर पीले रंग का वर्ग होता है। चारों दलों में अक्षर अर्थात वर्ण है। चारों पंखुडियों पर वं शं षं सं ये चार मात्रिका वर्ण है। चार मात्रिका वर्णो की चार ही वृत्तियाँ है काम, क्रोध, लोभ और मोह। चतुष्कोण युक्त सुवर्ण रंग के सहश पृथ्वी तत्व का मुख्य स्थान है, इसका तत्व बीज 'लं' है और इस पृथ्वी तत्व का गुण गन्ध है। इसमें लोक भू-लोक है। तत्व बीज का वाहन ऐरावत हाथी है। जिसके उपर इन्द्रदेव विराजमान है। इसके अधिपति देवता चतुर्मुख वाले ब्रहमा जी है। वह अपने शक्ति चतुर्भुजा डाकिनी के साथ विराजमान है।

मूलाधार चक्र के ध्यान का फल- इसके ध्यान का फल इस प्रकार है आनन्द व आरोग्यता का उदय होना, वाक्य सिद्धि, सृजनात्मकता, काव्य सिद्धि आदि दक्षता प्राप्त करना आदि विशेष ल्राभ है।

2. स्वाधिष्ठान चक्र- मुलाधार चक्र से दो अंगुल ऊपर पेडू के पास स्वाधिष्ठान का स्थान है। स्व का अर्थ है स्वयं और अधिष्ठान का अर्थ जगह होता है। जब स्वाधिष्ठान में चेतना और ऊर्जा कार्य करने लगती है तो साधक में स्व तथा अहम की चेतना जाग्रत होने लगती है। स्वाधिष्ठान व मूलाधार मेँ निकटतम सम्बन्ध होता है। यह जनन अंगों से सम्बन्धित ग्रन्थियों को प्रभावित करता है।

इस चक्र की आकृति सिन्दुरी रंग के प्रकाश से युक्त छ: पंखुडी-दलों वाला कमल के समान हैं। इन छ: दलों पर बं, भं, मं, यं, रं, लं, ये छ: मात्रिका वर्ण हैं । इन छ दलों की छः प्रकार की वृत्तियां है। ये है प्रश्रय, अवज्ञा, मूर्च्छा, विश्वास, सर्वनाश और क़्रूरता। इसमें अद्धर्चन्द्राकार युक्त जल तत्व 'बं' श्वेत रंग का मुख्य स्थान है। जल तत्व का बीज  'बं' है इस जल तत्व का गुण रस है। इसका लोक भुवर्लोक है। जल तत्व बीज का वाहन मकर है। जिसके उपर जल देवता वरुणदेव विराजमान है। इसके अधिपति देवता विष्णु हैं जो अपनी चतुर्भुजा वाली राकिनी शक्ति के साथ शोभायमान है।

स्वाधिष्ठान चक्र के ध्यान का फल- इसके बीज मंत्र का मानसिक जाप करते हुए स्वाधिष्ठान चक्र का ध्यान करने से प्रबुद्ध बुद्धि का उदय होता है। तथा जिह्वा में सरस्वती का वास होता है तथा नवनिर्माण की शक्ति प्राप्त होती है।

3. मणिपुर चक्र-  मणिपूर चक्र हमारे शरीर में मेरूदण्ड के पीछे स्थित होता है। मणिपुर का शाब्दिक अर्थ मणि का अर्थ मोती तथा पुर का अर्थ नगर होता है अत: मणिपूर को मोतियों, मणियों का नगर भी कहा जाता है। यहाँ नाडियों के मिलन के उपरान्त तीव्र आलोक का विकरण होता है। इस आलोक की तुलना योग ग्रन्थों में जाज्यल्यमान मोतियों की आभा से की गई है। मणिपुर में अग्नि तत्व स्थित माना जाता है। जो जठराग्नि को प्रदीप्त करता है। मणिपुर चक्र का संबंध आत्मीकरण, प्राण ऊर्जा और भोजन के पाचन से है।
मणिपुर चक्र का स्थान नाभिमूल है। इसकी आकृति अरुण आभा युक्त आलोकित दस दलों वाले कमल के समान होती है, इनके दस दलों में दस मात्रिका वर्ण है डं, ढं, णं, तं, थं, दं, थं, नं, पं, फं, इन दस मत्रिका वर्णों या अक्षरों की ध्वनियाँ विभिन्न प्रकार से होकर निकलती है। इन दस दलों की दस वृत्तियाँ इस प्रकार है लज्जा, ईर्ष्या, सुषुप्ति, विषाद, कषाद, तृष्णा, मोह, घृणा और भय। त्रिकोणाकार रक्तवर्ण अग्नितत्व का मुख्य स्थान है। अग्नितत्व का बीज  'रं' है। अग्नितत्व की स्वाभाविक गुणानुसार इस तत्वबीज की गति ऊपर की ओर होती है तत्वबीज का वाहक मेष है और उसके ऊपर अग्निदेवता विराजमान हैं इसका अधिपति देवता इन्द्र अपनी चतुभुर्जा शक्ति लाकिनी के साथ शोभायमान है।

मणिपुर चक्र के ध्यान का फल- अग्नि के ध्यान बीज मंत्र 'रं' का ध्यान करने से मानसिक कायव्यूह का ज्ञान हो जाता है और पालन तथा संहार की शक्ति आती है। योगी तेजस्वी हो जाता है। शरीर कान्तियुक्त हो जाता है।

4. अनाहत चक्र- चौथे चक्र का नाम अनाहत चक्र है। हमारे शरीर में स्थित मेरूदण्ड में हृदय के पीछे अनाहत चक्र है। अनाहत यदि शाब्दिक अर्थ लिया जाए तो अनाहत का अर्थ होता है 'चोट नहीं करना' इस अनाहत चक्र का स्थान हृदय प्रदेश है। अनाहत चक्र आकृति परम उज्जवल नव पुष्पित कमलाकार धूसर रंग युक्त है। इस चक्र में बारह दल होते है, बारह दलों पर बारह मात्रिका वर्ण है। कं, खं, गं, घं, डं, चं, छं, जं, झं, नं, टं, ठं, इन द्वादस वायुतत्व के गुण धर्म वृत्तियाँ है- आशा, चिन्ता, चेष्टा, मतता, दम्भ, विफलता, विवेक, अंहकार, कपटता, वितर्क और अनुताप, वायुतत्व का बीज “यं' है और इस तत्वबीज की गति तिर्यक गति है। वायुतत्व का गुण स्पर्श है। इसको शास्त्र में दिव्य लोक भी कहा गया है। इसका अधिपति देवता रुद्र है जो अपनी त्रिनेत्रा चतुर्भुजा शक्ति काकिनी के साथ विराजमान है। षटकोणयुक्त इस चक्र का यन्त्र है और उसका रंग ध्रूमवर्ण है।

अनाहत चक्र के ध्यान का फल- वायुतत्व के बीज “यं' का मानसिक जाप करते हुए इस चक्र का ध्यान करने से वाक् अधिप्तिय, अर्थात कवित्व शक्ति प्राप्त हो जाती है। ध्यान अधिक करने से 10 प्रकार के नाद तथा श्रुतिगोचर होने लगते है।

5. विशुद्धि चक्र- पांचवा चक्र विशुद्धि चक्र हमारे शरीर में स्थित मेरूदण्ड में कण्ठ के पीछे स्थित है। इसका शाब्दिक अर्थ 'वि' अर्थात विशेष, जिसकी तुलना नहीं हो सकती है और शुद्धि का अर्थ शुद्ध करने से लिया जाता है। विशुद्धि चक्र शरीर में विषाक्त तत्वों को फैलने से रोकता है। इसका प्रभाव स्वर यंत्र, गले, टॉसिल, आदि ग्रंथियों पर पड़ता है।
इसकी आकृति नील आभा युक्त खिले हुए कमल के समान है। इसमें 16 दल होते है। सोहल दलों पर सोलह मात्रिका वर्ण हैं- अं, आं, इं, ई, उं, ऊं, ऋं, ऋ, लृं, एं, ओं, औं, आं, अः। इन सोलह दलों पर आकाश तत्व की वृत्तियों है जो सोलह है- निषाद, ऋषभ, गान्धार, षडश, मध्यम, धौवत, पंचम ये सात स्वर रूप में है और अं, हूं, फट, वषट, स्वधा, स्वाहा स्वर रूप में है और अमृत यह बिना स्वर के हैं। आकाश तत्व का 'हं' बीज है। इस तत्व की गति गम्भीर होती है। आकाश तत्व का गुण 'शब्द' होता है। जो ऊपर की ओर गति करने वाला है। आकाश तत्वबीज का वाहन हस्ती जिसके ऊपर प्रकाश देवता है। इसके अधिपति देवता पंच मुख वाले सदाशिव हैं जो अपनी शक्ति चर्तुभुज, 'शाकिनी' के साथ विराजमान है। इसका यन्त्र पूर्णचन्द्रमा के वृत्ताकार आकाश मण्डल के समान है।

विशुद्धि चक्र के ध्यान का फल- आकाश तत्व का बीज 'हं' का जाप करते हुए विशुद्धि चक्र का ध्यान करना चाहिए। विशुद्धि चक्र में ध्यान करने से भूत, वर्तमान और भविष्य इन तीनों कालों का ज्ञान हो जाता है। साधक ज्ञानवान, तेजस्वी, शांत चित्त और दीर्घजीवी हो जाता है। 

6. आज्ञा चक्र- छटा चक्र आज्ञाचक्र कहलाता है। आज्ञा चक्र हमारे शरीर में मेरूदण्ड के उपरी छोर पर भूमध्य के पीछे स्थित होता है। इसका सम्बन्ध पिनियल ग्रन्थि से होता है। इसी को तीसरा नेत्र भी कहा जाता है इस चक्र की आकृति दो दलों वाला कमल के समान होती है। दोनों दलों पर मात्रिका वर्ण हं' और “क्ष' है। इनकी वृत्तियाँ भी दो ही है प्रवृत्ति और अहंमन्यता। इसका तत्व महत तत्व है। इसके तत्वबीज ऊँ है और तत्व बीज की गति नाद है। तत्वबीज के वाहन नाद पर लिंग देवता विराजमान हैं। इसका अधिपति देवता ज्ञान प्रदाता शिव है जो कि चतुर्भुजा षड़ानना (छ: मुखवली) 'हाकिनी' शक्ति के साथ शोभायमान है। इसका यन्त्र लिंगाकार के समान वर्तुल है।

आज्ञा चक्र के ध्यान का फल- इस चक्र का ध्यान, ऊँ बीज मंत्र का मानसिक जप करने से प्रतिभ चक्षु या दिव्य नेत्र खुल जाते है योगी को दिव्य-दृष्टि मिलती है। दिव्य योग दृष्टि प्राप्त योगी को विश्व-ब्रहमाण्ड में हर तत्व का ज्ञान हो जाता है। उससे कोई भी तत्व अज्ञात नहीं रहता है।

7. सहस्रार चक्र- सबसे ऊपर और सबके अन्त में यह सहस्रार चक्र, सहस्त्र दल कमल के रूप में विद्यमान है। यह सहस्रार चक्र के सूक्ष्म स्वरूप का स्थूल रूप मात्र है। इसका स्थान, जो सभी शक्तियों का केन्द्र स्थान है ब्रह्मताल या ब्रहमरंध के ऊपर मस्तिष्क में है। विभिन्न प्रकार के रंगों के प्रकाश से युक्त हजार दलों वाले कमल के समान इसकी आकृति है। वह कमल एक छत्री के समान अर्ध: मुख विकसित है। इन सहस्र दलों पर मत्रिका समूह अं से लेकर 'क्ष' विद्यमान है। जिसमें समस्त स्वर और व्यंजन वर्ण समूह विद्यमान है। इसका तत्व तत्वातीत है। बिंदु तत्वबीज का वाहन है तथा अधिपति देवता परब्रह्म (शिव) हैं। जो अपनी महाशक्ति के साथ शोभा पा रहे हैं। इसका लोक अन्तिम सत्य लोक है। इससे ऊपर कोई लोक नहीं है।
इस सहस्रार चक्र का यन्त्र शुभ आभा युक्त पूर्ण चन्द्रमा के समान वर्तुल है। वही पर इस यन्त्र में कुण्डलिनी शक्ति उपस्थित होकर सदैव परमात्मा के साथ युग्म रूप में पर महाशक्ति से मिलन होता है। यहां पर शिव और शक्ति का मिलन होता है।

कुण्डलिनी शक्ति परम शिव के साथ लीन होने के साथ ही विभिन्न चक्रों की शक्तियों अहंकार, चित्त, बुद्धि तथा मन के साथ सम्पूर्ण रूप से परमात्मा में विलीन हो जाती है तत्पश्चात साधक को इस जगत का भी भान नहीं रहता और उसे असम्प्रज्ञात समाधि की प्राप्ति हो जाती है। इसका फल अमरत्व या अमरपद की प्राप्ति होती है।


 Yoga Book in Hindi

Yoga Books in English

Yoga Book for BA, MA, Phd

Gherand Samhita yoga book

Hatha Yoga Pradipika Hindi Book

Patanjali Yoga Sutra Hindi

Shri mad bhagwat geeta book hindi

UGC NET Yoga Book Hindi

UGC NET Paper 2 Yoga Book English

QCI Yoga Book 

Yoga Books for kids



ईश्वर का स्वरूप

पुरूष एवं प्रकृति की अवधारणा

अष्टांग योग


Yoga Mat   Yoga suit    Yoga Bar


इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

चित्त | चित्तभूमि | चित्तवृत्ति

 चित्त  चित्त शब्द की व्युत्पत्ति 'चिति संज्ञाने' धातु से हुई है। ज्ञान की अनुभूति के साधन को चित्त कहा जाता है। जीवात्मा को सुख दुःख के भोग हेतु यह शरीर प्राप्त हुआ है। मनुष्य द्वारा जो भी अच्छा या बुरा कर्म किया जाता है, या सुख दुःख का भोग किया जाता है, वह इस शरीर के माध्यम से ही सम्भव है। कहा भी गया  है 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्' अर्थात प्रत्येक कार्य को करने का साधन यह शरीर ही है। इस शरीर में कर्म करने के लिये दो प्रकार के साधन हैं, जिन्हें बाह्यकरण व अन्तःकरण के नाम से जाना जाता है। बाह्यकरण के अन्तर्गत हमारी 5 ज्ञानेन्द्रियां एवं 5 कर्मेन्द्रियां आती हैं। जिनका व्यापार बाहर की ओर अर्थात संसार की ओर होता है। बाह्य विषयों के साथ इन्द्रियों के सम्पर्क से अन्तर स्थित आत्मा को जिन साधनों से ज्ञान - अज्ञान या सुख - दुःख की अनुभूति होती है, उन साधनों को अन्तःकरण के नाम से जाना जाता है। यही अन्तःकरण चित्त के अर्थ में लिया जाता है। योग दर्शन में मन, बुद्धि, अहंकार इन तीनों के सम्मिलित रूप को चित्त के नाम से प्रदर्शित किया गया है। परन्तु वेदान्त दर्शन अन्तःकरण चतुष्टय की

हठयोग प्रदीपिका के अनुसार षट्कर्म

हठप्रदीपिका के अनुसार षट्कर्म हठयोगप्रदीपिका हठयोग के महत्वपूर्ण ग्रन्थों में से एक हैं। इस ग्रन्थ के रचयिता योगी स्वात्माराम जी हैं। हठयोग प्रदीपिका के द्वितीय अध्याय में षटकर्मों का वर्णन किया गया है। षटकर्मों का वर्णन करते हुए स्वामी स्वात्माराम  जी कहते हैं - धौतिर्बस्तिस्तथा नेतिस्त्राटकं नौलिकं तथा।  कपालभातिश्चैतानि षट्कर्माणि प्रचक्षते।। (हठयोग प्रदीपिका-2/22) अर्थात धौति, बस्ति, नेति, त्राटक, नौलि और कपालभोंति ये छ: कर्म हैं। बुद्धिमान योगियों ने इन छः कर्मों को योगमार्ग में करने का निर्देश किया है। इन छह कर्मों के अतिरिक्त गजकरणी का भी हठयोगप्रदीपिका में वर्णन किया गया है। वैसे गजकरणी धौतिकर्म के अन्तर्गत ही आ जाती है। इनका वर्णन निम्नलिखित है 1. धौति-  धौँति क्रिया की विधि और  इसके लाभ एवं सावधानी- धौँतिकर्म के अन्तर्गत हठयोग प्रदीपिका में केवल वस्त्र धौति का ही वर्णन किया गया है। धौति क्रिया का वर्णन करते हुए योगी स्वात्माराम जी कहते हैं- चतुरंगुल विस्तारं हस्तपंचदशायतम। . गुरूपदिष्टमार्गेण सिक्तं वस्त्रं शनैर्गसेत्।।  पुनः प्रत्याहरेच्चैतदुदितं धौतिकर्म तत्।। (हठयोग प्रद

योग आसनों का वर्गीकरण एवं योग आसनों के सिद्धान्त

योग आसनों का वर्गीकरण (Classification of Yogaasanas) आसनों की प्रकृति को ध्यान में रखते हुए इन्हें तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है (1) ध्यानात्मक आसन- ये वें आसन है जिनमें बैठकर पूजा पाठ, ध्यान आदि आध्यात्मिक क्रियायें की जाती है। इन आसनों में पद्मासन, सिद्धासन, स्वस्तिकासन, सुखासन, वज्रासन आदि प्रमुख है। (2) व्यायामात्मक आसन- ये वे आसन हैं जिनके अभ्यास से शरीर का व्यायाम तथा संवर्धन होता है। इसीलिए इनको शरीर संवर्धनात्मक आसन भी कहा जाता है। शारीरिक स्वास्थ्य के संरक्षण तथा रोगों की चिकित्सा में भी इन आसनों का महत्व है। इन आसनों में सूर्य नमस्कार, ताडासन,  हस्तोत्तानासन, त्रिकोणासन, कटिचक्रासन आदि प्रमुख है। (3) विश्रामात्मक आसन- शारीरिक व मानसिक थकान को दूर करने के लिए जिन आसनों का अभ्यास किया जाता है, उन्हें विश्रामात्मक आसन कहा जाता है। इन आसनों के अन्तर्गत शवासन, मकरासन, शशांकासन, बालासन आदि प्रमुख है। इनके अभ्यास से शारीरिक थकान दूर होकर साधक को नवीन स्फूर्ति प्राप्त होती है। व्यायामात्मक आसनों के द्वारा थकान उत्पन्न होने पर विश्रामात्मक आसनों का अभ्यास थकान को दूर करके ताजगी

हठयोग का अर्थ , परिभाषा, उद्देश्य

  हठयोग का अर्थ भारतीय चिन्तन में योग मोक्ष प्राप्ति का एक महत्वपूर्ण साधन रहा है, योग की विविध परम्पराओं (ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग, हठयोग) इत्यादि का अन्तिम लक्ष्य भी मोक्ष (समाधि) की प्राप्ति ही है। हठयोग के साधनों के माध्यम से वर्तमान में व्यक्ति स्वास्थ्य लाभ तो करता ही है पर इसके आध्यात्मिक लाभ भी निश्चित रूप से व्यक्ति को मिलते है।  हठयोग- नाम से यह प्रतीत होता है कि यह क्रिया हठ- पूर्वक की जाने वाली है। परन्तु ऐसा नही है अगर हठयोग की क्रिया एक उचित मार्गदर्शन में की जाये तो साधक सहजतापूर्वक इसे कर सकता है। इसके विपरित अगर व्यक्ति बिना मार्गदर्शन के करता है तो इस साधना के विपरित परिणाम भी दिखते है। वास्तव में यह सच है कि हठयोग की क्रियाये कठिन कही जा सकती है जिसके लिए निरन्तरता और दृठता आवश्यक है प्रारम्भ में साधक हठयोग की क्रिया के अभ्यास को देखकर जल्दी करने को तैयार नहीं होता इसलिए एक सहनशील, परिश्रमी और तपस्वी व्यक्ति ही इस साधना को कर सकता है।  संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ में हठयोग शब्द को दो अक्षरों में विभाजित किया है।  1. ह -अर्थात हकार  2. ठ -अर्थात ठकार हकार - का अर्थ

योग के बाधक तत्व

  योग साधना में बाधक तत्व (Elements obstructing yoga practice) हठप्रदीपिका के अनुसार योग के बाधक तत्व- अत्याहार: प्रयासश्च प्रजल्पो नियमाग्रह:। जनसंएरच लौल्य च षड्भिर्योगो विनश्चति।। अर्थात्‌- अधिक भोजन, अधिक श्रम, अधिक बोलना, नियम-पालन में आग्रह, अधिक लोक सम्पर्क तथा मन की चंचलता, यह छ: योग को नष्ट करने वाले तत्व है अर्थात्‌ योग मार्ग में प्रगति के लिए बाधक है। उक्त श्लोकानुसार जो विघ्न बताये गये है, उनकी व्याख्या निम्न प्रकार है 1. अत्याहार-  आहार के अत्यधिक मात्रा में ग्रहण से शरीर की जठराग्नि अधिक मात्रा में खर्च होती है तथा विभिन्न प्रकार के पाचन-संबधी रोग जैसे अपच, कब्ज, अम्लता, अग्निमांघ आदि उत्पन्न होते है। यदि साधक अपनी ऊर्जा साधना में लगाने के स्थान पर पाचन क्रिया हेतू खर्च करता है या पाचन रोगों से निराकरण हेतू षट्कर्म, आसन आदि क्रियाओं के अभ्यास में समय नष्ट करता है तो योगसाधना प्राकृतिक रुप से बाधित होती | अत: शास्त्रों में कहा गया है कि - सुस्निग्धमधुराहारश्चर्तुयांश विवर्जितः । भुज्यते शिवसंप्रीत्यै मिताहार: स उच्यते ।।       अर्थात जो आहार स्निग्ध व मधुर हो और जो परमेश

Yoga MCQ Questions Answers in Hindi

 Yoga multiple choice questions in Hindi for UGC NET JRF Yoga, QCI Yoga, YCB Exam नोट :- इस प्रश्नपत्र में (25) बहुसंकल्पीय प्रश्न है। प्रत्येक प्रश्न के दो (2) अंक है। सभी प्रश्न अनिवार्य ।   1. किस उपनिषद्‌ में ओंकार के चार चरणों का उल्लेख किया गया है? (1) प्रश्नोपनिषद्‌         (2) मुण्डकोपनिषद्‌ (3) माण्डूक्योपनिषद्‌  (4) कठोपनिषद्‌ 2 योग वासिष्ठ में निम्नलिखित में से किस पर बल दिया गया है? (1) ज्ञान योग  (2) मंत्र योग  (3) राजयोग  (4) भक्ति योग 3. पुरुष और प्रकृति निम्नलिखित में से किस दर्शन की दो मुख्य अवधारणाएं हैं ? (1) वेदांत           (2) सांख्य (3) पूर्व मीमांसा (4) वैशेषिक 4. निम्नांकित में से कौन-सी नाड़ी दस मुख्य नाडियों में शामिल नहीं है? (1) अलम्बुषा  (2) कुहू  (3) कूर्म  (4) शंखिनी 5. योगवासिष्ठानुसार निम्नलिखित में से क्या ज्ञानभूमिका के अन्तर्गत नहीं आता है? (1) शुभेच्छा (2) विचारणा (3) सद्भावना (4) तनुमानसा 6. प्रश्नोपनिषद्‌ के अनुसार, मनुष्य को विभिन्न लोकों में ले जाने का कार्य कौन करता है? (1) प्राण वायु (2) उदान वायु (3) व्यान वायु (4) समान वायु

षटकर्मो का अर्थ, उद्देश्य, उपयोगिता

षटकर्मो का अर्थ-  शोधन क्रिया का अर्थ - Meaning of Body cleansing process 'षट्कर्म' शब्द में दो शब्दों का मेल है षट्+कर्म। षट् का अर्थ है छह (6) तथा कर्म का अर्थ है क्रिया। छह क्रियाओं के समुदाय को षट्कर्म कहा जाता है। यें छह क्रियाएँ योग में शरीर शोधन हेतु प्रयोग में लाई जाती है। इसलिए इन्हें षट्कर्म शब्द या शरीर शोधन की छह क्रियाओं के अर्थ में 'शोधनक्रिया' नाम से कहा जाता है । इन षटकर्मो के नाम - धौति, वस्ति, नेति, त्राटक, नौलि व कपालभाति है। जैसे आयुर्वेद में पंचकर्म चिकित्सा को शोधन चिकित्सा के रूप में स्थान प्राप्त है। उसी प्रकार षट्कर्म को योग में शोधनकर्म के रूप में जाना जाता है । प्राकृतिक चिकित्सा में भी पंचतत्वों के माध्यम से शोधन क्रिया ही की जाती है। योगी स्वात्माराम द्वारा कहा गया है- कर्म षटकमिदं गोप्यं घटशोधनकारकम्।  विचित्रगुणसंधायि पूज्यते योगिपुंगवैः।। (हठयोगप्रदीपिका 2/23) शरीर की शुद्धि के पश्चात् ही साधक आन्तरिक मलों की निवृत्ति करने में सफल होता है। प्राणायाम से पूर्व इनकी आवश्यकता इसलिए भी कही गई है कि मल से पूरित नाड़ियों में प्राण संचरण न हो

बंध एवं मुद्रा का अर्थ , परिभाषा, उद्देश्य

  मुद्रा का अर्थ एवं परिभाषा  'मोदन्ते हृष्यन्ति यया सा मुद्रा यन्त्रिता सुवर्णादि धातुमया वा'   अर्थात्‌ जिसके द्वारा सभी व्यक्ति प्रसन्‍न होते हैं वह मुद्रा है जैसे सुवर्णादि बहुमूल्य धातुएं प्राप्त करके व्यक्ति प्रसन्‍नता का अनुभव अवश्य करता है।  'मुद हर्ष' धातु में “रक्‌ प्रत्यय लगाकर मुद्रा शब्दं॑ की निष्पत्ति होती है जिसका अर्थ प्रसन्‍नता देने वाली स्थिति है। धन या रुपये के अर्थ में “मुद्रा' शब्द का प्रयोग भी इसी आशय से किया गया है। कोष में मुद्रा' शब्द के अनेक अर्थ मिलते हैं। जैसे मोहर, छाप, अंगूठी, चिन्ह, पदक, रुपया, रहस्य, अंगों की विशिष्ट स्थिति (हाथ या मुख की मुद्रा)] नृत्य की मुद्रा (स्थिति) आदि।  यौगिक सन्दर्भ में मुद्रा शब्द को 'रहस्य' तथा “अंगों की विशिष्ट स्थिति' के अर्थ में लिया जा सकता है। कुण्डलिनी शक्ति को जागृत करने के लिए जिस विधि का प्रयोग किया जाता है, वह रहस्यमयी ही है। व गोपनीय होने के कारण सार्वजनिक नहीं की जाने वाली विधि है। अतः रहस्य अर्थ उचित है। आसन व प्राणायाम के साथ बंधों का प्रयोग करके विशिष्ट स्थिति में बैठकर 'म

आसन का अर्थ एवं परिभाषायें, आसनो के उद्देश्य

आसन का अर्थ आसन शब्द के अनेक अर्थ है जैसे  बैठने का ढंग, शरीर के अंगों की एक विशेष स्थिति, ठहर जाना, शत्रु के विरुद्ध किसी स्थान पर डटे रहना, हाथी के शरीर का अगला भाग, घोड़े का कन्धा, आसन अर्थात जिसके ऊपर बैठा जाता है। संस्कृत व्याकरंण के अनुसार आसन शब्द अस धातु से बना है जिसके दो अर्थ होते है। 1. बैठने का स्थान : जैसे दरी, मृग छाल, कालीन, चादर  2. शारीरिक स्थिति : अर्थात शरीर के अंगों की स्थिति  आसन की परिभाषा हम जिस स्थिति में रहते है वह आसन उसी नाम से जाना जाता है। जैसे मुर्गे की स्थिति को कुक्कुटासन, मयूर की स्थिति को मयूरासन। आसनों को विभिन्न ग्रन्थों में अलग अलग तरीके से परिभाषित किया है। महर्षि पतंजलि के अनुसार आसन की परिभाषा-   महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र के साधन पाद में आसन को परिभाषित करते हुए कहा है। 'स्थिरसुखमासनम्' योगसूत्र 2/46  अर्थात स्थिरता पूर्वक रहकर जिसमें सुख की अनुभूति हो वह आसन है। उक्त परिभाषा का अगर विवेचन करे तो हम कह सकते है शरीर को बिना हिलाए, डुलाए अथवा चित्त में किसी प्रकार का उद्वेग हुए बिना चिरकाल तक निश्चल होकर एक ही स्थिति में सुखपूर्वक बैठने को

सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति सामान्य परिचय

सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति अध्याय - 2 (पिण्ड विचार) सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार नौ चक्रो के नाम 1. ब्रहमचक्र - मूलाधार मे स्थित है, कामनाओं की पूर्ति होती हैं। 2. स्वाधिष्ठान चक्र - इससे हम चीजो को आकर्षित कर सकते है। 3. नाभी चक्र - सिद्धि की प्राप्ति होती है। 4. अनाहत चक्र - हृदय में स्थित होता है। 5. कण्ठचक्र - विशुद्धि-संकल्प पूर्ति, आवाज मधुर होती है। 6. तालुचक्र -  घटिका में, जिह्वा के मूल भाग में,  लय सिद्धि प्राप्त होती है। 7. भ्रुचक्र -     आज्ञा चक्र - वाणी की सिद्धि प्राप्त होती है। 8. निर्वाणचक्र - ब्रहमरन्ध्र, सहस्त्रार चक्र, मोक्ष प्राप्ति 9. आकाश चक्र - सहस्त्रारचक्र के ऊपर,  भय- द्वेष की समाप्ति होती है। सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार सोहल आधार (1) पादांगुष्ठ (2) मूलाधार (3) गुदाद्वार (4) मेद् आधार (5) उड्डियान आधार (6) नाभी आधार (7) हृदयाधार (8) कण्ठाधार (9) घटिकाधार (10) तालु आधार (11) जिह्वा आधार सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार तीन लक्ष्य (Aim) 1. अन्तर लक्ष्य (Internal) - मेद्‌ - लिंग से उपर  एवं नाभी से नीचे के हिस्से पर अन्दर ध्यान लगाना। 2. बर्हि: लक्ष्य (Oute