Skip to main content

सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति सामान्य परिचय

प्रथम उपदेश- पिण्ड उत्पति विचार

सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति अध्याय - 2 (पिण्ड विचार)

सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार नौ चक्रो के नाम

1. ब्रहमचक्र - मूलाधार मे स्थित है, कामनाओं की पूर्ति होती हैं।
2. स्वाधिष्ठान चक्र - इससे हम चीजो को आकर्षित कर सकते है।
3. नाभी चक्र - सिद्धि की प्राप्ति होती है।
4. अनाहत चक्र - हृदय में स्थित होता है।
5. कण्ठचक्र - विशुद्धि-संकल्प पूर्ति, आवाज मधुर होती है।
6. तालुचक्र -  घटिका में, जिह्वा के मूल भाग में,  लय सिद्धि प्राप्त होती है।
7. भ्रुचक्र -    आज्ञा चक्र - वाणी की सिद्धि प्राप्त होती है।
8. निर्वाणचक्र - ब्रहमरन्ध्र, सहस्त्रार चक्र, मोक्ष प्राप्ति
9. आकाश चक्र - सहस्त्रारचक्र के ऊपर,  भय- द्वेष की समाप्ति होती है।

सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार सोहल आधार
(1) पादांगुष्ठ आधार (2) मूलाधार (3) गुदाद्वार आधार (4) मेद् आधार (5) उड्डियान आधार (6) नाभी आधार (7) हृदयाधार (8) कण्ठाधार (9) घटिकाधार (10) तालु आधार (11) जिह्वा आधार (12) भ्रूमध्य आधार (13) नासिका आधार (14) नासामूल कपाट आधार (15) ललाट आधार (16) ब्रहमरंध्र आधार

सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार तीन लक्ष्य (Aim)
1. अन्तर लक्ष्य (Internal) - मेद्‌ - लिंग से उपर  एवं नाभी से नीचे के हिस्से पर अन्दर ध्यान लगाना।
2. बर्हि: लक्ष्य (Outer) - नासिका के अग्र भाग पर ध्यान लगाना |
3. मध्यम लक्ष्य (Middle) - रंगीन गोले, पते, पंखुडी आदि पर ध्यान लगाना।
 सबसे अच्छा अन्तर लक्ष्य (Internal) है।

व्योम पंचक (पाँच आकाश) - 1. आकाश, 2. पराकाश, 3. महाकाश, 4. तत्वाकाश, 5. सूर्याकाश

सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार अष्टांग योग
1. यम - इन्द्रियो को वश में करना, विषयो से हटाना, शान्ति बनाये रखना ही यम है।
2. नियम- मन के विचारो को नियन्त्रित करना।
3. आसन - स्वयं एवं परमात्मा में लीन होना। तीन आसनों की चर्चा की है। (i) स्वासतिकासन (ii) पद्मासन (iii) सिद्धासन
4. प्राणायाम- नाडियों में प्राण के प्रवाह को स्थिर करना ही प्राणायाम है। प्राणायाम के चार प्रकार बताये है। (i) पूरक (ii) रेचक (iii) कुम्भक (iv) संगठन।
5. प्रत्याहार -  इन्द्रियों का अर्न्तमुखी करना।
6. धारणा - अन्दर आत्मा, बाहर परमात्मा या बाहर आत्मा, अन्दर परमात्मा दोनो को एक मानना ऐसी भावना धारणा है।
7. ध्यान - समस्त भूतों प्राणियों में समता की दृष्टि बनाये रखना ही ध्यान कहा है।
8. समाधि - सहज, निरूद्ध तटस्थ योग की अवस्था ही समाधि है।

अध्याय - 3 (पिण्ड ज्ञान)

सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार सात पाताल के नाम - (1) पाताल (2) तलाताल (3) महाताल (4) रसाताल (5) सातुल (6) वितल (7) अतल

व्यष्टि पिण्ड
सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार सात द्वीप के नाम- (1) जम्बू द्वीप (2) शक्ति ह्वीप (३) सूक्ष्म द्वीप (4) क्रौच द्वीप (5) गोमय द्वीप (6) श्वेत द्वीप (7) प्लक्ष द्वीप

सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार सात समुंद्र के नाम- (1) क्षार (मूत्र) (2) क्षीर (लार) (3) दधि (कफ) (4) घृत (मेद) (5) मधु (वसा) (6) इक्षु (रक्त) (7) अमृत (वीर्य)

ब्रह्माण- 21
वर्ण - 4
रशियाँ -12
ग्रह - 9
तिथियों - 15
नक्षत्र - 27
गुरू गोरक्षनाथ जी ने सिद्धसिद्धांतपद्धति में 72000 नाडियाँ मानी है।
सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार आठ कुल पर्वत
1. सुमेरू पर्वत - मेरूदण्ड में होता है। 2. कैलाश पर्वत -  मस्तिष्क में।  3. हिमालय पर्वत - पृष्ठभाग, कंधे के पीछे का भाग में। 4. मलय पर्वत -  बांये कंधे में।  5. मन्दार पर्वत - दांये कंधे में।  6. विन्धायांचल पर्वत - दांये कान में। 7. मैनाक पर्वत - बांये कान में। 8. श्री शैल पर्वत - (ललाट) माथे में।

सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार नौ नदियाँ
(1) गंगा (2) यमुना (3) सरस्वती (4) पीनसा (8) चन्द्रभागा (8) पिपासा (विपाशा) (7) शतरुद्रा (8) श्री रात्रि (9) श्री नर्मदा

सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार नौ खण्ड
1. भारत खण्ड - गुदा प्रदेश में। 2. कश्मीर खण्ड - लिंग प्रदेश मे। 3. कर्पर खण्ड - मूँह में। 4. श्री खण्ड -  नासिका दांया छिद्र । 5. शंख खण्ड - नासिका बांया छिद्र। 6. एकपाद खण्ड - बांये (वाम) नेत्र में। 7. गांधार खण्ड - दांये (दक्षिण) नेत्र मेँ। 8. कैवर्त खण्ड - बांये कान में। 9. महामेक खण्ड - दायें कान में।

अध्याय -4 (पिण्ड धारा )


कुल शक्तियाँ -  1. परा  2. सता 3. अहन्ता  4. स्फुरता  5. कला
अकुल शक्तियाँ- 1. जाति  2. वर्ण 3. गोत्रादि

सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार कुण्डलिनी के दो प्रकार है - (1) प्रबुध - जाग्रत रूप में स्थूल (2) अप्रबुध - सोयी हुई सूक्ष्म

सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार कुण्डलिनी के तीन भेद है- (1) ज्ञानप्रसार भूमि (2) मध्यशक्ति 8) स्थूल व सूक्ष्म

अध्याय 5 - पिण्डों में एकता

योगी की वेशभूषा- जटायें लम्बी होनी चाहिये। मस्तक पर तिलक होना चाहिये। कानों में छिद्र , गुरूवा वस्त्र धारण करना, दण्ड रखना, कमण्डल रखना, खडाऊ पहनना, भभूत लगाना।

सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार दस वायु -  (पाँच मुख्य प्राण तथा पांच उपप्राण)
पाँच प्राण
1. प्राणवायु- हृदय प्रदेश। 2. अपानवायु- नाभी से नीचे का प्रदेश। 3. समानवायु- नाभी प्रदेश। 4. उदानवायु- कंठ से ऊपर का प्रदेश। 5. व्यानवायु- सम्पूर्ण शरीर

पांच उपप्राण
1. नाग- डकार। 2. कूर्म- पलक झपकाना। 3. कृकल-  भूख व प्यास। 4. देवद्त- जमंभाई। 5. धनंजय- मरने के बाद भी शरीर में रहता है

सन्तों के पाँच देवता-  1. ब्रहमा 2. विष्णु 3. रूद्र 4, ईश्वर 5. सदाशिव 

योगी का कर्तव्य- योग मार्ग पर अग्रसर होकर परमात्मा का चिन्तन करें।
गुरू का अर्थ- अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला।
सिद्ध-सिद्धांत पद्धति के अनुसार योग का अर्थ- मिलना, मिलाना, एकाकार होना।
योग सिद्धि प्राप्त होती है- 12 साल में।
गुरूकुल की संतान-  (1) आईनाथ (2) विलेश्वर गुरू (3) विभूति संतान (4) नाथ परम्परा (5) योगेश्वर नाथ
योग की पाँच अवस्थाऐं - (1) स्थूल (2) सूक्ष्म (3) कारण (4) तुरया (5) तुरयातीत

अध्याय- 6 अवधूत योगी

जो प्रकृति के सभी विकार (देह, इन्द्रिय, मन, अनात्म) को हटा दें और परम शिव में लीन कर दें।
अवधूत योगी के गुण- पंच क्लेश (अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष व अभिनिवेश) से पूर्णत मुक्त। तीनों अवस्थाओं (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति) से मुक्त।

सिद्ध सिद्धांत पद्धति - प्रथम उपदेश- पिण्ड उत्पति विचार



Comments

Popular posts from this blog

हठयोगप्रदीपिका में वर्णित मुद्रायें, बंध

  हठयोगप्रदीपिका में वर्णित मुद्रायें, बंध हठयोग प्रदीपिका में मुद्राओं का वर्णन करते हुए स्वामी स्वात्माराम जी ने कहा है महामुद्रा महाबन्धों महावेधश्च खेचरी।  उड़्डीयानं मूलबन्धस्ततो जालंधराभिध:। (हठयोगप्रदीपिका- 3/6 ) करणी विपरीताख्या बज़्रोली शक्तिचालनम्।  इदं हि मुद्रादश्क जरामरणनाशनम्।।  (हठयोगप्रदीपिका- 3/7) अर्थात महामुद्रा, महाबंध, महावेध, खेचरी, उड्डीयानबन्ध, मूलबन्ध, जालन्धरबन्ध, विपरीतकरणी, वज़्रोली और शक्तिचालनी ये दस मुद्रायें हैं। जो जरा (वृद्धा अवस्था) मरण (मृत्यु) का नाश करने वाली है। इनका वर्णन निम्न प्रकार है।  1. महामुद्रा- महामुद्रा का वर्णन करते हुए हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है- पादमूलेन वामेन योनिं सम्पीड्य दक्षिणम्।  प्रसारितं पद कृत्या कराभ्यां धारयेदृढम्।।  कंठे बंधं समारोप्य धारयेद्वायुमूर्ध्वतः।  यथा दण्डहतः सर्पों दंडाकारः प्रजायते  ऋज्वीभूता तथा शक्ति: कुण्डली सहसा भवेतत् ।।  (हठयोगप्रदीपिका- 3/9,10)  अर्थात् बायें पैर को एड़ी को गुदा और उपस्थ के मध्य सीवन पर दृढ़ता से लगाकर दाहिने पैर को फैला कर रखें...

योगसूत्र के अनुसार ईश्वर का स्वरूप

 ईश्वर-  ईश्वर के बारे में कहा है- “ईश्वरः ईशनशील इच्छामात्रेण सकलजगदुद्धरणक्षम:। अर्थात जो सब कुछ अर्थात समस्त जगत को केवल इच्छा मात्र से ही उत्पन्न और नष्ट करने में सक्षम है, वह ईश्वर है। ईश्वर के सम्बन्ध में अनेक विद्वानों के अनेक मत हैं परन्तु आधार सभी का लगभग एक ही है। इसी श्रृंखला में यदि अध्ययन किया जाए तो शंकराचार्य , रामानुजाचार्य , मध्वाचार्य , निम्बार्काचार्य , वल्लभाचार्य तथा महर्षि दयानन्द के विचार विशिष्ट प्रतीत होते हैं।  विविध विद्वानों के अनुसार ईश्वर- क. शंकराचार्य जी-  आचार्य शंकर के मतानुसार ब्रह्म अंतिम सत्य है। परमार्थ और व्यवहार रूप में भेद है। परमार्थ रुप से ब्रह्म निर्गुण, निर्विशेष, निश्चल, नित्य, निर्विकार, असंग, अखण्ड, सजातीय -विजातीय -स्वगत भेद से रहित, कूटस्थ, एक, शुद्ध, चेतन, नित्यमुक्त, स्वयम्भू हैं। उपनिषद में भी ऐसा ही कहा गया है । श्रुतियों से ब्रह्म के निर्गुणत्व, निर्विशेषत्व तथा चैतन्य स्वरूप का प्रमाण मिलता है। माया के कारण भी ब्रह्म में द्वैत नहीं आता क्योंकि यह माया सत् और असत् से विलक्षण वस्तु है। ब्रह्म ही जगत का उपादान व न...

"चक्र " - मानव शरीर में वर्णित शक्ति केन्द्र

7 Chakras in Human Body हमारे शरीर में प्राण ऊर्जा का सूक्ष्म प्रवाह प्रत्येक नाड़ी के एक निश्चित मार्ग द्वारा होता है। और एक विशिष्ट बिन्दु पर इसका संगम होता है। यह बिन्दु प्राण अथवा आत्मिक शक्ति का केन्द्र होते है। योग में इन्हें चक्र कहा जाता है। चक्र हमारे शरीर में ऊर्जा के परिपथ का निर्माण करते हैं। यह परिपथ मेरूदण्ड में होता है। चक्र उच्च तलों से ऊर्जा को ग्रहण करते है तथा उसका वितरण मन और शरीर को करते है। 'चक्र' शब्द का अर्थ-  'चक्र' का शाब्दिक अर्थ पहिया या वृत्त माना जाता है। किन्तु इस संस्कृत शब्द का यौगिक दृष्टि से अर्थ चक्रवात या भँवर से है। चक्र अतीन्द्रिय शक्ति केन्द्रों की ऐसी विशेष तरंगे हैं, जो वृत्ताकार रूप में गतिमान रहती हैं। इन तरंगों को अनुभव किया जा सकता है। हर चक्र की अपनी अलग तरंग होती है। अलग अलग चक्र की तरंगगति के अनुसार अलग अलग रंग को घूर्णनशील प्रकाश के रूप में इन्हें देखा जाता है। योगियों ने गहन ध्यान की स्थिति में चक्रों को विभिन्न दलों व रंगों वाले कमल पुष्प के रूप में देखा। इसीलिए योगशास्त्र में इन चक्रों को 'शरीर का कमल पुष्प” कहा ग...

चित्त प्रसादन के उपाय

महर्षि पतंजलि ने बताया है कि मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा इन चार प्रकार की भावनाओं से भी चित्त शुद्ध होता है। और साधक वृत्तिनिरोध मे समर्थ होता है 'मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम्' (योगसूत्र 1/33) सुसम्पन्न व्यक्तियों में मित्रता की भावना करनी चाहिए, दुःखी जनों पर दया की भावना करनी चाहिए। पुण्यात्मा पुरुषों में प्रसन्नता की भावना करनी चाहिए तथा पाप कर्म करने के स्वभाव वाले पुरुषों में उदासीनता का भाव रखे। इन भावनाओं से चित्त शुद्ध होता है। शुद्ध चित्त शीघ्र ही एकाग्रता को प्राप्त होता है। संसार में सुखी, दुःखी, पुण्यात्मा और पापी आदि सभी प्रकार के व्यक्ति होते हैं। ऐसे व्यक्तियों के प्रति साधारण जन में अपने विचारों के अनुसार राग. द्वेष आदि उत्पन्न होना स्वाभाविक है। किसी व्यक्ति को सुखी देखकर दूसरे अनुकूल व्यक्ति का उसमें राग उत्पन्न हो जाता है, प्रतिकूल व्यक्ति को द्वेष व ईर्ष्या आदि। किसी पुण्यात्मा के प्रतिष्ठित जीवन को देखकर अन्य जन के चित्त में ईर्ष्या आदि का भाव उत्पन्न हो जाता है। उसकी प्रतिष्ठा व आदर को देखकर दूसरे अनेक...

चित्त विक्षेप | योगान्तराय

चित्त विक्षेपों को ही योगान्तराय ' कहते है जो चित्त को विक्षिप्त करके उसकी एकाग्रता को नष्ट कर देते हैं उन्हें योगान्तराय अथवा योग के विध्न कहा जाता।  'योगस्य अन्तः मध्ये आयान्ति ते अन्तरायाः'।  ये योग के मध्य में आते हैं इसलिये इन्हें योगान्तराय कहा जाता है। विघ्नों से व्यथित होकर योग साधक साधना को बीच में ही छोड़कर चल देते हैं। विध्न आयें ही नहीं अथवा यदि आ जायें तो उनको सहने की शक्ति चित्त में आ जाये, ऐसी दया ईश्वर ही कर सकता है। यह तो सम्भव नहीं कि विध्न न आयें। “श्रेयांसि बहुविध्नानि' शुभकार्यों में विध्न आया ही करते हैं। उनसे टकराने का साहस योगसाधक में होना चाहिए। ईश्वर की अनुकम्पा से यह सम्भव होता है।  व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तिदर्शनालब्धभूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाः (योगसूत्र - 1/30) योगसूत्र के अनुसार चित्त विक्षेपों  या अन्तरायों की संख्या नौ हैं- व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरति, भ्रान्तिदर्शन, अलब्धभूमिकत्व और अनवस्थितत्व। उक्त नौ अन्तराय ही चित्त को विक्षिप्त करते हैं। अतः ये योगविरोधी हैं इन्हें योग के मल...

योगवशिष्ठ ग्रन्थ का सामान्य परिचय

मुख्य विषय- 1. मनोदैहिक विकार, 2. मोक्ष के चार द्वारपाल, 3. ज्ञान की सप्तभूमि, 4. ध्यान के आठ अंग, 5. योग मार्ग के विघ्न, 6. शुक्रदेव जी की मोक्ष अवधारणा  1. योग वशिष्ठ के अनुसार मनोदैहिक विकार- मन के दूषित होने पर 'प्राणमय कोष' दूषित होता हैं, 'प्राणमय' के दूषित होने से 'अन्नमय कोष' अर्थात 'शरीर' दूषित होता है, इसे ही मनोदैहिक विकार कहते हैं:- मन -> प्राण -> अन्नमय (शरीर) योग वशिष्ठ के अनुसार आधि- व्याधि की अवधारणा- Concept of Adhis and Vyadhis आधि- अर्थात- मानसिक रोग > मनोदैहिक विकार > व्याधि- अर्थात- शारीरिक रोग आधि एवं व्याधि का संबंध पंचकोषों से है: आधि- (Adhis) 1. आनंदमय कोष:- इस कोष में स्वास्थ्य की कोई हानि नहीं होती इसमें वात, पित व कफ की समरूपता रहती है। 2. विज्ञानमय कोष:- इस कोष में कुछ दोषों की सूक्ष्म प्रक्रिया प्रारंभ होती है। इसमें अभी रोग नहीं बन पाते क्योंकि इसमें दोषों की प्रक्रिया ठीक दिशा में नहीं हो पाती। 3. मनोमय कोष:- इस कोष में वात, पित व कफ की असम स्थिति शुरू होती है यहीं पर 'आधि' की शुरुआत होती है। (आधि= मान...

Yoga MCQ Questions Answers in Hindi

 Yoga multiple choice questions in Hindi for UGC NET JRF Yoga, QCI Yoga, YCB Exam नोट :- इस प्रश्नपत्र में (25) बहुसंकल्पीय प्रश्न है। प्रत्येक प्रश्न के दो (2) अंक है। सभी प्रश्न अनिवार्य ।   1. किस उपनिषद्‌ में ओंकार के चार चरणों का उल्लेख किया गया है? (1) प्रश्नोपनिषद्‌         (2) मुण्डकोपनिषद्‌ (3) माण्डूक्योपनिषद्‌  (4) कठोपनिषद्‌ 2 योग वासिष्ठ में निम्नलिखित में से किस पर बल दिया गया है? (1) ज्ञान योग  (2) मंत्र योग  (3) राजयोग  (4) भक्ति योग 3. पुरुष और प्रकृति निम्नलिखित में से किस दर्शन की दो मुख्य अवधारणाएं हैं ? (1) वेदांत           (2) सांख्य (3) पूर्व मीमांसा (4) वैशेषिक 4. निम्नांकित में से कौन-सी नाड़ी दस मुख्य नाडियों में शामिल नहीं है? (1) अलम्बुषा  (2) कुहू  (3) कूर्म  (4) शंखिनी 5. योगवासिष्ठानुसार निम्नलिखित में से क्या ज्ञानभूमिका के अन्तर्गत नहीं आता है? (1) शुभेच्छा (2) विचारणा (3) सद्भावना (4) तनुमानसा 6. प्रश्नो...

हठयोग प्रदीपिका के अनुसार षट्कर्म

हठप्रदीपिका के अनुसार षट्कर्म हठयोगप्रदीपिका हठयोग के महत्वपूर्ण ग्रन्थों में से एक हैं। इस ग्रन्थ के रचयिता योगी स्वात्माराम जी हैं। हठयोग प्रदीपिका के द्वितीय अध्याय में षटकर्मों का वर्णन किया गया है। षटकर्मों का वर्णन करते हुए स्वामी स्वात्माराम  जी कहते हैं - धौतिर्बस्तिस्तथा नेतिस्त्राटकं नौलिकं तथा।  कपालभातिश्चैतानि षट्कर्माणि प्रचक्षते।। (हठयोग प्रदीपिका-2/22) अर्थात- धौति, बस्ति, नेति, त्राटक, नौलि और कपालभोंति ये छ: कर्म हैं। बुद्धिमान योगियों ने इन छः कर्मों को योगमार्ग में करने का निर्देश किया है। इन छह कर्मों के अतिरिक्त गजकरणी का भी हठयोगप्रदीपिका में वर्णन किया गया है। वैसे गजकरणी धौतिकर्म के अन्तर्गत ही आ जाती है। इनका वर्णन निम्नलिखित है 1. धौति-  धौँति क्रिया की विधि और  इसके लाभ एवं सावधानी- धौँतिकर्म के अन्तर्गत हठयोग प्रदीपिका में केवल वस्त्र धौति का ही वर्णन किया गया है। धौति क्रिया का वर्णन करते हुए योगी स्वात्माराम जी कहते हैं- चतुरंगुल विस्तारं हस्तपंचदशायतम। . गुरूपदिष्टमार्गेण सिक्तं वस्त्रं शनैर्गसेत्।।  पुनः प्रत्याहरेच्चैतदुदितं ध...

सांख्य दर्शन परिचय, सांख्य दर्शन में वर्णित 25 तत्व

सांख्य दर्शन के प्रणेता महर्षि कपिल है यहाँ पर सांख्य शब्द का अर्थ ज्ञान के अर्थ में लिया गया सांख्य दर्शन में प्रकृति पुरूष सृष्टि क्रम बन्धनों व मोक्ष कार्य - कारण सिद्धान्त का सविस्तार वर्णन किया गया है इसका संक्षेप में वर्णन इस प्रकार है। 1. प्रकृति-  सांख्य दर्शन में प्रकृति को त्रिगुण अर्थात सत्व, रज, तम तीन गुणों के सम्मिलित रूप को त्रिगुण की संज्ञा दी गयी है। सांख्य दर्शन में इन तीन गुणो कों सूक्ष्म तथा अतेनद्रिय माना गया सत्व गुणो का कार्य सुख रजोगुण का कार्य लोभ बताया गया सत्व गुण स्वच्छता एवं ज्ञान का प्रतीक है यह गुण उर्ध्वगमन करने वाला है। इसकी प्रबलता से पुरूष में सरलता प्रीति,अदा,सन्तोष एवं विवेक के सुखद भावो की उत्पत्ति होती है।    रजोगुण दुःख अथवा अशान्ति का प्रतीक है इसकी प्रबलता से पुरूष में मान, मद, वेष तथा क्रोध भाव उत्पन्न होते है।    तमोगुण दुख एवं अशान्ति का प्रतीक है यह गुण अधोगमन करने वाला है तथा इसकी प्रबलता से मोह की उत्पत्ति होती है इस मोह से पुरूष में निद्रा, प्रसाद, आलस्य, मुर्छा, अकर्मण्यता अथवा उदासीनता के भाव उत्पन्न होते है सा...