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ज्ञानयोग - ज्ञानयोग के साधन - बहिरंग साधन , अन्तरंग साधन

 ज्ञान व विज्ञान की धारायें वेदों में व्याप्त है । वेद का अर्थ ज्ञान के रूप मे लेते है ‘ज्ञान’ अर्थात जिससे व्यष्टि व समष्टि के वास्तविक स्वरूप का बोध होता है। ज्ञान, विद् धातु से व्युत्पन्न शब्द है जिसका अर्थ किसी भी विषय, पदार्थ आदि को जानना या अनुभव करना होता है। ज्ञान की विशेषता व महत्त्व के विषय में बतलाते हुए कहा गया है

"ज्ञानाग्नि सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा"
अर्थात जिस प्रकार प्रज्वलित अग्नि ईंधन को जलाकर भस्म कर देती है उसी प्रकार ज्ञान रुपी अग्नि कर्म रूपी ईंधन को भस्म कर देती है। ज्ञानयोग साधना पद्धति, ज्ञान पर आधारित होती है इसीलिए इसको ज्ञानयोग की संज्ञा दी गयी है। ज्ञानयोग पद्धति मे योग का बौद्धिक और दार्शनिक पक्ष समाहित होता है।
ज्ञानयोग 'ब्रहासत्यं जगतमिथ्या' के सिद्धान्त के आधार पर संसार में रह कर भी अपने ब्रह्मभाव को जानने का प्रयास करने की विधि है। जब साधक स्वयं को ईश्वर (ब्रहा) के रूप ने जान लेता है 'अहं ब्रह्मास्मि’ का बोध होते ही वह बंधनमुक्त हो जाता है। उपनिषद मुख्यतया इसी ज्ञान का स्रोत हैं। ज्ञानयोग साधना में अभीष्ट लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए सर्वप्रथम शरीर व मन को महत्व दिया गया है। ज्ञान योग के दो महत्वपूर्ण साधन है। ज्ञानयोग के साधनो को स्वामी विज्ञानानन्द सरस्वती न इस प्रकार बताया है।

ज्ञान योग- 1. बहिरंग साधन  2. अन्तरंग साधन

1. बहिरंग साधन- बहिरंग का अर्थ है बाहर के या प्रारम्भिक। ज्ञानयोग के निम्न 4 प्रारंभिक साधन बताये है। विवेक, वैराग्य, षटसम्पति तथा मुमुक्षुत्व

(क) विवेकः नित्य और अनित्य का ज्ञान ही विवेक है साधक यदि विवेकानुसार कार्य करता है तो समझ लेना चाहिए कि उसे ज्ञान की प्राप्ति हो गई है। व्यक्ति अज्ञान के कारण ही अनित्य कर्म करता है और इसी कारण उसे जन्म जन्मान्तरों तक उसके फलों का भोग करना पडता है। आचार्य रामानुजाचार्य खाद्य तथा अखाद्य पदार्थ के विवेक पर बल देते हैं। भोजन के दोषो को मध्यनजर रखते हुए ही खाद्य पदार्थों का सेवन करना चाहिए तभी व्यक्ति अपने अभिष्ठ की प्राप्ति कर सकता है। स्मरण रखने योग्य बात है कि तामसिक वस्तुओं का सेवन शरीर व मन दोनो के लिए अच्छा नहीं है। आध्यात्मिक तथा यौगिक दृष्टि के अनुसार भी नित्य व अनित्य का ज्ञान विवेक है। नित्य वस्तु एकमात्र ब्रह्म है, ब्रह्मा के अलावा समस्त संसार झूठा है। कहा भी गया है कि- 'ब्रहासत्यं जगतमिथ्या'

(ख) वैराग्य: भारतीय चिन्तन में वैराग्य एक जाना पहचाना शब्द है। जिस व्यक्ति को कोई राग नहीं वह वैराग्य है। चाह व्यक्ति को दो प्रकार की हो सकती है-
1. इस संसार के ऐश्वर्या की  2. स्वर्णीय सुख भोगने की

असली वैराग्य वह है जो इऩ दोनो इच्छाओं से परे हो। अर्थात इस लोक और स्वर्ग आदि लोकों के भोगो की इच्छा का परित्याग कर देना वैराग्य है।

(ग) षटसम्पति- षट का अर्थ है छ: और सम्पति का अर्थ है साधन ये इस प्रकार है। 1-शम 2- दम 3- उपरति 4- तितिक्षा 5- श्रद्धा 6- समाधान

1. शमः शम का अर्थ है इन्दियों का निग्रह कर लेना। मनुष्य की 11 इन्द्रियॉ मानी जाती है जिसमे 5 ज्ञानेन्द्रिय 5 कर्मेन्द्रिय और एक मन। वैसे शम का अर्थ इन्द्रिय के निग्रह के रुप में लेते है परन्तु मऩ एक ऐसी इन्द्रिय है जो स्वभाव से बडी चंचल है वायु से भी तेज गति से चलने वाली इस इन्द्रिय पर नियन्त्रण करना मुश्किल जरूर पर असम्भव नहीं हैं। कहा गया है। 

शमो नाम अन्तरिन्द्रिनिग्रह: अन्तरिन्द्रिय नाम मन: तस्य निग्रह: ।।
इसलिए शम का तात्पर्य है इस अन्तरिन्द्रिय मन का निग्रह कर लेना।
भगवत् गीता मे कहा है-
असंशयं महाबाहो मनोदुर्निग्रहं चलम्। 

अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येन च गृह्यते।।
अर्थात है महाबाहो अर्जुन निश्चय ही यह मन बडा चंचल है परन्तु अभ्यास और वैराग्य द्वारा इसे वश मे किया जाता है। योगसूत्र में भी चित्त की वृत्तियों के निरोध के लिए अभ्यास व वैराग्य नामक दो साधनायें बताई गयी है।

2. दम: दम का अर्थ है दमन करना 10 इन्द्रियो को उनके विषयों से अलग करने की विद्या दम है। जिस प्रकार एक घुडसवार लगाम खींचकर घोडे पर काबू कर लेता है तथा अपने अनुसार उसे मार्ग पर ले जाता हैँ ठीक उसी प्रकार जब हमारी इन्द्रियॉ इधर उधर भटके तो दम रूपी लगाम से इसको विषयों से अलग करें। मन को इसी प्रकार ब्रहमचिन्तन मे लगाये रखने की विद्या का नाम दम है।

3. उपरतिः किसी वस्तु की प्राप्ति हो जाने पर उदासीन भाव धारण करना उपरति है। संसार की विषय वस्तुओं के प्रति कोई आसक्ति नहीं रखना उपरति है। जगत की वस्तुओं के प्रति राग रहित होकर अपने-अपने धर्म में तत्पर रहना ही उपरति कहलाता है

4. तितिक्षाः तितिक्षा का शाब्दिक अर्थ है सहनशीलता ससस्तं दृन्दों को सहन करते हुए अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए साधना में निरन्तर लगे रहना तितिक्षा है। लाभ हानि, जय पराजय, सुख दुःख, शीत उष्ण आदि दृन्दों को सामान्य रूप से सहन कर लेना तितिक्षा है। जब साधक कोई तप करता है तो जरूरी है कि वे सारे दृब्दों को सहन करे कहा भी गया है- तपो द्वन्द्ध सहनम्
अर्थात् द्वन्द (सर्दी गर्मी, भूख प्यास) को सहन कर लेना तप है। महर्षि पतंजलि ने साधनपाद मे कहा है।
कायेन्द्रियशिद्धिरशुद्धिक्षयात्तपस: योगसूत्र
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अर्थात तप करने से जब अशुद्धि का क्षय हो जाता हैं तब शरीर तथा इन्द्रियों की सिद्धि हो जाती है और यह सब तितिक्षा से ही सम्भव है। 

5. श्रद्धाः प्राचीन आर्ष ग्रन्थो (वेदो. उपनिषदो. पुराणों, स्मृतियों, आरण्यको, गीता, योगसूत्र) तथा गुरू वाक्यो में दृढ़ निष्ठा एवं अटल विश्वास का नाम श्रद्धा है। श्रद्धा का दूसरा नाम आस्था भी है। जो व्यक्ति श्रद्धा रहित होता है उसे ब्रहमज्ञान की प्राप्ति कदापि नहीं हो सकती। कहा गया है 'संशयात्मा विनश्यति' अर्थात जो संशयआत्मा है उसका विनाश होता है। अत: योगी को संशय रहित होना चाहिए। महर्षि पतंजलि ने चित्त विक्षेपो मे संशय को विघ्न माना है। अत: गुरूवाक्यो और प्राचीन आर्ष ग्रन्थों की वैज्ञानिकता तथा दार्शनिकता पर संशय न करते हुए श्रद्धा रखना आत्म कल्याण के लिए आवश्यक है। गीता में योगेश्वर भगवान श्री कृष्ण कहते है- श्रद्धावान् लभते ज्ञानम् 

6. समाधानः चित्त की एकाग्रता समाधान है चित्त स्वभाव से चंचल है क्योकि चित्त मे वृत्तियाँ विक्षेप हमेशा विद्धमान रहता है। यौगिक अभ्यासों (जिसमे महर्षि पतंजलि ने आभ्यास वैराग्य, चित्त प्रसादन के उयाय बताये है) के द्वारा चित्त को एकाग्र करें तथा चित्त को ब्रहम में स्थिर किये रखना ही समाधान है।

(घ) मुमुक्षत्वः मोक्ष प्राप्ति की इच्छा रखना मुमुक्षत्व कहलाता है। इस संसार में सभी वस्तुएँ अनित्य है तथा संसार की प्रत्येक वस्तु में दुःख भरा पडा है। समस्त भौतिक पदार्थो से विरक्त रहकर मोक्ष प्राप्ति की इच्छा रखना मुमुक्षत्व है।       

 

2. अन्तरंग साधन- अन्तरण साधना के निम्न तीन भेद है जो इस प्रकार है। श्रवण, मनन, निदिध्यासन

(क) श्रवणः अर्थात सुनना। वेदवाक्यो को सुनना। संशयरहित होकर गुरूमुख से प्राचीन आर्ष ग्रन्थों में वर्णित साधनाओं तथा ब्रहमज्ञान को सुनना श्रवण कहलाता है। 

(ख) मननः श्रवण की गईं बातों को बारम्बार मन में लाना मनन कहलाता है। गुरू के मुख से कैवल्य विषयक सुने गये विषय को अन्तःकरण में बैठाकर बार बार चिन्तन करना मनन कहलाता है।   

(ग) निदिध्यासन-  निदिध्यासन का अर्थ है अनुभूति करना या आत्मसाक्षात्कार करना। वेदान्त दर्शन में निदिध्यासन को योग माना गया है। स्वामी विज्ञानानन्द सरस्वती द्वारा वर्णित पुस्तक योग विज्ञान में निदिध्यासन के निम्न 15 अंग बताये गये है- 1.यम 2.नियम 3.त्याग 4.मौन 5.देश 6.काल 7.आसन 8.मूलबन्ध 9.देह स्थिति 10.दृक शक्ति 11.प्राणायाम 12.प्रत्याहार 13.धारना 14.ध्यान 15.समाधि

1. यमः- इन्द्रियों को वश में कर यह अनुभव करना कि यह सब ब्रहम है यम कहलाता है।

2. नियमः- सजातीय वृति का प्रवाह और विजातीय वृति का तिरस्कार यही परमानन्द रुप नियम है।

3. त्यागः- समस्त संसार को झूठ मानते हुए यह समझा जाय कि ब्रहम ही सत्य है। इस प्रकार का ज्ञान करने से जगतरूप प्रपंच का त्याग हो जाता है। यही त्याग है।

4. मौनः-
जिसे न पाकर मन सहित वाणी आदि इन्द्रियाँ लौट आती हो और तुष्णीभूत हो जाती हो वही योगियों का मौन है।

5. देशः- अन्तःकरण के अन्दर एक एकान्त क्षेत्र (देश) मे मन को लगाना ।

6. कालः- अखण्ड स्वरूप अद्वितीय ब्रहम मे नित्य बुद्धि रखना काल है ।

7. आसनः- जिस अवस्था में बैठकर ब्रहम का चिन्तन किया जाये तो उसे आसन समझना चाहिए। चार महत्वपूर्ण ध्यान के आसन है सिंहासन, पद्मासन, स्वस्तिकासन, सुखासन

8. मूलबन्धः- जो समस्त भूतों का मूल है उसमे जब चित्त को बाँध दिया जाता है तो यही मूलबन्ध कहलाता है। स्मरण रहे कि हठयोग में मूलबन्ध अलग बताया गया है।

9. देह स्थितिः- जब मन ब्रहम मे एकाग्र हो जाता है तो उस समय शरीर के अंगो की स्थिति निश्चल हो जाती है और यही देह स्थिति का अभिप्राय है।

10. दृक स्थितिः- दृष्टि को ज्ञानमयी बना करके जगत को ब्रहममय देखे तो यही दृक स्थिति कहलाती है।

11. प्राणायामः- श्वास भरते हुए अनुभव करे कि मै ही ब्रह्म हूँ। जिसे पूरक कहते है! उस वृति की निश्चल स्थिति का नाम कुम्भक प्राणायाम है और जगत रुप प्रपंच का निषेध यानि अभाव वृत्ति का नाम रेचक प्राणायाम है। इसे ही ज्ञानयोगी प्राणायाम कहते है।

12. प्रत्याहारः- प्रत्याहार का सामान्य अर्थ इन्द्रिय संयम है। बहिर्मुखी इन्द्रियों को विषयो से हटा कर अन्तर्मुखी बना लेना प्रत्याहार है।

13. धारणाः- किसी देश विशेष में चित्त को बाँध लेना धारणा है। जहाँ भी मन चला जाये वहॉ पर ब्रहम दृष्टि करके मन को लगा देना धारणा है। 

14. ध्यानः- धारणा की उच्च अवस्था ध्यान है। निश्चय ही में सच्चिदानन्द स्वरूप ब्रहम से अभिन्न हूँ, इस सद्-वृत्ति को रखना ध्यान है।

15. समाधिः- ध्यान की परिपक्व अवस्था समाधि है। समाधि की अवस्था मे अपना भी आभास नहीं रहता और स्वरूप शून्य हो जाता है यह समाधि है। 


योग की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

योग का उद्देश्य | योग का महत्व

योग की परिभाषा

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