क्रियायोग की अवधारणा - योगसूत्र में महर्षि पतंजलि ने चित्त की वृत्तियों के निरोध को ही योग कहा है। अर्थात् चित्त की वृत्तियों का सर्वथा अभाव ही योग है। इस अभाव के फलस्वरूप आत्मा अपने स्वरूप में अवस्थित हों जाती है। इस अवस्था में पहुँचकर उसका इस संसार में आवागमन नहीं होता है। जो कि जीव की अन्तिम अवस्था कही जाती है। इस अवस्था की प्राप्ति के लिये महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र में अभ्यास - वैराग्य एवं ईश्वरप्राणिधान की साधना बताई है किन्तु जिन योग साधको का अन्तःकरण शुद्ध है तथा जिसके पूर्व के अनुभव है अभ्यास - वैराग्य का साधन उन्हीं साधकों के लिए है। सामान्य व्यक्ति जो साधना आरम्भ करना चाहते है उनके लिए महर्षि पतंजलि ने साधनपाद में सर्वप्रथम क्रियायोग की साधना बतायी है। “तप स्वाध्यायेश्वरप्राणिधानानि क्रियायोग:" (योगसूत्र साधनपाद- 1) अर्थात तप स्वाध्याय और ईश्वरप्राणिधान या ईश्वर के प्रति समर्पण यह तीनों ही क्रियायोग है। क्रियायोग समाधि के लिए पहला आधार है और वह तब फलित होता है जब तप स्वाध्याय और ईश्वर के प्रति समर्पण हो । क्रियायोग के साधन - महर्षि पतंजलि ने समाधि पाद में जो भी यो