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Showing posts from August, 2021

घेरण्ड संहिता में वर्णित प्राणायाम, विधि, लाभ एवं सावधानियाँ

  घेरण्ड संहिता में वर्णित कुम्भक ( प्राणायाम) घेरण्डसंहिता में महर्षि घेरण्ड ने आठ प्राणायाम (कुम्भको) का वर्णन किया है । प्राण के नियन्त्रण से मन नियन्त्रित होता है। अत: प्रायायाम की आवश्यकता बताई गई है। हठयोग प्रदीपिका की भांति प्राणायामों की संख्या घेरण्डसंहिता में भी आठ बताई गईं है किन्तु दोनो में थोडा अन्तर है। घेरण्डसंहिता मे कहा गया है- सहित: सूर्यभेदश्च उज्जायी शीतली तथा। भस्त्रिका भ्रामरी मूर्च्छा केवली चाष्टकुम्भका।। (घे.सं0 5 / 46) 1. सहित, 2. सूर्य भेदन, 3. उज्जायी, 4. शीतली, 5. भस्त्रिका, 6. भ्रामरी, 7. मूर्च्छा तथा 8. केवली ये आठ कुम्भक (प्राणायाम) कहे गए हैं। प्राणायामों के अभ्यास से शरीर में हल्कापन आता है। 1. सहित प्राणायाम - सहित प्राणायाम दो प्रकार के होते है (i) संगर्भ और (ii) निगर्भ । सगर्भ प्राणायाम में बीज मन्त्र का प्रयोग किया जाता हैँ। और निगर्भ प्राणायाम का अभ्यास बीज मन्त्र रहित होता है। (i) सगर्भ प्राणायाम- इसके अभ्यास के लिये पहले ब्रह्मा पर ध्यान लगाना है, उन पर सजगता को केन्द्रित करते समय उन्हें लाल रंग में देखना है तथा यह कल्पना करनी है कि वे लाल है और

घेरण्ड संहिता में वर्णित समाधि प्रकरण

 घेरण्ड संहिता के अनुसार समाधि समाधि का वर्णन घेरण्ड ऋषि ने घेरण्ड संहिता के (अन्तिम) सातवें अध्याय में किया है। हठयोग का अन्तिम उद्देश्य समाधि है। जहाँ पर आत्मा का मिलन उस शुद्ध, निर्मल परमतत्व से हो जाता है। हठयोग के कई ग्रंथों जैसे हठयोग प्रदीपिका, योगसूत्र, घेरण्ड संहिता आदि में अनेकों ऋषियों ने समाधि का वर्णन अलग-अलग तरह से किया है। कहा जाता है कि समाधि एक अवस्था है जिसमें व्यक्ति को आत्म-साक्षात्कार हो जाता है। शास्त्रों और ग्रन्थों में जिस अवस्था को ब्रह्मज्ञान के नाम से जाना जाता है वह वास्तव मे समाधि की स्थिति ही हैं। समाधि के विषय में महर्षि घेरण्ड ने कहा है कि -  समाधि कोई सामान्य अवस्था नहीं यह एक परम्‌ अवस्था है जो बडे भाग्य वालों को ही प्राप्त होती है। यह उन्हीं साधकों को प्राप्त होती है जो गुरु के परम्‌ भक्त है या जिन पर अपने गुरू की असीम कृपा होती है। जैसे-जैसे साधक की विद्या की प्रतीति, गुरु की प्रतीति, आत्मा की प्रतीति और मन का प्रबोध बढता जाता है, तब उसे समाधि की प्राप्ति होती है। अपने शरीर को मन के अधीन होने से हटाने तथा परमात्मा में लगाने पर ही साधक मुक्त होकर समाध