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घेरण्ड संहिता में वर्णित समाधि प्रकरण

 घेरण्ड संहिता के अनुसार समाधि

समाधि का वर्णन घेरण्ड ऋषि ने घेरण्ड संहिता के (अन्तिम) सातवें अध्याय में किया है। हठयोग का अन्तिम उद्देश्य समाधि है। जहाँ पर आत्मा का मिलन उस शुद्ध, निर्मल परमतत्व से हो जाता है। हठयोग के कई ग्रंथों जैसे हठयोग प्रदीपिका, योगसूत्र, घेरण्ड संहिता आदि में अनेकों ऋषियों ने समाधि का वर्णन अलग-अलग तरह से किया है। कहा जाता है कि समाधि एक अवस्था है जिसमें व्यक्ति को आत्म-साक्षात्कार हो जाता है। शास्त्रों और ग्रन्थों में जिस अवस्था को ब्रह्मज्ञान के नाम से जाना जाता है वह वास्तव मे समाधि की स्थिति ही हैं। समाधि के विषय में महर्षि घेरण्ड ने कहा है कि - 

समाधि कोई सामान्य अवस्था नहीं यह एक परम्‌ अवस्था है जो बडे भाग्य वालों को ही प्राप्त होती है। यह उन्हीं साधकों को प्राप्त होती है जो गुरु के परम्‌ भक्त है या जिन पर अपने गुरू की असीम कृपा होती है। जैसे-जैसे साधक की विद्या की प्रतीति, गुरु की प्रतीति, आत्मा की प्रतीति और मन का प्रबोध बढता जाता है, तब उसे समाधि की प्राप्ति होती है। अपने शरीर को मन के अधीन होने से हटाने तथा परमात्मा में लगाने पर ही साधक मुक्त होकर समाधि को प्राप्त होता है। समाधि में यही भाव रहता है कि मैं ब्रह्म हूँ: और इसके अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं। मुझे किसी भी प्रकार का कोई बंधन नहीं है, मैं सतू, चित्त और आनन्द कर स्वरूप है।  (घे. सं-7/1, 2, 3, 4)

समाधि को बताने के बाद आगे घेरण्ड मुनि समाधि के भेद को बताते हुए कहते हैं कि-

शाम्भव्या चैव भ्रामर्या खेचर्य्या योनिमुद्रया।
ध्यानं नादं रसानन्दं लयसिद्धिश्चतुर्विधा ।
पंचधा भक्ति योगेन मनोमूर्च्छा च षड्विधा ।
षड्विधोऽयं राजयोग: प्रत्येकमवधारयेत्‌ ।। (घे. सं- 7/5, 6)


महर्षि घेरण्ड ने समाधि के 6 भेद बताए हैं- 1. ध्यान योग समाधि  2. नाद योग समाधि  3. रसानंद योगसमाधि  4. लयसिद्धि योग समाधि 5. भक्तियोग समाधि 6. राजयोग समाधि। ध्यान योग समाधि शाम्भवी मुद्रा से, नाद योग समाधि भ्रामरी से, रसानन्दयोग समाधि खेचरी से, लयसिद्धि योग समाधि योनि मुद्रा से, भक्तियोग समाधि मनोमूर्च्छा से और राजयोग समाधि कुम्भक से सिद्ध होती है। उपर्युक्त छह समाधियाँ राज योग में सम्मिलित हैं, साघक को इनका अभ्यास क्रमशः करना चाहिए।

 1. ध्यान योग समाधि-
शाम्भवी मुद्रा को कर आत्मा को प्रत्यक्ष रूप से देखने का प्रयास करें तत्पश्चात्‌ ब्रह्म का साक्षात्कार करते हुए मन को बिन्दु पर केन्द्रित करें। मस्तिष्क में स्थित ब्रह्म लोकमय आकाश के बीच में आत्मा ले जाए और जीवात्मा में आकाश को लय करें तथा परमात्मा में जीवात्मा का ध्यान करें। इससे योगी को आनन्द मिलता है और वह समाधि में स्थित हो जाता है। (घे. सं- 7//7, 8)

2. नाद योग समाधि-
धीमी गति से वायु का पान कर भ्रामरी प्राणायाम करते हुए ही धीमी गति से ही वायु का रेचन करे। वायु का रेचन करते हुए भौरे के गुन्जन की ध्वनि उत्पन्न करे। यह गुंजन (नाद) जहाँ पर हो रहा हो उसी पर ध्यान (मन) लगा दे। धीरे-धीरे वह ध्वनि पूरे शरीर में गूँजने लगती है यही नाद योग समाधि है। (घे.सं- 7//9,10 )

3. रसानन्द समाधि-
महर्षि घेरण्ड कहते हैं कि खेचरी साधना में जीभ ऊपर की ओर कपाल कुहर में प्रवेश कर जब ब्रह्मरन्ध्र में पहुँच जाती है इस प्रकार की स्थिति रसानन्द योग समाधि कहलाती है। इस अवस्था में जिस रस की अनुभूति होती है वह परम आनन्ददायी होता है। यही उस अमृत रस से प्राप्त आनन्द की समाधि है इसे ही महर्षि ने रसानन्द समाधि की संज्ञा दी है। (घे.सं- 7,/11)

4 लयसिद्धि समाधि-
इस समाधि का वर्णन करते हुए घेरण्ड मुनि कहते हैं कि साधक को पहले योनि मुद्रा का अभ्यास करना चाहिए। साधक को सब कुछ भूलकर स्वयं में शक्ति की भावना तथा परमात्मा में पुरुष का भाव रखना चाहिए। उसे यह भावना रखनी चाहिए कि उसमें और परमात्मा में शक्ति और पुरुष का संचार हो रहा है। इसके पश्चात्‌ आनन्द मग्न होकर यह चिन्तन करें कि “मैं ही अद्दैत ब्रह्म हूँ"। यही लयसिद्धि समाधि की अवस्था है। (घे.सं- 7/12,13)

5. भक्तियोग समाधि-
घेरण्ड ऋषि कहते हैं कि अपने हृदय में अपने अराध्य देव के रूप पर ध्यान लगाए। मन में भक्ति का भाव लाए तथा अपने इष्टदेव के प्रति पूर्ण श्रद्धा, भक्ति, प्रेम आदि का भाव उत्पन्न करें। ऐसा करने से आनन्द के आँसू बहने लगते है और पूरा शरीर कौपने लगता है। मन में एकाग्रता आती है और तभी मन ब्रह्म मैं साक्षात्कार हो जाता है। यही भक्ति योग समाधि है। यह समाधि भावुक साधकों के लिए उचित है। (घे.सं- 7/ 14, 15)

 6. मनोमूर्च्छा समाधि-
मनोमूर्च्छा प्राणायान का अभ्यास कर साधक की अन्तकरण की क्रिया समाप्त हो जाती है उसी समय साधक अपना मन एकाग्र कर ब्रह्म में स्थित करने का प्रयास करे। परमात्मा के साथ योग होने को ही मनोमूर्च्छा समाधि कहते है। (घे.स- 7/ 16)

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