Skip to main content

हठयोग प्रदीपिका का सामान्य परिचय

हठयोग प्रदीपिका ग्रन्थ के रचयिता स्वामी स्वात्माराम योगी हैँ। इन्होंने हठयोग के चार अंगो का मुख्य रूप से वर्णन किया है तथा इन्ही को चार अध्यायों मे बाँटा गया है। स्वामी स्वात्माराम योगी द्वारा बताए गए योग के चार अंग इस प्रकार है ।

1. आसन-

 "हठस्थ प्रथमांगत्वादासनं पूर्वमुच्यतै" 

कहकर योगी स्वात्माराम जी  ने प्रथम अंग के रुप में आसन का वर्णन किया है। इन आसनो का उद्देश्य स्थैर्य, आरोग्य तथा अंगलाघव बताया गया है 

 'कुर्यात्तदासनं स्थैर्यमारोग्यं चांगलाघवम् '।  ह.प्र. 1/17

आसनो के अभ्यास से साधक के शरीर मे स्थिरता आ जाती है। चंचलता समाप्त हो जाती हैं. लचीलापन आता है, आरोग्यता आ जाती है, शरीर हल्का हो जाता है 1 हठयोगप्रदीपिका में पन्द्रह आसनों का वर्णन किया गया है

हठयोगप्रदीपिका में वर्णित 15 आसनों के नाम

1. स्वस्तिकासन, 2. गोमुखासन, 3. वीरासन, 4. कूर्मासन, 5. कुक्कुटासन. 6. उत्तानकूर्मासन, 7. धनुरासन, 8. मत्स्येन्द्रासन, 9. पश्चिमोत्तानासन, 10. मयूरासन, 11. शवासन, 12. सिद्धासन, 13. पद्मासन, 14. सिंहासन, 15. भद्रासना

2. प्राणायाम-

 हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है कि

चले वाते चलं चित्तं निश्चले निश्चलं भवेत्।

योगी स्थाणुत्वमाप्नोति ततो वायु निरोधयेत् ।। ह.प्र. 2 /3

वायु के चलने पर चित्त भी चंचल बना रहता है तथा वायु के निश्चल होने पर चित्त भी निश्चल हो जाता है। योगी स्थिरता प्राप्त कर लेता है। इसलिए प्राणायाम का अभ्यास साधना के लिए बहुत ही उपयोगी है।

यावद् वायु: स्थितो देहे तावज्जीवनमुच्यते। 

मरणं तस्य निष्क्रान्तिस्ततो वायुं निरोधयेत् ।। ह.प्र. 2 /3

जब तक शरीर में वायु स्थित है. तभी तक जीवन है। जब श्वास निकल जाता है तो मृत्यु हो जाती है। अत: प्राणायाम का अभ्यास करके वायु को रोकने का प्रयास करना चाहिए।
प्राणायाम के लिए कहा गया है कि जेसे धातुओं के मल अग्नि द्वारा नष्ट कर दिये जाते है, वैसे ही प्राणायाम द्वारा इन्द्रियों के दोषों को नष्ट किया जा सकता है।

हठयोग प्रदीपिका में प्राणायाम के आठ भेद बताए गए हैँ।

सूर्यभेदनमुज्जायी सीत्कारी शीतली तथा। 

भस्त्रिका भ्रामरी मूर्च्छा प्लाविनीत्यष्ठकुम्भकाः।। ह.प्र. 2/44

अर्थात् सूर्यभेदन, उज्जायी, सीत्कारी, शीतली, भ्रस्त्रिका, भ्रामरी, मूर्च्छा तथा प्लाविनी ये आठ कुम्भक हैं। सूर्यभेदन शरीर में उष्मा का संचार करता है जबकि सीत्कारी व शीतली शीतलता का संचार करने वाले हैं। भ्रस्त्रिका त्रिदोषहरण करने वाला है। उज्जायी तथा नाडीशोधन शरीरक्रिया को संतुलित करने वाले हैं। भ्रामरी एकागता व ध्यान के लिए उपयोगी है। मूर्च्छा तथा प्लाविनी का अभ्यास सामान्य स्थिति में नहीं करना चाहिए ।

3. मुद्रा एवं बन्ध-

 हठयोग का मुख्य उद्देश्य कुण्डलिनी जागरण तथा उसके द्वारा राजयोग मे प्रविष्ट होना है। मुद्रा कुण्डलिनी जागरण के लिए उपयुक्त साधन हैं। हठयोग प्रदीपिका से दस मुद्राओं (बंधसहित) का वर्णन है।

महामुद्रा महाबन्धो महावेधश्च खेचरी । 

उड्डीयानं मूलबन्धस्ततो जालंधराभिधः ।। 

करणी विपरीताख्या वज्रोली शक्तिचालनम्।

इदं हि मुद्रा दशकं जरामरणनाशनम् । ह.प्र. 3/6-7

अर्थात महामुद्रा, महाबन्ध, महावेध, खेचरी, उड्डीयान बन्ध, मूलबन्ध, जालंधर बन्ध, विपरीत करणी, वज्रोली. शक्तिचालिनी ये दस मुद्राएं साधक के जरा तथा मृत्यु का नाश करने वाली हैं। बन्धों का प्रयोग किए बिना प्राणायाम नहीं हो सकता तथा कुण्डलिनी जागरण के लिए प्राणायाम की अनिवार्यता है। अत: बन्धों का प्रयोग महत्वपूर्ण है।

4. नादानुसंधान-

 नादानुसंधान का अर्थ है नाद का अनुसंधान करना। नाद दो प्रकार के होते हैं आहत और अनाहता आहत नाद जो लोकप्रचलित है जैसे तबला, सारंगी, हारमोनियम, ढोलक, मंजीरा, वीणा आदि, जो आघात देकर बजाए जाते हैं। ये संगीत के लिए उपयोगी हैं। अनाहत नाद वह है जो साधक को साधना में आपने अन्दर से ही सुनाई पडते हैं। इनके लिये पहले स्थूल पर ध्यान लगाने का प्रयास करना चाहिए तथा धीरे धीरे स्थूल को छोडकर सूक्ष्म पर ध्यान लगाएं। यही एकाग्रता समाधि की स्थिति प्रदान करने वाली है। मन का लय होने पर नादानुसंधान का कार्यं पूर्ण हो जाता है। प्रथम तो नाना प्रकार के नाद सुनाई पडते हैं। अभ्यास दृढ़ होने पर सूक्ष्म से सूक्ष्मतर नाद सुनाई पडने लगते हैं। पहले सागर, बादल, भेरी, झरना आदि मध्य मे नफीरी आदि मृदुध्वनि तथा अन्त मे किंकिणी, बांसुरी, वीणा, भौरे की ध्वनि आदि अनेक प्रकार की सूक्ष्म ध्वनियाँ सुनाई पडती हैं। सूक्ष्म से स्थूल तथा स्थूल से सूक्ष्म पर जाने का अभ्यास करते करते यह सूक्ष्म से सूक्ष्म होता जाएगा तो ध्यान की स्थिति दृढ़ होगी। समाधि की स्थिति प्राप्त होने पर कुण्डलिनी जागरण की स्थिति स्वत: आ जाएगी तथा साधना मे सफलता प्राप्त हो जाएणी। नादानुसंधान की निम्न अवस्थाएँ इस प्रकार है। 

1.आरम्भावस्था- इसमे ब्रह्मग्रन्थि का भेदन होता है। 

2.घटावस्था- इसमे विष्णुग्रन्थि का भेदन होता है। 

3.परिचयावस्था- इससे रुद्र ग्रन्थि का भेदन होता हैं।

4.निष्पत्ति अवस्था- इसमे सहस्रार का द्वार खुल जाता हैं।

इस प्रकार चारों अवस्थाओ से होता हुआ साधक लक्ष्य की प्राप्ति में समर्थ होता है।

नादानुसंधान के अन्तर्गत ही स्वामी स्वात्माराम जी ने कुण्डलिनी तथा समाधि का वर्णन भी किया हैं।

 (क) कुण्डलिनी

कुटिलांगी कुण्डलिनी भुजंगी शक्तिरीश्वरी। 

कुण्डल्यरून्धाती चैते शब्दाः पर्यायवाचा । ।ह.प्र. 3/10

कन्दोर्ध्वं कुण्डली शक्ति: सुप्तामोक्षाय योगिनाम्।

बन्धनाय च मूढानां यस्तां वेति स योगवित् । ह.प्र. 3/103

उद्धाटयेत् कपाटं तु यथा कुंचिकया हठात्। 

कुण्डलिन्या तथा योगी मोक्षद्वारं विभेदयेत् ।। 

येन मार्गेण गन्तव्यं ब्रह्मस्थानं निरामयम्। 

मुखेनाच्छाघं तदद्वारं प्रसुप्ता परमेश्वरी। । ह.प्र. 3 101-102 

अर्थात कुटिलांगी, कुण्डलिनी. भुजंगी, शक्ति, ईश्वरी, कुण्डली, अरुंधती ये सभी शब्द पर्यायवाची हैं। 

कन्दोर्ध्व (मूलाधार चक़्र के पास) कुण्डलिनी शक्ति सोई हुई है जो अज्ञानियों के लिए बन्धन का कारण हैं तथा योगियों के लिए मोक्ष का कारण हैं। जो उसे जान लेता है, वही योगी कहलाता है। 

जिस प्रकार चाबी के द्वारा आसानी से ताला खोल लिया जाता है, उसी प्रकार योगी कुण्डलिनी शक्ति को जगाकर मोक्ष द्वार को खोल देता है जिससे ब्रह्म स्थान को बिना किसी बाधा के पहुँचा जा सकता है क्योकि उसी द्वार को ढककर कुण्डलिनी सोई हुई है। 

(ख) समाधि

सलिले सैन्धवं यद्वत् साम्य भजति योगतः। 

तथात्ममनसोरैक्यं समाधिरभिधीयते।।

यदा संक्षीयते प्राणो मानसं च प्रलीयते। 

तदा समरसत्वं च समाधिरभिधीयते।।

तत्समं च द्वयोरैक्यं जीवात्मपरमात्मनोः। 

प्रनष्टः सर्व संकल्प: समाधि सोऴभिघीयते।।  ह.प्र. 4 / 5-7

अर्थात जैसे नमक व जल दोनो मिलकर एक हो जाते है, एक रूप होकर द्वेत समास हो जाता है। उन्हें अलग नहीं किया जा सकता है। उसी प्रकार आत्मा व मन की एकता समाधि कही जाती है। प्राण क्षीण होकर मन लीन हो जाने पर समरसता की स्थिति समाधि है। जीवात्मा व परमात्मा की एकता समाधि कही जाती है।

इस प्रकार स्वामी स्वात्माराम जी ने जो ग्रन्थ के आरम्भ में घोषणा की है कि-

‘केवलं राजयोगाय हठविद्योपदिश्यते’ ।

अर्थात केवल राजयोग की प्राप्ति के लिये हठयोग का उपदेश किया जाता है।

उसी के अनुसार समाधि तक के लक्ष्य को प्राप्त करऩे के उद्देश्य से हठप्रदीपिका ग्रन्थ की रचऩा की गई है।

योग की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

Comments

Popular posts from this blog

सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति सामान्य परिचय

प्रथम उपदेश- पिण्ड उत्पति विचार सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति अध्याय - 2 (पिण्ड विचार) सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार नौ चक्रो के नाम 1. ब्रहमचक्र - मूलाधार मे स्थित है, कामनाओं की पूर्ति होती हैं। 2. स्वाधिष्ठान चक्र - इससे हम चीजो को आकर्षित कर सकते है। 3. नाभी चक्र - सिद्धि की प्राप्ति होती है। 4. अनाहत चक्र - हृदय में स्थित होता है। 5. कण्ठचक्र - विशुद्धि-संकल्प पूर्ति, आवाज मधुर होती है। 6. तालुचक्र -  घटिका में, जिह्वा के मूल भाग में,  लय सिद्धि प्राप्त होती है। 7. भ्रुचक्र -     आज्ञा चक्र - वाणी की सिद्धि प्राप्त होती है। 8. निर्वाणचक्र - ब्रहमरन्ध्र, सहस्त्रार चक्र, मोक्ष प्राप्ति 9. आकाश चक्र - सहस्त्रारचक्र के ऊपर,  भय- द्वेष की समाप्ति होती है। सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार सोहल आधार (1) पादांगुष्ठ आधार (2) मूलाधार (3) गुदाद्वार आधार (4) मेद् आधार (5) उड्डियान आधार (6) नाभी आधार (7) हृदयाधार (8) कण्ठाधार (9) घटिकाधार (10) तालु आधार (11) जिह्वा आधार (12) भ्रूमध्य आधार (13) नासिका आधार (14) नासामूल कपाट आधार (15) ललाट आधार (16) ब्रहमरंध्र आधार सिद्ध...

हठयोग प्रदीपिका के अनुसार षट्कर्म

हठप्रदीपिका के अनुसार षट्कर्म हठयोगप्रदीपिका हठयोग के महत्वपूर्ण ग्रन्थों में से एक हैं। इस ग्रन्थ के रचयिता योगी स्वात्माराम जी हैं। हठयोग प्रदीपिका के द्वितीय अध्याय में षटकर्मों का वर्णन किया गया है। षटकर्मों का वर्णन करते हुए स्वामी स्वात्माराम  जी कहते हैं - धौतिर्बस्तिस्तथा नेतिस्त्राटकं नौलिकं तथा।  कपालभातिश्चैतानि षट्कर्माणि प्रचक्षते।। (हठयोग प्रदीपिका-2/22) अर्थात- धौति, बस्ति, नेति, त्राटक, नौलि और कपालभोंति ये छ: कर्म हैं। बुद्धिमान योगियों ने इन छः कर्मों को योगमार्ग में करने का निर्देश किया है। इन छह कर्मों के अतिरिक्त गजकरणी का भी हठयोगप्रदीपिका में वर्णन किया गया है। वैसे गजकरणी धौतिकर्म के अन्तर्गत ही आ जाती है। इनका वर्णन निम्नलिखित है 1. धौति-  धौँति क्रिया की विधि और  इसके लाभ एवं सावधानी- धौँतिकर्म के अन्तर्गत हठयोग प्रदीपिका में केवल वस्त्र धौति का ही वर्णन किया गया है। धौति क्रिया का वर्णन करते हुए योगी स्वात्माराम जी कहते हैं- चतुरंगुल विस्तारं हस्तपंचदशायतम। . गुरूपदिष्टमार्गेण सिक्तं वस्त्रं शनैर्गसेत्।।  पुनः प्रत्याहरेच्चैतदुदितं ध...

घेरण्ड संहिता में वर्णित "प्राणायाम" -- विधि, लाभ एवं सावधानियाँ

घेरण्ड संहिता के अनुसार प्राणायाम घेरण्डसंहिता में महर्षि घेरण्ड ने आठ प्राणायाम (कुम्भको) का वर्णन किया है । प्राण के नियन्त्रण से मन नियन्त्रित होता है। अत: प्रायायाम की आवश्यकता बताई गई है। हठयोग प्रदीपिका की भांति प्राणायामों की संख्या घेरण्डसंहिता में भी आठ बताई गईं है किन्तु दोनो में थोडा अन्तर है। घेरण्डसंहिता मे कहा गया है- सहित: सूर्यभेदश्च उज्जायी शीतली तथा। भस्त्रिका भ्रामरी मूर्च्छा केवली चाष्टकुम्भका।। (घे.सं0 5 / 46) 1. सहित, 2. सूर्य भेदन, 3. उज्जायी, 4. शीतली, 5. भस्त्रिका, 6. भ्रामरी, 7. मूर्च्छा तथा 8. केवली ये आठ कुम्भक (प्राणायाम) कहे गए हैं। प्राणायामों के अभ्यास से शरीर में हल्कापन आता है। 1. सहित प्राणायाम - सहित प्राणायाम दो प्रकार के होते है (i) संगर्भ और (ii) निगर्भ । सगर्भ प्राणायाम में बीज मन्त्र का प्रयोग किया जाता हैँ। और निगर्भ प्राणायाम का अभ्यास बीज मन्त्र रहित होता है। (i) सगर्भ प्राणायाम- इसके अभ्यास के लिये पहले ब्रह्मा पर ध्यान लगाना है, उन पर सजगता को केन्द्रित करते समय उन्हें लाल रंग में देखना है तथा यह कल्पना करनी है कि वे लाल है और रजस गुणों से...

Yoga MCQ Questions Answers in Hindi

 Yoga multiple choice questions in Hindi for UGC NET JRF Yoga, QCI Yoga, YCB Exam नोट :- इस प्रश्नपत्र में (25) बहुसंकल्पीय प्रश्न है। प्रत्येक प्रश्न के दो (2) अंक है। सभी प्रश्न अनिवार्य ।   1. किस उपनिषद्‌ में ओंकार के चार चरणों का उल्लेख किया गया है? (1) प्रश्नोपनिषद्‌         (2) मुण्डकोपनिषद्‌ (3) माण्डूक्योपनिषद्‌  (4) कठोपनिषद्‌ 2 योग वासिष्ठ में निम्नलिखित में से किस पर बल दिया गया है? (1) ज्ञान योग  (2) मंत्र योग  (3) राजयोग  (4) भक्ति योग 3. पुरुष और प्रकृति निम्नलिखित में से किस दर्शन की दो मुख्य अवधारणाएं हैं ? (1) वेदांत           (2) सांख्य (3) पूर्व मीमांसा (4) वैशेषिक 4. निम्नांकित में से कौन-सी नाड़ी दस मुख्य नाडियों में शामिल नहीं है? (1) अलम्बुषा  (2) कुहू  (3) कूर्म  (4) शंखिनी 5. योगवासिष्ठानुसार निम्नलिखित में से क्या ज्ञानभूमिका के अन्तर्गत नहीं आता है? (1) शुभेच्छा (2) विचारणा (3) सद्भावना (4) तनुमानसा 6. प्रश्नो...

"चक्र " - मानव शरीर में वर्णित शक्ति केन्द्र

7 Chakras in Human Body हमारे शरीर में प्राण ऊर्जा का सूक्ष्म प्रवाह प्रत्येक नाड़ी के एक निश्चित मार्ग द्वारा होता है। और एक विशिष्ट बिन्दु पर इसका संगम होता है। यह बिन्दु प्राण अथवा आत्मिक शक्ति का केन्द्र होते है। योग में इन्हें चक्र कहा जाता है। चक्र हमारे शरीर में ऊर्जा के परिपथ का निर्माण करते हैं। यह परिपथ मेरूदण्ड में होता है। चक्र उच्च तलों से ऊर्जा को ग्रहण करते है तथा उसका वितरण मन और शरीर को करते है। 'चक्र' शब्द का अर्थ-  'चक्र' का शाब्दिक अर्थ पहिया या वृत्त माना जाता है। किन्तु इस संस्कृत शब्द का यौगिक दृष्टि से अर्थ चक्रवात या भँवर से है। चक्र अतीन्द्रिय शक्ति केन्द्रों की ऐसी विशेष तरंगे हैं, जो वृत्ताकार रूप में गतिमान रहती हैं। इन तरंगों को अनुभव किया जा सकता है। हर चक्र की अपनी अलग तरंग होती है। अलग अलग चक्र की तरंगगति के अनुसार अलग अलग रंग को घूर्णनशील प्रकाश के रूप में इन्हें देखा जाता है। योगियों ने गहन ध्यान की स्थिति में चक्रों को विभिन्न दलों व रंगों वाले कमल पुष्प के रूप में देखा। इसीलिए योगशास्त्र में इन चक्रों को 'शरीर का कमल पुष्प” कहा ग...

योग के साधक तत्व

योग के साधक तत्व - हठप्रदीपिका के अनुसार योग के साधक तत्व-   उत्साहात्‌ साहसाद्‌ धैर्यात्‌ तत्वज्ञानाच्च निश्चयात्‌। जनसंगपरित्यागात्‌ षडभियोंगः प्रसिद्दयति: || 1/16 अर्थात उत्साह, साहस, धैर्य, तत्वज्ञान, दृढ़-निश्चय तथा जनसंग का परित्याग इन छः तत्वों से योग की सिद्धि होती है, अतः ये योग के साधक तत्व है। 1. उत्साह- योग साधना में प्रवृत्त होने के लिए उत्साह रूपी मनोस्थिति का होना आवश्यक है। उत्साह भरे मन से कार्य प्रारभं करने से शरीर, मन व इन्द्रियों में प्राण संचार होकर सभी अंग साधना में कार्यरत होने को प्रेरित हो जाते है। अतः उत्साहरूपी मनोस्थिति योग साधना में सफलता की कुजी है। 2. साहस- योगसाधना मार्ग मे साहस का भी गुण होना चाहिए। साहसी साधक योग की कठिन क्रियांए जैसे- वस्त्रधौति, खेचरी आदि की साधना कर सकता है। पहले से ही भयभीत साधक योग क्रियाओं के मार्ग की और नहीं बढ़ सकता। 3. धैर्य- योगसाधक में घीरता का गुण होना अत्यावश्यक हैं। यदि साधक रातो-रात साधना में सफलता चाहता है तो ऐसा अधीर साधक बाधाओं से घिरकर पथ भ्रष्ट हो जाता है। साधक को गुरूपदेश से संसार की बाधाओं या आन्तरिक स्तर की...

चित्त विक्षेप | योगान्तराय

चित्त विक्षेपों को ही योगान्तराय ' कहते है जो चित्त को विक्षिप्त करके उसकी एकाग्रता को नष्ट कर देते हैं उन्हें योगान्तराय अथवा योग के विध्न कहा जाता।  'योगस्य अन्तः मध्ये आयान्ति ते अन्तरायाः'।  ये योग के मध्य में आते हैं इसलिये इन्हें योगान्तराय कहा जाता है। विघ्नों से व्यथित होकर योग साधक साधना को बीच में ही छोड़कर चल देते हैं। विध्न आयें ही नहीं अथवा यदि आ जायें तो उनको सहने की शक्ति चित्त में आ जाये, ऐसी दया ईश्वर ही कर सकता है। यह तो सम्भव नहीं कि विध्न न आयें। “श्रेयांसि बहुविध्नानि' शुभकार्यों में विध्न आया ही करते हैं। उनसे टकराने का साहस योगसाधक में होना चाहिए। ईश्वर की अनुकम्पा से यह सम्भव होता है।  व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तिदर्शनालब्धभूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाः (योगसूत्र - 1/30) योगसूत्र के अनुसार चित्त विक्षेपों  या अन्तरायों की संख्या नौ हैं- व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरति, भ्रान्तिदर्शन, अलब्धभूमिकत्व और अनवस्थितत्व। उक्त नौ अन्तराय ही चित्त को विक्षिप्त करते हैं। अतः ये योगविरोधी हैं इन्हें योग के मल...

कठोपनिषद

कठोपनिषद (Kathopanishad) - यह उपनिषद कृष्ण यजुर्वेद की कठ शाखा के अन्तर्गत आता है। इसमें दो अध्याय हैं जिनमें 3-3 वल्लियाँ हैं। पद्यात्मक भाषा शैली में है। मुख्य विषय- योग की परिभाषा, नचिकेता - यम के बीच संवाद, आत्मा की प्रकृति, आत्मा का बोध, कठोपनिषद में योग की परिभाषा :- प्राण, मन व इन्दियों का एक हो जाना, एकाग्रावस्था को प्राप्त कर लेना, बाह्य विषयों से विमुख होकर इन्द्रियों का मन में और मन का आत्मा मे लग जाना, प्राण का निश्चल हो जाना योग है। इन्द्रियों की स्थिर धारणा अवस्था ही योग है। इन्द्रियों की चंचलता को समाप्त कर उन्हें स्थिर करना ही योग है। कठोपनिषद में कहा गया है। “स्थिराम इन्द्रिय धारणाम्‌” .  नचिकेता-यम के बीच संवाद (कहानी) - नचिकेता पुत्र वाजश्रवा एक बार वाजश्रवा किसी को गाय दान दे रहे थे, वो गाय बिना दूध वाली थी, तब नचिकेता ( वाजश्रवा के पुत्र ) ने टोका कि दान में तो अपनी प्रिय वस्तु देते हैं आप ये बिना दूध देने वाली गाय क्यो दान में दे रहे है। वाद विवाद में नचिकेता ने कहा आप मुझे किसे दान में देगे, तब पिता वाजश्रवा को गुस्सा आया और उसने नचिकेता को कहा कि तुम ...

घेरण्ड संहिता के अनुसार ध्यान

घेरण्ड संहिता में वर्णित  “ध्यान“  घेरण्ड संहिता के छठे अध्याय में ध्यान को परिभाषित करते हुए महर्षि घेरण्ड कहते हैं कि किसी विषय या वस्तु पर एकाग्रता या चिन्तन की क्रिया 'ध्यान' कहलाती है। जिस प्रकार हम अपने मन के सूक्ष्म अनुभवों को अन्‍तःचक्षु के सामने मन:दृष्टि के सामने स्पष्ट कर सके, यही ध्यान की स्थिति है। ध्यान साधक की कल्पना शक्ति पर भी निर्भर है। ध्यान अभ्यास नहीं है यह एक स्थिति हैं जो बिना किसी अवरोध के अनवरत चलती रहती है। जिस प्रकार तेल को एक बर्तन से दूसरे बर्तन में डालने पर बिना रूकावट के मोटी धारा निकलती है, बिना छलके एक समान स्तर से भरनी शुरू होती है यही ध्यान की स्थिति है। इस स्थिति में किसी भी प्रकार की हलचल नहीं होती। महर्षि घेरण्ड ध्यान के प्रकारों का वर्णन छठे अध्याय के प्रथम सूत्र में करते हुए कहते हैं कि - स्थूलं ज्योतिस्थासूक्ष्मं ध्यानस्य त्रिविधं विदु: । स्थूलं मूर्तिमयं प्रोक्तं ज्योतिस्तेजोमयं तथा । सूक्ष्मं विन्दुमयं ब्रह्म कुण्डली परदेवता ।। (घेरण्ड संहिता  6/1) अर्थात्‌ ध्यान तीन प्रकार का है- स्थूल ध्यान, ज्योतिर्ध्यान और सूक्ष्म ध्यान। स्थू...