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सिद्ध सिद्धांत पद्धति

सिद्ध- अर्थातयोगी, महान पुरुष

सिद्धांतअर्थात्- निश्चित मत  

पद्धति- अर्थात्- मार्ग


अर्थात्सिद्ध योगियों के निश्चित मार्ग पर चलना 

सिद्ध सिद्धांत पद्धति के लेखक गुरू गौरक्षनाथ जी है। सिद्ध सिद्धांत पद्धति में छः अध्याय या उपदेश है।

1. पिण्ड उत्पति विचार  2, पिण्ड विचार  3. पिण्ड ज्ञान  4. पिण्ड धारा  5. समरसता  6. अवधूत की विशेषता 

1. प्रथम अध्याय- पिण्ड उत्पति विचार-

परब्रहमा की पांच आदिम शक्तियों की चर्चा की हैं

(i) निजा या अनामा शक्तिनाम रहित, सत्य, सनातन जो नित्य है।  

(ii) पराशक्ति- सृष्टि की इच्छा।  

(iii) अपरा शक्ति- स्पंद के उत्पन्न होने से।  

(iv) सूक्ष्म शक्ति- अंहकार भाव से निर्मित शक्ति 

(v) कुण्डलिनी शक्ति- मोक्ष प्रदान करने वाली जीवन मरण के बन्धन से मुक्ति देने वाली।

निजा या अनामा शक्ति के पाँच गुण

(i) नित्यता - जो नित्य है सदा से चली रही है। 

(ii) निरंजना - राग, द्वेष, क्रोध, मोह से छुटना अभाव ही निरंजन है। 

(iii) निस्पंदना - चंचलता से रहित। 

(iv) निराभाजता - भेद रहित अभेद शक्ति। 

(v) निरूथान - परिणाम रहित शक्ति का उत्पन्न होना।

पराशक्ति के पाँच गुण

(i) अस्मिता - जिसमें स्वार्थ विदूमान रहता हो। 

(ii) अप्रमेयता - परिछेदा जिसको भेदा जा सके, छेद किया जा सके।  

(iii) अभिन्नता - भिन्नता से रहित।  

(iv) अनन्ता - अविनाशी, नित्य शक्ति।  

(v) अव्यक्तता - सूक्ष्म अणु से छोटी, जिसे व्यक्त किया जा सके। 

अपरा शक्ति के पाँच गुण

(i) स्फुर्ता - संचालन करना, शरीर के सभी अंगो प्रक्रियाओं का संचालन करना। 

(ii) स्फुटता - अलोकित या प्रकाशित करना जैसे सूर्य से संसार प्रकाशित होता है

(iii) सफारता - संयमन की ताकत। 

(iv) सफोरता - प्रकट होने की क्षमता।  

(v) स्फुर्तिता - प्रोत्माहन करना।

सूक्ष्म शक्ति के पाँच गुण

(i) निरंसता - अहम्का भाव होना। 

(ii) निरन्तरता - बिना रूकावट के निरन्तर  

(iii) निश्चितता - सब जगह उपस्थित होना। 

(iv) निश्चयता - संशय से रहित।  

(v) निरविकल्पता - संकल्प रहित शक्ति। 

कृण्डलिनी शक्ति के पाँच गुण

(i) पूर्णता - पूर्ण, बिना कमी के।  

(ii)  प्रतिबिम्ता- जैसा है वैसा आभास होना। 

(iii) प्रबलता - शक्ति सम्पन्न 

(iv) प्रोचलता - बढ़ते रहना। 

(v) प्रत्यडमुखता - सृष्टि उत्पति की सामग्री का भाव होना।

परपिण्ड उत्पति के पाँच अधिष्ठा देव

(i) अपरंपद -

(ii) परमपदसबसे ऊँच्चा, सर्वोच्च पद।  

(iii) शून्यलिनता, पूर्णता, मुर्च्छा, उन्मानी, लोलता। 

(iv) निरंजनामसत्यत्व, सहजत्व, समरसता, सर्वविधता। 

(v) परमात्माअभेदता, अछेदता, अविनासिता, अक्षत्व

 परपिण्ड उत्पति - अनाध्य पिंड से आध्य पिण्ड की प्राप्ति।

अनाध्य पिंड से - परमानंद की प्राप्ति। 

परमानंद से - प्रबोध की प्राप्ति। 

प्रबोध से - चित्दुद्य। 

चित्दुद्य से - चित्त प्रकाश। 

चित्त प्रकाश से - सोहम भाव

परमानन्द के पाँच गुण 

(i) स्पंद (ii) हर्ष (iii) उत्साह  (iv) निस्पंद  (v) नित्य

 प्रबोध के पाँच गुण

 (i) उदय (ii) उल्लास (iii) अवभास  (iv) विकाश  (v) प्रभा

चित्दुद्य के पाँच गुण

 (i) सदभाव(ii) विचार (iii) कर्तव्य  (iv) ज्ञानतत्व  (v) स्वतन्त्रत्व

चित्तप्रकाश के पाँच गुण 

 (i) निर्विकार- कोई विकार होना। (ii) निर्विकल्प- कोई विकल्प होना।  (iii) निष्कल- (iv) समता- समान भाव हो। (v) विश्रान्ति-. आत्मभाव।

सोहम् भाव के पाँच गुण

(i) अहन्ता (ii) अखण्ड ऐश्वर्य (iii) स्वात्यता (iv) विश्वानुभवसामर्थ्य (v) सर्वज्ञत्व

महाआकाश के पांच गुण

(i) अवकाशरिक्त, खाली 

(ii) अछिद्र- छिद्र रहित 

(iii) अस्पर्श- जिसे स्पर्श नहीं कर सकते।  

(iv) नील वर्ण- नीला रंग है। 

(v) शब्द- की उत्पति आकाश से है।

महावायु के पाँच गुण

(i) संचार (ii) संचालन (iii) स्पर्श (iv) शोषित- सोखना। (v) धुम्रवर्ण- धुआ जैसा रंग होना।

महातेज के पाँच गुण

(i) दाहकत्वजलाने की क्षमता। 

(ii) पाचकत्वपचाने की क्षमता। 

(iii) उष्णता- गर्म करने की क्षमता। 

(iv) प्रकाश- अंधकार को मिटाने वाला। 

(v) रक् वर्ण खून जैसा लाल रंग होना।

महाजल के पाँच गुण

(i) महाप्रवाह- उमड़ उमडकर आना, चलाना। (ii) आप्यापन (iii) द्रव्य (iv) रस (v) श्वेत वर्ण

महापृथ्वी के पाँच गुण 

(i) स्थूलता- ठोस दिखाई देना। 

(ii) नानाकारता- विभिन् प्रकार की विभिन्नता पेड़-पौधें, जीवजन्तु, नदिया आदि। 

(iii) काठिन्य- मजबूत, कठिन, कठोरता।  

(iv) गन्ध- पृथ्वी गन्धयुक्त है 

(v) पीतवर्ण- पीला जिसका रंग है।

महासाकार पिण्ड की आठ मूर्तियां

(1) शिव  (2) सदाशिव  (3) विष्णु  (4) भैरव  (5) ईश्वर  (6) ब्रह्मा  (7) श्रीकण्ठ  (8)रूद्र

नर-नारी उत्पति

प्रकृति पिण्ड की उत्पत्ति जिसे पंच भौतिक शरीर कहा जाता है। 

भूमि तत्व के पांच गुण (शरीर निर्माण के पांच गुण

(i) अस्थि (ii) त्वचा  (iii) रोम (iv) मांस (v) नाड़ी

जल तत्व के पाँच गुण

(i) लार (ii) मूत्र  (iii) शुक्र (iv) रक्त (v) स्वेद

अग्नितत्व के पाँच गुण

(i) क्षुधा (भूख)  (ii) वूषा (प्यास)  (iii) निन्द्रा  (iv) कान्ति (v)आलस्य

वायु तत्व के पाँच गुण

(i) धावन (दौड़ना) (ii) भ्रमण (घूमना)  (iii) प्रसारण  (iv) आकूंचन  (v) निरोधन (रोकना)

आकाश तत्व के पाँच गुण 

(i) राग (ii) द्वेष (iii) भय (iv) लज्जा (v) मोह

सिद्धसिद्धांतपद्धति के अनुसार पाँच अन्तःकरण

(i) मन  (ii) बुद्धि (iii) अंहकार (iv) चित्त (v) चैतन्य 

मन के पाँच गुण 

(i) संकल्प- कल्प की क्रिया के द्वारा निरूपित होती है।  

(ii) विकल्प- विकल्प भी तलाशना मन का गुण है।  

(iii) मूर्च्छा- ग्रहन करना, हठधर्मिता दिखाना ये भी मन का गुण है। 

(iv) जड़ता- कुछ सीखने का गुण प्रगति करना।  

(v) मनन- मननांत्मनः मनन करना, सोचना विचारणा मन का गुण है।

बुद्धि के पाँच गुण 

(i) विवेक- सत्य, असत्य, सही-गलत आदि को देखने निर्णय करने का भाव।  

(ii) वैराग्य- सुख की इच्छा, भौतिकता, बुराईयों का त्याग वैराग्य है। 

(iii) शान्ति- शान्त, सौम्य भाव

(iv) सन्तोष- पुरूषार्थ के बाद जो प्राप्त, उसमें सन्तुष्टि करना ही संतोष है।  

(v) अक्षमा- क्षमाशील होना चाहिये।

अंहकार के पाँच गुण 

(i) अभिमान- घमण्ड, मैं का भाव

(ii) मदिय- मेरा, अहम, मद का भाव।  

(iii) मम सुखम्- मेरा सुख। 

(iv) मम दुखम- मेरा दुःख है।  

(v) मम देह- मेरे द्वारा सब कुछ उत्पन्न है।

चित्त के पाँच गुण 

(i) मति- बुद्धि, सत्य का भान कराने वाली

(ii) धृति- मेधा बुद्धि।  

(iii) स्मृति- याद रखना, संचित रखना। 

(iv) त्याग- बलिदान, समर्पण का भाव  

(v) स्वीकार- एक्सेप्ट करना|

चैतन्य के पाँच गुण 

(i) विमर्श- चर्चा करना  

(ii) शीलन- यर्थाथज्ञाऩ की प्राप्ति में लगे रहना। 

(iii) घैर्य- धीरता। 

(iv) निस्पृह- भौतिक वस्तुओं से जुड़ाव होना। 

(v) चिन्तम- ज्ञान के लिये निरन्तरता।

पंचकुल

(i) सत्व (ii) रज (iii) तम (iv) काल (v) जीव

सिद्धसिद्धांतपद्धति के अनुसार चन्द्रमा की सत्रह कला

(1) उलोला (2) कालोनी (3) उछलन्ति (4) उन्मदीनि (5) तारंगिनी (6) शोषिनी  (7) लम्पता (8) प्रवृति (9) लहरी (10) लोला (11) लोलिहना (12) प्रशान्ति (13) प्रवाह (14) सौम्य  (15) प्रसन्ना  (16) प्लवन्ति   (17) निवृति

सिद्धसिद्धांतपद्धति के अनुसार अग्नि की एकादश (11) कला

(1) दीपिका (2) राजिका (3) ज्वलिनी (4) विषफुलिंगिनी (5) प्रच्छन्दना (6) पाचिका (7) रोद्रधरी (8) दाहिका (9) रांगिनी (10) शिखावती (11) ज्योति

सिद्धसिद्धांतपद्धति के अनुसार सूर्य की तेरह (13) कला

(1) तापिनी (2) ग्रहसिका (3) उग्र (4) आकुन्ची(5) स्पर्शावति (6) शोषिनी (7) प्रबोधिनी (8) समरा (9) आरक्षिणी (10) तुष्टिवर्धिनी (11) उर्मानी (12) कर्वान्ति (13) प्रभावति

सिद्धसिद्धांतपद्धति के अनुसार दस नाडियाँ

(1) ईडा -  बाँया/वाम नासिका 

(2) पिंगला - दायाँ/दक्षिण नासिका 

(3) सुषुम्णा -  मध्य मेरू  

(4) सरस्वती -  मुख में निवास। सरस्वती की तरह आवाज होना। 

(5) पुषा - बांयी आँख 

(6) अलम्बुषबा दांयी आँख 

(7) गान्धारी -  बांया कान 

(8) हस्तिजिह्वा - दांया कान 

(9) कुहू - गुद्धा दवार (Anus) मूलाधार में  

(10) शंखिनी - पेनिसलिंग में।

व्यक्ति शक्ति पंचक

(i) इच्छा (ii) क्रिया (iii) माया (iv) प्रकृति (v) वाक

प्रत्यक्ष करण पंचक

(i) कर्म (ii) कामः (iii) चन्द्रमा (iv) सूर्य (v) अग्नि

कर्म के पाँच गुण

(i) शुभ -  अच्छे कर्मों को शुभ कर्म कहते है।  

(ii) अशुभ -  बुरे कर्म।  

(iii) यश - सम्मान होना। 

(iv) अपकीर्ति - अशुभ कर्म करने पर अपमान होना।  

(v) अदृश्यफल साधना - अन्दर या मन ही मन फल की कामना करना।

काम के पाँच गुण

(i) रति - औरत के प्रति आसक्ति कामुकता।  

(ii) प्रीति - आसक्ति, सममोहन, प्रेम आदि। 

(iii) क्रीड़ा - विषयभोग आदि।  

(iv) कामना - चाहना, इच्छा करना

(v) आतुरता - लालसा बनी रहना,, आतुरता बनी रहना। 

 

सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति अध्याय - 2 (पिण्ड विचार)

सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार नौ चक्रो के नाम

1. ब्रहमचक्र - मूलाधार मे स्थित है, कामनाओं की पूर्ति होती हैं।
2.
स्वाधिष्ठान चक्र - इससे हम चीजो को आकर्षित कर सकते है।
3.
नाभी चक्र - सिद्धि की प्राप्ति होती है।
4.
अनाहत चक्र - हृदय में स्थित होता है।
5.
कण्ठचक्र - विशुद्धि-संकल्प पूर्ति, आवाज मधुर होती है।
6.
तालुचक्र घटिका में, जिह्वा के मूल भाग मेंलय सिद्धि प्राप्त होती है।
7.
भ्रुचक्र -    आज्ञा चक्र - वाणी की सिद्धि प्राप्त होती है।
8.
निर्वाणचक्र - ब्रहमरन्ध्र, सहस्त्रार चक्र, मोक्ष प्राप्ति
9.
आकाश चक्र - सहस्त्रारचक्र के ऊपरभय- द्वेष की समाप्ति होती है।

सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार सोहल आधार
(1)
पादांगुष्ठ (2) मूलाधार (3) गुदाद्वार (4) मेद् आधार (5) उड्डियान आधार (6) नाभी आधार (7) हृदयाधार (8) कण्ठाधार (9) घटिकाधार (10) तालु आधार (11) जिह्वा आधार

सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार तीन लक्ष्य (Aim)
1.
अन्तर लक्ष्य (Internal) - मेद्‌ - लिंग से उपर  एवं नाभी से नीचे के हिस्से पर अन्दर ध्यान लगाना।
2.
बर्हि: लक्ष्य (Outer) - नासिका के अग्र भाग पर ध्यान लगाना |
3.
मध्यम लक्ष्य (Middle) - रंगीन गोले, पते, पंखुडी आदि पर ध्यान लगाना।
 
सबसे अच्छा अन्तर लक्ष्य (Internal) है।

व्योम पंचक (पाँच आकाश) - 1. आकाश, 2. पराकाश, 3. महाकाश, 4. तत्वाकाश, 5. सूर्याकाश

सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार अष्टांग योग
1.
यमइन्द्रियो को वश में करना, विषयो से हटाना, शान्ति बनाये रखना ही यम है।
2.
नियममन के विचारो को नियन्त्रित करना।
3.
आसनस्वयं एवं परमात्मा में लीन होना। तीन आसनों की चर्चा की है। (i) स्वासतिकासन (ii) पद्मासन (iii) सिद्धासन
4.
प्राणायाम- नाडियों में प्राण के प्रवाह को स्थिर करना ही प्राणायाम है। प्राणायाम के चार प्रकार बताये है। (i) पूरक (ii) रेचक (iii) कुम्भक (iv) संगठन।
5.
प्रत्याहार इन्द्रियों का अर्न्तमुखी करना।
6.
धारणा - अन्दर आत्मा, बाहर परमात्मा या बाहर आत्मा, अन्दर परमात्मा दोनो को एक मानना ऐसी भावना धारणा है।
7.
ध्यान - समस्त भूतों प्राणियों में समता की दृष्टि बनाये रखना ही ध्यान कहा है।
8.
समाधि - सहज, निरूद्ध तटस्थ योग की अवस्था ही समाधि है।

अध्याय - 3 (पिण्ड ज्ञान)

सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार सात पाताल के नाम - (1) पाताल (2) तलाताल (3) महाताल (4) रसाताल (5) सातुल (6) वितल (7) अतल

व्यष्टि पिण्ड
सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार सात द्वीप के नाम(1) जम्बू द्वीप (2) शक्ति ह्वीप () सूक्ष्म द्वीप (4) क्रौच द्वीप (5) गोमय द्वीप (6) श्वेत द्वीप (7) प्लक्ष द्वीप

सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार सात समुंद्र के नाम(1) क्षार (मूत्र(2) क्षीर (लार(3) दधि (कफ(4) घृत (मेद(5) मधु (वसा(6) इक्षु (रक्त(7) अमृत (वीर्य)

ब्रह्माण- 21
वर्ण - 4
रशियाँ -12
ग्रह - 9
तिथियों - 15
नक्षत्र - 27
गुरू गोरक्षनाथ जी ने सिद्धसिद्धांतपद्धति में 72000 नाडियाँ मानी है।
सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार आठ कुल पर्वत
1.
सुमेरू पर्वत - मेरूदण्ड में होता है। 2. कैलाश पर्वत मस्तिष्क में।  3. हिमालय पर्वत - पृष्ठभाग, कंधे के पीछे का भाग में। 4. मलय पर्वत -  बांये कंधे में।  5. मन्दार पर्वत - दांये कंधे में।  6. विन्धायांचल पर्वत - दांये कान में। 7. मैनाक पर्वत - बांये कान में। 8. श्री शैल पर्वत - (ललाट) माथे में।

सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार नौ नदियाँ
(1)
गंगा (2) यमुना (3) सरस्वती (4) पीनसा (8) चन्द्रभागा (8) पिपासा (विपाशा) (7) शतरुद्रा (8) श्री रात्रि () श्री नर्मदा

सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार नौ खण्ड
1.
भारत खण्ड - गुदा प्रदेश में। 2. कश्मीर खण्ड - लिंग प्रदेश मे। 3. कर्पर खण्डमूँह में। 4. श्री खण्ड नासिका दांया छिद्र  5. शंख खण्ड - नासिका बांया छिद्र। 6. एकपाद खण्ड - बांये (वाम) नेत्र में। 7. गांधार खण्ड - दांये (दक्षिण) नेत्र मेँ। 8. कैवर्त खण्ड - बांये कान में। 9. महामेक खण्ड - दायें कान में।

अध्याय -4 (पिण्ड धारा)


कुल शक्तियाँ -  1. परा  2. सता 3. अहन्ता  4. स्फुरता  5. कला
अकुल शक्तियाँ- 1. जाति  2. वर्ण 3. गोत्रादि

सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार कुण्डलिनी के दो प्रकार है(1) प्रबुध - जाग्रत रूप में स्थूल (2) अप्रबुध - सोयी हुई सूक्ष्म

सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार कुण्डलिनी के तीन भेद है(1) ज्ञानप्रसार भूमि (2) मध्यशक्ति 8) स्थूल सूक्ष्म

अध्याय 5 - पिण्डों में एकता

योगी की वेशभूषा- जटायें लम्बी होनी चाहिये। मस्तक पर तिलक होना चाहिये। कानों में छिद्र , गुरूवा वस्त्र धारण करना, दण्ड रखना, कमण्डल रखना, खडाऊ पहनना, भभूत लगाना।

सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार दस वायु -  (पाँच मुख्य प्राण तथा पांच उपप्राण)
पाँच प्राण
1.
प्राणवायु- हृदय प्रदेश। 2. अपानवायु- नाभी से नीचे का प्रदेश। 3. समानवायुनाभी प्रदेश। 4. उदानवायु- कंठ से ऊपर का प्रदेश। 5. व्यानवायुसम्पूर्ण शरीर

पांच उपप्राण
1.
नाग- डकार। 2. कूर्म- पलक झपकाना। 3. कृकल भूख प्यास। 4. देवद्त- जमंभाई। 5. धनंजय- मरने के बाद भी शरीर में रहता है

सन्तों के पाँच देवता-  1. ब्रहमा 2. विष्णु 3. रूद्र 4, ईश्वर 5. सदाशिव 

योगी का कर्तव्य- योग मार्ग पर अग्रसर होकर परमात्मा का चिन्तन करें।
गुरू का अर्थ- अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला।
सिद्ध-सिद्धांत पद्धति के अनुसार योग का अर्थ- मिलना, मिलाना, एकाकार होना।
योग सिद्धि प्राप्त होती है- 12 साल में।
गुरूकुल की संतान (1) आईनाथ (2) विलेश्वर गुरू (3) विभूति संतान (4) नाथ परम्परा (5) योगेश्वर नाथ
योग की पाँच अवस्थाऐं - (1) स्थूल (2) सूक्ष्म (3) कारण (4) तुरया (5) तुरयातीत

अध्याय- 6 अवधूत योगी

जो प्रकृति के सभी विकार (देह, इन्द्रिय, मन, अनात्म) को हटा दें और परम शिव में लीन कर दें।
अवधूत योगी के गुण- पंच क्लेश (अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष अभिनिवेश) से पूर्णत मुक्त। तीनों अवस्थाओं (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति) से मुक्त।

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 चित्त  चित्त शब्द की व्युत्पत्ति 'चिति संज्ञाने' धातु से हुई है। ज्ञान की अनुभूति के साधन को चित्त कहा जाता है। जीवात्मा को सुख दुःख के भोग हेतु यह शरीर प्राप्त हुआ है। मनुष्य द्वारा जो भी अच्छा या बुरा कर्म किया जाता है, या सुख दुःख का भोग किया जाता है, वह इस शरीर के माध्यम से ही सम्भव है। कहा भी गया  है 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्' अर्थात प्रत्येक कार्य को करने का साधन यह शरीर ही है। इस शरीर में कर्म करने के लिये दो प्रकार के साधन हैं, जिन्हें बाह्यकरण व अन्तःकरण के नाम से जाना जाता है। बाह्यकरण के अन्तर्गत हमारी 5 ज्ञानेन्द्रियां एवं 5 कर्मेन्द्रियां आती हैं। जिनका व्यापार बाहर की ओर अर्थात संसार की ओर होता है। बाह्य विषयों के साथ इन्द्रियों के सम्पर्क से अन्तर स्थित आत्मा को जिन साधनों से ज्ञान - अज्ञान या सुख - दुःख की अनुभूति होती है, उन साधनों को अन्तःकरण के नाम से जाना जाता है। यही अन्तःकरण चित्त के अर्थ में लिया जाता है। योग दर्शन में मन, बुद्धि, अहंकार इन तीनों के सम्मिलित रूप को चित्त के नाम से प्रदर्शित किया गया है। परन्तु वेदान्त दर्शन अन्तःकरण चतुष्टय की

चित्त विक्षेप | योगान्तराय

चित्त विक्षेपों को ही योगान्तराय ' कहते है जो चित्त को विक्षिप्त करके उसकी एकाग्रता को नष्ट कर देते हैं उन्हें योगान्तराय अथवा योग के विध्न कहा जाता।  'योगस्य अन्तः मध्ये आयान्ति ते अन्तरायाः'।  ये योग के मध्य में आते हैं इसलिये इन्हें योगान्तराय कहा जाता है। विघ्नों से व्यथित होकर योग साधक साधना को बीच में ही छोड़कर चल देते हैं। विध्न आयें ही नहीं अथवा यदि आ जायें तो उनको सहने की शक्ति चित्त में आ जाये, ऐसी दया ईश्वर ही कर सकता है। यह तो सम्भव नहीं कि विध्न न आयें। “श्रेयांसि बहुविध्नानि' शुभकार्यों में विध्न आया ही करते हैं। उनसे टकराने का साहस योगसाधक में होना चाहिए। ईश्वर की अनुकम्पा से यह सम्भव होता है।  व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तिदर्शनालब्धभूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाः (योगसूत्र - 1/30) योगसूत्र के अनुसार चित्त विक्षेपों  या अन्तरायों की संख्या नौ हैं- व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरति, भ्रान्तिदर्शन, अलब्धभूमिकत्व और अनवस्थितत्व। उक्त नौ अन्तराय ही चित्त को विक्षिप्त करते हैं। अतः ये योगविरोधी हैं इन्हें योग के मल भी

योग आसनों का वर्गीकरण एवं योग आसनों के सिद्धान्त

योग आसनों का वर्गीकरण (Classification of Yogaasanas) आसनों की प्रकृति को ध्यान में रखते हुए इन्हें तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है (1) ध्यानात्मक आसन- ये वें आसन है जिनमें बैठकर पूजा पाठ, ध्यान आदि आध्यात्मिक क्रियायें की जाती है। इन आसनों में पद्मासन, सिद्धासन, स्वस्तिकासन, सुखासन, वज्रासन आदि प्रमुख है। (2) व्यायामात्मक आसन- ये वे आसन हैं जिनके अभ्यास से शरीर का व्यायाम तथा संवर्धन होता है। इसीलिए इनको शरीर संवर्धनात्मक आसन भी कहा जाता है। शारीरिक स्वास्थ्य के संरक्षण तथा रोगों की चिकित्सा में भी इन आसनों का महत्व है। इन आसनों में सूर्य नमस्कार, ताडासन,  हस्तोत्तानासन, त्रिकोणासन, कटिचक्रासन आदि प्रमुख है। (3) विश्रामात्मक आसन- शारीरिक व मानसिक थकान को दूर करने के लिए जिन आसनों का अभ्यास किया जाता है, उन्हें विश्रामात्मक आसन कहा जाता है। इन आसनों के अन्तर्गत शवासन, मकरासन, शशांकासन, बालासन आदि प्रमुख है। इनके अभ्यास से शारीरिक थकान दूर होकर साधक को नवीन स्फूर्ति प्राप्त होती है। व्यायामात्मक आसनों के द्वारा थकान उत्पन्न होने पर विश्रामात्मक आसनों का अभ्यास थकान को दूर करके ताजगी

हठयोग का अर्थ , परिभाषा, उद्देश्य

  हठयोग का अर्थ भारतीय चिन्तन में योग मोक्ष प्राप्ति का एक महत्वपूर्ण साधन रहा है, योग की विविध परम्पराओं (ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग, हठयोग) इत्यादि का अन्तिम लक्ष्य भी मोक्ष (समाधि) की प्राप्ति ही है। हठयोग के साधनों के माध्यम से वर्तमान में व्यक्ति स्वास्थ्य लाभ तो करता ही है पर इसके आध्यात्मिक लाभ भी निश्चित रूप से व्यक्ति को मिलते है।  हठयोग- नाम से यह प्रतीत होता है कि यह क्रिया हठ- पूर्वक की जाने वाली है। परन्तु ऐसा नही है अगर हठयोग की क्रिया एक उचित मार्गदर्शन में की जाये तो साधक सहजतापूर्वक इसे कर सकता है। इसके विपरित अगर व्यक्ति बिना मार्गदर्शन के करता है तो इस साधना के विपरित परिणाम भी दिखते है। वास्तव में यह सच है कि हठयोग की क्रियाये कठिन कही जा सकती है जिसके लिए निरन्तरता और दृठता आवश्यक है प्रारम्भ में साधक हठयोग की क्रिया के अभ्यास को देखकर जल्दी करने को तैयार नहीं होता इसलिए एक सहनशील, परिश्रमी और तपस्वी व्यक्ति ही इस साधना को कर सकता है।  संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ में हठयोग शब्द को दो अक्षरों में विभाजित किया है।  1. ह -अर्थात हकार  2. ठ -अर्थात ठकार हकार - का अर्थ

कठोपनिषद

कठोपनिषद (Kathopanishad) - यह उपनिषद कृष्ण यजुर्वेद की कठ शाखा के अन्तर्गत आता है। इसमें दो अध्याय हैं जिनमें 3-3 वल्लियाँ हैं। पद्यात्मक भाषा शैली में है। मुख्य विषय- योग की परिभाषा, नचिकेता - यम के बीच संवाद, आत्मा की प्रकृति, आत्मा का बोध, कठोपनिषद में योग की परिभाषा :- प्राण, मन व इन्दियों का एक हो जाना, एकाग्रावस्था को प्राप्त कर लेना, बाह्य विषयों से विमुख होकर इन्द्रियों का मन में और मन का आत्मा मे लग जाना, प्राण का निश्चल हो जाना योग है। इन्द्रियों की स्थिर धारणा अवस्था ही योग है। इन्द्रियों की चंचलता को समाप्त कर उन्हें स्थिर करना ही योग है। कठोपनिषद में कहा गया है। “स्थिराम इन्द्रिय धारणाम्‌” .  नचिकेता-यम के बीच संवाद (कहानी) - नचिकेता पुत्र वाजश्रवा एक बार वाजश्रवा किसी को गाय दान दे रहे थे, वो गाय बिना दूध वाली थी, तब नचिकेता ( वाजश्रवा के पुत्र ) ने टोका कि दान में तो अपनी प्रिय वस्तु देते हैं आप ये बिना दूध देने वाली गाय क्यो दान में दे रहे है। वाद विवाद में नचिकेता ने कहा आप मुझे किसे दान में देगे, तब पिता वाजश्रवा को गुस्सा आया और उसने नचिकेता को कहा कि तुम मेरे

प्राणायाम का अर्थ एवं परिभाषायें, प्राणायामों का वर्गीकरण

प्राणायाम का अर्थ- (Meaning of pranayama) प्राणायाम शब्द, प्राण तथा आयाम दो शब्दों के जोडने से बनता है। प्राण जीवनी शक्ति है और आयाम उसका ठहराव या पड़ाव है। हमारे श्वास प्रश्वास की अनैच्छिक क्रिया निरन्तर अनवरत से चल रही है। इस अनैच्छिक क्रिया को अपने वश में करके ऐच्छिक बना लेने पर श्वास का पूरक करके कुम्भक करना और फिर इच्छानुसार रेचक करना प्राणायाम कहलाता है। प्राणायाम शब्द दो शब्दों से बना है प्राण + आयाम। प्राण वायु का शुद्ध व सात्विक अंश है। अगर प्राण शब्द का विवेचन करे तो प्राण शब्द (प्र+अन+अच) का अर्थ गति, कम्पन, गमन, प्रकृष्टता आदि के रूप में ग्रहण किया जाता है।  छान्न्दोग्योपनिषद कहता है- 'प्राणो वा इदं सर्व भूतं॑ यदिदं किंच।' (3/15/4) प्राण वह तत्व है जिसके होने पर ही सबकी सत्ता है  'प्राणे सर्व प्रतिष्ठितम। (प्रश्नेपनिषद 2/6) तथा प्राण के वश में ही सम्पूर्ण जगत है  “प्राणस्वेदं वशे सर्वम।? (प्रश्नोे. -2/13)  अथर्वद में कहा गया है- प्राणाय नमो यस्य सर्वमिदं वशे।  यो भूतः सर्वेश्वरो यस्मिन् सर्वप्रतिष्ठितम्।॥ (अथर्ववेद 11-4-1) अर्थात उस प्राण को नमस्कार है, जिसके

बंध एवं मुद्रा का अर्थ , परिभाषा, उद्देश्य

  मुद्रा का अर्थ एवं परिभाषा  'मोदन्ते हृष्यन्ति यया सा मुद्रा यन्त्रिता सुवर्णादि धातुमया वा'   अर्थात्‌ जिसके द्वारा सभी व्यक्ति प्रसन्‍न होते हैं वह मुद्रा है जैसे सुवर्णादि बहुमूल्य धातुएं प्राप्त करके व्यक्ति प्रसन्‍नता का अनुभव अवश्य करता है।  'मुद हर्ष' धातु में “रक्‌ प्रत्यय लगाकर मुद्रा शब्दं॑ की निष्पत्ति होती है जिसका अर्थ प्रसन्‍नता देने वाली स्थिति है। धन या रुपये के अर्थ में “मुद्रा' शब्द का प्रयोग भी इसी आशय से किया गया है। कोष में मुद्रा' शब्द के अनेक अर्थ मिलते हैं। जैसे मोहर, छाप, अंगूठी, चिन्ह, पदक, रुपया, रहस्य, अंगों की विशिष्ट स्थिति (हाथ या मुख की मुद्रा)] नृत्य की मुद्रा (स्थिति) आदि।  यौगिक सन्दर्भ में मुद्रा शब्द को 'रहस्य' तथा “अंगों की विशिष्ट स्थिति' के अर्थ में लिया जा सकता है। कुण्डलिनी शक्ति को जागृत करने के लिए जिस विधि का प्रयोग किया जाता है, वह रहस्यमयी ही है। व गोपनीय होने के कारण सार्वजनिक नहीं की जाने वाली विधि है। अतः रहस्य अर्थ उचित है। आसन व प्राणायाम के साथ बंधों का प्रयोग करके विशिष्ट स्थिति में बैठकर 'म