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घेरण्ड संहिता में वर्णित प्राणायाम, विधि, लाभ एवं सावधानियाँ

 घेरण्ड संहिता में वर्णित कुम्भक (प्राणायाम)

घेरण्डसंहिता में महर्षि घेरण्ड ने आठ प्राणायाम (कुम्भको) का वर्णन किया है । प्राण के नियन्त्रण से मन नियन्त्रित होता है। अत: प्रायायाम की आवश्यकता बताई गई है। हठयोग प्रदीपिका की भांति प्राणायामों की संख्या घेरण्डसंहिता में भी आठ बताई गईं है किन्तु दोनो में थोडा अन्तर है। घेरण्डसंहिता मे कहा गया है-

सहित: सूर्यभेदश्च उज्जायी शीतली तथा।
भस्त्रिका भ्रामरी मूर्च्छा केवली चाष्टकुम्भका।। (घे.सं0 5 / 46)

1. सहित, 2. सूर्य भेदन, 3. उज्जायी, 4. शीतली, 5. भस्त्रिका, 6. भ्रामरी, 7. मूर्च्छा तथा 8. केवली ये आठ कुम्भक (प्राणायाम) कहे गए हैं। प्राणायामों के अभ्यास से शरीर में हल्कापन आता है।

1. सहित प्राणायाम- सहित प्राणायाम दो प्रकार के होते है (i) संगर्भ और (ii) निगर्भ । सगर्भ प्राणायाम में बीज मन्त्र का प्रयोग किया जाता हैँ। और निगर्भ प्राणायाम का अभ्यास बीज मन्त्र रहित होता है।

(i) सगर्भ प्राणायाम- इसके अभ्यास के लिये पहले ब्रह्मा पर ध्यान लगाना है, उन पर सजगता को केन्द्रित करते समय उन्हें लाल रंग में देखना है तथा यह कल्पना करनी है कि वे लाल है और रजस गुणों से परिपूर्ण है। उनका सांकेतिक वर्ण 'म' है फिर इड़ा नाड़ी अर्थात्‌ बायीं नासिका से पूरक करते हुए वायु को अन्दर खींचना है और आकार की मात्रा को सोलह बार गिनना है पूरक के पश्चात्‌ कुम्भक लगाना है और कुम्भक लगाकर उड़ियान बन्ध लगाना है।
सगर्भ प्राणायाम की यही विशेषता है, क्योकि सामान्य रूप से प्राणायाम में. व्यक्ति अन्तर्कुम्भक लगाता है, तो साथ में मूलबन्ध, जालन्धर बन्ध का अभ्यास होना चाहिए यदि बहिर्कुम्भक का अभ्यास कर रहा है तो उडियान बन्ध लगाना चाहिए, क्योकि उस समय पेट खाली रहता है।

(ii) निगर्म प्राणायाम- इस प्राणायाम तीन विभाजन किए गये है-  उत्तम, मध्यम और अधम। इस प्राणायाम में बीज मन्त्र का प्रयोग नही होता है और तत्व धरणा का अभ्यास भी नहीं करना है। केवल संख्या की गिनती करनी है। पूरक कुम्भक और रेचक की कूल गिनती 112 तक की ज़ा सकती है
उत्तम निगर्भ प्राणायाम में 20 तक गिनती से पूरक आरम्भ होता हैँ। अर्थात्‌ 20 गिनने तक श्वास लेना। 80 गिनने तक रोकना तथा 40 गिनने तक छोड़ना। मध्यम निगर्भ में 16 मात्रा का अभ्यास करना है अर्थात्‌ पूरक कुम्भक रेचक में 16, 64, 32 का अनुपात रहे अधम निगर्भ में 12 तक गिनती से पूरक क्रिया की जाती है।

 जो व्यक्ति 20 गिनने तक पूरक, 80 मात्रा तक कुम्भक 40 मात्रा तक रेचक करता है। उसके लिए स्वंम् पर, अपनी श्वास पर शारीरिक आन्तरिक बैचनी पर मानसिक उत्तेजना तथा मस्तिष्क की स्थिति पर बहुत संयम रखना आवश्यक हो जाता है।
उत्तम प्राणायाम के सिद्ध होने पर भुमि व्याग होता है। मध्यम की सिद्धि के लक्षण है मेरूदण्ड में कम्पन तथा अधम निगर्भ प्राणायाम में अगर शरीर से पसीना निकलने लगे तो यह मान लेना चाहिए कि इसकी सिद्धि हो गई प्राणों के क्षेत्र में स्पन्दन या जाग्रति प्रारम्भ हो रही है। 

2. सूर्यभेदन प्राणायाम- विधि- ध्यान के किसी सुविधाजनक आसन में बैठते है सिर एवं मेरूदण्ड को सीधा रखें हाथों को घुटनों के ऊपर ज्ञान मुद्रा में रखें आँखों को बन्द कर पूरे शरीर को शिथिल बनाए। जब शरीर शान्त, शिथिल एवं आरामदायक स्थिति में हो तो श्वास के प्रति तब तक संयम बने रहे जब एक यह धीमी गहरी न हो जाए। फिर दाहिने हाथ की तर्जनी मध्यमा को भ्रूमध्य पर रखें। दोनों उंगुलियाँ तनावरहित रहें अंगूठें को दायीं नासिका के ऊपर तथा अनामिका को बायीं नासिका के ऊपर रखें इन उंगुलियों द्वारा क्रम से नासिका छिद्र को बन्द कर श्वास के प्रवाह को नियन्त्रित किया जाता है।

पहली और दूसरी उंगुली हमेशा भ्रूमध्य में रहेगी | अनामिका से बायीं नासिका को बन्द कर दाहिनी नासिका से श्वास अन्दर खीचते हैँ, गिनती के साथ ताकि श्वास पर नियन्त्रण रहे। पूरक की समाप्ति पर दोनों नासिकाओं क़ो बन्द कर लेते है। कुम्भक करते हुए जलन्धर बन्ध मूलबन्ध लगाते है। पहली बार अभ्यास करते हुए कुछ ही क्षण रहे। फिर मूलबन्ध छोडकर जालन्धर बन्ध को छोड़े। पूरक, कुम्भक रेचक का अनुपात 1:4:2 होता है प्रारम्भ में 1:3:2 भी हो सकता है फिर जालन्धर मूलबन्ध का अभ्यास करते है। चार के अनुपात में कुम्भक के पश्चात्‌ पहले मूलबन्ध छोड़ते है, फिर जालन्धर बन्ध। सिर को सीधा करते है। दाहिनी नासिका से ही श्वास बाहर करते है। यह एक आवृति है। प्रारम्भ में इसकी 10 आवृतियाँ पर्याप्त है किन्तु धीरे-धीरे इस अवधि को बढ़ाया जा सकता है।
सावधानियाँ- भोजन के पश्चात्‌ कदापि न करें। इसका अभ्यास अधिक देर तक करने पर यह श्वसन चक्र में असन्तुलन उत्पन्न कर सकता है। हृदय रोग, उच्च रक्तचाप, मिर्गी से ग्रस्त व्यक्तियों को इसका अभ्यास नहीं करना चाहिए।
सूर्यभेदन प्राणायाम के लाभ- कुण्डलिनीं शक्ति को जागृत करता है। शरीर की अग्नि, ताप को उत्तेजित करता है। अन्तर्मुखी को बहिर्मुखी बनाने में उपयोगी है। वात-दोष का निवारण करता है निम्न रक्तचाप बाँझपन कृमि के उचार में भी सहायक हैँ।

2. उज्जायी प्राणायाम-  विधि - दोनों नासिकाओं से पूरक करते हुए श्वास को अन्दर खींचना है और वायु को मुँह में ही रखना है। इसके बाद कण्ठ को सकांचित कर सूक्ष्म ध्वनि उत्पन्न करते हुए हृदय गले से वायु को खींचना है। इस वायु का योग पूरक के द्वारा खींची गई वायु से करना है। इस प्रकार पूर्ण उज्जायी श्वास लेकर फिर अंतरंग कुम्भक जालन्धर बन्ध का अभ्यास करना। इसके पश्चात्‌ उसी मार्ग में वैसी ही ध्वनि करते हुए रेचक के द्वारा धीरे-धीरे श्वास को बाहर निकाल दिया जाता है।

सावधानियाँ- अन्तर्मुखी व्यक्ति इसका अभ्यास न करें। हृदय रोग से पीड़ित व्यक्तियों को उज्जायी के साथ बन्धो कुम्भक का अभ्यास नहीं करना चाहिए।

उज्जायी प्राणायाम के लाभ- अनिद्रा में लाभकारी अभ्यास है। उच्च रक्तचाप से पीड़ित व्यक्तियों के लिए भीँ सहायक होता है। इसका अभ्यास निरन्तर करने से कफ, कब्ज, आंव, आंत का फोड़ा, जुकाम, बुखार यकृत आदि के रोग नहीं होते। प्रत्याहार के अभ्यास में उच्चायी विशेष लाभप्रद है।

4. शीतली प्राणायाम- विधि- जीभ को बाहर निकाल कर उसे एक नली के समान बनाना उस नली के माध्यम से गहरी श्वास खींचकर उदर को वायु से भर देना है तथा कुछ क्षणों के लिए की कुम्भक का अभ्यास करना है। पूरक रेचक के बीच क्षणमात्र का अन्तराल होना चाहिए। तो क्षण भर कुम्भ्क के दौरान जीभ को अन्दर खींचा जाता है। मुँह को बन्द किया जाता है। फिर नासिका से श्वास बाहर निकाली जाती है यह एक आवृति हुई।

शीतली प्राणायाम के लाभ- इस अभ्यास से अजीर्ण कफ पित्त की बीमारी नहीं होती है। यह मानसिक भवनात्मक उत्तेजनाओं को शान्त करता है। निद्रा के पूर्व प्रशानन्‍तक के रूप में किया जा सकता है। भूख-प्यास पर नियन्त्रण होता है। रक्तचाप पेट की अम्लीयता को कम करने में सहायक है।

5. भस्त्रिका प्राणायाम-
विधि- इस प्राणयाम में लोहार की धौकनी की भांति समान अन्तर से नासिका द्वारा बार-बार पूरक एवं रेचक की क्रिया की जाती है। नासिका से लययुक्त श्वास लेने छोड़ने की क्रिया जल्दी-जल्दी की जाती है।

 सावधानियाँ- उच्च रक्तचाप, हृदय रोग, अलसर, हर्निया, मिर्गी आदि रोग से पीडित व्यक्तियों को यह अभ्यास नहीं करना चाहिए। गरमी के दिनों में इसका अभ्यास कम करना चाहिए। क्योकि इस प्राणायाम से शरीर के तापमान में वृद्धि होती है।यदि भ्रस्त्रिका का अधिक अभ्यास करेंगें तो रक्त की गन्दगी तीव्र गति से बाहर आयेगी और शरीर में फोड़े फुन्सी चर्म रोग इत्यादि की शिकायत होने लगेगी। अतः धैर्यपूर्वक अभ्यास में आगे बढ़े। अशुद्धियों का निष्कासन धीरे-धीरे होने दें जिससें किसी बीमारी से ग्रस्त होने की ज्यादा सम्भावना न रहे |

भस्त्रिका प्राणायाम के लाभ- इस अभ्यास से वात, पित्त, कफ का निवारण होता है। फेफड़ों के वायुकोशों को खोलता है। चपापचय की गति बढ़ जाती है। मल और विषाक्त तत्वों का निष्कासन होता है। पाचन संस्थान को स्वस्थ बनाता है। प्राणिक शरीर को सामर्थ्यशाली बनाता है।यह प्राणायाम शरीर को नाड़ी संस्थान के लिय़े भी उत्तम अभ्यास है।यह गले की सूजन तथा जमा कफ को दूर करता है। तन्त्रिका तन्त्र को सन्तुलित शक्तिशाली बनाता है।

6. भ्रामरी प्राणायाम- विधि- ध्यान के किसी सुविधाजनक आसन में बैठते है। मेरूदण्ड एवं सिर को सीधा रखते है। दोनों हाथ ध्यान या ज्ञानमुद्रा में घुटनों के ऊपर रखतें है। इस अभ्यास के आदर्श आसन पद्यासन या सिद्धासन है। आँखों को बन्द कर पूरे शरीर को शिथिल बनाते है। पूरे अभ्यास के समय दांतों को परस्पर अलग रखते तथा मुँह को बन्द रखते है इससे कम्पन को स्पष्ट सुना जा सकेगा तथा उसको मस्तिष्क में अनुभव भी किया जा सकेगा जबड़ो को ढीला रखें। हाथों को बगल में कन्धों के समानान्तर फैलाते है। फिर कोहनियों से मोड़कर होथों को कानों के पास लाते हुए तर्जनी या मध्यमा उँगनियों सें कानो को बन्द करते है। इसके बाद अपनी सजगता को मस्तिष्क के केन्द्र पर एकाग्र करें, जहाँ आज्ञा चक्र स्थित है। सम्पूर्ण शरीर को पूर्णतया स्थिर रखें। नासिका से पूरक कर रेचक के समय भ्रमर के गुंजन के समान आवाज करें। गूंजन की ध्वनि पूरे रेचक में स्थिर, गहरी सम अखण्ड होनी चाहिए। रेचक पूर्ण रूप से नियन्त्रित हो तथा उसकी गति मन्द हो। यह एक आवृति हुई। रेचक पूर्ण होने पर गहरी श्वास लें और अभ्यास की पुनरावृत्ति करें।

इस अभ्यास की अगली अवस्था में कानों को“बन्द रखते हुए चुपचाप सामान्य श्वास लेते बैठे रहते है धीरे-धीरे अपनी सजगता को अन्तर्मुखी एवं सूक्ष्म बनाते हुए भीतर में उत्पन्न ध्वनियों को सुनने का प्रयास करते है। आरम्भ में श्वास की आवाज सुनाई पड़ती है। जैसे ही एक ध्वनि के प्रति सजग होते है, वैसे ही अन्य ध्वनियो को छोड़कर केवल उस ध्वनि के प्रति सजग रहने का प्रयत्न करते है। कुछ दिनों या सप्ताहों के नियमित अभ्यास से ऐसा प्रतीत होगा कि वह ध्वनि अधिक स्पष्ट तीव्र होती जा रही है। पूर्ण सजगता से उस ध्वनि से सुनते जाए। केवल उस ध्वनि की ओर अपनी सजगता को प्रवाहित होने दे तथा अन्य सभी ध्वनियों एवं विचारों को भूल जायें।

सावधानियाँ- भ्रामरी का अभ्यास लेटकर नहीं करना चाहिए। कानों में संक्रमण होने पर इसका उपयोग न करें। हृदय रोग से पीड़ित व्यक्तियों को बिना कुम्भक इसका अभ्यास करना चाहिए।

भ्रामरी प्राणायाम के लाभ- भ्रामरी प्राणायाम क्रोध, चिन्ता, अनिद्रा का निवारण करता है तथा रक्‍त चाप को घटाकर मस्तिष्कीय तनाव परेशानी को दूर करता है। गले के रोगों का निवारण करता है। यह आवाज को सुधारता, मजबूत बनाता है। यह शरीर के ऊतकों के स्वस्थ होने की गति को बढ़ाता है।


7. मूर्च्छा प्राणायाम- मूर्च्छा प्राणायाम का अभ्यास किसी भी आरामदायक आसन में कर सकते हैं। पद्यासन, सिंहासन, स्वास्तिकासन, वजसान या सुखासन में भी बैठ सकते है। सिर मेरूदण्ड को एकदम सीधा रखते हैं। सम्पूर्ण शरीर को शिथिल बनाते हैं आँखों बन्द कर श्वास अन्दर खीचते हैं फिर धीरे-धीरे सिर को ऊपर उठाया जाता है। एकदम छत की तरफ नहीं बस 45 अंश का कोण बनाते हुए सिर को उठाते हुए आँखों को धीरे-धीरे खोलते है 45 अंश के कोण तक सिर के पहुँचते-पहुँचते आँखें पूरी खुल जाती है और शाम्भवी दृष्टि का अभ्यास होता है। शाम्भवी दृष्टि में कुम्भक लगाया जाता है।

हाथो से घुटनों पर दबाव डालते हुए कोहनियों को सीधा रखते है। जब तक कुम्भक लगा सकते है तब तक शाम्भवी दृष्टि का अभ्यास करते जाइए। जब कुम्भक न लगा सके तब धीरे धीरे श्वास छोड़ते हुए सिर को नीचे लाइये आँखों को सामने लाकर उन्हें बन्द कर लीजिये। भुजाओं को शिथिल कीजिए सामान्य श्वास लेते हुए सम्पूर्ण मन में शान्ति फैलाने का अनुभव करें। खोपड़ी में जो हलकेपन का अनुभव हो रहा है उसे देखते रहिए यह मूर्च्छा प्राणायाम है।

सावधानियाँ- उच्च रक्तचाप सिर में चक्कर आना या मस्तिष्क में चोट लगना हृदय या फेफड़े के रोगों से पीडित व्यक्तियों को नहीं करना चाहिए ।

मूर्च्छा प्राणायाम के लाभ- शरीर मस्तिष्क को विश्राम मिलता है। व्यक्ति का बहिर्मुखी मन स्वतः अन्तर्मुखी होने लगता है।

8. केवली प्राणायाम-  विधि- यह वास्तव में अजपाजप है। इसमें शरीर के तीन मुख्य केन्द्रों में श्वास की कल्पना की जाती है। जब ऊपर चढ़ रही है अनाहत चक्र को पार करके नासिकाग्र तक पहुँच रही है। जब श्वास छोड़ते है तब अनुभव करना है कि श्वास की चेतना नासिका के अग्रभाग से नीचे मूलाधार की ओर जा रही है क्रमशः जैसे-जैसे इन श्वास केन्द्रों से गुजरती है, इस पर ध्यान को केन्द्रित करना है।

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आसन का अर्थ आसन शब्द के अनेक अर्थ है जैसे  बैठने का ढंग, शरीर के अंगों की एक विशेष स्थिति, ठहर जाना, शत्रु के विरुद्ध किसी स्थान पर डटे रहना, हाथी के शरीर का अगला भाग, घोड़े का कन्धा, आसन अर्थात जिसके ऊपर बैठा जाता है। संस्कृत व्याकरंण के अनुसार आसन शब्द अस धातु से बना है जिसके दो अर्थ होते है। 1. बैठने का स्थान : जैसे दरी, मृग छाल, कालीन, चादर  2. शारीरिक स्थिति : अर्थात शरीर के अंगों की स्थिति  आसन की परिभाषा हम जिस स्थिति में रहते है वह आसन उसी नाम से जाना जाता है। जैसे मुर्गे की स्थिति को कुक्कुटासन, मयूर की स्थिति को मयूरासन। आसनों को विभिन्न ग्रन्थों में अलग अलग तरीके से परिभाषित किया है। महर्षि पतंजलि के अनुसार आसन की परिभाषा-   महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र के साधन पाद में आसन को परिभाषित करते हुए कहा है। 'स्थिरसुखमासनम्' योगसूत्र 2/46  अर्थात स्थिरता पूर्वक रहकर जिसमें सुख की अनुभूति हो वह आसन है। उक्त परिभाषा का अगर विवेचन करे तो हम कह सकते है शरीर को बिना हिलाए, डुलाए अथवा चित्त में किसी प्रकार का उद्वेग हुए बिना चिरकाल तक निश्चल होकर एक ही स्थिति में सुखपूर्वक बैठने को

सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति सामान्य परिचय

सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति अध्याय - 2 (पिण्ड विचार) सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार नौ चक्रो के नाम 1. ब्रहमचक्र - मूलाधार मे स्थित है, कामनाओं की पूर्ति होती हैं। 2. स्वाधिष्ठान चक्र - इससे हम चीजो को आकर्षित कर सकते है। 3. नाभी चक्र - सिद्धि की प्राप्ति होती है। 4. अनाहत चक्र - हृदय में स्थित होता है। 5. कण्ठचक्र - विशुद्धि-संकल्प पूर्ति, आवाज मधुर होती है। 6. तालुचक्र -  घटिका में, जिह्वा के मूल भाग में,  लय सिद्धि प्राप्त होती है। 7. भ्रुचक्र -     आज्ञा चक्र - वाणी की सिद्धि प्राप्त होती है। 8. निर्वाणचक्र - ब्रहमरन्ध्र, सहस्त्रार चक्र, मोक्ष प्राप्ति 9. आकाश चक्र - सहस्त्रारचक्र के ऊपर,  भय- द्वेष की समाप्ति होती है। सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार सोहल आधार (1) पादांगुष्ठ (2) मूलाधार (3) गुदाद्वार (4) मेद् आधार (5) उड्डियान आधार (6) नाभी आधार (7) हृदयाधार (8) कण्ठाधार (9) घटिकाधार (10) तालु आधार (11) जिह्वा आधार सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार तीन लक्ष्य (Aim) 1. अन्तर लक्ष्य (Internal) - मेद्‌ - लिंग से उपर  एवं नाभी से नीचे के हिस्से पर अन्दर ध्यान लगाना। 2. बर्हि: लक्ष्य (Oute