Skip to main content

प्राणायाम के उद्देश्य, प्राणायाम के सिद्धान्त

प्राणायाम के उद्देश्य / प्राणायाम की उपयोगिता-  

प्राणायाम के महत्व को जानते हुए हमारे ऋषिमुनियों ने बड़े सहज व स्पष्ट रुप से प्राणायाम की चर्चा की है। प्राण, वायु का शुद्ध व सात्विक अंश है इस प्राण शक्ति को पूरे शरीर में विस्तारित करना ही प्राणायाम है। प्राणायाम का उपयोग करके मानव जीवन को भली प्रकार जी सकता है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में इसकी उपयोगिता विभिन्न शोधों के माध्यम से सिद्ध हो रही है। शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक उन्नति प्राणायाम के निरन्तर अभ्यास से प्राप्त की जा सकती है। निःसन्देह प्राणायाम हमारे ऋषियों की मानव जाति के लिये अनुपम देन है।

1. शारीरिक उन्नति-  प्राणायाम के द्वारा साधक की शारीरिक स्थिति उन्नत होती है। आयुर्वेद का सिद्धान्त है कि जो स्वस्थ हों, उनको स्वस्थ रखा जाए और जो रोगी हो, उन्हें रोग मुक्त किया जाए।

 'स्वस्थस्य स्वास्थ्यरक्षणम्आतुरस्य विकारप्रशमनम्

आयुर्वेद की यह मान्यता योग पर भी इसी रूप में लागू होती है। प्राणायाम को योग का सार कहा गया है। प्राणायाम' द्वारा उक्त दोनों दृष्टिकोणों की पूर्ति होती है। प्राणायाम का अभ्यास करके साधक असीम बल, तेज व बुद्धि की प्राप्ति तथा आन्तरिक शक्तियों का जागरण करने में समर्थ होता है। बलिष्ठ शरीर समस्त दैनिक क्रियाकलापों तथा आध्यात्मिक क्षेत्र में बढ़ने के लिए प्रथम आवश्यकता है। अतः शरीर को दृढ करने के लिए प्राणायाम का उपयोग किया जाता है। प्राणायाम के अभ्यास के त्रिदोषों (वात, पित्त व कफ) को साम्यावस्था में रखा जा सकता है जिससे समस्त धातुओं (रस, रक्त, माँस, मेद, अस्थि, मज्जा ,शुक्र) की पुष्टि होकर शरीर निरोग रहता है। शरीरस्थ प्राण शक्ति साधक को ऊर्जावान बनाती है। इस प्रकार प्राणायाम के अभ्यासी साधक को स्वस्थ एवं बलिष्ट शरीर की प्राप्ति होती है। हमारे फेफड़ों के असंख्य कोष है जो वायु को धारण करते हैं किन्तु कुछ कोषों तक प्राणवायु नहीं पहुँचती तथा उनका उपयोग नहीं होता जिससे वे स्वस्थ नहीं रहते तथा धीरे-धीरे शरीर में ह्रास की स्थिति . उत्पन्न हो जाती है। फेफड़ों में वायु पूर्ण रूप से भरकर रक्त में स्थित कार्बबडाइऑक्साइड को कम करके शरीर को निरोग रखा जा सकता है।

प्राणायाम का अभ्यास करने वाला साधक विभिन्न शारीरिक व्याधियों से बचा रहता है तथा उसकी कार्यक्षमता में वृद्धि हो जाती है। शरीरस्थ मलों का निवारण होने पर त्रिदोष साम्यावस्था में आ जाते हैं जिससे व्याधि का कारण ही नष्ट हो जाता है। प्राणायाम के विविध भेदों द्वारा विविध रोगों के निवारण का वर्णन प्राप्त होता है। जैसे हठयोग प्रदीपिका मे बताया गया है-
सूर्यभेदन- कपालशोधक, वातरोग व कृमिरोग नाशक आदि। (2/50) 

उज्जायी- कण्ठस्थित कफनिवृति, जठराग्नि प्रदीप्त कारक, जलोदर, धातुदोष आदि का निवारक (2/52-53)

 सीत्कारी- क्षुधा, तृष्णा, निद्रा व आलस्य का नाश करने वाला, शरीर पर नियंत्रण देने वाला, कामदेव के समान सुन्दर शरीर बनाने वाला। (2/5556)

शीतली- वायुगोला, तिल्ली, ज्वर, पित्त, क्षुधा, तृष्णा आदि में लाभकारी तथा विष के प्रभाव को नष्ट करने वाला है। (2/58)

 भस्त्रिका- वात पित्त-कफ जन्य विकारों में लाभदायक तथा जठराग्नि प्रदीप्त कारक है। (2/65) 

स्वामी चरणदास जी भक्तिसागर में कहते हैं कि प्राणायाम आयु व बल बढ़ाने वाला तथा शरीर में रोगों की निवृत्ति करने वाला है

प्राणायाम बड़ा तप सोई। प्राणायाम सो बल नहिं कोई। 

प्राणवायु को यह वश लावै। मन को निश्चल करि ठहरावे।।

आयुर्दा को यही बढावै। तन में रोग रहन नहिं पावै।। (भक्तिसागर अष्टांगयोग)

2. मानसिक उन्नति-  प्राणायाम का अभ्यासी स्वस्थ शरीर के कारण उच्च मानसिक स्थिति वाला होता है। 'प्राणायामैर्टहेद्दोषान' प्राणायाम के अभ्यास से दोष नष्ट हो जाते हैं। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का वास होता है। 'आसनेन रुजो हन्ति प्राणायामेन पातकम्' आसन से रोग दूर होते हैं और प्राणायाम से मानसिक विकार दूर होते हैं। मन अपनी इच्छानुकूल गति न करके साधक के वश में हो जाता है और साधक का अन्तःकरण पवित्र होने के कारण उसमें दोषों या विकारों के लिए कोई स्थान नहीं बचता। इसी कारण ऐसा साधक संसार में एकत्व की भावना रखता है। वह न किसी से राग, न किसी से द्वेष की स्थिति, प्राप्त होने पर सब पापों से मुक्त होकर आध्यात्म मार्ग पर अग्रसर हो जाता है। ऐसा साधक ही संसार का आभूषण बनकर सबके हृदयों पर राज्य करता है। |

3. आध्यात्मिक उन्नति- आध्यात्मिक दृष्टिकोण से प्राणायाम का उद्देश्य चित्त की स्थिरता है जिससे साधक समाधि की अवस्था प्राप्त करके कैवल्य की सीमा में प्रविष्ट हो सके। कहा भी है

चले वाते चलें चित्त निश्चले निश्चलं भवेत। (ह.प्र. 2/2 )

इसलिए चित्त की चंचलता को समाप्त करने के लिए प्राणायाम का अभ्यास किया जाता है। साधना की प्रारम्भिक अवस्था में आसन का अभ्यास दृढ़ हो जाने के बाद चित्त को नियंत्रित करने में प्राणायाम महत्वपूर्ण भूमिका निर्वाह करता है। योगसूत्र में कहा गया है- 

ततः क्षीयते प्रकाशावरणम। (योगसूत्र 2/ 52)

प्राणायाम के अभ्यास से विवेकज्ञान पर पड़े अविद्या रूपी अज्ञान के आवरण को क्षीण किया जाता है तथा

धारणासु च योग्यता मनसः। (योगसूत्र 2/ 53)

चित्त में धारणा, ध्यान व समाधि की योग्यता उत्पन्न हो जाती है जिससे चरमल्रक्ष्य कैवल्य की प्राप्ति सम्भव हो सकती है। हठयोग प्रदीपिका की मान्यता- कि मल से पूरित नाड़ियों में पवन का संचरण नहीं होता। सुषुम्ना में पवन संचरण न होने पर कुण्डलिनी जागरण सम्भव नहीं है। अतः प्राणायाम करके मलो का निवारण करने पर कुण्डलिनी द्वारा चक्रभेदन की क्रिया होने से चरमलक्ष्य की प्राप्ति हो सकती है।

मलाकुलासु नाडीषु मारुतो नैव मध्यगः।

 कर्थ स्यादुन्मनी भावः कार्यसिद्धिः कर्थ भवेत्।। 

शुद्विमेति यदा सर्व नाडीचक्रं मलाकुलम्। 

तदैव जायते योगी प्राणसंग्रहणे क्षमः।। 

प्राणायामं ततः कुर्यान्नित्यं सात्विकया धिया। 

यथा सुषुम्ना नाडीस्था मलाः शुद्धि प्रयान्ति च।। (ह-प्र. 2/4,5,6)

इसके लिए नाडीशोधन प्राणायाम का विधान किया गया है। 

भक्तिसागर में स्वामी चरणदास भी कहते हैं-

ज्यों ज्यों होवे प्राणवश, त्यों त्यों मन वश होय। 

ज्यों ज्यों इन्द्री थिर रहै, विषय जायं सब खोय।। 

ताते प्राणायाम करि, प्राणायामहि सार। 

पहिले प्राणायाम करि पीछे, प्रत्याहार।। (भक्तिसागर अष्टांगयोग)

यह तो निर्विवाद है कि प्राणायाम मनुष्य के लिए दैवी वरदान है जिसका उपयोग करके वह लोक में रहकर सफलतापूर्वक जीवनयापन कर सकता है। दोषों के नष्ट होने तथा सुसंस्कारों के अर्जन से वह उच्चतर योनियों में जन्म धारण करेगा अथवा कैवल्य की स्थिति प्राप्त कर असीम आनन्द का उपभोग करेगा। 

प्राणायाम के सिद्धान्त - Principles of Pranayama


प्राणायाम करने से पहले प्राणायाम करने के सिद्धान्तों की जानकारी आवश्यक है। अतः संक्षेप में
प्राणायाम करने के सिद्धान्तों का वर्णन किया जा रहा है-

प्राण को अग्नि कहा जाता है। अग्नि के साथ खिलवाड़ करने वाला भस्म हो जाता है। उसी प्रकार प्राणायाम को खेल समझकर इसका अभ्यास नहीं करना चाहिए। अपितु जैसे वन में रहने वाले सिंह, हाथी आदि बलिष्ठ प्राणी भी धीरे धीरे विधिपूर्वक वश में कर लिए जाते है, उसी प्रकार धीरे धीरे प्राणायाम का विधिपूर्वक अभ्यास करने पर प्राण वश में हो जाता है और किसी प्रकार का अहित नहीं होता। हठयोग प्रदीपिका में कहा है

यथा सिंहो गजो व्याप्नो भवेद्वश्य शनै: शनै:। 

तथैव सेवितो वायुरन्यथा हन्ति साधकम् ।। (ह.प्र. 2/15)

. विधिपूर्वक अभ्यास करने पर रोगों का नाश तथा ठीक विधि से न किए जाने पर रोगों की उत्पत्ति हो जाती है। अतः मात्रा, काल, शरीर की सामर्थ्य, उचित आहार आदि का ध्यान रखकर अभ्यास करें। (ह.प्र.2/ 16)

स्थूल काय प्रकृति वाले साथकों को चाहिए कि षटकर्मों का अभ्यास करके पहले दोष निवारण कर ले। अन्य लोगों को षटकर्मों की आवश्यकता नहीं है। फिर भी नेति, धोंति, नौलि, त्राटक, कपालभाति के अभ्यास से साधक के शरीर में हल्कापन आ जाता है। अतः कभी कभी इनका अभ्यास करना भी श्रेयस्कर है। (ह.-प्र. 2 /21)

प्राणायाम के अभ्यास से शरीर में पसीना आए तो उसे शरीर पर मल लेना चाहिए। इससे शरीर में दृढता व स्थिरता आती है। (ह.प्र. 2 /13)  

शुद्ध, स्वच्छ, पवित्र, धूल धुआँ व दुर्गन्ध रहित एकान्त स्थान पर ही अभ्यास करना चाहिए। 

केवल योग साधना कार्य में रत पूर्णकालिक साधको को चार बार प्राणायाम का अभ्यास करने का विधान किया गया है। किन्तु अन्य अंशकालिक साधकों को प्रातःकाल ही प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए। (ह.प्र. 2/ 11)

नये साधक को बसन्त व शरद ऋतु में योगारम्भ आरम्भ करना चाहिए। हेमन्त, शिशिर, ग्रीष्म तथा वर्षा में योगाभ्यास न करें। यदि करेंगे तो रोग होने की सम्भावना होगी। (घे.सं-5/8 9)

प्राणायाम के अभ्यास को एक बार में 5 से बढ़ाकर 80 तक ले जाना तथा 4 मात्रा से 20 मात्रा तक बढ़ाना चाहिए। इसी प्रकार पूरक, कुम्भक व रेचक में 1:1:1, 1:2:1, 1:2:2, 1:3:2, 1:4:2 का अनुपात रखकर धीरे थीरे (10 -15 दिन तक एक अभ्यास करना) अभ्यास करने पर प्राणायाम सिद्ध हो जाता है।

पूरक (श्वास भरते समय) में पेट बाहर तथा वक्षस्थल उभार लेता हुआ होना चाहिए। रेचक (श्वास निकलते समय) में पेट अन्दर तथा वक्षस्थल दबता हुआ रहे। उडडीयान बंध लगाकर पेट को ऊपर की ओर खींचना चाहिए।

मिताहार का प्रयोग करें। घी, दूध आदि चिकनाई युक्त पदार्थों का सेवन करने से प्राणायाम द्वारा उत्पन्न अग्नि का शमन होता रहता है। यात्रा, आगतापना व स्त्री संग वर्जित है।

सर्वप्रथम केवल नाड़ीशोधन प्राणायाम का अभ्यास न्यूनतम चार मास करके नाड़ियों की शुद्धि कर ले। तत्पश्चात प्राणायाम का अभ्यास करें। अनावश्यक बल प्रयोग सर्वथा वर्जित है।

प्राणायाम से पूर्व निम्न तैयारी आवश्यक है

पद्मासन या सिद्धासन में सिद्धि प्राप्त कर लेनी चाहिए ताकि प्राणायाम के लिए निश्चल होकर बैठा जा सके।

अभ्यास खाली पेट करना चाहिये। भोजन के बाद यदि करना है तो 5- 6 घंटे के अन्तराल पर कर सकते है।

जिस स्थान पर अभ्यास करना है, वहाँ वायु का आवागमन तो हो किन्तु वायु सीधी अभ्यासी के शरीर पर नहीं लगनी चाहिए।

स्नान प्राणायाम से पूर्व कर लेंना
चाहिएं। यदि बाद में करना है तो न्यूनतम आधा घंटा का अंतर होना चाहिए।

वस्त्र आरामदायक होने
चाहिए। यदि मच्छर, मक्खी आदि का व्यवधान हो तो साधक वस्त्र ओढकर भी बैठ सकता है।

प्राणायाम की सही विधि जानकर ही अभ्यास करना
चाहिए। यदि अभ्यास करते समय सिरदर्द, आंखों में दर्द, हिचकी, खांसी, श्वास रोग, कानदर्द आदि हो जाए तो अभ्यास छोड़कर केवल दीर्घश्वसन करना चाहिए।

रेचक, पूरक, कुम्भक, प्राण भेद, प्राणायाम भेद, प्राणायाम की सही विधियाँ, मात्रा, काल, बंध, षटचक्र, कुण्डलिनी, नाडियाँ आदि की जानकारी साधक को होनी चाहिए। 

Yoga Book in Hindi

Yoga Books in English

Yoga Book for BA, MA, Phd

Gherand Samhita yoga book

Hatha Yoga Pradipika Hindi Book

Patanjali Yoga Sutra Hindi

Shri mad bhagwat geeta book hindi

UGC NET Yoga Book Hindi

UGC NET Paper 2 Yoga Book English

UGC NET Paper 1 Book

QCI Yoga Book 

Yoga book for class 12 cbse

Yoga Books for kids


Yoga Mat   Yoga suit  Yoga Bar   Yoga kit


हठयोग का अर्थ , परिभाषा, उद्देश्य

ईश्वर का स्वरूप

अष्टांग योग

Comments

Popular posts from this blog

आसन का अर्थ एवं परिभाषायें, आसनो के उद्देश्य

आसन का अर्थ आसन शब्द के अनेक अर्थ है जैसे  बैठने का ढंग, शरीर के अंगों की एक विशेष स्थिति, ठहर जाना, शत्रु के विरुद्ध किसी स्थान पर डटे रहना, हाथी के शरीर का अगला भाग, घोड़े का कन्धा, आसन अर्थात जिसके ऊपर बैठा जाता है। संस्कृत व्याकरंण के अनुसार आसन शब्द अस धातु से बना है जिसके दो अर्थ होते है। 1. बैठने का स्थान : जैसे दरी, मृग छाल, कालीन, चादर  2. शारीरिक स्थिति : अर्थात शरीर के अंगों की स्थिति  आसन की परिभाषा हम जिस स्थिति में रहते है वह आसन उसी नाम से जाना जाता है। जैसे मुर्गे की स्थिति को कुक्कुटासन, मयूर की स्थिति को मयूरासन। आसनों को विभिन्न ग्रन्थों में अलग अलग तरीके से परिभाषित किया है। महर्षि पतंजलि के अनुसार आसन की परिभाषा-   महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र के साधन पाद में आसन को परिभाषित करते हुए कहा है। 'स्थिरसुखमासनम्' योगसूत्र 2/46  अर्थात स्थिरता पूर्वक रहकर जिसमें सुख की अनुभूति हो वह आसन है। उक्त परिभाषा का अगर विवेचन करे तो हम कह सकते है शरीर को बिना हिलाए, डुलाए अथवा चित्त में किसी प्रकार का उद्वेग हुए बिना चिरकाल तक निश्चल होकर एक ही स्थिति में सुखपूर्वक बैठने को

Yoga MCQ Questions Answers in Hindi

 Yoga multiple choice questions in Hindi for UGC NET JRF Yoga, QCI Yoga, YCB Exam नोट :- इस प्रश्नपत्र में (25) बहुसंकल्पीय प्रश्न है। प्रत्येक प्रश्न के दो (2) अंक है। सभी प्रश्न अनिवार्य ।   1. किस उपनिषद्‌ में ओंकार के चार चरणों का उल्लेख किया गया है? (1) प्रश्नोपनिषद्‌         (2) मुण्डकोपनिषद्‌ (3) माण्डूक्योपनिषद्‌  (4) कठोपनिषद्‌ 2 योग वासिष्ठ में निम्नलिखित में से किस पर बल दिया गया है? (1) ज्ञान योग  (2) मंत्र योग  (3) राजयोग  (4) भक्ति योग 3. पुरुष और प्रकृति निम्नलिखित में से किस दर्शन की दो मुख्य अवधारणाएं हैं ? (1) वेदांत           (2) सांख्य (3) पूर्व मीमांसा (4) वैशेषिक 4. निम्नांकित में से कौन-सी नाड़ी दस मुख्य नाडियों में शामिल नहीं है? (1) अलम्बुषा  (2) कुहू  (3) कूर्म  (4) शंखिनी 5. योगवासिष्ठानुसार निम्नलिखित में से क्या ज्ञानभूमिका के अन्तर्गत नहीं आता है? (1) शुभेच्छा (2) विचारणा (3) सद्भावना (4) तनुमानसा 6. प्रश्नोपनिषद्‌ के अनुसार, मनुष्य को विभिन्न लोकों में ले जाने का कार्य कौन करता है? (1) प्राण वायु (2) उदान वायु (3) व्यान वायु (4) समान वायु

सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति सामान्य परिचय

प्रथम उपदेश- पिण्ड उत्पति विचार सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति अध्याय - 2 (पिण्ड विचार) सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार नौ चक्रो के नाम 1. ब्रहमचक्र - मूलाधार मे स्थित है, कामनाओं की पूर्ति होती हैं। 2. स्वाधिष्ठान चक्र - इससे हम चीजो को आकर्षित कर सकते है। 3. नाभी चक्र - सिद्धि की प्राप्ति होती है। 4. अनाहत चक्र - हृदय में स्थित होता है। 5. कण्ठचक्र - विशुद्धि-संकल्प पूर्ति, आवाज मधुर होती है। 6. तालुचक्र -  घटिका में, जिह्वा के मूल भाग में,  लय सिद्धि प्राप्त होती है। 7. भ्रुचक्र -     आज्ञा चक्र - वाणी की सिद्धि प्राप्त होती है। 8. निर्वाणचक्र - ब्रहमरन्ध्र, सहस्त्रार चक्र, मोक्ष प्राप्ति 9. आकाश चक्र - सहस्त्रारचक्र के ऊपर,  भय- द्वेष की समाप्ति होती है। सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार सोहल आधार (1) पादांगुष्ठ (2) मूलाधार (3) गुदाद्वार (4) मेद् आधार (5) उड्डियान आधार (6) नाभी आधार (7) हृदयाधार (8) कण्ठाधार (9) घटिकाधार (10) तालु आधार (11) जिह्वा आधार सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार तीन लक्ष्य (Aim) 1. अन्तर लक्ष्य (Internal) - मेद्‌ - लिंग से उपर  एवं नाभी से नीचे के हिस्से पर अन्दर ध्य

चित्त | चित्तभूमि | चित्तवृत्ति

 चित्त  चित्त शब्द की व्युत्पत्ति 'चिति संज्ञाने' धातु से हुई है। ज्ञान की अनुभूति के साधन को चित्त कहा जाता है। जीवात्मा को सुख दुःख के भोग हेतु यह शरीर प्राप्त हुआ है। मनुष्य द्वारा जो भी अच्छा या बुरा कर्म किया जाता है, या सुख दुःख का भोग किया जाता है, वह इस शरीर के माध्यम से ही सम्भव है। कहा भी गया  है 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्' अर्थात प्रत्येक कार्य को करने का साधन यह शरीर ही है। इस शरीर में कर्म करने के लिये दो प्रकार के साधन हैं, जिन्हें बाह्यकरण व अन्तःकरण के नाम से जाना जाता है। बाह्यकरण के अन्तर्गत हमारी 5 ज्ञानेन्द्रियां एवं 5 कर्मेन्द्रियां आती हैं। जिनका व्यापार बाहर की ओर अर्थात संसार की ओर होता है। बाह्य विषयों के साथ इन्द्रियों के सम्पर्क से अन्तर स्थित आत्मा को जिन साधनों से ज्ञान - अज्ञान या सुख - दुःख की अनुभूति होती है, उन साधनों को अन्तःकरण के नाम से जाना जाता है। यही अन्तःकरण चित्त के अर्थ में लिया जाता है। योग दर्शन में मन, बुद्धि, अहंकार इन तीनों के सम्मिलित रूप को चित्त के नाम से प्रदर्शित किया गया है। परन्तु वेदान्त दर्शन अन्तःकरण चतुष्टय की

चित्त विक्षेप | योगान्तराय

चित्त विक्षेपों को ही योगान्तराय ' कहते है जो चित्त को विक्षिप्त करके उसकी एकाग्रता को नष्ट कर देते हैं उन्हें योगान्तराय अथवा योग के विध्न कहा जाता।  'योगस्य अन्तः मध्ये आयान्ति ते अन्तरायाः'।  ये योग के मध्य में आते हैं इसलिये इन्हें योगान्तराय कहा जाता है। विघ्नों से व्यथित होकर योग साधक साधना को बीच में ही छोड़कर चल देते हैं। विध्न आयें ही नहीं अथवा यदि आ जायें तो उनको सहने की शक्ति चित्त में आ जाये, ऐसी दया ईश्वर ही कर सकता है। यह तो सम्भव नहीं कि विध्न न आयें। “श्रेयांसि बहुविध्नानि' शुभकार्यों में विध्न आया ही करते हैं। उनसे टकराने का साहस योगसाधक में होना चाहिए। ईश्वर की अनुकम्पा से यह सम्भव होता है।  व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तिदर्शनालब्धभूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाः (योगसूत्र - 1/30) योगसूत्र के अनुसार चित्त विक्षेपों  या अन्तरायों की संख्या नौ हैं- व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरति, भ्रान्तिदर्शन, अलब्धभूमिकत्व और अनवस्थितत्व। उक्त नौ अन्तराय ही चित्त को विक्षिप्त करते हैं। अतः ये योगविरोधी हैं इन्हें योग के मल भी

योग आसनों का वर्गीकरण एवं योग आसनों के सिद्धान्त

योग आसनों का वर्गीकरण (Classification of Yogaasanas) आसनों की प्रकृति को ध्यान में रखते हुए इन्हें तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है (1) ध्यानात्मक आसन- ये वें आसन है जिनमें बैठकर पूजा पाठ, ध्यान आदि आध्यात्मिक क्रियायें की जाती है। इन आसनों में पद्मासन, सिद्धासन, स्वस्तिकासन, सुखासन, वज्रासन आदि प्रमुख है। (2) व्यायामात्मक आसन- ये वे आसन हैं जिनके अभ्यास से शरीर का व्यायाम तथा संवर्धन होता है। इसीलिए इनको शरीर संवर्धनात्मक आसन भी कहा जाता है। शारीरिक स्वास्थ्य के संरक्षण तथा रोगों की चिकित्सा में भी इन आसनों का महत्व है। इन आसनों में सूर्य नमस्कार, ताडासन,  हस्तोत्तानासन, त्रिकोणासन, कटिचक्रासन आदि प्रमुख है। (3) विश्रामात्मक आसन- शारीरिक व मानसिक थकान को दूर करने के लिए जिन आसनों का अभ्यास किया जाता है, उन्हें विश्रामात्मक आसन कहा जाता है। इन आसनों के अन्तर्गत शवासन, मकरासन, शशांकासन, बालासन आदि प्रमुख है। इनके अभ्यास से शारीरिक थकान दूर होकर साधक को नवीन स्फूर्ति प्राप्त होती है। व्यायामात्मक आसनों के द्वारा थकान उत्पन्न होने पर विश्रामात्मक आसनों का अभ्यास थकान को दूर करके ताजगी

हठयोग का अर्थ , परिभाषा, उद्देश्य

  हठयोग का अर्थ भारतीय चिन्तन में योग मोक्ष प्राप्ति का एक महत्वपूर्ण साधन रहा है, योग की विविध परम्पराओं (ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग, हठयोग) इत्यादि का अन्तिम लक्ष्य भी मोक्ष (समाधि) की प्राप्ति ही है। हठयोग के साधनों के माध्यम से वर्तमान में व्यक्ति स्वास्थ्य लाभ तो करता ही है पर इसके आध्यात्मिक लाभ भी निश्चित रूप से व्यक्ति को मिलते है।  हठयोग- नाम से यह प्रतीत होता है कि यह क्रिया हठ- पूर्वक की जाने वाली है। परन्तु ऐसा नही है अगर हठयोग की क्रिया एक उचित मार्गदर्शन में की जाये तो साधक सहजतापूर्वक इसे कर सकता है। इसके विपरित अगर व्यक्ति बिना मार्गदर्शन के करता है तो इस साधना के विपरित परिणाम भी दिखते है। वास्तव में यह सच है कि हठयोग की क्रियाये कठिन कही जा सकती है जिसके लिए निरन्तरता और दृठता आवश्यक है प्रारम्भ में साधक हठयोग की क्रिया के अभ्यास को देखकर जल्दी करने को तैयार नहीं होता इसलिए एक सहनशील, परिश्रमी और तपस्वी व्यक्ति ही इस साधना को कर सकता है।  संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ में हठयोग शब्द को दो अक्षरों में विभाजित किया है।  1. ह -अर्थात हकार  2. ठ -अर्थात ठकार हकार - का अर्थ

कठोपनिषद

कठोपनिषद (Kathopanishad) - यह उपनिषद कृष्ण यजुर्वेद की कठ शाखा के अन्तर्गत आता है। इसमें दो अध्याय हैं जिनमें 3-3 वल्लियाँ हैं। पद्यात्मक भाषा शैली में है। मुख्य विषय- योग की परिभाषा, नचिकेता - यम के बीच संवाद, आत्मा की प्रकृति, आत्मा का बोध, कठोपनिषद में योग की परिभाषा :- प्राण, मन व इन्दियों का एक हो जाना, एकाग्रावस्था को प्राप्त कर लेना, बाह्य विषयों से विमुख होकर इन्द्रियों का मन में और मन का आत्मा मे लग जाना, प्राण का निश्चल हो जाना योग है। इन्द्रियों की स्थिर धारणा अवस्था ही योग है। इन्द्रियों की चंचलता को समाप्त कर उन्हें स्थिर करना ही योग है। कठोपनिषद में कहा गया है। “स्थिराम इन्द्रिय धारणाम्‌” .  नचिकेता-यम के बीच संवाद (कहानी) - नचिकेता पुत्र वाजश्रवा एक बार वाजश्रवा किसी को गाय दान दे रहे थे, वो गाय बिना दूध वाली थी, तब नचिकेता ( वाजश्रवा के पुत्र ) ने टोका कि दान में तो अपनी प्रिय वस्तु देते हैं आप ये बिना दूध देने वाली गाय क्यो दान में दे रहे है। वाद विवाद में नचिकेता ने कहा आप मुझे किसे दान में देगे, तब पिता वाजश्रवा को गुस्सा आया और उसने नचिकेता को कहा कि तुम मेरे

हठयोग प्रदीपिका में वर्णित प्राणायाम

हठयोग प्रदीपिका में प्राणायाम को कुम्भक कहा है, स्वामी स्वात्माराम जी ने प्राणायामों का वर्णन करते हुए कहा है - सूर्यभेदनमुज्जायी सीत्कारी शीतल्री तथा।  भस्त्रिका भ्रामरी मूर्च्छा प्लाविनीत्यष्टकुंम्भका:।। (हठयोगप्रदीपिका- 2/44) अर्थात् - सूर्यभेदन, उज्जायी, सीत्कारी, शीतली, भस्त्रिका, भ्रामरी, मूर्छा और प्लाविनी में आठ प्रकार के कुम्भक (प्राणायाम) है। इनका वर्णन ऩिम्न प्रकार है 1. सूर्यभेदी प्राणायाम - हठयोग प्रदीपिका में सूर्यभेदन या सूर्यभेदी प्राणायाम का वर्णन इस प्रकार किया गया है - आसने सुखदे योगी बदध्वा चैवासनं ततः।  दक्षनाड्या समाकृष्य बहिस्थं पवन शनै:।।  आकेशादानखाग्राच्च निरोधावधि क्रुंभयेत। ततः शनैः सव्य नाड्या रेचयेत् पवन शनै:।। (ह.प्र. 2/48/49) अर्थात- पवित्र और समतल स्थान में उपयुक्त आसन बिछाकर उसके ऊपर पद्मासन, स्वस्तिकासन आदि किसी आसन में सुखपूर्वक मेरुदण्ड, गर्दन और सिर को सीधा रखते हुए बैठेै। फिर दाहिने नासारन्ध्र अर्थात पिंगला नाडी से शनैः शनैः पूरक करें। आभ्यन्तर कुम्भक करें। कुम्भक के समय मूलबन्ध व जालन्धरबन्ध लगा कर रखें।  यथा शक्ति कुम्भक के पश्चात जालन्धरबन्ध ख

प्राणायाम का अर्थ एवं परिभाषायें, प्राणायामों का वर्गीकरण

प्राणायाम का अर्थ- (Meaning of pranayama) प्राणायाम शब्द, प्राण तथा आयाम दो शब्दों के जोडने से बनता है। प्राण जीवनी शक्ति है और आयाम उसका ठहराव या पड़ाव है। हमारे श्वास प्रश्वास की अनैच्छिक क्रिया निरन्तर अनवरत से चल रही है। इस अनैच्छिक क्रिया को अपने वश में करके ऐच्छिक बना लेने पर श्वास का पूरक करके कुम्भक करना और फिर इच्छानुसार रेचक करना प्राणायाम कहलाता है। प्राणायाम शब्द दो शब्दों से बना है प्राण + आयाम। प्राण वायु का शुद्ध व सात्विक अंश है। अगर प्राण शब्द का विवेचन करे तो प्राण शब्द (प्र+अन+अच) का अर्थ गति, कम्पन, गमन, प्रकृष्टता आदि के रूप में ग्रहण किया जाता है।  छान्न्दोग्योपनिषद कहता है- 'प्राणो वा इदं सर्व भूतं॑ यदिदं किंच।' (3/15/4) प्राण वह तत्व है जिसके होने पर ही सबकी सत्ता है  'प्राणे सर्व प्रतिष्ठितम। (प्रश्नेपनिषद 2/6) तथा प्राण के वश में ही सम्पूर्ण जगत है  “प्राणस्वेदं वशे सर्वम।? (प्रश्नोे. -2/13)  अथर्वद में कहा गया है- प्राणाय नमो यस्य सर्वमिदं वशे।  यो भूतः सर्वेश्वरो यस्मिन् सर्वप्रतिष्ठितम्।॥ (अथर्ववेद 11-4-1) अर्थात उस प्राण को नमस्कार है, जिसके