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घेरण्ड संहिता के अनुसार "ध्यान"

घेरण्ड संहिता में वर्णित  “ध्यान“ 

घेरण्ड संहिता के छठे अध्याय में ध्यान को परिभाषित करते हुए महर्षि घेरण्ड कहते हैं कि किसी विषय या वस्तु पर एकाग्रता या चिन्तन की क्रिया 'ध्यान' कहलाती है। जिस प्रकार हम अपने मन के सूक्ष्म अनुभवों को अन्‍तःचक्षु के सामने मन:दृष्टि के सामने स्पष्ट कर सके, यही ध्यान की स्थिति है। ध्यान साधक की कल्पना शक्ति पर भी निर्भर है। ध्यान अभ्यास नहीं है यह एक स्थिति हैं जो बिना किसी अवरोध के अनवरत चलती रहती है। जिस प्रकार तेल को एक बर्तन से दूसरे बर्तन में डालने पर बिना रूकावट के मोटी धारा निकलती है, बिना छलके एक समान स्तर से भरनी शुरू होती है यही ध्यान की स्थिति है। इस स्थिति में किसी भी प्रकार की हलचल नहीं होती। महर्षि घेरण्ड ध्यान के प्रकारों का वर्णन छठे अध्याय के प्रथम सूत्र में करते हुए कहते हैं कि -

स्थूलं ज्योतिस्थासूक्ष्मं ध्यानस्य त्रिविधं विदु: ।
स्थूलं मूर्तिमयं प्रोक्तं ज्योतिस्तेजोमयं तथा ।
सूक्ष्मं विन्दुमयं ब्रह्म कुण्डली परदेवता ।। (घेरण्ड संहिता  6/1)


अर्थात्‌ ध्यान तीन प्रकार का है- स्थूल ध्यान, ज्योतिर्ध्यान और सूक्ष्म ध्यान। स्थूल ध्यान में इष्टदेव की मूर्ति का ध्यान होता है। ज्योतिर्मय ध्यान में ज्योतिरूप ब्रह्म का ध्यान तथा सूक्ष्म ध्यान में बिन्दुमय ब्रह्म कुण्डलिनी शक्ति का ध्यान किया जाता है।

1. स्थूल ध्यान-

स्थूल ध्यान की दो विधियों की चर्चा महर्षि घेरण्ड ने की है, जिसमें से पहली विधि इस प्रकार है।
सर्वप्रथम अपने हृदय पर ध्यान केन्द्रित कीजिए। महसूस कीजिए की हृदय में एक सागर अमृत से भरा है। उसके बीच एक द्वीप है जो रत्नों से भरा है वहाँ की बालू भी रत्नों के चूर्ण से मुक्त है। इस द्वीप का आकर्षण फलों से लदे वृक्ष है। वहाँ पर अनेक सुगन्धित पुष्प जैसे मालती, मल्लिका, चमेली, केशर, चम्पा, पारिजात स्थल पद्म आदि अपनी सुगन्ध चारो और फैला रहें हैं।
इस द्वीप के मध्य हीं कल्पवृक्ष नामक वृक्ष हैं। इसकी चार शाखाएँ चार वेदो के बारे में बताती है। यह वृक्ष फल-फूलों से लदा है द्वीप में कोयल की मधुर बोली तथा श्रमर का गुंजन सुनायी दे रहा है। ठीक यही एक चबूतरा है जो हीरे, नीलम आदि रत्नों से सजा है। इस चबूतरे के ऊपर कल्पना करें कि आपके इष्ट देव बैठे हैं। इन्हीं इष्ट देव पर ध्यान लगाएँ । ये ही इष्ट देव गुरु हैँ उनके शरीर में जो वस्तुएँ हैं जैसे वस्त्र, माला आदि उन पर एकाग्रता को केन्द्रित करे। इस विधि द्वारा साधक अपने गुरू के स्थूल रूप का ध्यान करें। (घेरण्ड संहिता-6 / 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8)

दूसरी विधि-

सहस्रार प्रदेश में महापक्ष है, जिसके एक हजार दल है उसके बीच में बारह दलो का एक छोटा कमल है। इन दलों का रंग सफेद है और यह तेज पूर्ण है। इनमें बारह बीज मंत्र है-  ह, स, क्ष, म, ल, व, र, युं, ह, स और क्रें। कमल के बीच के भाग में तीन रेखाएँ है। ह, ल, क्ष वर्ण सहित। ये तीनों रेखाएँ मिलकर एक त्रिशूल की रचना करती है। इस त्रिभुज के कोणों का सांकेतिक शब्द हं, थं और लं' है। त्रिभुज के मध्य 'ऊँ स्थित है। ध्यान के वक्त यह देखे कि सहस्त्र दल कमल के मध्य में हंसो का जोड़ा बैठा है, यह जोड़ा गुरु की पादुकाओं का चिह्न है। श्वेत पक्ष में बैठे हुए गुरू के दो हाथ तथा तीन नेत्र है। उन्होंने सफेद रंग के वस्त्र तथा सफेद फूलों की माला पहनी हुई है। उनके वाम भाग में लाल वस्त्र धारण किए उनके शक्ति सुशोभित है। इस प्रकार गुरू का ध्यान करने से स्थूल ध्यान सिद्ध होता है। (घेरण्ड संहिता- 6 / 9, 10, 11, 12, 13, 14) 

2. ज्योति ध्यान-

मूलाधारे कुण्डलिनी भुजंगाकाररूपिणी।
तत्र तिष्ठति जीवात्मा प्रदीपषकलिकाकृति: ।
ध्यायेत्तेजोमयं ब्रह्म तेजोध्यानं परात्परम्‌ ।।
भ्रूवोर्मध्ये मनऊर्ध्वे यत्तेज: प्रणवात्मकम्‌ ।
ध्यायेज्जवालावलीयुक्तं तेजोध्यानं तदेव हि ।। (घेरण्ड संहिता- 6 / 16,17)

मूलाधार चक्र में सर्प के आकार की कुण्डलिनी शक्ति है। उसी स्थान में दीपक की लौ' के रूप में मनुष्य की आत्मा का निवास है। मूलाधार में आत्मा रूपी परम्‌ ब्रह्म का ध्यान करे। यही ज्योति ध्यान है। भौहो के मध्य और मन के उर्ध्व भाग में जो ज्वालाग्नी युक्त ज्योति है उसी पर ध्यान लगाना “ज्योतिर्ध्यान कहलाता है। सूत्र के अनुसार आत्मा का निवास दो जगह है पहला मूलाधार तथा दूसरा भूमध्य में। मूलाधार में जो आत्मा है वह कुण्डलिनी के रूप में है और भूमध्य में जो रूप है वह प्रणव रूप में है।

3. सूक्ष्म ध्यान-

तेजोध्यानं श्रुतं चण्ड सूक्ष्मध्यानं श्रृणुष्व मे ।
बहुभाग्यवशाद्यस्य कुण्डली जाग्रती भवेत्‌ ।।
आत्मना सह योगेन नेत्ररन्ध्राद्विनिर्गता ।
विहरेद्राजमार्गे च चंचलत्वान्न दृश्यते ।
शाम्भवी मुद्रया योगो ध्यानयोगेन सिध्यति।
सूक्ष्मध्यानमिदं गोप्यं देवानामपि दुर्लभम्‌ ।।
स्थूलध्यानाच्छतगुणं तेजोध्यानं प्रचक्षते ।
तेजोध्यानाल्लक्षगुणं सूक्ष्मध्यानं परात्परम्‌ ।।
इति ते कथितं चण्ड ध्यानयोगं सुदुर्लभम्‌ ।
आत्मसाक्षाद्ववेद्यस्मात्तस्माद्धयानं विशिष्यते । (घेरण्ड संहिता- 6 / 18, 19, 20, 21, 22)

सूक्ष्म ध्यान को वर्णित करते हुए महर्षि कहते हैं कि यदि साधक का सौभाग्य रहा तो इस ध्यान के द्वारा आत्मा से एक होना सम्भव है और कुण्डलिनी शक्ति का जागरण होता है। यह शक्ति नेत्र-रन्ध्र से होकर ऊपरी मार्ग में स्थित राजमार्ग स्थान में विचरण करती है। किन्तु यही अति सूक्ष्म एवं चंचल होने के कारण दिखाई नहीं देती। साधक को शाम्भवी मुद्रा का अभ्यास करते हुए इस शक्ति का ध्यान करे। यही सूक्ष्म ध्यान है। यह अत्यन्त गोपनीय एवं दुर्लभ ध्यान है। ध्यान की श्रेष्ठता बताते हुए महर्षि ने लिखा है कि स्थूल ध्यान से सौ गुना श्रेष्ठ ज्योति ध्यान है और ज़्योति ध्यान से लाख गुना श्रेष्ठ 'सूक्ष्म ध्यान है। इस ध्यान के सिद्ध होने पर आत्म-साक्षात्कार होता है। सूक्ष्म ध्यान का अर्थ है वास्तविक ध्यान।

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