Skip to main content

योगवशिष्ठ ग्रन्थ का सामान्य परिचय


मुख्य विषय- 1. मनोदैहिक विकार, 2. मोक्ष के चार द्वारपाल, 3. ज्ञान की सप्तभूमि, 4. ध्यान के आठ अंग, 5. योग मार्ग के विघ्न, 6. शुक्रदेव जी की मोक्ष अवधारणा

 1. योग वशिष्ठ के अनुसार मनोदैहिक विकार-

मन के दूषित होने पर 'प्राणमय कोष' दूषित होता हैं, 'प्राणमय' के दूषित होने से 'अन्नमय कोष' अर्थात 'शरीर' दूषित होता है, इसे ही मनोदैहिक विकार कहते हैं:-
मन -> प्राण -> अन्नमय (शरीर)

योग वशिष्ठ के अनुसार आधि- व्याधि की अवधारणा- Concept of Adhis and Vyadhis

आधि- अर्थात- मानसिक रोग > मनोदैहिक विकार > व्याधि- अर्थात- शारीरिक रोग

आधि एवं व्याधि का संबंध पंचकोषों से है:

आधि- (Adhis)
1. आनंदमय कोष:- इस कोष में स्वास्थ्य की कोई हानि नहीं होती इसमें वात, पित व कफ की समरूपता रहती है।
2. विज्ञानमय कोष:- इस कोष में कुछ दोषों की सूक्ष्म प्रक्रिया प्रारंभ होती है। इसमें अभी रोग नहीं बन पाते क्योंकि इसमें दोषों की प्रक्रिया ठीक दिशा में नहीं हो पाती।
3. मनोमय कोष:- इस कोष में वात, पित व कफ की असम स्थिति शुरू होती है यहीं पर 'आधि' की शुरुआत होती है।
(आधि= मानसिक बीमारी)
व्याधि- (Vyadhis )
4. प्राणमय कोष:- यह 'आधि ' जो मनोमय कोष से उत्पन्न हुई थी यह 'प्राण' को दूषित करती हैं।
5. अननमय कोष:- इस प्रकार 'प्राण' के दूषित होने से फिर अन्नमय कोष (शरीर स्थूल) भी दूषित होता है इसे “व्याधि' कहते हैं।
ये क्रमशः मन से प्राण, प्राण से शरीर में आते हैं।

2.  योग वशिष्ठ के अनुसार मोक्ष के चार द्वारपाल- (स्वतंत्रता के चार ( 4) स्तम्भ)-
1.  शम (शान्ति)
2. विचार (विवेक)
3. सन्तोष (सन्तोष)
4. साधु संग ( सत्संग )

1. शम (शांति):- शांति- याति शम्‌ भाव रहना। दुःख-सुख होने पर भी शांति बनाएं रखना। 'शम' ही 'शिव ' है। यदि बुद्धि शम से युक्त है तो कष्ट भी मधुर लगता है। जिस व्यक्ति के संपूर्ण अंग शांति से परिपूर्ण है उसे दुःख भी पीड़ा नहीं पहुंचा सकते। शांत पुरुष संसार में श्रेष्ठ है।
2. विचार ( विवेक ):- इसमें बुद्धि सूक्ष्म हो जाती है। दुःख से पार जाने के लिए विचार के अलावा कोई उपाय नहीं है। यह संसार रूपी योग की 'महाऔषधि ' है। जिसमें विचार नहीं वह दरिद्र है दुःखी है। विचारहीन की उपेक्षा करनी च।हिये। जिसके पास विचार नहीं वह निर्जन स्थान पर उगे वृक्ष की तरह है। विचार से दुःख का विनाश होता है, विचार से तत्वज्ञान होता है। तत्वज्ञान से मन विश्रान्ति होती है। जिससे असीम आनंद की प्राप्ति होती है। विचार वाला व्यक्ति उदासीन हो जाता है। परमात्मा परंत जो विचार है वह श्रेष्ठतम हैं।
3. संतोष:- इसे 'परम श्रेय' कहा जाता है। वह व्यक्ति जो अप्राप्त विषय की इच्छा नहीं करता जो क्रमश; प्राप्त सुख व दुःख का भोग करता है। संतोषी व्यक्ति के मुख पर सदैव लक्ष्मी विराजमान रहती है। संतुष्ट व्यक्ति को शरीर संबंधी दुःख होकर मानसिक संबंधी दुःख नहीं होंगे।
4. साधु संग (सत्संग):- श्रेष्ठ पुरुषों की संगति में रहना। साधु पुरुषों के साथ रहते हैं तो दुःख पूर्ण स्थान परिवर्तित होकर सुख मिलता है। क्षण भर के लिए भी साधु संतों की संगति से दूर न होना।
- शम (शांति) सभी सुखों में परम्‌ सुख है।
- विचार (विवेक) सभी ज्ञानों में श्रेष्ठ है।
- संतोष सभी लाभों में श्रेष्ठ लाभ हैं।
- सत्संग सभी गतियों में परम्‌ गति है।

3. योग वशिष्ठ के अनुसार ज्ञान की सप्तभूमि-

1. शुभेच्छा:- सत्य का बोध होना। अच्छा प्राप्त करने की इच्छा।
2. विचारना:- शास्त्रों के माध्यम से विचार करना।
3. अनुमानसा:- निध्यासन करना मन को बाह्यमुखी से अंतर्मुखी करना।
4. सत्तापत्ति:- जीव ब्रह्म वृत्ति होता है। निर्विकल्प समाधि की अवस्था। सत्य पदार्थ में स्थिर होना।
5. असंसक्ति:- ब्रहम के सात्कार के बाद जो चमत्कार उत्पन होना वह अंससक्ति है। इससे अविद्या दूर जाती है।
6. पदार्थ भावना:- पदार्थों की भावना न रहना। यह पदार्थ अभावना है। इसमें दृढ़ स्थिति हो गयी है। इससे 'ब्रह्ममाविद परीयान' कहते हैं।
7. तुर्यगा:- एक मात्र स्वरूप में प्रतिविष्ठत। 

4. योग वशिष्ठ के अनुसार ध्यान के आठ अंग-

1. यम
2. नियम
3. आसन
4. प्राणायाम
5. प्रत्याहार
6. धारणा
7. ध्यान
8. समाधि

नोट- योगसूत्र के अष्टांग योग को ही  ध्यान के आठ अंग के नाम से बताया गया है।

5. योग वशिष्ठ के अनुसार योग मार्ग के विघ्न- योग वशिष्ठ योग मार्ग के 5 विघ्न बताये गये है।

1. इच्छा
2. क्रोध
3. लोभ
4. भय
5. निंद्रा

6. योग वशिष्ठ के अनुसार शुक्रदेव जी की मोक्ष अवधारणा- 

यह कहानी श्री राम जी को 'विश्वामित्र जी ने सुनाई थी। महर्षि शुक्र वेदव्यास जी के पुत्र है, शुक्रदेव अपने पिता वेदव्यास जी के पास कुछ प्रश्न लेकर जाते हैं और संशय दूर करना चाहते हैं और प्रश्न पूछते हैं तो वेदव्यास उनको उत्तर दे देते हैं परंतु शुक्रदेव जी संतुष्ट नहीं होते है। फिर वेदव्यास जी शुक्र को राजा जनक जो परम संतोषी थे उस समय में उनके पास भेज देते है कि वो आपको संतुष्ट कर देंगे। शुक्रदेव राजा जनक के पास जाते है वहां 21 दिन तक इंतजार किया फिर राजा जनक से प्रश्न पूछते हैं:
प्रश्न :-
1. संसार किस करण में उत्पन्न हुआ?
2. कब नष्ट होगा?
3. कितना बड़ा है?
4. कितने काल तक रहेगा?
5. इस संसार का मालिक कौन है?
उत्तर:-
1. संसार अंतःकरण से उत्पन्न हुआ।
2. अंतःकरण के विनाश पर संसार का विनाश होगा।
3. तीनों काल में बाधित होने से दिशाएं हैं।
4. प्रलय काल तक रहेगा।
5. निर्विकार ब्रहम संसार का मालिक है।
फिर राजा जनक ने कहा तुम्हें ज्ञान है यही पूर्ण है बस संशय से बाहर आओं संतोष करो।
तब शुक्रदेव को ज्ञान की पुष्टि हुई।


10 मुख्य उपनिषदों का परिचय

 योगबीज



Comments

Popular posts from this blog

सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति सामान्य परिचय

प्रथम उपदेश- पिण्ड उत्पति विचार सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति अध्याय - 2 (पिण्ड विचार) सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार नौ चक्रो के नाम 1. ब्रहमचक्र - मूलाधार मे स्थित है, कामनाओं की पूर्ति होती हैं। 2. स्वाधिष्ठान चक्र - इससे हम चीजो को आकर्षित कर सकते है। 3. नाभी चक्र - सिद्धि की प्राप्ति होती है। 4. अनाहत चक्र - हृदय में स्थित होता है। 5. कण्ठचक्र - विशुद्धि-संकल्प पूर्ति, आवाज मधुर होती है। 6. तालुचक्र -  घटिका में, जिह्वा के मूल भाग में,  लय सिद्धि प्राप्त होती है। 7. भ्रुचक्र -     आज्ञा चक्र - वाणी की सिद्धि प्राप्त होती है। 8. निर्वाणचक्र - ब्रहमरन्ध्र, सहस्त्रार चक्र, मोक्ष प्राप्ति 9. आकाश चक्र - सहस्त्रारचक्र के ऊपर,  भय- द्वेष की समाप्ति होती है। सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार सोहल आधार (1) पादांगुष्ठ आधार (2) मूलाधार (3) गुदाद्वार आधार (4) मेद् आधार (5) उड्डियान आधार (6) नाभी आधार (7) हृदयाधार (8) कण्ठाधार (9) घटिकाधार (10) तालु आधार (11) जिह्वा आधार (12) भ्रूमध्य आधार (13) नासिका आधार (14) नासामूल कपाट आधार (15) ललाट आधार (16) ब्रहमरंध्र आधार सिद्ध...

चित्त विक्षेप | योगान्तराय

चित्त विक्षेपों को ही योगान्तराय ' कहते है जो चित्त को विक्षिप्त करके उसकी एकाग्रता को नष्ट कर देते हैं उन्हें योगान्तराय अथवा योग के विध्न कहा जाता।  'योगस्य अन्तः मध्ये आयान्ति ते अन्तरायाः'।  ये योग के मध्य में आते हैं इसलिये इन्हें योगान्तराय कहा जाता है। विघ्नों से व्यथित होकर योग साधक साधना को बीच में ही छोड़कर चल देते हैं। विध्न आयें ही नहीं अथवा यदि आ जायें तो उनको सहने की शक्ति चित्त में आ जाये, ऐसी दया ईश्वर ही कर सकता है। यह तो सम्भव नहीं कि विध्न न आयें। “श्रेयांसि बहुविध्नानि' शुभकार्यों में विध्न आया ही करते हैं। उनसे टकराने का साहस योगसाधक में होना चाहिए। ईश्वर की अनुकम्पा से यह सम्भव होता है।  व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तिदर्शनालब्धभूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाः (योगसूत्र - 1/30) योगसूत्र के अनुसार चित्त विक्षेपों  या अन्तरायों की संख्या नौ हैं- व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरति, भ्रान्तिदर्शन, अलब्धभूमिकत्व और अनवस्थितत्व। उक्त नौ अन्तराय ही चित्त को विक्षिप्त करते हैं। अतः ये योगविरोधी हैं इन्हें योग के मल...

"चक्र " - मानव शरीर में वर्णित शक्ति केन्द्र

7 Chakras in Human Body हमारे शरीर में प्राण ऊर्जा का सूक्ष्म प्रवाह प्रत्येक नाड़ी के एक निश्चित मार्ग द्वारा होता है। और एक विशिष्ट बिन्दु पर इसका संगम होता है। यह बिन्दु प्राण अथवा आत्मिक शक्ति का केन्द्र होते है। योग में इन्हें चक्र कहा जाता है। चक्र हमारे शरीर में ऊर्जा के परिपथ का निर्माण करते हैं। यह परिपथ मेरूदण्ड में होता है। चक्र उच्च तलों से ऊर्जा को ग्रहण करते है तथा उसका वितरण मन और शरीर को करते है। 'चक्र' शब्द का अर्थ-  'चक्र' का शाब्दिक अर्थ पहिया या वृत्त माना जाता है। किन्तु इस संस्कृत शब्द का यौगिक दृष्टि से अर्थ चक्रवात या भँवर से है। चक्र अतीन्द्रिय शक्ति केन्द्रों की ऐसी विशेष तरंगे हैं, जो वृत्ताकार रूप में गतिमान रहती हैं। इन तरंगों को अनुभव किया जा सकता है। हर चक्र की अपनी अलग तरंग होती है। अलग अलग चक्र की तरंगगति के अनुसार अलग अलग रंग को घूर्णनशील प्रकाश के रूप में इन्हें देखा जाता है। योगियों ने गहन ध्यान की स्थिति में चक्रों को विभिन्न दलों व रंगों वाले कमल पुष्प के रूप में देखा। इसीलिए योगशास्त्र में इन चक्रों को 'शरीर का कमल पुष्प” कहा ग...

Teaching Aptitude MCQ in hindi with Answers

  शिक्षण एवं शोध अभियोग्यता Teaching Aptitude MCQ's with Answers Teaching Aptitude mcq for ugc net, Teaching Aptitude mcq for set exam, Teaching Aptitude mcq questions, Teaching Aptitude mcq in hindi, Teaching aptitude mcq for b.ed entrance Teaching Aptitude MCQ 1. निम्न में से कौन सा शिक्षण का मुख्य उद्देश्य है ? (1) पाठ्यक्रम के अनुसार सूचनायें प्रदान करना (2) छात्रों की चिन्तन शक्ति का विकास करना (3) छात्रों को टिप्पणियाँ लिखवाना (4) छात्रों को परीक्षा के लिए तैयार करना   2. निम्न में से कौन सी शिक्षण विधि अच्छी है ? (1) व्याख्यान एवं श्रुतिलेखन (2) संगोष्ठी एवं परियोजना (3) संगोष्ठी एवं श्रुतिलेखन (4) श्रुतिलेखन एवं दत्तकार्य   3. अध्यापक शिक्षण सामग्री का उपयोग करता है क्योंकि - (1) इससे शिक्षणकार्य रुचिकर बनता है (2) इससे शिक्षणकार्य छात्रों के बोध स्तर का बनता है (3) इससे छात्रों का ध्यान आकर्षित होता है (4) वह इसका उपयोग करना चाहता है   4. शिक्षण का प्रभावी होना किस ब...

हठयोगप्रदीपिका में वर्णित मुद्रायें, बंध

  हठयोगप्रदीपिका में वर्णित मुद्रायें, बंध हठयोग प्रदीपिका में मुद्राओं का वर्णन करते हुए स्वामी स्वात्माराम जी ने कहा है महामुद्रा महाबन्धों महावेधश्च खेचरी।  उड़्डीयानं मूलबन्धस्ततो जालंधराभिध:। (हठयोगप्रदीपिका- 3/6 ) करणी विपरीताख्या बज़्रोली शक्तिचालनम्।  इदं हि मुद्रादश्क जरामरणनाशनम्।।  (हठयोगप्रदीपिका- 3/7) अर्थात महामुद्रा, महाबंध, महावेध, खेचरी, उड्डीयानबन्ध, मूलबन्ध, जालन्धरबन्ध, विपरीतकरणी, वज़्रोली और शक्तिचालनी ये दस मुद्रायें हैं। जो जरा (वृद्धा अवस्था) मरण (मृत्यु) का नाश करने वाली है। इनका वर्णन निम्न प्रकार है।  1. महामुद्रा- महामुद्रा का वर्णन करते हुए हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है- पादमूलेन वामेन योनिं सम्पीड्य दक्षिणम्।  प्रसारितं पद कृत्या कराभ्यां धारयेदृढम्।।  कंठे बंधं समारोप्य धारयेद्वायुमूर्ध्वतः।  यथा दण्डहतः सर्पों दंडाकारः प्रजायते  ऋज्वीभूता तथा शक्ति: कुण्डली सहसा भवेतत् ।।  (हठयोगप्रदीपिका- 3/9,10)  अर्थात् बायें पैर को एड़ी को गुदा और उपस्थ के मध्य सीवन पर दृढ़ता से लगाकर दाहिने पैर को फैला कर रखें...

Teaching Aptitude MCQs in Hindi with Answers for UGC NET JRF Paper 1

Teaching Aptitude MCQs in Hindi with Answers for UGC NET JRF Paper 1 ,  Teaching Aptitude mcq for ugc net, Teaching Aptitude mcq for set exam, Teaching Aptitude mcq questions, Teaching Aptitude mcq in hindi, Teaching aptitude mcq for b.ed entrance. Teaching Aptitude MCQ Part-3   1. अब तक आपने जो शिक्षा प्राप्त की है, वह- (1) केवल समय बिताने वाली है (2) उपयोगी एबं मूल्यवान है (3) नौकरी देने में असमर्थ है (4) नैतिकता से एकदम शून्य नहीं है   2. शिक्षा उत्तम वही है, जो- (1) व्यक्ति को नौकरी दिला सके (2) धर्म की रक्षा कर सके (3) व्यक्ति का सर्वांगीण विकास कर सके (4) व्यक्ति को विद्वान्‌ बना सके   3. शिक्षा सर्वाधिक सहायक है, व्यक्ति के- (1) सामाजिक विकास में (2) मानसिक विकास में (3) नैतिक विकास में (4) सर्वांगीण विकास में   4. शिक्षा के लिए उपयुक्त है- (1) वर्तमान परीक्षा प्रणाली (2) सेमिस्टर पद्धति (3) सपुस्तक परीक्षा (4) वस्तुनिष्ठ प्रश्न   5. अध्यापक की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशेषता है- (1) समाजसेवा (2) देशभ...

चित्त | चित्तभूमि | चित्तवृत्ति

 चित्त  चित्त शब्द की व्युत्पत्ति 'चिति संज्ञाने' धातु से हुई है। ज्ञान की अनुभूति के साधन को चित्त कहा जाता है। जीवात्मा को सुख दुःख के भोग हेतु यह शरीर प्राप्त हुआ है। मनुष्य द्वारा जो भी अच्छा या बुरा कर्म किया जाता है, या सुख दुःख का भोग किया जाता है, वह इस शरीर के माध्यम से ही सम्भव है। कहा भी गया  है 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्' अर्थात प्रत्येक कार्य को करने का साधन यह शरीर ही है। इस शरीर में कर्म करने के लिये दो प्रकार के साधन हैं, जिन्हें बाह्यकरण व अन्तःकरण के नाम से जाना जाता है। बाह्यकरण के अन्तर्गत हमारी 5 ज्ञानेन्द्रियां एवं 5 कर्मेन्द्रियां आती हैं। जिनका व्यापार बाहर की ओर अर्थात संसार की ओर होता है। बाह्य विषयों के साथ इन्द्रियों के सम्पर्क से अन्तर स्थित आत्मा को जिन साधनों से ज्ञान - अज्ञान या सुख - दुःख की अनुभूति होती है, उन साधनों को अन्तःकरण के नाम से जाना जाता है। यही अन्तःकरण चित्त के अर्थ में लिया जाता है। योग दर्शन में मन, बुद्धि, अहंकार इन तीनों के सम्मिलित रूप को चित्त के नाम से प्रदर्शित किया गया है। परन्तु वेदान्त दर्शन अन्तःकरण चतुष्टय की...

आसन का अर्थ एवं परिभाषायें, आसनो के उद्देश्य

आसन का अर्थ आसन शब्द के अनेक अर्थ है जैसे  बैठने का ढंग, शरीर के अंगों की एक विशेष स्थिति, ठहर जाना, शत्रु के विरुद्ध किसी स्थान पर डटे रहना, हाथी के शरीर का अगला भाग, घोड़े का कन्धा, आसन अर्थात जिसके ऊपर बैठा जाता है। संस्कृत व्याकरंण के अनुसार आसन शब्द अस धातु से बना है जिसके दो अर्थ होते है। 1. बैठने का स्थान : जैसे दरी, मृग छाल, कालीन, चादर  2. शारीरिक स्थिति : अर्थात शरीर के अंगों की स्थिति  आसन की परिभाषा हम जिस स्थिति में रहते है वह आसन उसी नाम से जाना जाता है। जैसे मुर्गे की स्थिति को कुक्कुटासन, मयूर की स्थिति को मयूरासन। आसनों को विभिन्न ग्रन्थों में अलग अलग तरीके से परिभाषित किया है। महर्षि पतंजलि के अनुसार आसन की परिभाषा-   महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र के साधन पाद में आसन को परिभाषित करते हुए कहा है। 'स्थिरसुखमासनम्' योगसूत्र 2/46  अर्थात स्थिरता पूर्वक रहकर जिसमें सुख की अनुभूति हो वह आसन है। उक्त परिभाषा का अगर विवेचन करे तो हम कह सकते है शरीर को बिना हिलाए, डुलाए अथवा चित्त में किसी प्रकार का उद्वेग हुए बिना चिरकाल तक निश्चल होकर एक ही स्थिति में सु...

UGC NET YOGA Upanishads MCQs

1. "योगकुण्डलिनी उपनिषद" में कौन-सी चक्र प्रणाली का वर्णन किया गया है? A) त्रिचक्र प्रणाली B) पंचचक्र प्रणाली C) सप्तचक्र प्रणाली D) दशचक्र प्रणाली ANSWER= (C) सप्तचक्र प्रणाली Check Answer   2. "अमृतबिंदु उपनिषद" में किसका अधिक महत्व बताया गया है? A) आसन की साधना B) ज्ञान की साधना C) तपस्या की साधना D) प्राणायाम की साधना ANSWER= (B) ज्ञान की साधना Check Answer   3. "ध्यानबिंदु उपनिषद" के अनुसार ध्यान का मुख्य उद्देश्य क्या है? A) शारीरिक शक्ति बढ़ाना B) सांसारिक सुख प्राप्त करना C) मानसिक शांति प्राप्त करना D) आत्म-साक्षात्कार ANSWER= (D) आत्म-साक्षात्कार Check Answer   4. "योगतत्त्व उपनिषद" के अनुसार योगी को कौन-सा गुण धारण करना चाहिए? A) सत्य और संयम B) अहंकार C) क्रोध और द्वेष D) लोभ और मोह ...