Skip to main content

जल तत्व का शरीर पर प्रभाव व महत्व

 जल तत्व का शरीर पर प्रभाव व महत्व- 

 Effect and importance of water element on the body- हमारे शरीर का 70 प्रतिशत भाग पानी से भरा हुआ है तथा इसकी पूर्ति भोजन में मुख्यतः कुछ सब्जियों , फलो से आती है।


इनमें भी दो प्रकार के भेद हैं-

1. ऐसी सप्जियाँ जो जमीम के ऊपर होती है- जैसे- लौकी, परवल, तोरई, टिण्डा, गोभी आदि। इममें जल तत्व अधिक होता है और इनमे शरीर से मल निकालने को शक्ति भी अधिक होती है।

2 आलू, शकरकंद आदि कंदमूल जिनमे जल तत्व कम तथा पृथ्वी तत्व अधिक होता है ये कंदमूल उपर्युक्त सब्जियों की अपेक्ष अधिक गारिष्ठ होेते हैं।

पंच महाभूतों में चौथा स्थान जल का है जल हमारे जीवन में बहुत ही मह्त्वपूर्ण भूमिका रखता हैं। जल के कारण ही हम सभी स्वाद का अनुभव कर पाते हैं जैसे मीठा, खट्टा, कड़वा, तीखा, कसैला तथा नमकीन। पानी हमारे जीवन का एक अभिन्न अंग है। हमारे शरीर की रचना के अनुसार भी इसका महत्व है हमारे शरीर का 2/३ भाग केवल जल ही होता है। इस तत्व के द्वारा ही हम अपने शरीर के आन्तरिक व बाहय अंगों को शुद्ध व स्वच्छ रख पाते हैं जल में  विजातीय द्रवों व अन्य विषों को अपने में घोलने तथा उन्हें पेशाब, श्वांस एवं पसीने के माध्यम से बाहर निकालने का गुण है। जल के द्वारा हमारे शरीर का रक्त संचार अच्छा हो सकता है। ठंडे जल से स्नान करने पर थकान- गिरावट दूर होकर, शारीरिक, मानसिक शान्ति प्राप्त होती है। शरीर पर स्नान के अलग- अलग प्रभाव देखने को मिलते हैं। आज कल स्नान विधि बड़ी ही दोषपूर्ण है क्योंकि स्नान के नाम पर केवल साबुन लगाकर दो चार लोटे जल गिराकर उसे स्नान मान लेना गलत है।  
 
स्नान का तभी लाभ प्राप्त हो सकता है जब शान्तिपूर्वक ढंग से आवश्यकतानुसार ठंडे, गर्म, शीतल पानी का प्रयोग कर स्नान किया जाए तथा प्रत्येक अंग प्रत्यंग को ठीक ढंग से रगड़ के मालिश भी की जाये तथा स्नान के पश्चात कोमल तौलिया से शरीर को सोखना नहीं बल्कि खुरदरी तौलिया से रगड़ कर पानी को पोछने से हमारी त्वचा स्वस्थ चमकदार तथा कोमल बनती है। स्नान कई प्रकार के होते हैं उपचार के लिए पानी का विभिन्न प्रकार से प्रयोग किया जाता है।

1. सामान्य स्नान- सामान्य स्नान में नदी, तालाब समुन्द्र एवं कुंए के पानी में डुबकी लगाकर नहाना सम्मिलित है या घर में बाल्टी भरकर नहाना झरनों के नीचे नहाना तथा तैरना आदि।

2. फॉँव्वारा स्नान- यह वर्षा स्नान के समान ही लाभप्रद है। इसमें बाजार से मिलने वाले फव्वारे को एक पाइप से जोड़कर पूरे शरीर पर फव्वारे से पानी गिराएं इससे गिरने वाला पानी सम्पूर्ण शरीर पर पड़ना चाहिए। इस स्नान की अवधि 1-6 मिनट हो सकती है।

3. जलधार स्नान- इस स्नान के लिए रबड़ की नली से जल की सीधी धार गिराई जाती है और इस प्रकार गिराई जाती है कि जल पूरे शरीर पर पडे।

4. दीक्षा सनान- सामान्य शरीर को ठंडे जल में डुबाकर किए गए स्नान को दीक्षा स्नान कहते हैं।

5. पूर्ण स्नान- रोज रात को मिट्टी के घड़े में रखे हुए जल को शरीर पर उडेलकर हथेली से तेज-तेज रगड़ना चाहिए।

 इन स्नानों से होने वाले लाभ -

- रक्त संचार में वृद्धि होती है।

- थकान दूर होती है।

- पाचन तंत्र पर अच्छा प्रभाव पड़ता है।
 
- स्फूर्ति बढ़ती है।

-  भूख अच्छी लगती है।

-  शरीर में हल्के पन का अनुभव होता है।
 
 पशु-पक्षी सभी प्रकृति की गोद में रहते हैं तथा उसके नियमों का पालन करते हुए सुखी जीवन यापन करते हैं वहीं रहते हैं, खाते हैं, सोते हैं तथा बीमार होने पर प्रकृति के नियमों पर चलकर ठीक हो जाते हैं। मनुष्य भी प्रकृति के नियमों पर चलकर सुखी व स्वस्थ जीवन का यापन कर सकता है।

क्रमशः गर्म और ठंडे पानी के प्रयोग से शरीर के अन्दर रक्त परिभ्रमण की प्रक्रिया काफी तीव्र हो जाती है जिसके फलस्वरूप शरीर क्रिया, विज्ञान की दृष्टि से निम्न प्रकार से स्वास्थ्य वर्धक एवं रोग प्रतिरोधक प्रभाव होते हैं।

- ठंडे जल के प्रयोग से श्वांस की गति तेज हो जाती है, फल्रस्वरूप शरीर द्वारा आक्सीजन तथा ओजोन ग्रहण करने की क्षमता बढ़ जाती है। फलस्वरूप विजातीय पदार्थों का दहन तथा आक्सीकरण काफी तेजी से होने लगता है।
- शरीर में लाल रक्त कणिकाओं की संख्या बढ़ जाती है। इसका अर्थ यह नहीं है कि ठंडे जल के प्रयोग से नये लाल रक्ताण (R.B.C) बनने लगते हैं बल्कि जो लाल कण सुप्तावस्था में पड़े रहते हैं वे क्रियाशील हो उठते हैं।
 
- शरीर में जल की कमी होने पर जैसे कि ज्वर, हैजा, मधुमेह आदि की स्थिति में शरीर में जल पूर्ति आवश्यक है।

- पानी में नमक, चीनी, नींबू, शहद आदि मिलाकर लेना ज्यादा हितकारी है। गुर्दे के रोग होने पर नमक व पानी का प्रयोग चिकित्सक के अनुसार करें।
 
 - शरीर के तापक्रम को खतरे की सीमा से नीचे लाता है क्योंकि त्वचा द्वारा ताप विकरण की क्रिया बढ़ जाती है।
 
-. शरीर की धनात्मक विद्यतीय शक्ति बढ़ जाती है।
 
- विभिन्न शारीरिक संस्थानों द्वासा विजातीय पदार्थ को आसानी से बाहर निकाल फेंकने की क्षमता बढ़ जाती है।
 
- दाल का पानी, सब्जी का पानी, शिकंजी, जूस आदि में भी पानी का ही अंश होता है और इनके सेवन से पानी के साथ-साथ खनिज लवणों की कमी की भी क्षतिपूर्ति होती है।

- रक्त परिभ्रमण सब जगह सामान्य हो जाता है तथा आवश्यकतानुसार वृद्धि भी होती है।

- स्नायविक संस्थान की क्रियाशीलता बढ़ जाती है। ऊतकों की क्रियाशीलता बढ़ जाती है।

- गुर्दा यकृत तथा त्वचा की क्रिया बढ़ जाती है।
 
 - ठंडे जल के प्रयोग से आमाशय में हाइड्रोक्लोरिक ऐसिड की मात्रा ठीक स्तर पर बढ़ जाती है।

- कार्बोहाइडेट एवं चिकनायी की दहन क्रिया बढ़ जाती है।

- आकस्मिक चोट के कारण पैदा हुआ दर्द दूर हो जाता है क्योंकि अवरूद्ध रक्त का परिभ्रमण सामान्य हो जाता है।

-. शरीर की आक्सीजन ग्रहण करने की क्षमता बढ़ती है तथा कार्बनडाइक्साइड के निर्यात की क्रिया तीव्र हो जाती है।

- जल चिकित्सा विशेषज्ञों द्वारा किए गये प्रयोगों से यह निष्कर्ष निकलता है कि जब ठण्डे जल का सामान्य प्रयोग रक्त के क्षारत्व को बढ़ाता है एवं अम्लत्व को घटाता है।

-. पाचन संस्थान द्वारा खाद्य रसों की प्रचूषण एवं आत्मसात करने की क्रिया बढ़ जाती है।

इस प्रकार जल द्वारा पुराने तथा भयंकर रोगों से मुक्ति दिलाई जा सकती है अपितु जल चिकित्सा यह सिद्ध कर चुकी है।
 
 ठंडे पानी का शरीर पर अल्पकालीन प्रयोग करने पर निम्न प्रभाव पड़ता है  

* शरीर के तापमान को बढ़ाता है।
* त्वचा की कार्यशीलता में वृद्धि करता है।
* श्वांस की क्रिया को धीमा करता है।
* पोषण शक्ति में वृद्धि करता है।
* अल्प समय के लिए रक्त कोषों को संकुचित करता है।
*मांसपेशियों को संकुचित करता है।
* हृदय की क्रियाशीलता को बढ़ाता है।
* शरीर की नाडियों को उत्तेजित करता है।
* रक्तचाप को बढ़ाता है।

ठंडे पानी का शरीर पर दीर्घकालीन प्रयोग करने पर निम्न प्रभाव पड़ता है -
 
* शारीरिक तापमान को घटाता है।
* त्वचा की कार्यशीलता में ह्रास उत्पन्न करता है।
* पाचन क्रिया को मध्यम करता है।
* पोषण क्षमता को अधिक प्रभावित नहीं करता है।
* मांसपेशियों को संकुचित करता है।
* हृदय की क्रियाशीलता को कमजोर करता है।
* शरीर की नाडियों पर मृदु प्रभाव डालता है।
* रक्त चाप को घटाता है।
* मांसपेशियों को संकुचित करता है। 

पृथ्वी तत्व का शरीर पर प्रभाव व महत्व- 

Influence and importance of the earth element on the body- मिट्टी में सभी पंच महाभूतों का समावेश है। इस कारण इसे पंच महाभूतों से सम्पन्न माना जाता है। मिट्टी को इसलिए माँ की तरह पूजा जाता है।
       भारत में प्राचीन समय से ही मिट्टी को बहुत अधिक महत्य दिया जाता है। मिट्टी को विभिन्न कार्यों में प्रयोग किया जाता है जैसे मिट्टी को शरीर पर मल-मलकर नहाया जाता है शौच के बाद मिट्टी से हाथ धोना, बर्तनों को मिट्टी से धोना, घर के फर्श को मिट्टी से लीपना मिट्टी से बर्तनों को बनाना, मिट्टी में लेटना, खेलना, मिट्टी का शरीर के विभिन्न अंगों पर लेप करना। मिट्टी पर नंगे पैर चलना, आदि। हम मिट्टी पर सोकर एवं मिट्टी के शेष विभिन्न प्रयोग कर पूर्ण स्वास्थ्य एवं आनन्द प्राप्त कर सकते हैं।
 
मिट्टी अपने निम्न विशेष गुणों के कारण और भी उपयोगी व महत्वपूर्ण बन गई है जो इस प्रकार से है -


1. मिट्टी में ठंडे और गर्म दोनों तापमानों को अपने अन्दर सोखकर उसे सामान्य करने का गुण निहित होने के कारण उपचार में बहुत अधिक लाभकारी सिद्ध होती है।
2. मिट्टी बहुत ही सस्ती व सुलभ होती है।
3. मिट्टी में गंध को नष्ट करने का गुण निहित है बड़े से बड़े कूडे के ढेर को मिट्टी के नीचे दबा देने पर दुर्गन्ध मिट जाती है।
4. मिट्टी में कीटाणुओं को नष्ट करने का गुण है।
5. मिट्टी निर्मल होने के कारण बहुत ही महत्वपूर्ण है।
6. मिट्टी में जल, खनिज लवण तथा कई जरूरी तत्व पाए जाते हैं जो कि चिकित्सा की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण हैं।
7. मिट्टी में जन्म देने की शक्ति है।
8. मिटटी में सोखने के गुण के कारण शरीर के विष को मिनटों में सोखकर बाहर कर देती है।
 
           आज का युग आधुनिक युग है। जिसने हमें विकास के नाम पर प्रकृति से दूर कर दिया है। आज का मानव प्रकृति से दूर शहरों में बड़ी उंची- उंची इमरतों में रहता है। वह बहुत ही नाजुक भी बन गया है क्योंकि नंगे पैर चलने पर उसे दर्द होता है। इसलिए जूते पहनकर चलता है। शहरी मानव बहुत ही कठोर जीवन जी रहा है। प्रदूषण भरे वातावरण में, अप्राकृतिक भोजन खाकर, प्रकृति के नियमों का उल्लंघन कर अप्राकृतिक जीवन शैली अपनाकर बड़े- बड़े भयंकर आधुनिक पद्धति के रोगों को भोग रहा है। आज का मानव पैदल मिट्टी पर चलना तो दूर घर में मिट्टी के कणों को देखकर ही विचलित हो जाते हैं। वह जानते भी नहीं कि वह कितने अज्ञानी हैं जो मिट्टी तत्व की अवहेलना कर रहा है। वह नहीं जानता की प्राकृतिक जीवन जीना और पंच महाभूतों के निकट रहकर उनका नित सेवन करना वास्तविक आनन्द की अनुभूति कराता है। नंगे पैर चलने से रक्त संचार बेहतर होता है तथा पैर कोमल बनते हैं।
         मिट्टी के विभिन्न प्रयोगों के द्वारा स्वस्थ व निरोगी काया को प्राप्त किया जा सकता है। जैसे धरती पर सोना, मिट्टी की मालिश, मिट्टी की पट्टी, मिट्टी पर नंगे पैर टहलना, मिट्टी से दाँत साफ करना आदि।
         यह तत्व हमें हमारे भोजन से भी प्राप्त होता है। खाद्य पदार्थों, फलो आदि में पाया जाता है अनाज, दालें और चावल व गेहूँ में भी यह तत्व पाया जाता है। इन भोजन पदार्थों के द्वारा इस तत्व की पूर्ति कर भयंकर रोगों को दूर किया जा सकता है।

प्राकृतिक चिकित्सा के सिद्धांत

 पंच तत्व

 अष्टांग योग

Comments

Popular posts from this blog

"चक्र " - मानव शरीर में वर्णित शक्ति केन्द्र

7 Chakras in Human Body हमारे शरीर में प्राण ऊर्जा का सूक्ष्म प्रवाह प्रत्येक नाड़ी के एक निश्चित मार्ग द्वारा होता है। और एक विशिष्ट बिन्दु पर इसका संगम होता है। यह बिन्दु प्राण अथवा आत्मिक शक्ति का केन्द्र होते है। योग में इन्हें चक्र कहा जाता है। चक्र हमारे शरीर में ऊर्जा के परिपथ का निर्माण करते हैं। यह परिपथ मेरूदण्ड में होता है। चक्र उच्च तलों से ऊर्जा को ग्रहण करते है तथा उसका वितरण मन और शरीर को करते है। 'चक्र' शब्द का अर्थ-  'चक्र' का शाब्दिक अर्थ पहिया या वृत्त माना जाता है। किन्तु इस संस्कृत शब्द का यौगिक दृष्टि से अर्थ चक्रवात या भँवर से है। चक्र अतीन्द्रिय शक्ति केन्द्रों की ऐसी विशेष तरंगे हैं, जो वृत्ताकार रूप में गतिमान रहती हैं। इन तरंगों को अनुभव किया जा सकता है। हर चक्र की अपनी अलग तरंग होती है। अलग अलग चक्र की तरंगगति के अनुसार अलग अलग रंग को घूर्णनशील प्रकाश के रूप में इन्हें देखा जाता है। योगियों ने गहन ध्यान की स्थिति में चक्रों को विभिन्न दलों व रंगों वाले कमल पुष्प के रूप में देखा। इसीलिए योगशास्त्र में इन चक्रों को 'शरीर का कमल पुष्प” कहा ग...

सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति सामान्य परिचय

प्रथम उपदेश- पिण्ड उत्पति विचार सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति अध्याय - 2 (पिण्ड विचार) सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार नौ चक्रो के नाम 1. ब्रहमचक्र - मूलाधार मे स्थित है, कामनाओं की पूर्ति होती हैं। 2. स्वाधिष्ठान चक्र - इससे हम चीजो को आकर्षित कर सकते है। 3. नाभी चक्र - सिद्धि की प्राप्ति होती है। 4. अनाहत चक्र - हृदय में स्थित होता है। 5. कण्ठचक्र - विशुद्धि-संकल्प पूर्ति, आवाज मधुर होती है। 6. तालुचक्र -  घटिका में, जिह्वा के मूल भाग में,  लय सिद्धि प्राप्त होती है। 7. भ्रुचक्र -     आज्ञा चक्र - वाणी की सिद्धि प्राप्त होती है। 8. निर्वाणचक्र - ब्रहमरन्ध्र, सहस्त्रार चक्र, मोक्ष प्राप्ति 9. आकाश चक्र - सहस्त्रारचक्र के ऊपर,  भय- द्वेष की समाप्ति होती है। सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार सोहल आधार (1) पादांगुष्ठ आधार (2) मूलाधार (3) गुदाद्वार आधार (4) मेद् आधार (5) उड्डियान आधार (6) नाभी आधार (7) हृदयाधार (8) कण्ठाधार (9) घटिकाधार (10) तालु आधार (11) जिह्वा आधार (12) भ्रूमध्य आधार (13) नासिका आधार (14) नासामूल कपाट आधार (15) ललाट आधार (16) ब्रहमरंध्र आधार सिद्ध...

हठयोगप्रदीपिका में वर्णित मुद्रायें, बंध

  हठयोगप्रदीपिका में वर्णित मुद्रायें, बंध हठयोग प्रदीपिका में मुद्राओं का वर्णन करते हुए स्वामी स्वात्माराम जी ने कहा है महामुद्रा महाबन्धों महावेधश्च खेचरी।  उड़्डीयानं मूलबन्धस्ततो जालंधराभिध:। (हठयोगप्रदीपिका- 3/6 ) करणी विपरीताख्या बज़्रोली शक्तिचालनम्।  इदं हि मुद्रादश्क जरामरणनाशनम्।।  (हठयोगप्रदीपिका- 3/7) अर्थात महामुद्रा, महाबंध, महावेध, खेचरी, उड्डीयानबन्ध, मूलबन्ध, जालन्धरबन्ध, विपरीतकरणी, वज़्रोली और शक्तिचालनी ये दस मुद्रायें हैं। जो जरा (वृद्धा अवस्था) मरण (मृत्यु) का नाश करने वाली है। इनका वर्णन निम्न प्रकार है।  1. महामुद्रा- महामुद्रा का वर्णन करते हुए हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है- पादमूलेन वामेन योनिं सम्पीड्य दक्षिणम्।  प्रसारितं पद कृत्या कराभ्यां धारयेदृढम्।।  कंठे बंधं समारोप्य धारयेद्वायुमूर्ध्वतः।  यथा दण्डहतः सर्पों दंडाकारः प्रजायते  ऋज्वीभूता तथा शक्ति: कुण्डली सहसा भवेतत् ।।  (हठयोगप्रदीपिका- 3/9,10)  अर्थात् बायें पैर को एड़ी को गुदा और उपस्थ के मध्य सीवन पर दृढ़ता से लगाकर दाहिने पैर को फैला कर रखें...

घेरण्ड संहिता के अनुसार ध्यान

घेरण्ड संहिता में वर्णित  “ध्यान“  घेरण्ड संहिता के छठे अध्याय में ध्यान को परिभाषित करते हुए महर्षि घेरण्ड कहते हैं कि किसी विषय या वस्तु पर एकाग्रता या चिन्तन की क्रिया 'ध्यान' कहलाती है। जिस प्रकार हम अपने मन के सूक्ष्म अनुभवों को अन्‍तःचक्षु के सामने मन:दृष्टि के सामने स्पष्ट कर सके, यही ध्यान की स्थिति है। ध्यान साधक की कल्पना शक्ति पर भी निर्भर है। ध्यान अभ्यास नहीं है यह एक स्थिति हैं जो बिना किसी अवरोध के अनवरत चलती रहती है। जिस प्रकार तेल को एक बर्तन से दूसरे बर्तन में डालने पर बिना रूकावट के मोटी धारा निकलती है, बिना छलके एक समान स्तर से भरनी शुरू होती है यही ध्यान की स्थिति है। इस स्थिति में किसी भी प्रकार की हलचल नहीं होती। महर्षि घेरण्ड ध्यान के प्रकारों का वर्णन छठे अध्याय के प्रथम सूत्र में करते हुए कहते हैं कि - स्थूलं ज्योतिस्थासूक्ष्मं ध्यानस्य त्रिविधं विदु: । स्थूलं मूर्तिमयं प्रोक्तं ज्योतिस्तेजोमयं तथा । सूक्ष्मं विन्दुमयं ब्रह्म कुण्डली परदेवता ।। (घेरण्ड संहिता  6/1) अर्थात्‌ ध्यान तीन प्रकार का है- स्थूल ध्यान, ज्योतिर्ध्यान और सूक्ष्म ध्यान। स्थू...

MCQs for UGC NET YOGA (Yoga Upanishads)

1. "योगचूड़ामणि उपनिषद" में कौन-सा मार्ग मोक्ष का साधक बताया गया है? A) भक्तिमार्ग B) ध्यानमार्ग C) कर्ममार्ग D) ज्ञानमार्ग ANSWER= (B) ध्यानमार्ग Check Answer   2. "नादबिंदु उपनिषद" में किस साधना का वर्णन किया गया है? A) ध्यान साधना B) मंत्र साधना C) नादयोग साधना D) प्राणायाम साधना ANSWER= (C) नादयोग साधना Check Answer   3. "योगशिखा उपनिषद" में मोक्ष प्राप्ति का मुख्य साधन क्या बताया गया है? A) योग B) ध्यान C) भक्ति D) ज्ञान ANSWER= (A) योग Check Answer   4. "अमृतनाद उपनिषद" में कौन-सी शक्ति का वर्णन किया गया है? A) प्राण शक्ति B) मंत्र शक्ति C) कुण्डलिनी शक्ति D) चित्त शक्ति ANSWER= (C) कुण्डलिनी शक्ति Check Answer   5. "ध्यानबिंदु उपनिषद" में ध्यान का क...

MCQs on “Yoga Upanishads” in Hindi for UGC NET Yoga Paper-2

1. "योगतत्त्व उपनिषद" का मुख्य विषय क्या है? A) हठयोग की साधना B) राजयोग का सिद्धांत C) कर्मयोग का महत्व D) भक्ति योग का वर्णन ANSWER= (A) हठयोग की साधना Check Answer   2. "अमृतनाद उपनिषद" में किस योग पद्धति का वर्णन किया गया है? A) कर्मयोग B) मंत्रयोग C) लययोग D) कुण्डलिनी योग ANSWER= (D) कुण्डलिनी योग Check Answer   3. "योगछूड़ामणि उपनिषद" में मुख्य रूप से किस विषय पर प्रकाश डाला गया है? A) प्राणायाम के भेद B) मोक्ष प्राप्ति का मार्ग C) ध्यान और समाधि D) योगासनों का महत्व ANSWER= (C) ध्यान और समाधि Check Answer   4. "ध्यानबिंदु उपनिषद" में किस ध्यान पद्धति का उल्लेख है? A) त्राटक ध्यान B) अनाहत ध्यान C) सगुण ध्यान D) निर्गुण ध्यान ANSWER= (D) निर्गुण ध्यान Check Answer ...

UGC NET YOGA Upanishads MCQs

1. "योगकुण्डलिनी उपनिषद" में कौन-सी चक्र प्रणाली का वर्णन किया गया है? A) त्रिचक्र प्रणाली B) पंचचक्र प्रणाली C) सप्तचक्र प्रणाली D) दशचक्र प्रणाली ANSWER= (C) सप्तचक्र प्रणाली Check Answer   2. "अमृतबिंदु उपनिषद" में किसका अधिक महत्व बताया गया है? A) आसन की साधना B) ज्ञान की साधना C) तपस्या की साधना D) प्राणायाम की साधना ANSWER= (B) ज्ञान की साधना Check Answer   3. "ध्यानबिंदु उपनिषद" के अनुसार ध्यान का मुख्य उद्देश्य क्या है? A) शारीरिक शक्ति बढ़ाना B) सांसारिक सुख प्राप्त करना C) मानसिक शांति प्राप्त करना D) आत्म-साक्षात्कार ANSWER= (D) आत्म-साक्षात्कार Check Answer   4. "योगतत्त्व उपनिषद" के अनुसार योगी को कौन-सा गुण धारण करना चाहिए? A) सत्य और संयम B) अहंकार C) क्रोध और द्वेष D) लोभ और मोह ...

आसन का अर्थ एवं परिभाषायें, आसनो के उद्देश्य

आसन का अर्थ आसन शब्द के अनेक अर्थ है जैसे  बैठने का ढंग, शरीर के अंगों की एक विशेष स्थिति, ठहर जाना, शत्रु के विरुद्ध किसी स्थान पर डटे रहना, हाथी के शरीर का अगला भाग, घोड़े का कन्धा, आसन अर्थात जिसके ऊपर बैठा जाता है। संस्कृत व्याकरंण के अनुसार आसन शब्द अस धातु से बना है जिसके दो अर्थ होते है। 1. बैठने का स्थान : जैसे दरी, मृग छाल, कालीन, चादर  2. शारीरिक स्थिति : अर्थात शरीर के अंगों की स्थिति  आसन की परिभाषा हम जिस स्थिति में रहते है वह आसन उसी नाम से जाना जाता है। जैसे मुर्गे की स्थिति को कुक्कुटासन, मयूर की स्थिति को मयूरासन। आसनों को विभिन्न ग्रन्थों में अलग अलग तरीके से परिभाषित किया है। महर्षि पतंजलि के अनुसार आसन की परिभाषा-   महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र के साधन पाद में आसन को परिभाषित करते हुए कहा है। 'स्थिरसुखमासनम्' योगसूत्र 2/46  अर्थात स्थिरता पूर्वक रहकर जिसमें सुख की अनुभूति हो वह आसन है। उक्त परिभाषा का अगर विवेचन करे तो हम कह सकते है शरीर को बिना हिलाए, डुलाए अथवा चित्त में किसी प्रकार का उद्वेग हुए बिना चिरकाल तक निश्चल होकर एक ही स्थिति में सु...

हठयोग प्रदीपिका में वर्णित प्राणायाम

हठयोग प्रदीपिका में प्राणायाम को कुम्भक कहा है, स्वामी स्वात्माराम जी ने प्राणायामों का वर्णन करते हुए कहा है - सूर्यभेदनमुज्जायी सीत्कारी शीतल्री तथा।  भस्त्रिका भ्रामरी मूर्च्छा प्लाविनीत्यष्टकुंम्भका:।। (हठयोगप्रदीपिका- 2/44) अर्थात् - सूर्यभेदन, उज्जायी, सीत्कारी, शीतली, भस्त्रिका, भ्रामरी, मूर्छा और प्लाविनी में आठ प्रकार के कुम्भक (प्राणायाम) है। इनका वर्णन ऩिम्न प्रकार है 1. सूर्यभेदी प्राणायाम - हठयोग प्रदीपिका में सूर्यभेदन या सूर्यभेदी प्राणायाम का वर्णन इस प्रकार किया गया है - आसने सुखदे योगी बदध्वा चैवासनं ततः।  दक्षनाड्या समाकृष्य बहिस्थं पवन शनै:।।  आकेशादानखाग्राच्च निरोधावधि क्रुंभयेत। ततः शनैः सव्य नाड्या रेचयेत् पवन शनै:।। (ह.प्र. 2/48/49) अर्थात- पवित्र और समतल स्थान में उपयुक्त आसन बिछाकर उसके ऊपर पद्मासन, स्वस्तिकासन आदि किसी आसन में सुखपूर्वक मेरुदण्ड, गर्दन और सिर को सीधा रखते हुए बैठेै। फिर दाहिने नासारन्ध्र अर्थात पिंगला नाडी से शनैः शनैः पूरक करें। आभ्यन्तर कुम्भक करें। कुम्भक के समय मूलबन्ध व जालन्धरबन्ध लगा कर रखें।  यथा शक्ति कुम्भक के प...