Skip to main content

प्राकृतिक चिकित्सा के सिद्धांत

 प्राकृतिक चिकित्सा के सिद्धांंत

Principles of Naturopathy

प्राकृतिक चिकित्सा के मूलभूत सिद्धान्त इस प्रकार हैं


- प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति में दवाइयों का प्रयोग नहीं किया जाता है।

- प्राकृतिक चिकित्सा में रोग एक, कारण एक तथा चिकित्सा भी एक ही होती है।

 - रोगो का मूल कारण कीटाणु नही होते है।

- तीव्र रोग शत्रु नही मित्र होते है।

- प्रकृति स्वयं चिकित्सक है।

- चिकित्सा रोग की नहीं शरीर की होती है।

- रोग निदान की विशेष आवश्यकता नही होती है।

- जीर्ण रोगो के आरोग्य में कुछ समय अधिक लगता है।

- शरीर, मन, आत्मा का इलाज है प्राकृतिक चिकित्सा

 - प्राकृतिक चिकित्सा में उभार की सम्भावना होती है।

1. प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति में दवाइयों का प्रयोग नहीं किया जाता है- प्राकृतिक चिकित्सा में केवल 5 तत्वो मिट्टी, पानी, अग्नि, हवा, आकाश एवं छठा तत्व परम पिता जगत नियन्ता जगत का सृजनकर्ता ईशतत्व है, इस चिकित्सा में आहार के रूप में फल, साग सब्जी अनाजों का प्रयोग होता है इनमें भी भरपूर पांच तत्व है,संसार का कोई प्राणी या पौधा जो सजीव है बढ रहा है उन सब मे यही पांच तत्व विघमान है। इन पांच तत्वों के बिना किसी जीव का अस्तित्व नहीं होगा, हाँ इनमे प्रत्येक आहार के तत्वों मे किस खाय पदार्थ मे किस तत्व की प्रधानता है, यह जानकारी होनी चाहिये और किस व्यक्ति मे कौन सा तत्व विशेष रुप से देने की आवश्यकता है वह देना चाहिये। प्रायः रोगी दवाईयो की पद्धति का उपयोग करने के बाद आता है,रोग तो वेसे भी सिद्धान्ततः स्वयं से ही विकार है, उपर से अज्ञानवश अनेक दवाईयों जो सभी रासायनिक असाध्य और विजातीय होती है, रोगी के शरीर मे उनका जहर होता है, ऐसे मे हम उन्हे शोधन हेतु आहार देते है, संसोधन की क्रिया एक साधना है, वैसे हम प्राकृतिक चिकित्सा मे आने वाले रोगो को मित्र ही मानते है। अपने आप का बिना दवा निरोग रखने हेतु आकाश तत्व सबसे महत्वपूर्ण है जीवन मे इसकी आवश्यकता अन्य तत्वो की अपेक्षा अधिक है, इससे शरीर मे स्वस्थता, सुन्दरता, आरोग्यता रहती है व दीर्घायु प्राप्त होती है, आकाश तत्व के सेवन का मार्ग निराहार रहना यानि उपवास करना होता है।

पॉच तत्वों के माध्यम से ही प्राकृतिक चिकित्सा की जाती है इसलिए इस प्रणाली में किसी भी प्रकार की औषधि दिये जाने का प्रश्न ही नही उठता। वर्तमान में व्यक्ति की जीवनशैली अनियमित होने के कारण वह कई शारीरिक ब मानसिक रोगो की चपेट में है और इनके निदान के लिए वह दवाइयों पर निर्भर रहता है। दवाइयो से लाभ हो या न हो पर यह निश्चित है इसके दुष्प्रभाव शरीर में अवश्य पडते है।

प्राकृतिक चिकित्सा विशुद्ध व निर्दोष चिकित्सा पद्धति है इसमें चिकित्सा के लिए दुष्प्रभावों से रहित पंच तत्वों का सहारा लिया जाता है। अतः हमको चाहिए कि प्राकृतिक चिकित्सा के पहले सिद्धान्त का उपयोग दैनिक जीवन में करे।  

2. प्राकृतिक चिकित्सा में रोग एक, कारण एक, तथा चिकित्सा एक ही होती है- शरीर मे रोग एक है, शरीर मे संचित जमा हुआ मल, जिसे विजातीय द्रव्य कहते है आयुर्वेद भी रोगो का कारण शरीर में मल्र संचय मानता है। आयुर्वेद कहता है सभी रोगो का कारण शरीर में मल संचय है और मल के संचय का कारण गलत खाना पीना गलत रहन सहन है। शरीर में जमा विकार रोग है और शरीर के विभिन्न अंगो द्वारा उसको निकालने की जो प्रकिया शरीर की जीवनी शक्ति करती है। बिना किसी दवा के सभी रोग केवल आहार-विहार रहन-सहन के सुधार से ठीक होते है यदि आहार-विहार, रहन-सहन ठीक नहीं तो सैकडो दवाए लाभ नहीं करती है यही सच्ची प्राकृतिक चिकित्सा है। दुनिया के लोग रजस तमस प्रधान है और रजस तमस प्रधान व्यक्ति विलासी होता है। उसे पथ्य रहन सहन सुधारने को कहना ही व्यर्थ होता है। विलासी व्यक्ति मिर्च, नमक, गर्म मसाले, अधिक तला भूना भोजन, भांग, गांजा, अफीम, शराब, तम्बाकू, बीडी, सिगरेट, स्मैक, आदि ना जाने कितने असाध्य आहार लेता है। उसे उपरोक्त सभी वस्तुएं चाहिये, इसमें से कुछ भी नहीं छोडेगा मांस, मछली, अंडा खाने वालो को ये सब खाते हुए और सदा खाते रहने के लिये शरीर को बनाये रखना है तो भला वे प्राकृतिक चिकित्सा क्यों करेंगे? फिर तो वे दवा ही खायेंगे और दवा के भरोसे जितनी जिन्दगी है उतनी और चला लेते है किन्तु परहेज संयम नही करते है। प्राकृतिक चिकित्सा में इन्ही सब कुपथ्यो को रोग का कारण मानते है। आयुर्वेद भी मानता है, सभी रोगो का कारण संचित मल और संचित मलों का कारण गलत जीवनशैली है, इसका एक ही इलाज है की गलत आदतो को छोडना तथा जिन गलती के कारण रोग हुआ है, मल संचित हुआ है उनका सुधार करना तथा एनिमा, भापस्नान, उपवास, वमन, नेति, मालिश, भोजन का सुघार करके रक्त शुद्धि, शरीर शुद्धि, मल शुद्धि करके शरीर निरोग किया जाता है। इस प्रकार जीवनशैली में सुधार करके प्राकृतिक चिकित्सा की जाती है। 

3. रोगो का मूल कारण कीटाणु नहीं होते हैं- रोग कीटाणु, जीवाणु या विषाणु से होते है यह सिद्धान्त ऐलोपैथी चिकित्सा में मानते है। कीटाणु उसी शरीर मे पैदा होते है जिसके शरीर में उनके जीने हेतु वस्तुए होगी अर्थात सडा मल कूडा कचरा होगा, वहीं कीटाणु होगे, जिनके शरीर में रक्त विकार नहीं होगा वहां कीटाणुओ को आहार प्राप्त नहीं होगा। वैसे आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में भी शरीर मे रोग की सुरक्षात्मक शक्ति की उपस्थिति से रोग नहीं होना मानते ही है, यह सुरक्षात्मक व्यवस्था कमजोर होने पर ही कोई बाहर का कीटाणु शरीर पर अपना प्रभाव उपस्थित कर सकता है। यह शरीर अपने आप में एक सम्पूर्ण व्यवस्था युक्त लोक है। इस शरीर की तुलना ब्रहमाण्ड से की गई है “यथा पिण्डे तथा ब्रहमाण्डे” यह शरीर अपनी टूट फूट की मरम्मत स्वम् करता है, इसमें वे तमाम व्यवस्थायें है, जो एक राष्ट्र में या पूरे ब्रहमाण्ड में है। आधुनिक चिकित्सा विजान ने ही कहा है कि शरीर में श्वेत रक्तकण (WBC) कीटाणुओं की ऐसी सेना है, जो किसी भी रोगाणु को शरीर में प्रवेश करते ही उससे आत्मसात कर जाती है। तो इन श्वेत रक्ताणुओं की फौज अवश्य ही सबल रहनी चाहिये, श्वेत रक्ताणुओ की फौज की सबलता के लिये रक्त में पाये जाने वाले शुद्ध सभी रासायनिक तत्व विद्यमान होना आवश्यक होता है, जो संतुलित आहार, शुद्ध वायु, सुर्य की खुली धूप, खुला आकाश, उचित व्यायाम, विश्राम, संतुलित मन होने से ये शरीर की शक्ति बढाने वाले तत्व बनते बढते तथा कायम रहते है, इसे संक्षेप मे यही कह सकते है कि प्राकृतिक जीवन होने से जीवनीशक्ति प्रबल रहती है, जो रोगो के कीटाणुओ से सुरक्षा प्रदान करती है।  

4. तीव्र रोग शत्रु नहीं मित्र होते हैं- शरीर में विकार जमा होने पर उस विकार को निकालने की जो शरीर की जीवनी शक्ति द्वारा चेष्टा की जाती है उसे ही रोग की संज्ञा दी जाती है, शरीर के किस भाग में किस तरह का विकार निकलता है या क्या लक्षण दिखता है वैसा नाम उस रोग को समझने के लिये दे देते है, जैसे किसी को दस्त लग रहे हो तो पेट मे गन्दगी (मल) जमा होने पर प्रकृति उसे निकालने का प्रयत्न दस्त के रुप मे कर रही होती है, इसलिये दस्त होना एक रचनात्मक चेष्टा है। यह शरीर के हित के लिये ही हो रहा है। जिससे एनिमा देकर उस दस्त को बार-बार होने के कष्ट से बचाया जा सकता है। इसी प्रकार किसी के नाक से बलगम आती है उसे नजला कहते है, तो शरीर मे बलगम बढ़ने पर ही प्रकृति उसे नाक के जरिये बाहर निकाल रही होती है। उसे हमने जुकाम का नाम दे दिया, समझने हेतु यह जुकाम शरीर के हित में प्रकृति की चेष्टा है, हमें जुकाम की सहायता करनी चाहिये। जल नेति नमक तथा पानी से करने से लाभ होता है तथा कफ रहित भोजन (सब्जी, फल) लेने से भी जुकाम ठीक हो जाता है। श्लेष्मा युक्त आहार, दूध और लेंसदार अन्न होते है, उन्हे बन्द करके हरी सब्जी और फल लेने से श्लेष्मा के बठने से नाक से जो श्लेष्मास्राव हो रहा है वह बन्द हो जाता है। यह प्राकृतिक चिकित्सा की विधि है शरीर मे रोग स्वयं उपचार करने की प्राकृतिक विद्या है रोग नाम हमने अपनी सुविधा के लिये दिया है वैसे शरीर मे जमा हुआ विकार निकालने की प्रक्रिया ही रोग है, रोग का कार्य विधेयात्मक है| इसीलिये रोग तीव्र रोग शत्रु नही मित्र होते है।

5. प्रकृति स्वयं चिकित्सक है- शरीर का स्वभाविक कार्य है पाचन, पोषण एवं निष्कासन। शरीर की रक्षा हेतु शरीर की पुष्टता हेतु शरीर की घिसावट की पूर्ति हेतु आहार की आवश्यकता होती है। आहार यदि फल, सब्जी, जूस प्राकृतिक रुप मे है तो शरीर उसे पचाने मे कम प्राण शक्ति जिसे जीवनी शक्ति कहते है, खर्च होती है आहर में ताजा फल और सब्जियाँ विशेष लाभकारी होते है ये रक्त के कोषाणुओ को संगठित करता एवं उनको संपुष्ट करते है यदि अपक्वाहार या उपवास किया जाय तो जीवनी शक्ति बडी तेजी से शरीर की बिगाड़ को ठीक कर लेती है। इलाज के दो तरीके है एक दवाई करना दूसरी प्राकृतिक। एक में रोग दूर करने के लिये विष को दवाओ की भाँति प्रयोग किया जाता है दूसरे में प्राकृतिक पदार्थों और शक्तियों को रोग निवारण के लिये ठीक उपायो की भाँति काम में लाया जाता है। यदि रोग होते ही केवल एनिमा देकर पेट साफ कर दिया जाय पीने को सादा शुद्ध जल या फलों का रस अथवा शहद पानी पर उपवास करा दिया जाय तो रोग शीघ्र ठीक हो जाता है।


6. चिकित्सा रोग की नहीं शरीर की होती है- प्राकृतिक चिकित्सा की मान्यता जब शरीर में विकार रोग का कारण है और किसी भी एक अंग मे से वह विकार निकलता है, या एक स्थान पर खडा होकर पीडा देकर अपने अस्तित्व का संकेत देता है गठिया को ही लें एक घुटने मे सूजन के रुप में संकेत है कि ये शरीर यूरिक एसिड इत्यादि विषयों से आच्छादित है और एक घुटने में ज्यादा प्रभाव दिख रहा है। धीरे धीरे वह सभी जोडों पर बढ चढ कर प्रभाव दिखाने लगता है तब आप ही बताइये की कहां कहां किस जोड या किस भाग की सुजन कैसे ठीक कर लेंगे जबकि विकार पूरे शरीर में भरा हुआ है। इसलिये एक अंग का इलाज ना करके पूरे शरीर का इलाज करना होता है। रक्त मे जमा तेजाब अम्ल को संतुलित करना गठिया का इलाज है। जिसे कोई दवा संतुलित नही कर सकती उसके लिये क्षारीय आहार देना तथा कब्ज मल अवरोध आदि के कारण आंतों में जमा मल को एनिमा द्वारा रक्त मे जमा यूरिक एसिड को फलों का रस पिला कर कम करना अधिक पसीना तथा मूत्राअम्ल को निकालना ही गठिया से मुक्ति दिलाना होगा। यह रोगी को इतना बडा भुलावा है कि पीडा शामक दवा जो कुछ घण्टे ही रहकर पीडा का ज्ञान नहीं होने देती देकर उसे दवा की संज्ञा दे दी जाती है। दवा का अर्थ रोग निवारक व्यवस्था होती है और रोग शरीर में जमा हुए विष जहर या मलसंचय है जिसे प्राकृतिक चिकित्सा अपने सामान्य उपचारो तथा भोजन सुधार से ठीक कर देता है इसलिये किसी एक अंग का इलाज ना करके पूरे शरीर का उपचार किया जाता है बहुत बार ऐसा देखा गया है कि रोगी ने अपना रोग गठिया, दमा, उच्चरक्तचाप या मधुमेह बताकर उपचार शुरु किया परन्तु उसको चर्म रोग भी था उसके पेट मे दर्द भी रहता था, या कहीं पर गाठ सूजन थी और मुख्य रोग बताकर उसी का इलाज हो रहा था। परन्तु बिना बताये रोग बडे रोग से पहले ठीक हो गये इससे स्पष्ट हो गया की चिकित्सा शरीर की हुई और बिना किसी विधि से वह रोग भी ठीक हुए जिनके उपचार की चर्चा भी नहीं की गयी थी। ऐसा बहुत बार हुआ है, उससे साफ पता लगता है कि चिकित्सा रोग की नही बल्कि पूरे शरीर की होती है। 

7. रोग निदान की विशेष आवश्यकता नही- वास्तव में शरीर का इलाज करने से यानि शरीर शुद्धिकरण करने मात्र से ही रोग ठीक होने लगते है इसलिये निदान होने से ही उपचार होगा ऐसी कोई अनिवार्य शर्त इस उपचार मे नही है। प्राकृतिक चिकित्सा में लक्षणों के आधार पर उपचार हो जाता है। रोग का सही सही निदान आज ऐलोपैथिक चिकित्सा विज्ञान की आधुनिकतम जांच प्रणाली को ना करना कौन स्वीकार करेगा। जिन लोगो को रोग हुआ है उस बात की जानकारी नही है जो रोग के कारणो से सर्वथा अनभिज्ञ है तथा स्वयं कुछ करने की फुरसत नही है या करना नहीं चाहते वह डॉक्टरों पर सब कुछ छोड देते है और डॉक्टर की दवा के लिये उनके यहां सही सही निदान होना अनिवार्य है। अलग अलग रोग की अलग अलग दवा होती है जब तक रोग का ठीक ठीक निवारण नहीं होता तब तक दवा दी ही कैसे जायेगी। इसीलिये उनके यहाँ किसी भी रोगी के डायग्नोसिस अर्थात निदान मे महीने लगाते है। कभी कभी तो उनका रक्त या मॉस का कोई टुकडा अथवा शरीर का कोई स्राव पदार्थ अमेरिका, जर्मनी, जापान निदान हेतु भेजना पडता है और ऐसे निदान के चक्कर में ही रोगी स्वर्ग सिधार लेता है। डाक्टरों को भी मशीन ही बतायेगी, यहां की मशीन बताये या अमेरिका की मशीन बताये बात तो एक ही है। प्राकृतिक चिकित्सा मे यह विवाद नही है क्योकि उपचार तो शरीर का होता है और रोग का कारण शरीर में जमा विकार है विकार मिलते ही रोगी को उपचार मिलना प्रारम्भ हो जाता है। प्राकृतिक चिकित्सा मे रोगी की मन की संतुष्टि हेतु निदान कर लिया जाता है परन्तु आवश्यक प्रतीत नही होता है। ऐसे बहुत सारे उदाहरण दिये जा सकते है कि रोग तो मालूम नहीं और शरीर के शुद्धिकरण अर्थात एनिमा से मल्र शुद्धि, आंत शुद्धि आहार द्वारा रक्त की शुद्धि, विचारो द्वारा मन की शुद्धि करने के उपरान्त शरीर के रक्त को वायु एवं तन्तुए स्वयं रचनात्मक सृजन में लग जाते है। अतः रोगी को अनेक प्रकार की मशीनो के समक्ष ले जाकर रोग का निदान करना रोग बढाना ही है। 

8. जीर्ण रोगो को आरोग्य में कुछ समय अधिक लगता है- प्राकृतिक चिकित्सा के बारे में लोगो मे एक भारी भ्रम है कि यह इलाज में समय बहुत लेता है। इसका अर्थ है दूसरे इलाज मे आराम जल्दी मिलता है यह बातें अनेक के मुंह से सुनने को मिलती है। प्राकृतिक चिकित्सा मे रोगी प्रारम्भ मे नहीं आता है प्रायः तमाम इलाजो के तरीकों से जब उसकी निराशा की अवस्था आती है वह तब प्राकृतिक चिकित्सा की शरण लेता है किसी किसी रोग से वह 30- 40 वर्ष रोगी होता है और लगातार वर्षो से दवा चलती ही रही फिर भी रोग नहीं गया बल्कि रोग का शरीर मे विस्तार ही हुआ होता है। उदाहरणार्थ किसी एक उगली या घुटने मे दर्द शुरु हुआ था 40 वर्ष पूर्व तबसे दवा चलती रही दवा से दर्द मे आराम हो जाता है क्योकि वह दवा पेनकिलर अर्थात दर्दशामक थी और संवेदनशील नाडियों को दर्द की सूचना न देने की स्थिति मे पहुचाने की क्षमता इसमें होती थी, इस प़्रकार दर्द वही रहता और दर्द का कारण तमाम शरीर मे विजातीय द्रव के रुप में रहता था। रोगी डाक्टरो अस्पतालों या अन्यत्र खाक छानता फिरता कि कोई दर्द मिटा दे दवा से क्षणिक कुछ धण्टे आराम मिल जाता और वह दर्द वर्षों से चलता रहता है और कैसे भी शरीर रूपी गाडी भी चलती रहती है। यदि बीच में कभी कोई प्राकृतिक चिकित्सक मिला तो भी उसके द्वारा बताया गया संयम इतना कठिन लगा की उसे स्वीकार नहीं किया गया। शरीर मे भले ही रोग का विस्तार होता रहा किन्तु दवा के द्वारा क्षणक आराम के सहारे, दर्दशामक के सहारे की लम्बी अवधि पार कर ली गयी। प्राकृतिक चिकित्सा में जब उपचार शुरु करते है तो दवाईयों को घीरे-धीरे कम करके छुडाना ही होता है, और कई वर्षो में रोगी उतना अधिक आदि हो चुका होता है कि दवा छोडते ही दर्द वेदना असहाय होती है। ध्यान रहे रोग का कारण विजातीय द्रव्य का शरीर में जमा हो जाना है।

9. प्राकृतिक चिकित्सा में उभार की सम्भावना होती है- प्राकृतिक चिकित्सा में रोग शरीर मे मल भार जमा होने का प्रतीक है और शरीर उसे जब बाहर निकालता है उसके नाम अलग-अलग दिये गये है। विकार भी अलग -अलग किस्म के है और शरीर के विभिन्न अंगो द्वारा जहाँ भी अंगो की कमजोरी है वही से निकलते है। इन विकारों को निकलने से रोकना या इनके निकलने से होने वाली वेदना शमन किसी दवा के द्वारा की गयी होती है। विकार अन्दर ही दबा हुआ उसी रुप पडा रहता है। दवाईयाँ शरीर को इतना बेदम करती है कि यह विकार शरीर में रुकने पर अन्य दूसरे रुप में भी निकलने का संकेत करता है परन्तु अज्ञानी मानव उसे नया रोग समझ उसके लिये फिर और कोई दवा जहर देकर दबा देते है। यह क्रम जीवन भर चलता ही रहता है इसी क्रम में एक रोग दबाया, दूसरा पैदा हुआ, उसे दबाया तीसरा पैदा हुआ उसे दबाते-दबाते चाँथा, पाँचवा, छठा रोग ही रोग हो जाते है। 

10. शरीर, मन, आत्मा का इलाज है प्राकृतिक चिकित्सा- आमतौर से रोगी अपनी शारीरिक पीड़ा से दुःखी होकर ही चाहे किसी पद्धति में चिकित्सा के लिये भागता है, उसको ज्ञान ही नहीं है कि स्वास्थ्य किसे कहते है? उसको तो इतना ही मालूम है की उसे भूख नहीं लगती है तो भूख लग जाए बस और कुछ नही चाहिये। खुजली हो रही है तो खुजली मिट जाय इसलिये कोई पाचक खाता फिरता या मलहम लगाकर खुजली ठीक कर लेता था। किन्तु बहुत दवा लगाने पर भी ठीक नहीं हुआ तो आ गया प्राकृतिक चिकित्सा में और उसको भूख भी लग गयी और खुजली भी ठीक हो गयी, शरीर स्तर पर अवश्य ही ठीक हो गया लगता है रोगी भी मानता है मै ठीक हूँ फिर क्या चाहिये, चिकित्सक को पैसा रोगी से मिला और रोगी को पीढा शमन से संतोष मिला यह दोनो काम प्राकृतिक चिकित्सा में आने से पहले भी चल रहे थे। दूसरी पद्धति दवा मे भी ये दोनो बातेँ चल रहे थी किन्तु प्राकृतिक घिकित्सा में यह विशेषता होनी चाहिये वह रोगी का मन और आत्मा दोनो बदलने का इलाज साथ-साथ देते रहे, अस्तु सुबह शाम प्रार्थना और मन की शुद्धता पवित्रता के लिय दैवी गुणो को अपने भीतर धारण करने की क्षमता निर्माण करना रोगी को अवश्य बताया जाय, शरीर शुद्ध तो मन भी शुद्ध शरीर स्वस्थ तो मन भी स्वस्थ कहा भी गया है। "स्वस्थ शरीर में है स्वस्थ मन होता है, कोई भी व्यक्ति अगर मानसिक रुप से स्वस्थ है तो वह कभी कोई भूल या निम्न स्तर का कार्य नहीं करेगा स्वस्थ मनुष्य को हमेशा उन्नत मार्ग पर या सद् मार्ग की ओर ही ले जाने वाला है ऐसे सन्मार्गों में चलकर ही आत्मा भी परम पवित्र एव महान हो जाती है इसलिये प्राकृतिक चिकित्सा कराने वाले रोगी को सच्चा प्राकृतिक चिकित्सक रोगी से निरोगी और निरोगी से देवात्मा भी बना देता है, ऐसे अनेक उदाहरण सामने है। अस्तु प्राकृतिक चिकित्सा शरीर, मन, आत्मा तीनो की चिकित्सा करती है।


योग का अर्थ

योग की परिभाषा

Comments

Popular posts from this blog

"चक्र " - मानव शरीर में वर्णित शक्ति केन्द्र

7 Chakras in Human Body हमारे शरीर में प्राण ऊर्जा का सूक्ष्म प्रवाह प्रत्येक नाड़ी के एक निश्चित मार्ग द्वारा होता है। और एक विशिष्ट बिन्दु पर इसका संगम होता है। यह बिन्दु प्राण अथवा आत्मिक शक्ति का केन्द्र होते है। योग में इन्हें चक्र कहा जाता है। चक्र हमारे शरीर में ऊर्जा के परिपथ का निर्माण करते हैं। यह परिपथ मेरूदण्ड में होता है। चक्र उच्च तलों से ऊर्जा को ग्रहण करते है तथा उसका वितरण मन और शरीर को करते है। 'चक्र' शब्द का अर्थ-  'चक्र' का शाब्दिक अर्थ पहिया या वृत्त माना जाता है। किन्तु इस संस्कृत शब्द का यौगिक दृष्टि से अर्थ चक्रवात या भँवर से है। चक्र अतीन्द्रिय शक्ति केन्द्रों की ऐसी विशेष तरंगे हैं, जो वृत्ताकार रूप में गतिमान रहती हैं। इन तरंगों को अनुभव किया जा सकता है। हर चक्र की अपनी अलग तरंग होती है। अलग अलग चक्र की तरंगगति के अनुसार अलग अलग रंग को घूर्णनशील प्रकाश के रूप में इन्हें देखा जाता है। योगियों ने गहन ध्यान की स्थिति में चक्रों को विभिन्न दलों व रंगों वाले कमल पुष्प के रूप में देखा। इसीलिए योगशास्त्र में इन चक्रों को 'शरीर का कमल पुष्प” कहा ग...

सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति सामान्य परिचय

प्रथम उपदेश- पिण्ड उत्पति विचार सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति अध्याय - 2 (पिण्ड विचार) सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार नौ चक्रो के नाम 1. ब्रहमचक्र - मूलाधार मे स्थित है, कामनाओं की पूर्ति होती हैं। 2. स्वाधिष्ठान चक्र - इससे हम चीजो को आकर्षित कर सकते है। 3. नाभी चक्र - सिद्धि की प्राप्ति होती है। 4. अनाहत चक्र - हृदय में स्थित होता है। 5. कण्ठचक्र - विशुद्धि-संकल्प पूर्ति, आवाज मधुर होती है। 6. तालुचक्र -  घटिका में, जिह्वा के मूल भाग में,  लय सिद्धि प्राप्त होती है। 7. भ्रुचक्र -     आज्ञा चक्र - वाणी की सिद्धि प्राप्त होती है। 8. निर्वाणचक्र - ब्रहमरन्ध्र, सहस्त्रार चक्र, मोक्ष प्राप्ति 9. आकाश चक्र - सहस्त्रारचक्र के ऊपर,  भय- द्वेष की समाप्ति होती है। सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार सोहल आधार (1) पादांगुष्ठ आधार (2) मूलाधार (3) गुदाद्वार आधार (4) मेद् आधार (5) उड्डियान आधार (6) नाभी आधार (7) हृदयाधार (8) कण्ठाधार (9) घटिकाधार (10) तालु आधार (11) जिह्वा आधार (12) भ्रूमध्य आधार (13) नासिका आधार (14) नासामूल कपाट आधार (15) ललाट आधार (16) ब्रहमरंध्र आधार सिद्ध...

घेरण्ड संहिता के अनुसार ध्यान

घेरण्ड संहिता में वर्णित  “ध्यान“  घेरण्ड संहिता के छठे अध्याय में ध्यान को परिभाषित करते हुए महर्षि घेरण्ड कहते हैं कि किसी विषय या वस्तु पर एकाग्रता या चिन्तन की क्रिया 'ध्यान' कहलाती है। जिस प्रकार हम अपने मन के सूक्ष्म अनुभवों को अन्‍तःचक्षु के सामने मन:दृष्टि के सामने स्पष्ट कर सके, यही ध्यान की स्थिति है। ध्यान साधक की कल्पना शक्ति पर भी निर्भर है। ध्यान अभ्यास नहीं है यह एक स्थिति हैं जो बिना किसी अवरोध के अनवरत चलती रहती है। जिस प्रकार तेल को एक बर्तन से दूसरे बर्तन में डालने पर बिना रूकावट के मोटी धारा निकलती है, बिना छलके एक समान स्तर से भरनी शुरू होती है यही ध्यान की स्थिति है। इस स्थिति में किसी भी प्रकार की हलचल नहीं होती। महर्षि घेरण्ड ध्यान के प्रकारों का वर्णन छठे अध्याय के प्रथम सूत्र में करते हुए कहते हैं कि - स्थूलं ज्योतिस्थासूक्ष्मं ध्यानस्य त्रिविधं विदु: । स्थूलं मूर्तिमयं प्रोक्तं ज्योतिस्तेजोमयं तथा । सूक्ष्मं विन्दुमयं ब्रह्म कुण्डली परदेवता ।। (घेरण्ड संहिता  6/1) अर्थात्‌ ध्यान तीन प्रकार का है- स्थूल ध्यान, ज्योतिर्ध्यान और सूक्ष्म ध्यान। स्थू...

हठयोग प्रदीपिका के अनुसार षट्कर्म

हठप्रदीपिका के अनुसार षट्कर्म हठयोगप्रदीपिका हठयोग के महत्वपूर्ण ग्रन्थों में से एक हैं। इस ग्रन्थ के रचयिता योगी स्वात्माराम जी हैं। हठयोग प्रदीपिका के द्वितीय अध्याय में षटकर्मों का वर्णन किया गया है। षटकर्मों का वर्णन करते हुए स्वामी स्वात्माराम  जी कहते हैं - धौतिर्बस्तिस्तथा नेतिस्त्राटकं नौलिकं तथा।  कपालभातिश्चैतानि षट्कर्माणि प्रचक्षते।। (हठयोग प्रदीपिका-2/22) अर्थात- धौति, बस्ति, नेति, त्राटक, नौलि और कपालभोंति ये छ: कर्म हैं। बुद्धिमान योगियों ने इन छः कर्मों को योगमार्ग में करने का निर्देश किया है। इन छह कर्मों के अतिरिक्त गजकरणी का भी हठयोगप्रदीपिका में वर्णन किया गया है। वैसे गजकरणी धौतिकर्म के अन्तर्गत ही आ जाती है। इनका वर्णन निम्नलिखित है 1. धौति-  धौँति क्रिया की विधि और  इसके लाभ एवं सावधानी- धौँतिकर्म के अन्तर्गत हठयोग प्रदीपिका में केवल वस्त्र धौति का ही वर्णन किया गया है। धौति क्रिया का वर्णन करते हुए योगी स्वात्माराम जी कहते हैं- चतुरंगुल विस्तारं हस्तपंचदशायतम। . गुरूपदिष्टमार्गेण सिक्तं वस्त्रं शनैर्गसेत्।।  पुनः प्रत्याहरेच्चैतदुदितं ध...

योगसूत्र के अनुसार ईश्वर का स्वरूप

 ईश्वर-  ईश्वर के बारे में कहा है- “ईश्वरः ईशनशील इच्छामात्रेण सकलजगदुद्धरणक्षम:। अर्थात जो सब कुछ अर्थात समस्त जगत को केवल इच्छा मात्र से ही उत्पन्न और नष्ट करने में सक्षम है, वह ईश्वर है। ईश्वर के सम्बन्ध में अनेक विद्वानों के अनेक मत हैं परन्तु आधार सभी का लगभग एक ही है। इसी श्रृंखला में यदि अध्ययन किया जाए तो शंकराचार्य , रामानुजाचार्य , मध्वाचार्य , निम्बार्काचार्य , वल्लभाचार्य तथा महर्षि दयानन्द के विचार विशिष्ट प्रतीत होते हैं।  विविध विद्वानों के अनुसार ईश्वर- क. शंकराचार्य जी-  आचार्य शंकर के मतानुसार ब्रह्म अंतिम सत्य है। परमार्थ और व्यवहार रूप में भेद है। परमार्थ रुप से ब्रह्म निर्गुण, निर्विशेष, निश्चल, नित्य, निर्विकार, असंग, अखण्ड, सजातीय -विजातीय -स्वगत भेद से रहित, कूटस्थ, एक, शुद्ध, चेतन, नित्यमुक्त, स्वयम्भू हैं। उपनिषद में भी ऐसा ही कहा गया है । श्रुतियों से ब्रह्म के निर्गुणत्व, निर्विशेषत्व तथा चैतन्य स्वरूप का प्रमाण मिलता है। माया के कारण भी ब्रह्म में द्वैत नहीं आता क्योंकि यह माया सत् और असत् से विलक्षण वस्तु है। ब्रह्म ही जगत का उपादान व न...

UGC NET YOGA Upanishads MCQs

1. "योगकुण्डलिनी उपनिषद" में कौन-सी चक्र प्रणाली का वर्णन किया गया है? A) त्रिचक्र प्रणाली B) पंचचक्र प्रणाली C) सप्तचक्र प्रणाली D) दशचक्र प्रणाली ANSWER= (C) सप्तचक्र प्रणाली Check Answer   2. "अमृतबिंदु उपनिषद" में किसका अधिक महत्व बताया गया है? A) आसन की साधना B) ज्ञान की साधना C) तपस्या की साधना D) प्राणायाम की साधना ANSWER= (B) ज्ञान की साधना Check Answer   3. "ध्यानबिंदु उपनिषद" के अनुसार ध्यान का मुख्य उद्देश्य क्या है? A) शारीरिक शक्ति बढ़ाना B) सांसारिक सुख प्राप्त करना C) मानसिक शांति प्राप्त करना D) आत्म-साक्षात्कार ANSWER= (D) आत्म-साक्षात्कार Check Answer   4. "योगतत्त्व उपनिषद" के अनुसार योगी को कौन-सा गुण धारण करना चाहिए? A) सत्य और संयम B) अहंकार C) क्रोध और द्वेष D) लोभ और मोह ...

MCQs for UGC NET YOGA (Yoga Upanishads)

1. "योगचूड़ामणि उपनिषद" में कौन-सा मार्ग मोक्ष का साधक बताया गया है? A) भक्तिमार्ग B) ध्यानमार्ग C) कर्ममार्ग D) ज्ञानमार्ग ANSWER= (B) ध्यानमार्ग Check Answer   2. "नादबिंदु उपनिषद" में किस साधना का वर्णन किया गया है? A) ध्यान साधना B) मंत्र साधना C) नादयोग साधना D) प्राणायाम साधना ANSWER= (C) नादयोग साधना Check Answer   3. "योगशिखा उपनिषद" में मोक्ष प्राप्ति का मुख्य साधन क्या बताया गया है? A) योग B) ध्यान C) भक्ति D) ज्ञान ANSWER= (A) योग Check Answer   4. "अमृतनाद उपनिषद" में कौन-सी शक्ति का वर्णन किया गया है? A) प्राण शक्ति B) मंत्र शक्ति C) कुण्डलिनी शक्ति D) चित्त शक्ति ANSWER= (C) कुण्डलिनी शक्ति Check Answer   5. "ध्यानबिंदु उपनिषद" में ध्यान का क...

Information and Communication Technology विषय पर MCQs (Set-3)

  1. "HTTPS" में "P" का अर्थ क्या है? A) Process B) Packet C) Protocol D) Program ANSWER= (C) Protocol Check Answer   2. कौन-सा उपकरण 'डेटा' को डिजिटल रूप में परिवर्तित करता है? A) हब B) मॉडेम C) राउटर D) स्विच ANSWER= (B) मॉडेम Check Answer   3. किस प्रोटोकॉल का उपयोग 'ईमेल' भेजने के लिए किया जाता है? A) SMTP B) HTTP C) FTP D) POP3 ANSWER= (A) SMTP Check Answer   4. 'क्लाउड स्टोरेज' सेवा का एक उदाहरण क्या है? A) Paint B) Notepad C) MS Word D) Google Drive ANSWER= (D) Google Drive Check Answer   5. 'Firewall' का मुख्य कार्य क्या है? A) फाइल्स को एनक्रिप्ट करना B) डेटा को बैकअप करना C) नेटवर्क को सुरक्षित करना D) वायरस को स्कैन करना ANSWER= (C) नेटवर्क को सुरक्षित करना Check Answer   6. 'VPN' का पू...

हठयोगप्रदीपिका में वर्णित मुद्रायें, बंध

  हठयोगप्रदीपिका में वर्णित मुद्रायें, बंध हठयोग प्रदीपिका में मुद्राओं का वर्णन करते हुए स्वामी स्वात्माराम जी ने कहा है महामुद्रा महाबन्धों महावेधश्च खेचरी।  उड़्डीयानं मूलबन्धस्ततो जालंधराभिध:। (हठयोगप्रदीपिका- 3/6 ) करणी विपरीताख्या बज़्रोली शक्तिचालनम्।  इदं हि मुद्रादश्क जरामरणनाशनम्।।  (हठयोगप्रदीपिका- 3/7) अर्थात महामुद्रा, महाबंध, महावेध, खेचरी, उड्डीयानबन्ध, मूलबन्ध, जालन्धरबन्ध, विपरीतकरणी, वज़्रोली और शक्तिचालनी ये दस मुद्रायें हैं। जो जरा (वृद्धा अवस्था) मरण (मृत्यु) का नाश करने वाली है। इनका वर्णन निम्न प्रकार है।  1. महामुद्रा- महामुद्रा का वर्णन करते हुए हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है- पादमूलेन वामेन योनिं सम्पीड्य दक्षिणम्।  प्रसारितं पद कृत्या कराभ्यां धारयेदृढम्।।  कंठे बंधं समारोप्य धारयेद्वायुमूर्ध्वतः।  यथा दण्डहतः सर्पों दंडाकारः प्रजायते  ऋज्वीभूता तथा शक्ति: कुण्डली सहसा भवेतत् ।।  (हठयोगप्रदीपिका- 3/9,10)  अर्थात् बायें पैर को एड़ी को गुदा और उपस्थ के मध्य सीवन पर दृढ़ता से लगाकर दाहिने पैर को फैला कर रखें...

MCQs on “Yoga Upanishads” in Hindi for UGC NET Yoga Paper-2

1. "योगतत्त्व उपनिषद" का मुख्य विषय क्या है? A) हठयोग की साधना B) राजयोग का सिद्धांत C) कर्मयोग का महत्व D) भक्ति योग का वर्णन ANSWER= (A) हठयोग की साधना Check Answer   2. "अमृतनाद उपनिषद" में किस योग पद्धति का वर्णन किया गया है? A) कर्मयोग B) मंत्रयोग C) लययोग D) कुण्डलिनी योग ANSWER= (D) कुण्डलिनी योग Check Answer   3. "योगछूड़ामणि उपनिषद" में मुख्य रूप से किस विषय पर प्रकाश डाला गया है? A) प्राणायाम के भेद B) मोक्ष प्राप्ति का मार्ग C) ध्यान और समाधि D) योगासनों का महत्व ANSWER= (C) ध्यान और समाधि Check Answer   4. "ध्यानबिंदु उपनिषद" में किस ध्यान पद्धति का उल्लेख है? A) त्राटक ध्यान B) अनाहत ध्यान C) सगुण ध्यान D) निर्गुण ध्यान ANSWER= (D) निर्गुण ध्यान Check Answer ...