Skip to main content

पंच तत्वों का सामान्य परिचय

 पंच तत्व या पंच महाभूत- 

इस सृष्टि का निर्माण पंच तत्वों से हुआ। इन पंच तत्वों को पंच महाभूत भी कहा जाता है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश ये पांच तत्व मिलकर सम्पूर्ण सृष्टि की रचना करते हैं। साथ ही साथ मानव शरीर की रचना भी इन पंच तत्वो के द्वारा ही होती है। शरीर में ये पांच तत्व एक निश्चित योग (मात्रा) से उपस्थित होते हैं जिसे समयोग कहा जाता है। शरीर में पंच तत्वों का समयोग स्वास्थ्य है जबकि इन तत्वों का योग विषम होने पर शरीर में भिन्न प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक रोग उत्पन्न होते हैं। प्राकृतिक चिकित्सा इन पंच तत्वों को ही शरीर का आधार मानते हुए इसके महत्व को विशेष रुप से स्थान देती है। पंच तत्वों में पृथ्वी तत्व सबसे स्थूल तत्व है एवं आकाश तत्व सबसे सूक्ष्म तत्व है।

शरीर में जो कुछ भी हमें स्थूल और भारी दिखाई दे रहा है जैसे- त्वचा, मांस, अस्थि आदि प्रकृति के पृथ्वी तत्व से बने हैं। शरीर के अन्दर दौंड़ते रक्त के तरल बनाए रखने के लिए प्रकृति ने जल तत्व की व्यवस्था की है। भोजन को पचाने के लिए विभिन्‍न प्रकार की अग्नियों की व्यवस्था शरीर में की गयी है। वायु द्वारा पोषण और गति के लिए फेफड़े आदि द्वारा वायु की व्यवस्था की है और कोशिकाओं से लेकर ऊतक तंत्रो तथा अंगों के अन्दर रिक्त स्थान बनाकर आकाश तत्व की भरपूर व्यवस्था की है। आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी प्रकृति से लेकर शरीर तक समान रूप से अपना कौशल दिखाते हैं और मनुष्य को प्रकृति के साथ निरन्तर जोड़े रहते हैं।  इन तत्वों का समयोग ही स्वास्थ्य कहलाता है।

पंच तत्वों (पंच महाभूतों) का सामान्य परिचय-


आकाश तत्व- यदि आकाश तत्व का सृजन ना हुआ होता तो न तो श्वांस ले सकते और न हमारी स्थिति और अस्तित्व होता। शेष  चार तत्वों का आधार भी यही है आकाश तत्व ब्रह्माण्ड का भी आधार है। उपवास इस तत्व की प्राप्ति का एक साधन है। वैसे भी प्रतिदिन भूख से कम खाना स्वास्थ्य के लिए हितकर होता है बीमार पड़ने पर उपवास द्वारा शरीर की जीवन शक्ति को अन्य शारीरिक कार्यो से हटाकर हम अपने शरीर में आकाश तत्व की कमी को पूरा करते हैं। जिसके परिणाम स्वरूप हम स्वस्थ हो जाते हैं।  मोह, शोक, क्रोध, काम,  भय ये सभी आकाश तत्व के कार्य है। शरीर में आकाश तत्व के विशेष स्थान सिर, कण्ठ, हृदय, उदर और कटि प्रदेश है। मस्तिष्क में स्थित आकाश, वायु का भाग है जो प्राण का मुख्य स्थान है इससे अन्न का पाचन होता है। उदर प्रदेश गत आकाश जल का भाग है इससे सब प्रकार के मल विसर्जन की क्रिया सम्भव होती है। कटि प्रदेश, आकाश, और पृथ्वी का भाग है। यह अधिक स्थूल होता है तथा गन्ध का आश्रय है। आकाश जैसे हमारे आस पास और ऊपर नीचे है वैसे ही हमारे भीतर भी है। त्वचा के एक छिद्र से दूसरे छिद्रों के बीच जहाँ जगह है वहीं आकाश है। इस आकाश की खाली जगह को हमें भरने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। यदि हम अपने दैनिक आहार, जितना चाहिए उतना ही लें और भूख से अधिक न खायें तो शरीर स्वस्थ्य रहेगा इसलिए सप्ताह में 1-2 दिन उपवास करना चाहिए पूरा उपवास न कर पाएं तो एक या अधिक समय का भोजन त्याग दें। इससे भी लाभ मिलेगा हमारी जीवन शक्ति की वृद्धि एवं रोग शोक की निवृत्ति के लिए आकाश तत्व की प्राप्ति, उपवास के अतिरिक्त संयम, सदाचार, मानसिक अनुशासन, ब्रह्मचर्य, संतुलन, विश्राम अथवा प्रसन्‍नता, मनोरंजन, तथा गाढ़ी नींद से भी होती है।

 वायु तत्व- वायु तत्व पंचतत्वों में दूसरा तत्व है, जल जीवन है और वायु प्राणियों का प्राण है। एक सामान्य व्यक्ति 1 मिनट में 18-20 बार श्वांस लेता है। एक बार श्वांस लेने से 25-30 घन इंच या एक दिन में 32-37 पाैंड तक वायु की आवश्यकता होती है, श्वांस लेने की प्रत्येक क्रिया का संबंध शरीर की 100 मांसपेशियों से है। प्रतिदिन हम जितना भोजन करते हैं और जल पीते हैं उससे दुगुना श्वांस लेते हैं। जिस प्रकार प्रतिक्षण हम नाक से श्वांस लेते हैं उसी प्रकार हमारी अपनी त्वचा के असंख्य छिद्रों द्वारा श्वांस लेना भी अनिवार्य है। उदाहरण के तौर पर जिस प्रकार हम घर को शुद्ध और स्वच्छ रखने के लिए घर की खिड़कियां और झरोखे खोलकर अन्दर ताजी हवा का प्रवेश होना आवश्यक है उसी प्रकार इस शरीर रूपी घर में त्वचा छिद्रो से भी वायु का प्रवेश अनिवार्य है।
कपड़ों को सदैव शरीर से लपेटे रहने से शरीर पीला पड़ जाता है और रोम कूप शिथिल पड़ जाते हैं जिसके परिणामस्वरूप कब्जियत, हृदय रोग, मधुमेह आदि भयानक रोग उत्पन्न होते हैं।

वायु स्नान से शरीर की त्वचा स्वस्थ, लचीली एवं कोमल हो जाती है। यह शरीर की बाहरी सफाई है इससे भीतरी सफाई भी होती है जैसे 1 व्यक्ति 1 मिनट में 18-20 बार श्वांस लेता है इसमें शरीर की 100 मांसपेशियां कार्य करती हैं। एक श्वांस में 25-30 घन इंच वायु भीतर जाती है दिन भर में 16-20 किलो वायु हम भीतर खींचते हैं। यह वायु फेफड़ों के 15 वर्गफीट स्थान में चक्कर लगाती है। इस वायु से आक्सीजन (जलवायु) फेफड़ों द्वारा खिंचकर रक्त में चला जाता है और कार्बन डाई आक्साइड का अंश बाहर निकल जाता है। इस तरह शरीर का रक्त लगातार शुद्ध होता रहता है। फेफड़ों में सदैव 60 क्यूविक इंच वायु भरा रहता है जिसको बाहरी विशुद्ध वायु से सदा बदलते रहना आवश्यक है जो वायु स्नान के बिना संभव नहीं है।

 हमारे शरीर में पाँच प्रकार के प्राण तथा पाँच प्रकार के उपप्राण हैं जो शरीर के नैसर्गिक कार्य को सुचारू रूप से चलाते हैं, शरीर का ऐसा कोई स्थान नहीं जहाँ वायु न हो और कोई ऐसा कर्म नहीं है जो बिना वायु की सहायता से सुसम्पन्न हो। कफ, पित्त, रक्त, मल तथा धातु आदि की गति वायु की गति पर निर्भर करती है । जो वायु सारे शरीर में विचरण करती है उसे व्यान कहते हैं। शीतल मन्द वायु रोम कूपों द्वारा शरीर में प्रवेश करती है तथा व्यान वायु को शुद्ध करती है जो कि शरीर में शुद्ध रक्त का संचार करता है। मल मूत्र को निकालने हेतु अपान वायु है। पवन स्नान से समान वायु को इन कार्यो के लिए असाधारण शक्ति मिलती है। इसके अभाव में वायु (अपान) विकृत होकर पेट में रोग उत्पन्न करती है। शरीर में जीवनी शक्ति को बनाये रखने के लिए प्राण वायु आवश्यक है। उदान वायु का कार्य शरीर को गिरने से रोकना एवं मस्तिष्क के संपूर्ण छोटे बड़े अवयवों को रक्त पहुंचाने में सहायता प्रदान करना है।
 मानसिक रोग, अनिन्द्रा, स्नायु दौर्बल्य, स्वप्न दोष, सर्दी, खांसी, कब्ज, दुबलापन, कमजोरी आदि रोगों में टहलना एक उत्तम औषधि है।व्यायाम तथा प्राणायाम का निरन्तर अभ्यास वायु तत्व की मात्रा को शरीर में बढ़ाता है।

अग्नि तत्व-  संसार में उपस्थित सभी पदार्थों का निर्माण पंच तत्वों से मिलकर हुआ सभी पदार्थ, जीव, जन्तु आदि सभी कुछ इन पंच तत्वों द्वारा ही उत्पन्न हुए हैं जब तक ये पांचों तत्व संतुलित मात्रा में बने रहते हैं तब तक स्थिति सामान्य रहती है परन्तु पंच तत्वों के असन्तुलन के कारण किसी भी पदार्थ की स्थिति सामान्य नहीं रह सकती। सभी तत्व अपनी- अपनी जगह उतने ही महत्वपूर्ण है जितना की दूसरा तत्व एक के बिना दूसरे का अस्तित्व नहीं है। जल, पृथ्वी, वायु, आकाश और अग्नि ये पांचों तत्व सभी जगह विराजमान हैं। अग्नि जो कि पंच तत्वों में तीसरा महत्वपूर्ण तत्व है इसकी उत्पत्ति सूर्य से होती है। अग्नि तत्व की पूर्ति हमें सूर्य के प्रकाश के द्वारा होती है। यह जल और पृथ्वी की भांति दृश्यमान तत्व है। अग्नि तत्व से ही बाकी के चार तत्व भी तृप्त हो पाते हैं। अग्नि के द्वारा ही संसार के प्राणियों को उर्जा प्राप्त होती है। पुराण में सप्तरश्मियों को सप्त मुखी घोड़े की संज्ञा दी गई है। जब सूर्य की किरण से निकलने वाले सातों रंग एकत्र होते हैं तो वह श्वेत रंग का निर्माण करते हैं जिससे हम सभी वस्तुओं को देखने के योग्य होते हैं। सूर्य से प्रकाश और उर्जा ही प्राप्त नहीं होती बल्कि वह पृथ्वी पर सभी रोगों का नाश करने वाला तथा हमें आरोग्य देकर बुद्धिमान व दीर्घायुष्य भी प्रदान करता है। सूर्य के प्रकाश में इतनी शक्ति होती है कि वह रोग को जन्म देने वाले रोगाणुओं का नाश करता है।

संसार की सभी वस्तुओं व पदार्थों की उत्पत्ति केवल सूर्य के द्वारा ही निश्चित हो पायी है। इसके कारण से ही जगत में तरह- तरह के पदार्थों को उत्पन्न किया जा सकता है। अग्नि तत्व से ही बाकी के चारों तत्व तृप्त होते हैं। संसार के पेड़ पौधे, जड़ी बूटियाँ, औषधियां, फूल, फल, अनाज, समुद्र का जल, सोना, चांदी जस्ता, लोहा, हीरा आदि इसी के कारण उत्पन्न होते हैं। इसी से संसार में सौंदर्य है। जीवन है। प्राणधारियों एवं वनस्पतियों के जीवन का आधार भी सूर्य से प्राप्त होने वाला प्रकाश है। इसी के कारण ही हमारा भोजन पचता है और आगे की क्रियाएं सम्भव हो पाती हैं। अग्नि तत्व की कमी के कारण शरीर का निर्माण असम्भव है। इसकी कमी के कारण शरीर में सुस्ती, सिकुडन, सर्दी की सूजन, वायु जनित पीड़ाएं आदि अनेकों बीमारियां घर कर जाती हैं।

जब कभी किसी कारणवश पृथ्वी पर सूर्य का प्रकाश आने में अड़चन होती है तो संसार में विभिन्न प्रकार की उथल पुथल, बाढ़, महामारियाँ, भूकम्प आदि उत्पाद होते हैं। संसार की सभी चेतन या जड़ जो भी पदार्थ है उर्जा के लिए सूर्य के प्रकाश की आवश्यकता होती है।

 जल तत्व- आकाश, वायु तथा अग्नि के बाद चौथा स्थान जल तत्व का आता है जल भी शेष तत्वों के समान ही हमारे जीवन में महत्वपूर्ण है। जल को अनेकों नामों से जाना जाता है जैसे- वारि, नीर, अमृत, रस, पेय तथा जीवन आदि जल प्राणियों के जीवन का आधार है। जल जीवन के लिए उतना ही महत्वपूर्ण है जितना सांस लेने के लिए वायु। सांसारिक जीवन का आरम्भ जल से ही माना जाता है जल के द्वारा ही पालन पोषण सम्भव हो पाता है। जल में सभी पदार्थों को अपने में घोलने के गुण के कारण अन्य शेष तत्वों से भिन्न है।

जल में अन्य भौतिक पदार्थों के संयोग से कसैला, मीठा, तीखा, कडुआ, खटटा, नमकीन तथा गंदला आदि होने का गुण है। जल के द्वारा अग्नि को नियंत्रित किया जा सकता है जिसके द्वारा रोगों के उपचार में बहुत ही सहायक सिद्ध होता है। हमारे शरीर में 70 प्रतिशत भाग केवल जल है। प्राणियों को रोग मुक्त रखने की औषधि जल ही है। जल के द्वारा रोगों को दूर किया जा सकता है। जल केवल प्राण रक्षा के लिए ही प्रयोग में नहीं आता वरन हमारे दैनिक कार्यों में भी जल तत्व की  महत्वपूर्ण भूमिका है। जल के द्वारा शरीर ही नहीं वरन किसी भी पदार्थ को स्वच्छ किया जा सकता है। जल तीन प्रकार का होता है। मृदुजल, जो कि स्वास्थ्य के लिए अहितकर होता है। तथा बहती दरिया या वर्षा के जल से प्राप्त होता है। प्राकृतिक चिकित्सा के द्वारा जल का प्रयोग कर जल तत्व को नियंत्रित कर रोग का उपचार किया जाता है। कठोर जल, जो स्वास्थ्य की दृष्टि से उत्तम होता है। पीने के लिए प्रयोग किया जाता है। इसे गहरे कुंओं एवं नल का पानी आदि से प्राप्त किया जाता है। तीसरा है अस्थाई कठोर जल, जो कि स्वास्थ्य के लिए कम हितकर होता है जैसे वर्षा का संग्रहीत जल, भूमि पर एकत्र जल या जल को उबालकर उसकी कठोरता को दूर कर तैयार मृदु जल आदि है।

 पृथ्वी तत्व- प्राकृतिक चिकित्सा में मिट्टी का महत्वपूर्ण स्थान है। शरीर जिन पाँच तत्वों से मिलकर बना है उनमें से मिट्टी भी एक है। पृथ्वी पंच तत्वों में पाँचवा और अन्तिम तत्व है। यह अन्य चार तत्वों- आकाश, वायु, अग्नि तथा जल का रस है तथा यह सभी में प्रधान तत्व है। पृथ्वी में सभी चेतन व अचेतन वस्तुओं को धारण कर सकने का गुण विद्यमान है। पृथ्वी के गर्भ से कई रत्नों, खनिजों, खाद्यपदार्थों, औषधियों, जड़ी बूटियों, शुद्ध जल वनस्पति आदि को प्राप्त किया जाना निश्चित हो पाता है। पृथ्वी के द्वारा ही प्राप्त खाद्य पदार्थों को पाकर हम अपना पालन पोषण कर स्वस्थ बनते हैं। पृथ्वी से हमें कई प्रकार के अमूल्य रत्न और औषधियों प्राप्त होती हैं पृथ्वी से ही सम्पूर्ण प्राणी जगत को अन्न प्राप्त हो पाता है। मिट्टी पूरी पृथ्वी पर आसानी से पाई जाने वाली तत्व है। मिट्टी को प्राप्त करना बहुत ही आसान व सुलभ है। मिट॒टी के द्वारा पृथ्वी तत्व की पूर्ति कर रोगों की चिकित्सा की जाती है। मिट्टी जितनी सर्वसुलभ है। उतना ही वह महान गुणों से परिपूर्ण भी है। मिट्टी जितनी सरलता से पाई जाती है अपने गुणों के कारण वह बहुमूल्य बन गई है। 

मिट्टी में ताप संतुलन के गुण के कारण सर्दी व गर्मी दोनों को सोखने का गुण है जो कि गर्मी को सोखकर ठण्डक और ठण्डक को सोखकर गर्मी प्रदान करती है जो कि रोग चिकित्सा में बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान प्रदान करती है। मिट्टी के निरन्तर प्रयोग से शरीर के भीतर जमें मल भी ढीले होकर बाहर नीचे चले आते हैं। विष को खींचकर बाहर निकालने का गुण भी मिट्टी में विद्यमान है। सांप, बिच्छू, मधुमक्खी, पागल कुत्ते के काटने तथा औषधि के विष को दूर मिट्टी के द्वारा किया जा सकता है। मिट्टी में ही सभी प्राणियों के जीवन निर्वाह के लिए खाद्य पदार्थों का उनसे भिन्‍न भिन्‍न रसों की प्रधानता के साथ उत्पन्न करने की शक्ति होती है।

मिटटी की विद्युत शक्ति से सारे रोग सरलता और स्थाई रूप से मिट जाते हैं। मिटटी के द्वारा कीटाणुओं का नाश किया जा सकता है। मिटटी में धारण गुण के कारण कूडा कचरा अपशिष्ट पदार्थ आदि को धारण कर स्वच्छता को बनाए रखती है। मिटटी में विभिन्‍न जल स्रोतों से स्वच्छ कर जल को शुद्ध करने का गुण भी है। इसी प्रकार विभिन्‍न गुणों से सुसज्जित होकर मिटटी संसार की सबसे बड़ी और सस्ती औषधि है।

पंच तत्वों (पंच महाभूतों) का निर्माण क्रम-  सूक्ष्म से स्थूल-  आकाश,वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी । इन पंच महाभूतों के सूक्ष्म रूप (तन्मात्रा) क्रमशः शब्द, स्पर्श, रूप, रस, और गंध है।

Yoga Book in Hindi

Yoga Books in English

Yoga Book for BA, MA, Phd

Gherand Samhita yoga book

Hatha Yoga Pradipika Hindi Book

Patanjali Yoga Sutra Hindi

Shri mad bhagwat geeta book hindi

UGC NET Yoga Book Hindi

UGC NET Paper 2 Yoga Book English

UGC NET Paper 1 Book

QCI Yoga Book 

Yoga book for class 12 cbse

Yoga Books for kids


Yoga Mat   Yoga suit  Yoga Bar   Yoga kit


Comments

Popular posts from this blog

"चक्र " - मानव शरीर में वर्णित शक्ति केन्द्र

7 Chakras in Human Body हमारे शरीर में प्राण ऊर्जा का सूक्ष्म प्रवाह प्रत्येक नाड़ी के एक निश्चित मार्ग द्वारा होता है। और एक विशिष्ट बिन्दु पर इसका संगम होता है। यह बिन्दु प्राण अथवा आत्मिक शक्ति का केन्द्र होते है। योग में इन्हें चक्र कहा जाता है। चक्र हमारे शरीर में ऊर्जा के परिपथ का निर्माण करते हैं। यह परिपथ मेरूदण्ड में होता है। चक्र उच्च तलों से ऊर्जा को ग्रहण करते है तथा उसका वितरण मन और शरीर को करते है। 'चक्र' शब्द का अर्थ-  'चक्र' का शाब्दिक अर्थ पहिया या वृत्त माना जाता है। किन्तु इस संस्कृत शब्द का यौगिक दृष्टि से अर्थ चक्रवात या भँवर से है। चक्र अतीन्द्रिय शक्ति केन्द्रों की ऐसी विशेष तरंगे हैं, जो वृत्ताकार रूप में गतिमान रहती हैं। इन तरंगों को अनुभव किया जा सकता है। हर चक्र की अपनी अलग तरंग होती है। अलग अलग चक्र की तरंगगति के अनुसार अलग अलग रंग को घूर्णनशील प्रकाश के रूप में इन्हें देखा जाता है। योगियों ने गहन ध्यान की स्थिति में चक्रों को विभिन्न दलों व रंगों वाले कमल पुष्प के रूप में देखा। इसीलिए योगशास्त्र में इन चक्रों को 'शरीर का कमल पुष्प” कहा ग...

सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति सामान्य परिचय

प्रथम उपदेश- पिण्ड उत्पति विचार सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति अध्याय - 2 (पिण्ड विचार) सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार नौ चक्रो के नाम 1. ब्रहमचक्र - मूलाधार मे स्थित है, कामनाओं की पूर्ति होती हैं। 2. स्वाधिष्ठान चक्र - इससे हम चीजो को आकर्षित कर सकते है। 3. नाभी चक्र - सिद्धि की प्राप्ति होती है। 4. अनाहत चक्र - हृदय में स्थित होता है। 5. कण्ठचक्र - विशुद्धि-संकल्प पूर्ति, आवाज मधुर होती है। 6. तालुचक्र -  घटिका में, जिह्वा के मूल भाग में,  लय सिद्धि प्राप्त होती है। 7. भ्रुचक्र -     आज्ञा चक्र - वाणी की सिद्धि प्राप्त होती है। 8. निर्वाणचक्र - ब्रहमरन्ध्र, सहस्त्रार चक्र, मोक्ष प्राप्ति 9. आकाश चक्र - सहस्त्रारचक्र के ऊपर,  भय- द्वेष की समाप्ति होती है। सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार सोहल आधार (1) पादांगुष्ठ आधार (2) मूलाधार (3) गुदाद्वार आधार (4) मेद् आधार (5) उड्डियान आधार (6) नाभी आधार (7) हृदयाधार (8) कण्ठाधार (9) घटिकाधार (10) तालु आधार (11) जिह्वा आधार (12) भ्रूमध्य आधार (13) नासिका आधार (14) नासामूल कपाट आधार (15) ललाट आधार (16) ब्रहमरंध्र आधार सिद्ध...

हठयोगप्रदीपिका में वर्णित मुद्रायें, बंध

  हठयोगप्रदीपिका में वर्णित मुद्रायें, बंध हठयोग प्रदीपिका में मुद्राओं का वर्णन करते हुए स्वामी स्वात्माराम जी ने कहा है महामुद्रा महाबन्धों महावेधश्च खेचरी।  उड़्डीयानं मूलबन्धस्ततो जालंधराभिध:। (हठयोगप्रदीपिका- 3/6 ) करणी विपरीताख्या बज़्रोली शक्तिचालनम्।  इदं हि मुद्रादश्क जरामरणनाशनम्।।  (हठयोगप्रदीपिका- 3/7) अर्थात महामुद्रा, महाबंध, महावेध, खेचरी, उड्डीयानबन्ध, मूलबन्ध, जालन्धरबन्ध, विपरीतकरणी, वज़्रोली और शक्तिचालनी ये दस मुद्रायें हैं। जो जरा (वृद्धा अवस्था) मरण (मृत्यु) का नाश करने वाली है। इनका वर्णन निम्न प्रकार है।  1. महामुद्रा- महामुद्रा का वर्णन करते हुए हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है- पादमूलेन वामेन योनिं सम्पीड्य दक्षिणम्।  प्रसारितं पद कृत्या कराभ्यां धारयेदृढम्।।  कंठे बंधं समारोप्य धारयेद्वायुमूर्ध्वतः।  यथा दण्डहतः सर्पों दंडाकारः प्रजायते  ऋज्वीभूता तथा शक्ति: कुण्डली सहसा भवेतत् ।।  (हठयोगप्रदीपिका- 3/9,10)  अर्थात् बायें पैर को एड़ी को गुदा और उपस्थ के मध्य सीवन पर दृढ़ता से लगाकर दाहिने पैर को फैला कर रखें...

घेरण्ड संहिता के अनुसार ध्यान

घेरण्ड संहिता में वर्णित  “ध्यान“  घेरण्ड संहिता के छठे अध्याय में ध्यान को परिभाषित करते हुए महर्षि घेरण्ड कहते हैं कि किसी विषय या वस्तु पर एकाग्रता या चिन्तन की क्रिया 'ध्यान' कहलाती है। जिस प्रकार हम अपने मन के सूक्ष्म अनुभवों को अन्‍तःचक्षु के सामने मन:दृष्टि के सामने स्पष्ट कर सके, यही ध्यान की स्थिति है। ध्यान साधक की कल्पना शक्ति पर भी निर्भर है। ध्यान अभ्यास नहीं है यह एक स्थिति हैं जो बिना किसी अवरोध के अनवरत चलती रहती है। जिस प्रकार तेल को एक बर्तन से दूसरे बर्तन में डालने पर बिना रूकावट के मोटी धारा निकलती है, बिना छलके एक समान स्तर से भरनी शुरू होती है यही ध्यान की स्थिति है। इस स्थिति में किसी भी प्रकार की हलचल नहीं होती। महर्षि घेरण्ड ध्यान के प्रकारों का वर्णन छठे अध्याय के प्रथम सूत्र में करते हुए कहते हैं कि - स्थूलं ज्योतिस्थासूक्ष्मं ध्यानस्य त्रिविधं विदु: । स्थूलं मूर्तिमयं प्रोक्तं ज्योतिस्तेजोमयं तथा । सूक्ष्मं विन्दुमयं ब्रह्म कुण्डली परदेवता ।। (घेरण्ड संहिता  6/1) अर्थात्‌ ध्यान तीन प्रकार का है- स्थूल ध्यान, ज्योतिर्ध्यान और सूक्ष्म ध्यान। स्थू...

MCQs for UGC NET YOGA (Yoga Upanishads)

1. "योगचूड़ामणि उपनिषद" में कौन-सा मार्ग मोक्ष का साधक बताया गया है? A) भक्तिमार्ग B) ध्यानमार्ग C) कर्ममार्ग D) ज्ञानमार्ग ANSWER= (B) ध्यानमार्ग Check Answer   2. "नादबिंदु उपनिषद" में किस साधना का वर्णन किया गया है? A) ध्यान साधना B) मंत्र साधना C) नादयोग साधना D) प्राणायाम साधना ANSWER= (C) नादयोग साधना Check Answer   3. "योगशिखा उपनिषद" में मोक्ष प्राप्ति का मुख्य साधन क्या बताया गया है? A) योग B) ध्यान C) भक्ति D) ज्ञान ANSWER= (A) योग Check Answer   4. "अमृतनाद उपनिषद" में कौन-सी शक्ति का वर्णन किया गया है? A) प्राण शक्ति B) मंत्र शक्ति C) कुण्डलिनी शक्ति D) चित्त शक्ति ANSWER= (C) कुण्डलिनी शक्ति Check Answer   5. "ध्यानबिंदु उपनिषद" में ध्यान का क...

MCQs on “Yoga Upanishads” in Hindi for UGC NET Yoga Paper-2

1. "योगतत्त्व उपनिषद" का मुख्य विषय क्या है? A) हठयोग की साधना B) राजयोग का सिद्धांत C) कर्मयोग का महत्व D) भक्ति योग का वर्णन ANSWER= (A) हठयोग की साधना Check Answer   2. "अमृतनाद उपनिषद" में किस योग पद्धति का वर्णन किया गया है? A) कर्मयोग B) मंत्रयोग C) लययोग D) कुण्डलिनी योग ANSWER= (D) कुण्डलिनी योग Check Answer   3. "योगछूड़ामणि उपनिषद" में मुख्य रूप से किस विषय पर प्रकाश डाला गया है? A) प्राणायाम के भेद B) मोक्ष प्राप्ति का मार्ग C) ध्यान और समाधि D) योगासनों का महत्व ANSWER= (C) ध्यान और समाधि Check Answer   4. "ध्यानबिंदु उपनिषद" में किस ध्यान पद्धति का उल्लेख है? A) त्राटक ध्यान B) अनाहत ध्यान C) सगुण ध्यान D) निर्गुण ध्यान ANSWER= (D) निर्गुण ध्यान Check Answer ...

UGC NET YOGA Upanishads MCQs

1. "योगकुण्डलिनी उपनिषद" में कौन-सी चक्र प्रणाली का वर्णन किया गया है? A) त्रिचक्र प्रणाली B) पंचचक्र प्रणाली C) सप्तचक्र प्रणाली D) दशचक्र प्रणाली ANSWER= (C) सप्तचक्र प्रणाली Check Answer   2. "अमृतबिंदु उपनिषद" में किसका अधिक महत्व बताया गया है? A) आसन की साधना B) ज्ञान की साधना C) तपस्या की साधना D) प्राणायाम की साधना ANSWER= (B) ज्ञान की साधना Check Answer   3. "ध्यानबिंदु उपनिषद" के अनुसार ध्यान का मुख्य उद्देश्य क्या है? A) शारीरिक शक्ति बढ़ाना B) सांसारिक सुख प्राप्त करना C) मानसिक शांति प्राप्त करना D) आत्म-साक्षात्कार ANSWER= (D) आत्म-साक्षात्कार Check Answer   4. "योगतत्त्व उपनिषद" के अनुसार योगी को कौन-सा गुण धारण करना चाहिए? A) सत्य और संयम B) अहंकार C) क्रोध और द्वेष D) लोभ और मोह ...

Information and Communication Technology विषय पर MCQs (Set-3)

  1. "HTTPS" में "P" का अर्थ क्या है? A) Process B) Packet C) Protocol D) Program ANSWER= (C) Protocol Check Answer   2. कौन-सा उपकरण 'डेटा' को डिजिटल रूप में परिवर्तित करता है? A) हब B) मॉडेम C) राउटर D) स्विच ANSWER= (B) मॉडेम Check Answer   3. किस प्रोटोकॉल का उपयोग 'ईमेल' भेजने के लिए किया जाता है? A) SMTP B) HTTP C) FTP D) POP3 ANSWER= (A) SMTP Check Answer   4. 'क्लाउड स्टोरेज' सेवा का एक उदाहरण क्या है? A) Paint B) Notepad C) MS Word D) Google Drive ANSWER= (D) Google Drive Check Answer   5. 'Firewall' का मुख्य कार्य क्या है? A) फाइल्स को एनक्रिप्ट करना B) डेटा को बैकअप करना C) नेटवर्क को सुरक्षित करना D) वायरस को स्कैन करना ANSWER= (C) नेटवर्क को सुरक्षित करना Check Answer   6. 'VPN' का पू...

चित्त प्रसादन के उपाय

महर्षि पतंजलि ने बताया है कि मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा इन चार प्रकार की भावनाओं से भी चित्त शुद्ध होता है। और साधक वृत्तिनिरोध मे समर्थ होता है 'मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम्' (योगसूत्र 1/33) सुसम्पन्न व्यक्तियों में मित्रता की भावना करनी चाहिए, दुःखी जनों पर दया की भावना करनी चाहिए। पुण्यात्मा पुरुषों में प्रसन्नता की भावना करनी चाहिए तथा पाप कर्म करने के स्वभाव वाले पुरुषों में उदासीनता का भाव रखे। इन भावनाओं से चित्त शुद्ध होता है। शुद्ध चित्त शीघ्र ही एकाग्रता को प्राप्त होता है। संसार में सुखी, दुःखी, पुण्यात्मा और पापी आदि सभी प्रकार के व्यक्ति होते हैं। ऐसे व्यक्तियों के प्रति साधारण जन में अपने विचारों के अनुसार राग. द्वेष आदि उत्पन्न होना स्वाभाविक है। किसी व्यक्ति को सुखी देखकर दूसरे अनुकूल व्यक्ति का उसमें राग उत्पन्न हो जाता है, प्रतिकूल व्यक्ति को द्वेष व ईर्ष्या आदि। किसी पुण्यात्मा के प्रतिष्ठित जीवन को देखकर अन्य जन के चित्त में ईर्ष्या आदि का भाव उत्पन्न हो जाता है। उसकी प्रतिष्ठा व आदर को देखकर दूसरे अनेक...