महर्षि पतंजलि ने बताया है कि मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा इन चार प्रकार की भावनाओं से भी चित्त शुद्ध होता है। और साधक वृत्तिनिरोध मे समर्थ होता है
'मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम्' (योगसूत्र 1/33)
सुसम्पन्न व्यक्तियों में मित्रता की भावना करनी चाहिए, दुःखी जनों पर दया की भावना करनी चाहिए। पुण्यात्मा पुरुषों में प्रसन्नता की भावना करनी चाहिए तथा पाप कर्म करने के स्वभाव वाले पुरुषों में उदासीनता का भाव रखे। इन भावनाओं से चित्त शुद्ध होता है। शुद्ध चित्त शीघ्र ही एकाग्रता को प्राप्त होता है।
संसार में सुखी, दुःखी, पुण्यात्मा और पापी आदि सभी प्रकार के व्यक्ति होते हैं। ऐसे व्यक्तियों के प्रति साधारण जन में अपने विचारों के अनुसार राग. द्वेष आदि उत्पन्न होना स्वाभाविक है। किसी व्यक्ति को सुखी देखकर दूसरे अनुकूल व्यक्ति का उसमें राग उत्पन्न हो जाता है, प्रतिकूल व्यक्ति को द्वेष व ईर्ष्या आदि। किसी पुण्यात्मा के प्रतिष्ठित जीवन को देखकर अन्य जन के चित्त में ईर्ष्या आदि का भाव उत्पन्न हो जाता है। उसकी प्रतिष्ठा व आदर को देखकर दूसरे अनेक जन मन में जलते हैं, हमारा इतना आदर क्यों नहीं होता यह ईर्ष्या का भाव है। इसमें प्रेरित होकर ऐसे व्यक्ति पुण्यात्मा में अनेक मिथ्या दोषों का उद्भावन कर उसे कलंकित करने का प्रयास करते देखे जाते हैं। इस प्रकार परनिन्दा की भावना असूया है। दुःखी को देखकर प्रायः साधारण जन उससे घृणा करते हैं, ऐसी भावना व्यक्ति के चित्त को व्यथित एवं मलिन बनाये रखती है। यह समाज की साधारण व्यावहारिक स्थिति है।
योगमार्ग पर चलने वाले साधक ऐसी परिस्थिति से अपने आपको सदा बचाये रखने का प्रयास करें। साधक के लिये यह अत्यन्त आवश्यक है कि उसका चित्त ईर्ष्या तथा असूया आदि मलों से सर्वथा रहित हो, यह स्थिति योग में प्रवृत्ति के लिये अनुकूल होती है। निर्मल चित्त साधक योग में सफलता प्राप्त करने का अधिकारी होता है। सुखी जनों को देखकर साधक उनके प्रति मित्रता की भावना बनाये। मित्र के प्रति कभी ईष्या का भाव उत्पन्न नहीं होता। दुःखी जनों के प्रति सदा करुणा दया का भाव, उनका दुःख किस प्रकार दूर किया जा सकता है इसके लिए उन्हें सन्मार्ग दिखाने का प्रयास करे। इससे साधक के चित्त में उनके प्रति कभी घृणा का भाव उत्पन्न नहीं होने पायेगा। इससे दोनों के चित्त में शान्ति और सान्तवना बनी रहेगी। इसी प्रकार पुण्यात्मा के प्रति साधक हर्ष का अनुभव करे। योग स्वयं ऊँचे पुण्य का मार्ग है। जब दोनों एक ही पथ के पथिक हैं तो हर्ष का होना स्वाभाविक है। संसार में सन्मार्ग और सद् विचार के साथी सदा मिलते रहें, तो इससे अधिक हर्ष का और क्या विषय होगा। पापात्मा के प्रति साधक का उपेक्षा भाव सर्वथा उपयुक्त है। ऐसे व्यक्तियों को सन्मार्ग पर लाने के प्रयास प्रायः विपरीत फल ला देते हैं। पापी पुरुष अपने हितैषियों को भी उनकी वास्तविकता को न समझते हुए हानि पहुचाने और उनके कार्यों में बाधा डालने के लिये प्रयत्नशील बने रहते हैं। इसलिए ऐसे व्यक्तियों के प्रति उपेक्षा अर्थात उदासीनता का भाव श्रेयस्कर होता है। साधक इस प्रकार विभिन्न व्यक्तियों के प्रति अपनी उक्त भावना को जागृत रखकर चित्त को निर्मल, स्वच्छ और प्रसन्न बनाये रखने में सफल रहता है, जो सम्प्रज्ञात योग की स्थिति को प्राप्त करने के लिये अत्यन्त उपयोगी है।
उपरोक्त चार साधनों से चित्त निर्मल होता है पर चित्त को एकाग्र करना भी आवश्ययक है। महर्षि पतंजलि ने निम्न॑लिखित उपाय चित्त को एकाग्र तथा शुद्ध करने के लिये बताये है। महर्षि पतंजलि ने समाधि पाद में कहा है-
1. प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य (योग सूत्र 1/34)
अर्थात उदस्थ वायु को नासिकापुट से बाहर निकालना प्रच्छर्दन और भीतर ही रोके रहने को विधारण कहा है। साधक को चाहिए कि उदर में स्थित प्राणवायु को बलपूर्वक बाहर निकालने से चित्त एकाग्र होकर स्थिरता को प्राप्त होता है जिससे चित्त निर्मल होता है।
2. विषयवती वा प्रवृत्तिरूत्पवन्ना मनस: स्थिति निबन्धनी: (योगसूत्र 1/35)
अर्थात पृथ्वी जल, तेज, वायु, आकाश ये पंच महाभूत है। गंध, रस, रूप, स्पर्श तथा शब्द इसके विषय है। दिव्य और आदिव्य भेद से ये विषय दस प्रकार के हो जाते है। उक्त पाँचों गन्धादि विषयों का ध्यान करने से भी चित्त निर्मल होता है।
3. विशोका वा ज्योतिष्मती (योगसूत्र 1/36)
चित्त विषयक साक्षात्कार तथा अहंकार विषयक साक्षात्कार विशोका ज्योतिष्मती कहे जाते है। हृदय कमल में अनाहत चक्र पर संयम करने पर जो चित्त का साक्षात्कार होता है यह चित्त विषयक ज्योतिष्मती प्रवृत्ति कहलाती है इस प्रवृत्ति द्वारा भी चित्त प्रसन्न होता है।
4. वीतरागविषयं वा चित्तम् (योगसूत्र 1/37)
अर्थात् रागादि दोषों से रहित ज्ञानवान वैराग्यवान पुरूष को विषय करने वाला चित्त भी स्थिरता को प्राप्त हो जाता है। जो राग द्वेष आदि से परे है ऐसे योगी, महापुरुषों के जीवन दर्शन का अध्ययन करना, उनके चरित्र के बारे में श्रवण इत्यादि करने से भी चित्त निर्मल होता है।
5. स्वप्ननिद्राज्ञानालम्बनं वा (यो0सूत्र 1/38)
अर्थात स्वप्न काल में या निद्राकाल में ईश्वरीय ज्ञान का आलम्बन करने वाला चित्त भी स्थिरता को प्राप्त करता है।
और अंत में महर्षि पतंजलि कहते है-
6. यथाभिमतध्यानाद्वा (योगसूत्र 1/39)
अर्थात जिसको जैसा अभिमत हो उसको वैसा ध्यान करने से चित्त निर्मल होता है। जिस साधक को जो स्वरूप अभीष्ट हो उसमें ध्यान करने से चित्त शीघ्र ही स्थिरता को प्राप्त करता है। अनभिग विषय में चित्त कठिनता से स्थिर होता है। इसलिए भगवान शिव, शक्ति, गणपति, श्रीविष्णु इत्यादि देवताओं, जिसे जिस एक में विशेष रूचि है उसका ध्यान करने से चित्त स्थिरता को प्राप्त कर लेता है।
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