Skip to main content

योग का उद्देश्य | योग का महत्व

योग का उद्देश्य
सभी भारतीय दर्शनो के मुख्य प्रतिपाद्य विषय के रूप में हेय, हेयहेतु, हान तथा हानोपाय इस चतुर्व्यूहवाद का ही वर्णन किया गया है। योगदर्शन का भी यही अभिमत है। अत: अन्य दर्शनो की भांति योगदर्शन का भी मुख्य उदेश्य दुःख निवृति ही है। पतंजलि अपने योगसूत्र के आरम्भ मे ही योग की पूर्णता की अवस्था का वर्णन करते हुए कहते हैं 'तदा द्रष्टुःस्वरूपेऴवस्थानम् अर्थात योग सिद्ध हो जाने पर द्रष्टा (आत्मा) अपने शुद्ध स्वरूप मे स्थित हो जाता है। यह स्थिति दुःखो की सम्पूर्ण निवृत्ति के उपरान्त ही प्राप्त होती है। दुःखो का कारण चित्त की विभिन्न वृतियां ही हैं, जिनके कारण चित्त अस्वाभाविक अवस्था मे बना रहता है तथा यथार्थ स्वरूप का ज्ञान कराने में असमर्थ रहता है।
चित्तवृतियों के मूल में अविद्यादि क्लेश उपस्थित्त होते हैं, जिसके फलस्वरूप चित्त मे विभिन्न वृत्तियां बनी रहती हैं। इनके निवारण के उयायों के रूप में पतंजलि अभ्यास वैराग्य, ईश्वर प्रणिधान, क्रियायोग तथा अष्टांग योग का मुख्य रूप से वर्णत करते हैं। क्रियायोग का फल बताते हुए महर्षि पतंजलि कहते हैं

'समाधि भावनार्थः क्लेशतनूकरणार्थश्च' । (योगसूत्र 2 - 2)

 अर्थात क्लेशों को कमजोर करना ही क्रियायोग का मुख्य उदेश्य है, जिससे समाधि की स्थिति प्राप्त हो सके। समाधि की उच्चतम स्थिति असम्प्रजात समाधि प्राप्त हो जाने पर ही चित्त से क्लेशों की पूर्णरूप से निवृति होती है। क्योकि अगामी जन्म के कारणभूत चित्त में पूर्वजन्मों के संस्कार दग्धबीज होकर नष्ट हो जाते हैं। चित्त अपने मूलकारण प्रकृति मे लीन हो जाता है तथा पुरुष के लिए कैवल्य का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। तभी आत्मा अपने स्वरूप मे प्रतिष्ठित होता है। उसी स्थिति को कैवल्य के नाम से जाना जाता है। आधुनिक समय मे योग का उद्देश्य स्वयं स्वस्थ रहना, दूसरों को स्वास्थ्यलाभ कराना, धन अर्जित करना आदि हो गए हैं किन्तु ये सभी गोण हैं। योग का मुख्य उद्देश्य स्वस्थ होना हैं। स्वस्थ शब्द के अर्थ पर विचार किया जाए तो स्वस्थ वहीँ "है जो स्व मे स्थित है। आयुर्वेद शास्त्र का मानना भी यहीँ है। महर्षि पतंजलि भी जहाँ स्वरूपावस्थिति की बात करते हैं। तो उनका तात्पर्य भी स्व मे स्थित होने से ही है। योग की भाषा मे इसी को कैवल्य कहा 'जाता है। इस दृष्टि से यदि देखा जाये तो योग का मुख्य उद्देश्य कैवल्य प्राप्त करना ही है।

वास्तव मे योग को वर्तमान मे स्वास्थ्य लाभ के परिपेक्ष्य मे लिया जाता है पर ऐसा नहीं है कि रोगी व्यक्ति को ही योगाभ्यास करना चाहिए योग तो स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा करता हैं और बिमार व्यक्ति के रोगो को दूर करता है ।  योग के उद्देश्य निम्न प्रकार हो सकते हैं।

नैतिक एवं चारित्रिक विकाश, शारीरिक स्वास्थ्य लाभ  , मानसिक स्वास्थ्य लाभ, भारतीय संस्कृति का रक्षण, सामाजिक स्वास्थ्य लाभ , स्वरोजगार के लिए अपनाना , आध्यात्मिक स्वास्थ्य लाभ , स्वास्थ्य की रक्षा, कैवल्य की प्राप्ति आदि ।

योग का महत्व

प्राचीन काल मे योग विद्या संन्यासियो या मोक्षमार्ग के साधकों के लिए ही समझी जाती थी तथा योगाभ्यास के लिए साधक को घर को त्यागकर वन में जाकर एकांत मे वास करना होता था। इसी कारण योगसाधना को बहुत ही दुर्लभ माना जाता था। जिससे लोगो ने यह धारणा बन गयी थी कि यह योग सामाजिक व्यक्तियों के लिए नहीं है। जिसके फलस्वरूप यह योगविद्या धीरे धीरे लुप्त होती गयी। परन्तु पिछले कुछ वर्षो से समाज मे बढ़ते तनाव, चिन्ता आदि रोगो से ग्रस्त लोगो को इस गोपनीय योग से अनेको लाभ प्राप्त हुए और योग विद्या एकबार पुन: समाज मे लोकप्रिय हो गयी। आज भारत ने ही नहीं बल्कि पूरे विश्वभर मे योगविद्या पर अनेक शोध कार्य किये जा रहे हैं और इससे लाभ प्राप्त हो रहे हैं। आज के आधुनिक एवं विकास के युग में योग अनेक क्षेत्रों से विशष महत्व रखता हैं जिसका उल्लेख निम्नलिखित विवरण से स्पष्ट किया जा रहा है ।

स्वास्थ्य के क्षेत्र मे-

स्वास्थ्य क्षेत्र मे वर्तगान समय से भारत ही नहीं अपितु विदेशो मे भी योग का स्वास्थ्य के क्षेत्र मे उपयोग किया जा रहा है। स्वास्थ्य के क्षेत्र मे योगाभ्यास पर हुए अनेक शोधों से आये सकारात्मक परिणामो से इस योग विद्या को पुन: एक नयी पहचान मिल चुकी है आज विश्व स्वास्थ्य संगठन भी इस बात को मान चुका है, कि वर्तमान मे तेजी से फैल रहे मनौदैहिक रोगो मे योगाभ्यास विशेष रूप से कार्य करता  है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का मानना है कि योग एक सुव्यवस्थित व वैज्ञानिक जीवन शैली है जिसे अपना कर अनेक प्रकार के प्राणघातक रोगो से बचा जा सकता है।

रोगोपचार के क्षेत्र मे-

आज के इस प्रतिस्पर्धा व विलासिता के युग मे अनेक रोगो का जन्म हुआ है जिन पर योगाभ्यास से विशष लाभ देखने को मिला है। संभवत: रोगो पर योग के इस सकारात्मक प्रभाव के कारण ही योग को पुन: प्रचार प्रसार मिला। रोगो की चिकित्सा मे योग के इस योगदान मे विशेष बात यह है कि जहॉ एक और रोगो की एलोपैथी चिकित्सा से कई प्रकार के दुष्प्रभाव देखने को मिलते हैं, वहीँ योग चिकित्सा से रोगो मे बिना किसी टुष्प्रभाव के लाभ प्राप्त होता है। आज देश ही नहीं बल्कि विदेशों मे भी अनको स्वास्थ्य से सम्बन्धित संस्थाएं योग चिकित्सा पर तरह तरह के शोध कार्यं कर रहीं हैं।

खेलकूद के क्षेत्र मे योग का महत्व-

योगाभ्यास का खेल कूद के क्षेत्र में भी अपना एक विशेष महत्व है। विभिन्न प्रकार के खेलों मे खिलाडी अपनी कुशलता, क्षमता व योग्यता आदि बढाने के लिये योगाभ्यास की सहायता लेते हैं। योगाभ्यास से जहॉ खिलाडी के तनाव के स्तर मे कमी आती है. वहीँ दूसरी और इससे खिलाडियों की एकाग्रता व बुद्धि तथा शारीरिक क्षमता भी बढ़ती है। क्रिकेट के खिलाडी बल्लेबाजी मे एकाग्रता लाने, शरीर मे लचीलापन बढाने तथा शरीर की क्षमता बढाने के लिए रोजाना योगाभ्यास को समय देते हैं। यहॉ तक कि अब तो खिलाडियों के लिए सरकारी व्यय पर खेलकूद मे योग के प्रभावों पर भी अनको शोध कार्य हो चुके है जो कि खेल कूद के क्षेत्र से योना के सइत्त्व को सिद्ध करते हैं।


शिक्षा के क्षेत्र मे योग का महत्व- 

 
शिक्षा के क्षेत्र मे बच्चों पर बढते तनाव को योगाभ्यास से कम किया जा रहा है। योगाभ्यास से बच्चों को शारीरिक ही नहीं बल्कि मानसिक रूप से भी मजबूत बनाया जा रहा है। स्कूल व महाविद्यालयों मे शारीरिक शिक्षा विषय मे योग पढाया जा रहा है। वहीं ध्यान के अभ्यास द्वारा बच्चों मे बढ़ते मानसिक तनाव को कम किया जा रहा है। साथ ही साथ योगाभ्यास ध्यान से छात्र मे एकाग्रता व स्मृति शक्ति पर भी विशेष सकारात्मक प्रभाव देखे जा रहे हैं। विश्वभर के विद्वानो ने इस बात को माना है, कि योग के अभ्यास से शारीरिक व मानसिक ही नहीं बल्कि ऩैतिक विकास होता है। इसी कारण आज सरकारी व 'गैरसरकारी स्तर पर स्कूलों मे योग विषय को अनिवार्य कर दिया गया है।
 
पारिवारिक महत्व- 

 
व्यक्ति का परिवार समाज की एक महत्वपूर्ण इकाई होती हुँ तथा पारिवारिक संस्था व्यक्ति के विकास की नीव होती है। योगाभ्यास से आये अनेको सकारात्मक परिणामो से यह भी ज्ञात हुआ है, कि यह विद्या व्यक्ति में पारिवारिक मूल्यों एवं मान्यताओ को भी जागृत करती है। योग के अभ्यास व इसके दर्शन से व्यक्ति मे प्रेम, अपनत्व, आत्मीयता एवं सदाचार जैसे गुणों का विकास होता है और निसंदेह ये णुण एक स्वस्थ परिवार की आधारशिला होते हैं।


आर्थिक दृष्टि से महत्व 

 
प्रत्यक्ष रूप से देखने पर योग का आर्थिक दृष्टि से महत्व गौण नजर आता है लेकिन सूक्ष्म रूप से देखने पर ज्ञात होता है कि मानव के जीवन के आर्थिक स्तर और योग विद्या का सीधा संंबन्ध है। शास्त्रों में वर्णित ”पहला सुख निरोगी काया” के आधार पर योग विशेषज्ञों न पहला धन निरोगी शरीर को माना है। एक स्वस्थ व्यक्ति जहॉ अपने आय के साधनो का विकास कर सकता है, वहीँ अधिक परिश्रम से व्यक्ति अपनी प्रतिव्यक्ति आय को भी बढा सकता है। जबकि दूसरी तरफ शरीर मे किसी प्रकार का रोग न होने के कारण व्यक्ति का औषधियों व उपचार पर होने वाला व्यय भी नहीं होता है।
इस प्रकार से योग आर्थिक दृष्टि से अपना एक विशेष महत्व रखता है, वहीँ दूसरो और योग क्षेत्र मे काम करने वाले योग प्रशिक्षक भी योग विद्या से धन लाभ अर्जित कर रहे हैं। आज देश ही नहीं विदेशों मे भी अनेको योगकेन्द्र चल रहे हैं जिनमे शुल्क लेकर योग सिखाया जा रहा है। साथ ही साथ प्रत्येक वर्ष विदेशो से सैकडों सैलानी भारत आकर योग प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं जिससे आर्थिक जगत को विशेष लाभ पहुँच रहा है।

 
 सामाजिक महत्व-

 
इस बात मे किसी प्रकार का संदेह नहीं है कि एक स्वस्थ नागरिक से स्वस्थ परिवार बनता है तथा एक स्वस्थ व संस्कारित परिवार से एक आदर्श समाज की स्थापना होती है। इसीलिए समाजोत्थान  मे योगाभ्यास का सीधा प्रभाव देखा जा सकता है। सामाजिक गतिविधियॉ व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक दोनो पक्षो को प्रभावित करती हैं। सामान्यत: आज प्रतिस्पर्धा के इस युग मे व्यक्ति विशेष पर सामाजिक गतिविधियों का नकारात्मक प्रभाव पइ रहा है। व्यक्ति धन कमाने व विलासिता के साधनो को संजोने के लिए हिंसक, आतंकी, अविश्वास व भ्रष्टाचार की प्रवृति को बिना किसी हिचकिचाहट के अपना रहा है। कर्मयोग, हठयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग, अष्टांगयोग आदि साधन समाज को नयी रचनात्मक व शान्तिदायक दिशा प्रदान कर रहे हैं। कर्मयोग का स्रिद्धान्त तो पूर्ण सामाजिकता का ही आधार है "सभी सुखी हो, सभी निरोगी हों" इसी उद्देश्य के साथ योग समाज को एक नयी दिशा प्रदान कर रहा है।


आध्यात्मिक क्षेत्र मे महत्व- 

 
प्राचीन काल से ही योग विद्या का प्रयोग आध्यात्मिक विकास के लिए किया जाता रहा है। योग का एकमात्र उद्देश्य आत्मा- परमात्मा के मिलन द्वारा समाधि की अवस्था को प्राप्त करना है। इसी अर्थ को जानकर कई साधक योगसाधऩा द्वारा मोक्ष, मुक्ति के मार्ग को प्राप्त करते हैँ। योग के अन्तर्गत यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि को साधक चरणबद्ध तरीके से पार करता हुआ कैवल्य को प्राप्त कर जाता  है।

भक्तियोग, नवधा भक्ति

Comments

Popular posts from this blog

आसन का अर्थ एवं परिभाषायें, आसनो के उद्देश्य

आसन का अर्थ आसन शब्द के अनेक अर्थ है जैसे  बैठने का ढंग, शरीर के अंगों की एक विशेष स्थिति, ठहर जाना, शत्रु के विरुद्ध किसी स्थान पर डटे रहना, हाथी के शरीर का अगला भाग, घोड़े का कन्धा, आसन अर्थात जिसके ऊपर बैठा जाता है। संस्कृत व्याकरंण के अनुसार आसन शब्द अस धातु से बना है जिसके दो अर्थ होते है। 1. बैठने का स्थान : जैसे दरी, मृग छाल, कालीन, चादर  2. शारीरिक स्थिति : अर्थात शरीर के अंगों की स्थिति  आसन की परिभाषा हम जिस स्थिति में रहते है वह आसन उसी नाम से जाना जाता है। जैसे मुर्गे की स्थिति को कुक्कुटासन, मयूर की स्थिति को मयूरासन। आसनों को विभिन्न ग्रन्थों में अलग अलग तरीके से परिभाषित किया है। महर्षि पतंजलि के अनुसार आसन की परिभाषा-   महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र के साधन पाद में आसन को परिभाषित करते हुए कहा है। 'स्थिरसुखमासनम्' योगसूत्र 2/46  अर्थात स्थिरता पूर्वक रहकर जिसमें सुख की अनुभूति हो वह आसन है। उक्त परिभाषा का अगर विवेचन करे तो हम कह सकते है शरीर को बिना हिलाए, डुलाए अथवा चित्त में किसी प्रकार का उद्वेग हुए बिना चिरकाल तक निश्चल होकर एक ही स्थिति में सुखपूर्वक बैठने को

सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति सामान्य परिचय

प्रथम उपदेश- पिण्ड उत्पति विचार सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति अध्याय - 2 (पिण्ड विचार) सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार नौ चक्रो के नाम 1. ब्रहमचक्र - मूलाधार मे स्थित है, कामनाओं की पूर्ति होती हैं। 2. स्वाधिष्ठान चक्र - इससे हम चीजो को आकर्षित कर सकते है। 3. नाभी चक्र - सिद्धि की प्राप्ति होती है। 4. अनाहत चक्र - हृदय में स्थित होता है। 5. कण्ठचक्र - विशुद्धि-संकल्प पूर्ति, आवाज मधुर होती है। 6. तालुचक्र -  घटिका में, जिह्वा के मूल भाग में,  लय सिद्धि प्राप्त होती है। 7. भ्रुचक्र -     आज्ञा चक्र - वाणी की सिद्धि प्राप्त होती है। 8. निर्वाणचक्र - ब्रहमरन्ध्र, सहस्त्रार चक्र, मोक्ष प्राप्ति 9. आकाश चक्र - सहस्त्रारचक्र के ऊपर,  भय- द्वेष की समाप्ति होती है। सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार सोहल आधार (1) पादांगुष्ठ (2) मूलाधार (3) गुदाद्वार (4) मेद् आधार (5) उड्डियान आधार (6) नाभी आधार (7) हृदयाधार (8) कण्ठाधार (9) घटिकाधार (10) तालु आधार (11) जिह्वा आधार सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार तीन लक्ष्य (Aim) 1. अन्तर लक्ष्य (Internal) - मेद्‌ - लिंग से उपर  एवं नाभी से नीचे के हिस्से पर अन्दर ध्य

Yoga MCQ Questions Answers in Hindi

 Yoga multiple choice questions in Hindi for UGC NET JRF Yoga, QCI Yoga, YCB Exam नोट :- इस प्रश्नपत्र में (25) बहुसंकल्पीय प्रश्न है। प्रत्येक प्रश्न के दो (2) अंक है। सभी प्रश्न अनिवार्य ।   1. किस उपनिषद्‌ में ओंकार के चार चरणों का उल्लेख किया गया है? (1) प्रश्नोपनिषद्‌         (2) मुण्डकोपनिषद्‌ (3) माण्डूक्योपनिषद्‌  (4) कठोपनिषद्‌ 2 योग वासिष्ठ में निम्नलिखित में से किस पर बल दिया गया है? (1) ज्ञान योग  (2) मंत्र योग  (3) राजयोग  (4) भक्ति योग 3. पुरुष और प्रकृति निम्नलिखित में से किस दर्शन की दो मुख्य अवधारणाएं हैं ? (1) वेदांत           (2) सांख्य (3) पूर्व मीमांसा (4) वैशेषिक 4. निम्नांकित में से कौन-सी नाड़ी दस मुख्य नाडियों में शामिल नहीं है? (1) अलम्बुषा  (2) कुहू  (3) कूर्म  (4) शंखिनी 5. योगवासिष्ठानुसार निम्नलिखित में से क्या ज्ञानभूमिका के अन्तर्गत नहीं आता है? (1) शुभेच्छा (2) विचारणा (3) सद्भावना (4) तनुमानसा 6. प्रश्नोपनिषद्‌ के अनुसार, मनुष्य को विभिन्न लोकों में ले जाने का कार्य कौन करता है? (1) प्राण वायु (2) उदान वायु (3) व्यान वायु (4) समान वायु

चित्त | चित्तभूमि | चित्तवृत्ति

 चित्त  चित्त शब्द की व्युत्पत्ति 'चिति संज्ञाने' धातु से हुई है। ज्ञान की अनुभूति के साधन को चित्त कहा जाता है। जीवात्मा को सुख दुःख के भोग हेतु यह शरीर प्राप्त हुआ है। मनुष्य द्वारा जो भी अच्छा या बुरा कर्म किया जाता है, या सुख दुःख का भोग किया जाता है, वह इस शरीर के माध्यम से ही सम्भव है। कहा भी गया  है 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्' अर्थात प्रत्येक कार्य को करने का साधन यह शरीर ही है। इस शरीर में कर्म करने के लिये दो प्रकार के साधन हैं, जिन्हें बाह्यकरण व अन्तःकरण के नाम से जाना जाता है। बाह्यकरण के अन्तर्गत हमारी 5 ज्ञानेन्द्रियां एवं 5 कर्मेन्द्रियां आती हैं। जिनका व्यापार बाहर की ओर अर्थात संसार की ओर होता है। बाह्य विषयों के साथ इन्द्रियों के सम्पर्क से अन्तर स्थित आत्मा को जिन साधनों से ज्ञान - अज्ञान या सुख - दुःख की अनुभूति होती है, उन साधनों को अन्तःकरण के नाम से जाना जाता है। यही अन्तःकरण चित्त के अर्थ में लिया जाता है। योग दर्शन में मन, बुद्धि, अहंकार इन तीनों के सम्मिलित रूप को चित्त के नाम से प्रदर्शित किया गया है। परन्तु वेदान्त दर्शन अन्तःकरण चतुष्टय की

चित्त विक्षेप | योगान्तराय

चित्त विक्षेपों को ही योगान्तराय ' कहते है जो चित्त को विक्षिप्त करके उसकी एकाग्रता को नष्ट कर देते हैं उन्हें योगान्तराय अथवा योग के विध्न कहा जाता।  'योगस्य अन्तः मध्ये आयान्ति ते अन्तरायाः'।  ये योग के मध्य में आते हैं इसलिये इन्हें योगान्तराय कहा जाता है। विघ्नों से व्यथित होकर योग साधक साधना को बीच में ही छोड़कर चल देते हैं। विध्न आयें ही नहीं अथवा यदि आ जायें तो उनको सहने की शक्ति चित्त में आ जाये, ऐसी दया ईश्वर ही कर सकता है। यह तो सम्भव नहीं कि विध्न न आयें। “श्रेयांसि बहुविध्नानि' शुभकार्यों में विध्न आया ही करते हैं। उनसे टकराने का साहस योगसाधक में होना चाहिए। ईश्वर की अनुकम्पा से यह सम्भव होता है।  व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तिदर्शनालब्धभूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाः (योगसूत्र - 1/30) योगसूत्र के अनुसार चित्त विक्षेपों  या अन्तरायों की संख्या नौ हैं- व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरति, भ्रान्तिदर्शन, अलब्धभूमिकत्व और अनवस्थितत्व। उक्त नौ अन्तराय ही चित्त को विक्षिप्त करते हैं। अतः ये योगविरोधी हैं इन्हें योग के मल भी

योग आसनों का वर्गीकरण एवं योग आसनों के सिद्धान्त

योग आसनों का वर्गीकरण (Classification of Yogaasanas) आसनों की प्रकृति को ध्यान में रखते हुए इन्हें तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है (1) ध्यानात्मक आसन- ये वें आसन है जिनमें बैठकर पूजा पाठ, ध्यान आदि आध्यात्मिक क्रियायें की जाती है। इन आसनों में पद्मासन, सिद्धासन, स्वस्तिकासन, सुखासन, वज्रासन आदि प्रमुख है। (2) व्यायामात्मक आसन- ये वे आसन हैं जिनके अभ्यास से शरीर का व्यायाम तथा संवर्धन होता है। इसीलिए इनको शरीर संवर्धनात्मक आसन भी कहा जाता है। शारीरिक स्वास्थ्य के संरक्षण तथा रोगों की चिकित्सा में भी इन आसनों का महत्व है। इन आसनों में सूर्य नमस्कार, ताडासन,  हस्तोत्तानासन, त्रिकोणासन, कटिचक्रासन आदि प्रमुख है। (3) विश्रामात्मक आसन- शारीरिक व मानसिक थकान को दूर करने के लिए जिन आसनों का अभ्यास किया जाता है, उन्हें विश्रामात्मक आसन कहा जाता है। इन आसनों के अन्तर्गत शवासन, मकरासन, शशांकासन, बालासन आदि प्रमुख है। इनके अभ्यास से शारीरिक थकान दूर होकर साधक को नवीन स्फूर्ति प्राप्त होती है। व्यायामात्मक आसनों के द्वारा थकान उत्पन्न होने पर विश्रामात्मक आसनों का अभ्यास थकान को दूर करके ताजगी

हठयोग का अर्थ , परिभाषा, उद्देश्य

  हठयोग का अर्थ भारतीय चिन्तन में योग मोक्ष प्राप्ति का एक महत्वपूर्ण साधन रहा है, योग की विविध परम्पराओं (ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग, हठयोग) इत्यादि का अन्तिम लक्ष्य भी मोक्ष (समाधि) की प्राप्ति ही है। हठयोग के साधनों के माध्यम से वर्तमान में व्यक्ति स्वास्थ्य लाभ तो करता ही है पर इसके आध्यात्मिक लाभ भी निश्चित रूप से व्यक्ति को मिलते है।  हठयोग- नाम से यह प्रतीत होता है कि यह क्रिया हठ- पूर्वक की जाने वाली है। परन्तु ऐसा नही है अगर हठयोग की क्रिया एक उचित मार्गदर्शन में की जाये तो साधक सहजतापूर्वक इसे कर सकता है। इसके विपरित अगर व्यक्ति बिना मार्गदर्शन के करता है तो इस साधना के विपरित परिणाम भी दिखते है। वास्तव में यह सच है कि हठयोग की क्रियाये कठिन कही जा सकती है जिसके लिए निरन्तरता और दृठता आवश्यक है प्रारम्भ में साधक हठयोग की क्रिया के अभ्यास को देखकर जल्दी करने को तैयार नहीं होता इसलिए एक सहनशील, परिश्रमी और तपस्वी व्यक्ति ही इस साधना को कर सकता है।  संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ में हठयोग शब्द को दो अक्षरों में विभाजित किया है।  1. ह -अर्थात हकार  2. ठ -अर्थात ठकार हकार - का अर्थ

कठोपनिषद

कठोपनिषद (Kathopanishad) - यह उपनिषद कृष्ण यजुर्वेद की कठ शाखा के अन्तर्गत आता है। इसमें दो अध्याय हैं जिनमें 3-3 वल्लियाँ हैं। पद्यात्मक भाषा शैली में है। मुख्य विषय- योग की परिभाषा, नचिकेता - यम के बीच संवाद, आत्मा की प्रकृति, आत्मा का बोध, कठोपनिषद में योग की परिभाषा :- प्राण, मन व इन्दियों का एक हो जाना, एकाग्रावस्था को प्राप्त कर लेना, बाह्य विषयों से विमुख होकर इन्द्रियों का मन में और मन का आत्मा मे लग जाना, प्राण का निश्चल हो जाना योग है। इन्द्रियों की स्थिर धारणा अवस्था ही योग है। इन्द्रियों की चंचलता को समाप्त कर उन्हें स्थिर करना ही योग है। कठोपनिषद में कहा गया है। “स्थिराम इन्द्रिय धारणाम्‌” .  नचिकेता-यम के बीच संवाद (कहानी) - नचिकेता पुत्र वाजश्रवा एक बार वाजश्रवा किसी को गाय दान दे रहे थे, वो गाय बिना दूध वाली थी, तब नचिकेता ( वाजश्रवा के पुत्र ) ने टोका कि दान में तो अपनी प्रिय वस्तु देते हैं आप ये बिना दूध देने वाली गाय क्यो दान में दे रहे है। वाद विवाद में नचिकेता ने कहा आप मुझे किसे दान में देगे, तब पिता वाजश्रवा को गुस्सा आया और उसने नचिकेता को कहा कि तुम मेरे

प्राणायाम का अर्थ एवं परिभाषायें, प्राणायामों का वर्गीकरण

प्राणायाम का अर्थ- (Meaning of pranayama) प्राणायाम शब्द, प्राण तथा आयाम दो शब्दों के जोडने से बनता है। प्राण जीवनी शक्ति है और आयाम उसका ठहराव या पड़ाव है। हमारे श्वास प्रश्वास की अनैच्छिक क्रिया निरन्तर अनवरत से चल रही है। इस अनैच्छिक क्रिया को अपने वश में करके ऐच्छिक बना लेने पर श्वास का पूरक करके कुम्भक करना और फिर इच्छानुसार रेचक करना प्राणायाम कहलाता है। प्राणायाम शब्द दो शब्दों से बना है प्राण + आयाम। प्राण वायु का शुद्ध व सात्विक अंश है। अगर प्राण शब्द का विवेचन करे तो प्राण शब्द (प्र+अन+अच) का अर्थ गति, कम्पन, गमन, प्रकृष्टता आदि के रूप में ग्रहण किया जाता है।  छान्न्दोग्योपनिषद कहता है- 'प्राणो वा इदं सर्व भूतं॑ यदिदं किंच।' (3/15/4) प्राण वह तत्व है जिसके होने पर ही सबकी सत्ता है  'प्राणे सर्व प्रतिष्ठितम। (प्रश्नेपनिषद 2/6) तथा प्राण के वश में ही सम्पूर्ण जगत है  “प्राणस्वेदं वशे सर्वम।? (प्रश्नोे. -2/13)  अथर्वद में कहा गया है- प्राणाय नमो यस्य सर्वमिदं वशे।  यो भूतः सर्वेश्वरो यस्मिन् सर्वप्रतिष्ठितम्।॥ (अथर्ववेद 11-4-1) अर्थात उस प्राण को नमस्कार है, जिसके

बंध एवं मुद्रा का अर्थ , परिभाषा, उद्देश्य

  मुद्रा का अर्थ एवं परिभाषा  'मोदन्ते हृष्यन्ति यया सा मुद्रा यन्त्रिता सुवर्णादि धातुमया वा'   अर्थात्‌ जिसके द्वारा सभी व्यक्ति प्रसन्‍न होते हैं वह मुद्रा है जैसे सुवर्णादि बहुमूल्य धातुएं प्राप्त करके व्यक्ति प्रसन्‍नता का अनुभव अवश्य करता है।  'मुद हर्ष' धातु में “रक्‌ प्रत्यय लगाकर मुद्रा शब्दं॑ की निष्पत्ति होती है जिसका अर्थ प्रसन्‍नता देने वाली स्थिति है। धन या रुपये के अर्थ में “मुद्रा' शब्द का प्रयोग भी इसी आशय से किया गया है। कोष में मुद्रा' शब्द के अनेक अर्थ मिलते हैं। जैसे मोहर, छाप, अंगूठी, चिन्ह, पदक, रुपया, रहस्य, अंगों की विशिष्ट स्थिति (हाथ या मुख की मुद्रा)] नृत्य की मुद्रा (स्थिति) आदि।  यौगिक सन्दर्भ में मुद्रा शब्द को 'रहस्य' तथा “अंगों की विशिष्ट स्थिति' के अर्थ में लिया जा सकता है। कुण्डलिनी शक्ति को जागृत करने के लिए जिस विधि का प्रयोग किया जाता है, वह रहस्यमयी ही है। व गोपनीय होने के कारण सार्वजनिक नहीं की जाने वाली विधि है। अतः रहस्य अर्थ उचित है। आसन व प्राणायाम के साथ बंधों का प्रयोग करके विशिष्ट स्थिति में बैठकर 'म