Skip to main content

भक्तियोग, नवधा भक्ति

 भक्तियोग

भारतीय चिन्तन में ज्ञान तथा कर्म के साथ भक्ति को कैवल्य प्राप्ति का साधन माना है।  भक्तियोग प्रेम की उच्च पराकाष्ठा है। ईश्वर के प्रति अनन्य प्रेम ही भक्ति है जब व्यक्ति संसार के भौतिक पदार्थों से मोह त्यागकर अनन्य भाव से ईश्वर की उपासना करता है तो वह भक्ति कहलाती है।
भक्ति शब्द संस्कृत व्याकरण के ‘भज् सेवायाम्’ धातु से "क्तिन् प्रत्यय लगाकर भक्ति शब्द बनता है जिसका अर्थ सेवा, पूजा, उपासना और संगतिकरण करना आदि होता है। भक्ति भाव से ओतप्रोत साधक पूर्ण रूप से ब्रहा (ईश्वर) के भाव में भावित होकर सर्वतोभावेन तदरूपता की अनुभूति को अनुभव करता है। इसलिए कहा गया है-

'भक्ति नाम प्रेम विशेषः

अर्थात ईश्वर के प्रति उत्कट प्रेम विशेष का नाम ही भक्ति है। भक्तियोग का मार्ग. भावप्रधान साधकों के लिए अधिक उपयुक्त माना गया है। इस मार्ग में साधक का चित्त आसानी से एकाग्र हो जाता है। यह मार्ग अति सरल होने के कारण जनसाधारण में काफी लोकप्रिय व प्रचलित है।

भक्तियोग की परिभाषा देते हुए नारद भक्तिसूत्र में कहा गया है

'सा तस्मिन परम प्रेमरूपा' 1 / 2

अर्थात प्रभु के प्रति परम प्रेम को भक्ति कहते हैं।

शाण्डिल्य भक्ति सूत्र में भक्ति को परिभाषित करते हुए कहा गया है-

'सा भक्ति: परानुरक्तिरीश्वरे' 1 / 2

अर्थात ईश्वर में परम अनुरक्ति भक्ति है। इस प्रकार प्रभु के प्रति अनन्य प्रेम मे डूब जाना भक्ति कहलाता है। जैसा की स्पष्ट हो चुका है कि अपने आराध्य से उत्कट प्रेम का नाम भक्ति है। यह तो निश्चित है कि साधक ईश्वर की भक्ति किसी प्रयोजन से करता है श्रीमद्भगवद् गीता में भक्ति के प्रयोजन को भक्त के भेद के परिपेक्ष्य में कहा गया है।


चतुर्विधा भजन्ते मां जता: सुकृतिनोडर्जुन ।
आर्तोजिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ।। गीता (7/16)

 
अर्थात हे भरतवंशी अर्जुन चार प्रकार के पुण्यशाली मनुष्य मेरा भजन (उपासना) करते है वे है आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी तथा ज्ञानी ।

1. आर्त भक्तः महाभारत में द्रोपदी के चीर हरण की कहानी को देखे जब द्रोपदी ने देखा कि दुःसासन द्वारा उसका चीर हरण किया जा रहा है, तो उसने आर्त भाव से भगवान श्री कृष्ण को पुकारा और भगवान स्वयं उसकी रक्षा के लिए आये। कहने का तात्पर्य यह है कि आर्त भक्त वो कहलाते है जो गम्भीर संकट में फंस जाने पर अपने आराध्य को आर्त भाव से पुकारते है।

2. जिज्ञासु भक्त: जिज्ञासु जैसा कि नाम से स्पष्ट है कि जिज्ञासा रखने वाले अर्थात किसी वस्तु को जानने की इच्छा रखने वाले। अब प्रश्त उठता है कि वह वस्तु क्या है वह है आत्मा को जानने की इच्छा, ब्रहम को जानने की इच्छा ऐसे भक्त जिज्ञासु भक्त कहलाते है!

3. अर्थार्थी भक्तः समस्त संसार के व्यक्ति इस श्रेणी में आते है ऐसे भक्त किसी सांसारिक वस्तु जैसे मकान, जमीन, धन, स्त्री, वैभव, मान सम्मान परीक्षाओं मे सफलता विवाह के लिए अपने आराध्य को भजते है। ऐसे भक्त अर्थार्थी भक्त कहलाते है।

4. ज्ञानी भक्तः ज्ञानी भक्त ऐसे भक्त है जो आत्म कल्याण, ब्रहम की प्राप्ति के लिए अपने आराध्य को भजते है।

उपरोक्त चार प्रकार के भक्तों मे ज्ञानी भक्त को श्रेष्ठ कहा गया है।

नवधा भक्ति-

नवधा भक्ति, भक्तियोग का बडा महत्वपूर्ण पक्ष है। इसमे नौ प्रकार से भगवान की भक्ति की जाती है। भगवत पुराण में कहा है

श्रवणं, कीर्तन, विष्णो: स्मरणं पादसेवनम् ।
अर्चन वन्दनं दास्य सख्यमात्मनिवेदनम् ।।


अर्थात श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पाद सेवन, अर्चन, वन्दन, दास्य, साख्य और आत्मनिवेदन ये भक्ति के नौ भेद है।
1. श्रवण भक्ति- परमपिता परमेश्वर, अपने आराध्य ईष्ट के दिव्य गुणों व लीला आदि के विषय में सुनना श्रवण भक्ति कहलाती है।
2. कीर्तन भक्ति- कीर्तन से आप भली भांति परीचित होगे। भगवान के दिव्य गुणों, लीला का गायन इत्यादि के माध्यम से कथन कीर्तन भक्ति कहलाती है।
3. स्मरण भक्ति- सर्वत्र भगवान का स्मरण करना। अपने आराध्य की लीला, गुणों का निरन्तर अनन्य भाव से स्मरण करना स्मरण भक्ति कहलाती है। .
4. पादसेवन भक्ति- भगवान के चरणों की सेवा करना पाद सेवन भक्ति कहलाती है। यह भक्ति एक तो भगवान के चरणों का चिन्तन करते हुए तथा दूसरी भगवान की प्रतिमा में चरणों को धोकर श्रद्धाभाव से साधना करते हुए की जाती है।
5. अर्चन भक्ति- अर्चन भक्ति का अर्थ है पूजन करना यह पूजन मानसिक रूप से या स्थूल रूप से अपने आराध्य की हो सकती है।
6. वन्दन भक्ति- भाव भरे मन से भगवान की वन्दना करना वन्दन भक्ति का उदाहरण है। वैदिक ऋचाओं से भक्त के द्वारा भगवान की स्तुति करना वन्दन भक्ति का उदाहरण है।
7. दास्य भक्ति- अपने आप को भगवाऩ का दास समझना, अपने आप को भगवान का सेवक समझऩा दास्य भक्ति का उदाहरण है। जैसे हनुमान जी श्री रामचन्द्र जी के प्रति भक्ति रखते थे।
8. साख्य भक्ति- सांख्य का अर्थ है मित्र अपने आराध्य को अपना मित्र समझना साख्यभक्ति है जैसे सुदामा श्रीकृष्ण, अर्जुन श्रीकृष्ण यह साख्य भक्ति के उदाहरण है।
9. आत्मनिवेदन भक्ति- आत्मनिवेदन भक्ति अपने को भगवान के स्वरुप में अर्पण कर देना कहलाती है।

रागात्मिका भक्ति-   

जब नवधा भक्ति अपनी चरम अवस्था में होती है तब रागत्मिका भक्ति की शुरुवात होती है। जब नवधा भक्ति अपनी चरम अवस्था को पार कर जाती है और अन्त:करण में एक अलौकिक भगवत प्रेम भाव उत्पन्न होने लगे तो रागत्मिका भक्ति एक आनुभूतिक अवस्था है। ऐसी अवस्था में साधक अपने आराध्य की झलक का अनुभव कर सकता है। उसे अपने आराध्य दिखाई देने लगते है वह भी सजीव। उनकी झलक वह कभी आसमान मे, कभी पेडों मे, कभी जलाशय में तो कभी अपने मन्दिर मे उसको उनकी प्रतिमा सजीव दिखाई देने लगती है।

परा भक्ति-

पराभक्ति रागत्मिका भक्ति की चरम अवस्था का नाम है। यह साधक की उत्कृष्ट तथा अन्तिम पराकाष्ठा है। पराभक्ति में द्वैत नहीं रहता है इस अवस्था में उपासक और आराध्य एक हो जाते है और साधक को एक मात्र ब्रहम का साक्षात्कार होता है।

हठयोग प्रदीपिका का सामान्य परिचय

योगसूत्र का सामान्य परिचय

योग की परिभाषा

Comments

Popular posts from this blog

Yoga MCQ Questions Answers in Hindi

 Yoga multiple choice questions in Hindi for UGC NET JRF Yoga, QCI Yoga, YCB Exam नोट :- इस प्रश्नपत्र में (25) बहुसंकल्पीय प्रश्न है। प्रत्येक प्रश्न के दो (2) अंक है। सभी प्रश्न अनिवार्य ।   1. किस उपनिषद्‌ में ओंकार के चार चरणों का उल्लेख किया गया है? (1) प्रश्नोपनिषद्‌         (2) मुण्डकोपनिषद्‌ (3) माण्डूक्योपनिषद्‌  (4) कठोपनिषद्‌ 2 योग वासिष्ठ में निम्नलिखित में से किस पर बल दिया गया है? (1) ज्ञान योग  (2) मंत्र योग  (3) राजयोग  (4) भक्ति योग 3. पुरुष और प्रकृति निम्नलिखित में से किस दर्शन की दो मुख्य अवधारणाएं हैं ? (1) वेदांत           (2) सांख्य (3) पूर्व मीमांसा (4) वैशेषिक 4. निम्नांकित में से कौन-सी नाड़ी दस मुख्य नाडियों में शामिल नहीं है? (1) अलम्बुषा  (2) कुहू  (3) कूर्म  (4) शंखिनी 5. योगवासिष्ठानुसार निम्नलिखित में से क्या ज्ञानभूमिका के अन्तर्गत नहीं आता है? (1) शुभेच्छा (2) विचारणा (3) सद्भावना (4) तनुमानसा 6. प्रश्नो...

घेरण्ड संहिता में वर्णित "प्राणायाम" -- विधि, लाभ एवं सावधानियाँ

घेरण्ड संहिता के अनुसार प्राणायाम घेरण्डसंहिता में महर्षि घेरण्ड ने आठ प्राणायाम (कुम्भको) का वर्णन किया है । प्राण के नियन्त्रण से मन नियन्त्रित होता है। अत: प्रायायाम की आवश्यकता बताई गई है। हठयोग प्रदीपिका की भांति प्राणायामों की संख्या घेरण्डसंहिता में भी आठ बताई गईं है किन्तु दोनो में थोडा अन्तर है। घेरण्डसंहिता मे कहा गया है- सहित: सूर्यभेदश्च उज्जायी शीतली तथा। भस्त्रिका भ्रामरी मूर्च्छा केवली चाष्टकुम्भका।। (घे.सं0 5 / 46) 1. सहित, 2. सूर्य भेदन, 3. उज्जायी, 4. शीतली, 5. भस्त्रिका, 6. भ्रामरी, 7. मूर्च्छा तथा 8. केवली ये आठ कुम्भक (प्राणायाम) कहे गए हैं। प्राणायामों के अभ्यास से शरीर में हल्कापन आता है। 1. सहित प्राणायाम - सहित प्राणायाम दो प्रकार के होते है (i) संगर्भ और (ii) निगर्भ । सगर्भ प्राणायाम में बीज मन्त्र का प्रयोग किया जाता हैँ। और निगर्भ प्राणायाम का अभ्यास बीज मन्त्र रहित होता है। (i) सगर्भ प्राणायाम- इसके अभ्यास के लिये पहले ब्रह्मा पर ध्यान लगाना है, उन पर सजगता को केन्द्रित करते समय उन्हें लाल रंग में देखना है तथा यह कल्पना करनी है कि वे लाल है और रजस गुणों से...

हठयोग प्रदीपिका के अनुसार षट्कर्म

हठप्रदीपिका के अनुसार षट्कर्म हठयोगप्रदीपिका हठयोग के महत्वपूर्ण ग्रन्थों में से एक हैं। इस ग्रन्थ के रचयिता योगी स्वात्माराम जी हैं। हठयोग प्रदीपिका के द्वितीय अध्याय में षटकर्मों का वर्णन किया गया है। षटकर्मों का वर्णन करते हुए स्वामी स्वात्माराम  जी कहते हैं - धौतिर्बस्तिस्तथा नेतिस्त्राटकं नौलिकं तथा।  कपालभातिश्चैतानि षट्कर्माणि प्रचक्षते।। (हठयोग प्रदीपिका-2/22) अर्थात- धौति, बस्ति, नेति, त्राटक, नौलि और कपालभोंति ये छ: कर्म हैं। बुद्धिमान योगियों ने इन छः कर्मों को योगमार्ग में करने का निर्देश किया है। इन छह कर्मों के अतिरिक्त गजकरणी का भी हठयोगप्रदीपिका में वर्णन किया गया है। वैसे गजकरणी धौतिकर्म के अन्तर्गत ही आ जाती है। इनका वर्णन निम्नलिखित है 1. धौति-  धौँति क्रिया की विधि और  इसके लाभ एवं सावधानी- धौँतिकर्म के अन्तर्गत हठयोग प्रदीपिका में केवल वस्त्र धौति का ही वर्णन किया गया है। धौति क्रिया का वर्णन करते हुए योगी स्वात्माराम जी कहते हैं- चतुरंगुल विस्तारं हस्तपंचदशायतम। . गुरूपदिष्टमार्गेण सिक्तं वस्त्रं शनैर्गसेत्।।  पुनः प्रत्याहरेच्चैतदुदितं ध...

हठयोग प्रदीपिका में वर्णित प्राणायाम

हठयोग प्रदीपिका में प्राणायाम को कुम्भक कहा है, स्वामी स्वात्माराम जी ने प्राणायामों का वर्णन करते हुए कहा है - सूर्यभेदनमुज्जायी सीत्कारी शीतल्री तथा।  भस्त्रिका भ्रामरी मूर्च्छा प्लाविनीत्यष्टकुंम्भका:।। (हठयोगप्रदीपिका- 2/44) अर्थात् - सूर्यभेदन, उज्जायी, सीत्कारी, शीतली, भस्त्रिका, भ्रामरी, मूर्छा और प्लाविनी में आठ प्रकार के कुम्भक (प्राणायाम) है। इनका वर्णन ऩिम्न प्रकार है 1. सूर्यभेदी प्राणायाम - हठयोग प्रदीपिका में सूर्यभेदन या सूर्यभेदी प्राणायाम का वर्णन इस प्रकार किया गया है - आसने सुखदे योगी बदध्वा चैवासनं ततः।  दक्षनाड्या समाकृष्य बहिस्थं पवन शनै:।।  आकेशादानखाग्राच्च निरोधावधि क्रुंभयेत। ततः शनैः सव्य नाड्या रेचयेत् पवन शनै:।। (ह.प्र. 2/48/49) अर्थात- पवित्र और समतल स्थान में उपयुक्त आसन बिछाकर उसके ऊपर पद्मासन, स्वस्तिकासन आदि किसी आसन में सुखपूर्वक मेरुदण्ड, गर्दन और सिर को सीधा रखते हुए बैठेै। फिर दाहिने नासारन्ध्र अर्थात पिंगला नाडी से शनैः शनैः पूरक करें। आभ्यन्तर कुम्भक करें। कुम्भक के समय मूलबन्ध व जालन्धरबन्ध लगा कर रखें।  यथा शक्ति कुम्भक के प...

सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति सामान्य परिचय

प्रथम उपदेश- पिण्ड उत्पति विचार सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति अध्याय - 2 (पिण्ड विचार) सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार नौ चक्रो के नाम 1. ब्रहमचक्र - मूलाधार मे स्थित है, कामनाओं की पूर्ति होती हैं। 2. स्वाधिष्ठान चक्र - इससे हम चीजो को आकर्षित कर सकते है। 3. नाभी चक्र - सिद्धि की प्राप्ति होती है। 4. अनाहत चक्र - हृदय में स्थित होता है। 5. कण्ठचक्र - विशुद्धि-संकल्प पूर्ति, आवाज मधुर होती है। 6. तालुचक्र -  घटिका में, जिह्वा के मूल भाग में,  लय सिद्धि प्राप्त होती है। 7. भ्रुचक्र -     आज्ञा चक्र - वाणी की सिद्धि प्राप्त होती है। 8. निर्वाणचक्र - ब्रहमरन्ध्र, सहस्त्रार चक्र, मोक्ष प्राप्ति 9. आकाश चक्र - सहस्त्रारचक्र के ऊपर,  भय- द्वेष की समाप्ति होती है। सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार सोहल आधार (1) पादांगुष्ठ आधार (2) मूलाधार (3) गुदाद्वार आधार (4) मेद् आधार (5) उड्डियान आधार (6) नाभी आधार (7) हृदयाधार (8) कण्ठाधार (9) घटिकाधार (10) तालु आधार (11) जिह्वा आधार (12) भ्रूमध्य आधार (13) नासिका आधार (14) नासामूल कपाट आधार (15) ललाट आधार (16) ब्रहमरंध्र आधार सिद्ध...

Pranayama (Kumbhaka) : Hatha Yoga Pradipika

"Pranayama" according to Hatha Yoga Pradipika Pranayama described in Hatha Yoga Pradipika has been called Kumbhaka, Swami Swatmarama ji while describing Pranayama has said - Suryabhedanmujjayi Sitkari Sheetali  tatha. Bhastrika Bhramari Moorchchha Plavnityashtakumbhaka. (H.P- 2/44) सूर्यभेदनमुज्जयी सीतकारी शीतली तथा। भस्त्रिका भ्रामरी मूर्च्छ प्लव्नित्याष्टकुंभका। (हठ योग प्रदीपिका - 2/44) That is, there are eight types of Kumbhak (Pranayama)- Suryabhedan, Ujjayi, Sitkari, Sheetali, Bhastrika, Bhramari, Murcha and Plavini. Their description is as follows- 1. Suryabhedi Pranayama - Describing Suryabhedan or Suryabhedi Pranayama in Hatha Yoga Pradipika, it has been said that - Spreading a suitable seat in a holy and flat place, sit on it comfortably in any posture like Padmasan, Swastikasan etc. and keep the spine, neck and head straight. Then slowly supplement with the right nostril i.e. Pingala Nadi. Do Abhyantar Kumbhak. At the time of Kumbhak, keep Moolabandha and...

हठयोग प्रदीपिका का सामान्य परिचय

हठयोग प्रदीपिका ग्रन्थ के रचयिता स्वामी स्वात्माराम योगी हैँ। इन्होंने हठयोग के चार अंगो का मुख्य रूप से वर्णन किया है तथा इन्ही को चार अध्यायों मे बाँटा गया है। स्वामी स्वात्माराम योगी द्वारा बताए गए योग के चार अंग इस प्रकार है । 1. आसन-  "हठस्थ प्रथमांगत्वादासनं पूर्वमुच्यतै"  कहकर योगी स्वात्माराम जी  ने प्रथम अंग के रुप में आसन का वर्णन किया है। इन आसनो का उद्देश्य स्थैर्य, आरोग्य तथा अंगलाघव बताया गया है   'कुर्यात्तदासनं स्थैर्यमारोग्यं चांगलाघवम् '।  ह.प्र. 1/17 आसनो के अभ्यास से साधक के शरीर मे स्थिरता आ जाती है। चंचलता समाप्त हो जाती हैं. लचीलापन आता है, आरोग्यता आ जाती है, शरीर हल्का हो जाता है 1 हठयोगप्रदीपिका में पन्द्रह आसनों का वर्णन किया गया है हठयोगप्रदीपिका में वर्णित 15 आसनों के नाम 1. स्वस्तिकासन , 2. गोमुखासन , 3. वीरासन , 4. कूर्मासन , 5. कुक्कुटासन . 6. उत्तानकूर्मासन , 7. धनुरासन , 8. मत्स्येन्द्रासन , 9. पश्चिमोत्तानासन , 10. मयूरासन , 11. शवासन , 12. सिद्धासन , 13. पद्मासन , 14. सिंहासन , 15. भद्रासना । 2. प्राणायाम- ...

हठयोगप्रदीपिका में वर्णित मुद्रायें, बंध

  हठयोगप्रदीपिका में वर्णित मुद्रायें, बंध हठयोग प्रदीपिका में मुद्राओं का वर्णन करते हुए स्वामी स्वात्माराम जी ने कहा है महामुद्रा महाबन्धों महावेधश्च खेचरी।  उड़्डीयानं मूलबन्धस्ततो जालंधराभिध:। (हठयोगप्रदीपिका- 3/6 ) करणी विपरीताख्या बज़्रोली शक्तिचालनम्।  इदं हि मुद्रादश्क जरामरणनाशनम्।।  (हठयोगप्रदीपिका- 3/7) अर्थात महामुद्रा, महाबंध, महावेध, खेचरी, उड्डीयानबन्ध, मूलबन्ध, जालन्धरबन्ध, विपरीतकरणी, वज़्रोली और शक्तिचालनी ये दस मुद्रायें हैं। जो जरा (वृद्धा अवस्था) मरण (मृत्यु) का नाश करने वाली है। इनका वर्णन निम्न प्रकार है।  1. महामुद्रा- महामुद्रा का वर्णन करते हुए हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है- पादमूलेन वामेन योनिं सम्पीड्य दक्षिणम्।  प्रसारितं पद कृत्या कराभ्यां धारयेदृढम्।।  कंठे बंधं समारोप्य धारयेद्वायुमूर्ध्वतः।  यथा दण्डहतः सर्पों दंडाकारः प्रजायते  ऋज्वीभूता तथा शक्ति: कुण्डली सहसा भवेतत् ।।  (हठयोगप्रदीपिका- 3/9,10)  अर्थात् बायें पैर को एड़ी को गुदा और उपस्थ के मध्य सीवन पर दृढ़ता से लगाकर दाहिने पैर को फैला कर रखें...

घेरण्ड संहिता के अनुसार ध्यान

घेरण्ड संहिता में वर्णित  “ध्यान“  घेरण्ड संहिता के छठे अध्याय में ध्यान को परिभाषित करते हुए महर्षि घेरण्ड कहते हैं कि किसी विषय या वस्तु पर एकाग्रता या चिन्तन की क्रिया 'ध्यान' कहलाती है। जिस प्रकार हम अपने मन के सूक्ष्म अनुभवों को अन्‍तःचक्षु के सामने मन:दृष्टि के सामने स्पष्ट कर सके, यही ध्यान की स्थिति है। ध्यान साधक की कल्पना शक्ति पर भी निर्भर है। ध्यान अभ्यास नहीं है यह एक स्थिति हैं जो बिना किसी अवरोध के अनवरत चलती रहती है। जिस प्रकार तेल को एक बर्तन से दूसरे बर्तन में डालने पर बिना रूकावट के मोटी धारा निकलती है, बिना छलके एक समान स्तर से भरनी शुरू होती है यही ध्यान की स्थिति है। इस स्थिति में किसी भी प्रकार की हलचल नहीं होती। महर्षि घेरण्ड ध्यान के प्रकारों का वर्णन छठे अध्याय के प्रथम सूत्र में करते हुए कहते हैं कि - स्थूलं ज्योतिस्थासूक्ष्मं ध्यानस्य त्रिविधं विदु: । स्थूलं मूर्तिमयं प्रोक्तं ज्योतिस्तेजोमयं तथा । सूक्ष्मं विन्दुमयं ब्रह्म कुण्डली परदेवता ।। (घेरण्ड संहिता  6/1) अर्थात्‌ ध्यान तीन प्रकार का है- स्थूल ध्यान, ज्योतिर्ध्यान और सूक्ष्म ध्यान। स्थू...

सांख्य दर्शन परिचय, सांख्य दर्शन में वर्णित 25 तत्व

सांख्य दर्शन के प्रणेता महर्षि कपिल है यहाँ पर सांख्य शब्द का अर्थ ज्ञान के अर्थ में लिया गया सांख्य दर्शन में प्रकृति पुरूष सृष्टि क्रम बन्धनों व मोक्ष कार्य - कारण सिद्धान्त का सविस्तार वर्णन किया गया है इसका संक्षेप में वर्णन इस प्रकार है। 1. प्रकृति-  सांख्य दर्शन में प्रकृति को त्रिगुण अर्थात सत्व, रज, तम तीन गुणों के सम्मिलित रूप को त्रिगुण की संज्ञा दी गयी है। सांख्य दर्शन में इन तीन गुणो कों सूक्ष्म तथा अतेनद्रिय माना गया सत्व गुणो का कार्य सुख रजोगुण का कार्य लोभ बताया गया सत्व गुण स्वच्छता एवं ज्ञान का प्रतीक है यह गुण उर्ध्वगमन करने वाला है। इसकी प्रबलता से पुरूष में सरलता प्रीति,अदा,सन्तोष एवं विवेक के सुखद भावो की उत्पत्ति होती है।    रजोगुण दुःख अथवा अशान्ति का प्रतीक है इसकी प्रबलता से पुरूष में मान, मद, वेष तथा क्रोध भाव उत्पन्न होते है।    तमोगुण दुख एवं अशान्ति का प्रतीक है यह गुण अधोगमन करने वाला है तथा इसकी प्रबलता से मोह की उत्पत्ति होती है इस मोह से पुरूष में निद्रा, प्रसाद, आलस्य, मुर्छा, अकर्मण्यता अथवा उदासीनता के भाव उत्पन्न होते है सा...