Skip to main content

योग के साधक तत्व

योग के साधक तत्व -

हठप्रदीपिका के अनुसार योग के साधक तत्व-

 उत्साहात्‌ साहसाद्‌ धैर्यात्‌ तत्वज्ञानाच्च निश्चयात्‌।
जनसंगपरित्यागात्‌ षडभियोंगः प्रसिद्दयति: || 1/16

अर्थात उत्साह, साहस, धैर्य, तत्वज्ञान, दृढ़-निश्चय तथा जनसंग का परित्याग इन छः तत्वों से योग की सिद्धि होती है, अतः ये योग के साधक तत्व है।

1. उत्साह- योग साधना में प्रवृत्त होने के लिए उत्साह रूपी मनोस्थिति का होना आवश्यक है। उत्साह भरे मन से कार्य प्रारभं करने से शरीर, मन व इन्द्रियों में प्राण संचार होकर सभी अंग साधना में कार्यरत होने को प्रेरित हो जाते है। अतः उत्साहरूपी मनोस्थिति योग साधना में सफलता की कुजी है।
2. साहस- योगसाधना मार्ग मे साहस का भी गुण होना चाहिए। साहसी साधक योग की कठिन क्रियांए जैसे- वस्त्रधौति, खेचरी आदि की साधना कर सकता है। पहले से ही भयभीत साधक योग क्रियाओं के मार्ग की और नहीं बढ़ सकता।
3. धैर्य- योगसाधक में घीरता का गुण होना अत्यावश्यक हैं। यदि साधक रातो-रात साधना में सफलता चाहता है तो ऐसा अधीर साधक बाधाओं से घिरकर पथ भ्रष्ट हो जाता है। साधक को गुरूपदेश से संसार की बाधाओं या आन्तरिक स्तर की विपदाओ का धैर्य पूर्वक निराकरण करना चाहिए।
4. तत्वज्ञान- योगमार्ग पर चलने से पहले आवश्यक है कि साधक साधना मार्ग का उचित ज्ञान शास्त्रों व गुरूपदेशों द्वारा ग्रहण करे। भली-भाँति ज्ञान न होने पर साधना मे समय नष्ट होगा व नाना प्रकार की बाधाएं उत्पन्न होकर मन भी विचलित होगा।
5. दृढ़-निश्चय- किसी सांसरिक कार्य को प्रारम्भ करने से पहले दृढ़-निश्चय की भावना आवश्यक है। जहां निश्चय में ढील हुई वहीं मार्ग बाधित हो जायेगा। अतः योगसाधना मार्ग में प्रवृत्त होने से पहले दृढ़-निश्चय की भावना अत्यन्त आवश्यक है।
6. जनसंग परित्याग- सामाजिक व धार्मिक स्तर पर उत्पन्न बाधाओं से बचाव हेतू अधिक जनसम्पर्क त्यागना चाहिए। अधिक जनसम्पर्क से शारीरिक व मानसिक ऊर्जा का ह्रास होता है। योग-साधना हेतु अधिक जनसम्पर्क त्याज्य है।
हठप्रदीपिका में ही अन्यत्र कहा गया है कि-

हठविद्या पर गोप्या योगिनां सिद्धिमिच्छताम

योग में सिद्धि की इच्छा रखने वाले साधको को यह हठविद्या नितान्‍त गुप्त रखनी चाहिए। गुप्त रखने से यह शक्तिशालिनी होती है, तथा प्रकट करने पर यह शक्तिविहीन हो जाती है। 

 योगसूत्र के अनुसार योग के साधक तत्व-

 'मैत्रीकरूणामुदितोपेक्षाणांसुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम्‌" यो.सू1/33

मैत्री, करूणा, मुदिता और उपेक्षा- इन चार प्रकार की भावनाओं से भी चित्त शुद्ध होता है। और वृत्तिनिरोध में समर्थ होता है। सुसम्पन्न पुरुषों में मित्रता की भावना करनी चाहिए, दुखी जनों पर दया की भावना करें। पुण्यात्मा पुरुषों में प्रसन्‍नता की भावना करे तथा पाप कर्म करने के स्वभाव वाले पुरूषों में उदासीनता का भाव रखे। इन भावनाओं से चित्त शुद्व होता है। शुद्व चित्त शीघ्र ही एकाग्रता को प्राप्त होता है।

        संसार में सुखी, दुःखी, पुण्यात्मा और पापी आदि सभी प्रकार के व्यक्ति होत है। ऐसे व्यक्तियों के प्रति साधरण जन का अपने विचारों के अनुसार राग, द्वेष आदि उत्पन्न होना स्वाभाविक है। किसी व्यक्ति को सुखी देखकर दूसरे अनुकूल व्यक्ति का उसमें राग उत्पन्न हो जाता है, प्रतिकूल व्यक्ति को द्वेष व ईर्ष्या आदि। किसी पुण्यात्मा के प्रतिष्ठित जीवन को देखकर अन्य जन के चित्त में ईर्ष्या आदि का भाव उत्पन्न हो जाता है। उसकी प्रतिष्ठा व आदर को देखकर दूसरे अनेक जन मन में जलते है, हमारा इतना आदर क्‍यों नही होता ? यह ईर्ष्या का भाव है। इसमें प्रेरित होकर ऐसे व्यक्ति पुण्यात्मा में अनेक मिथ्यादोषों का उद्भावन कर उसे कलंकित करने का प्रयास करते देखे जाते है। दुःखी को देखकर प्रायः साधारण जन उससे घृणा करते है, ऐसी भावना व्यक्ति के चित्त को व्यथित एवं मलिन बनाये रखती है। यह समाज की साधारण व्यावहारिक स्थिति है।
       योगमार्ग पर चलने वाले साधक ऐसी परिस्थिति से अपने आपको सदा बचाये रखने का प्रयास करें। साधक के लिये यह अत्यन्त आवश्यक है कि उसका चित्त ईर्ष्या आदि मलों से सर्वथा रहित हो, यह स्थिति योग में प्रवृत्ति के लिये अनुकुल होती है। निर्मल-चित्त साधक योग में सफलता प्राप्त करने का अधिकारी होता है। सुखी जनों को देखकर साधक उनके प्रति मित्रता की भावना बनाये। मित्र के प्रति कभी ईर्ष्या का भाव उत्पन्न नहीं होता। दुःखी जनों के प्रति सदा करूणा-दया का भाव, उनका दुःख किस प्रकार दूर किया जा सकता है इसके लिए उन्हें सन्मार्ग दिखाने का प्रयास करे। इससे साधक के चित्त में उनके प्रति कभी धृणा का भाव उत्पन्न नही होने पायेगा। इससे दोनों के चित्त में शान्ति और सांत्वना बनी रहेगी। इसी प्रकार पुण्यात्मा के प्रति साधक हर्ष का अनुभव करें। योग स्वयं ऊँचे पुण्य का मार्ग है । जब दोनों एक ही पथ के पथिक हैै तो हर्ष का होना स्वाभाविक है। संसार में सन्मार्ग और सद्दिचार के साथी सदा मिलते रहें, तो इससे अधिक हर्ष का और क्या विषय होगा। पापात्मा के प्रति साधक का उपेक्षा भाव रखना सर्वथा उपयुक्त है। ऐस व्यक्तियों को सन्मार्ग पर लाने के प्रयास प्रायः विपरीत फल ला देते है। पापी पुरुष अपने हितेषियों को भी उनकी वास्तविकता को न समझते हुए हानि पहुँचाने और उनके कार्यो में बाधा डालने के लिये प्रयत्नशील बने रहते है। इसलिए ऐसे व्यक्तियों के प्रति उपेक्षा अर्थात्‌ उदासीनता का भाव श्रेयस्कर होता है। साधक इस प्रकार विभिन्‍न व्यक्तियों के प्रति अपनी उक्त भावना को जाग्रत रखकर चित्त को निर्मल, स्वच्छ और प्रसन्‍न बनाये रखने में सफल रहता है, जो सम्प्रज्ञात योग की स्थिति को प्राप्त करने के लिये अत्यन्त उपयोगी है।

वृत्ति निरोध के उपायों के अन्तर्गत महर्षि पतंजलि ने नौ उपायों को उल्लेख किया हैं। 

1.  प्रथम एवं मुख्य उपाय का वर्णन करते हुए पंतजलि कहते है'- 

 अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः योगसूत्र 1/12

अर्थात्‌ अभ्यास और वैराग्य के द्वारा इन वृत्तियों का निरोध होता है। अभ्यास और वैराग्य पक्षी के दो पंखों की भांति है। जैसे पक्षी दोनों पंखों के द्वारा ही उड़ सकता है, एक पंख से उड़ पाना सम्भव नहीं है। वैसे ही अभ्यास और वैराग्य इन दोनों के एक साथ पालन करने से वृत्तियों का निरोध हो जाता है। कहा गया है-

तत्र स्थितौयत्नोऽभ्यास:। योगसूत्र 1/13

      अर्थात्‌ एक स्थिति में लगातार प्रयत्न का नाम अभ्यास कहलाता है। स्थिति का अर्थ है वृत्तिहीन चित्त की एकाग्रता और यत्न का अर्थ है- उस एकाग्रता के लिये मानसिक उत्साह तथा दृढ़तापूर्वक यमादि योगांगो का अनुष्ठान |
      वैराग्य दो प्रकार का है- पर और अपर। लौकिक और वैदिन दोनों प्रकार के विषयों में चित्त का तृष्णा रहित हो जाना वैराग्य कहलाता है-
  दृष्टवदानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञावैराग्यम्‌। योगसूत्र 1/15
    वनिता, अन्न आदि लौकिक विषय, तथा वेदबोधित पारलौकिक स्वर्गादि के अमृतपान, अप्सरागमन आदि आनुश्रविक विषय है। इन दोनों से चित्त का तृष्णारहित हो जाना वैराग्य है। परवैराग्य के विषय में कहा गया है-
 तत्परं युरूषख्यातेर्गुणवैतृष्ण्यम्‌। योगसूत्र 1/16
      प्रकृत्ति और पुरुष विषयक भेद का ज्ञान उदित हो जाने सत्वगुण के कार्यरूप विवक ज्ञान की तृष्णा का अभाव है वह परवैराग्य है। अपरवैराग्य सम्प्रज्ञातसमाधि का हेतु है और परवैराग्य असम्प्रज्ञातसमाधि का हेतु है।

इस प्रकार अभ्यास और वैराग्य उत्तम कोटि के योग साधको के लिये, चित्तवृत्तिरनिरोध का सर्वोत्म उपाय है। उनमें भी जिस साधक के मन में जितना तीव्रसंवेग होगा, उतना ही वृत्तिनिरोध शीघ्र होगा
तीव्रसंवेगानामासन्न: योगसूत्र 1/21

2. द्वितीय उपाय के रूप में ईश्वरप्रणिधान को माना है। यह एक प्रकार की भक्ति है। महर्षि पतंजलि ने यह साधन उत्तमकोटि के साधकों के लिए बताया है। इस स्थिति के साधकों के लिए सुगम उपाय बताते हुए योगसूत्र में कहा गया है-“ईश्वरप्रणिधानाद्वा' (योगसूत्र 1/23) अर्थात्‌ ईश्वर प्रणिधान के पालन से वृत्तियों का निरोध हो जाता है।  

'समाधिसिद्विरीश्वरप्रणिधानात्‌' (योगसूत्र 2/45)

अर्थात्‌ ईश्वर प्रणिधान के पालन से समाधि की स्थिति, शीघ्र प्राप्त होती है और समाधि की स्थिति में ही वृत्तियों का निरोध सम्भव है।

3. तृतीय उपाय के रूप में ऐसे ही योगियों के लिए भावनाचतुष्टय (मैत्री, करूणा, मुद्रिता और उपेक्षा का पालन भी वृत्ति निरोध में सहायक माना है। इनका वर्णन ऊपर कर दिया गया है।

4. चौथे उपाय के रूप में प्राणायाम को महत्व देते हुए कहा है

प्रच्छर्दन विधारणाभ्यां वा प्राणस्य। (योगसूत्र 1/34)

अर्थात्‌ उदरस्थ वायु को नासिकापुट से बाहर निकालना प्रच्छर्दन और भीतर ही रोके रखने को विधारण कहा है। इसी का नाम रेचक एवं कुम्भक प्राणायाम है। इस प्रकार के प्राणायाम से भी चित्त स्थिर होता है। और समाधि की प्राप्ति होती है।

5. पाँचवे उपाय के रूप में विषयवती वा प्रवृत्ति- (योगसूत्र 1/35) को माना गया है । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश ये पॉच महाभूत है। गन्ध, रस, रूप, स्पर्श, शब्द ये पॉच इनके विषय है। दिव्य और अदिव्य भेद से ये विषय दस प्रकार के हो जाते है। इनसे पॉच दिव्य विषयों का योगशास्त्र प्रतिपादित उपाय द्वारा जो योगियों को साक्षात्कार होता है।

6. छठे उपाय के अन्तर्गत ज्योतिष्मती प्रवृत्ति को ग्रहण किया जाता है। कहा गया है

विशोका वा ज्योतिष्मती। (योगसूत्र 1//36)

चित्त विषयक साक्षात्कार तथा अहंकार विषयक साक्षात्कार विशोका ज्योतिष्मती कहे जाते है। हृदय कमल में संयम करने पर जो चित्त का साक्षात्कार होता है वह चित्तविषयक ज्योतिष्मती प्रवृत्ति कहलाती है। उस प्रवृत्ति के द्वारा भी चित्त प्रसन्‍न होता है।

7. सांतवा उपाय वीतरागविषयं वा चित्तम्। (योगसूत्र 1/37) है। पूर्वोक्त गन्ध आदि विषयों में संयम करने से चित्त स्थिरता को प्राप्त करता है। वैसे ही  दत्ताश्रेय, व्यास, शुक्रदेव, सनकादि आदि वीतराग योंगियो के चित्त को आलम्बन करने से भी चित्त शीघ्र ही स्थिरता को प्राप्त करता है।

8. आठवें उपाय के रूप में स्वप्ननिद्राज्ञानालम्बनं वा । (योगसूत्र 1/38) है। निद्रा सुख में ध्यान लगाने से भी चित्त का शीघ्र ही स्थैर्य हो जाता है।

9. नवम उपाय यथाभिमत ध्यान (योगसूत्र 1/39) कहा गया है। जिस साधक को जो स्वरूप अभीष्ट हो 'उसमें ध्यान करने से चित्त शीघ्र स्थिरता को प्राप्त करता है। 

अनभिमत विषय में चित्त कठिनता से स्थिर होता है। इसलिए शिव, शक्ति, विष्णु, गणपति, सूर्य आदि देवताओं में से किसी एक में यदि विशेष रूचि हो तो उसी का ध्यान करने से उसमें स्थिर हुआ चित्त निर्गुण निराकार परमेश्वर में भी स्थिरता को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार चित्त प्रसादन के नौ उपायो का स्पष्ट उल्लेख महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र किया है।


योग के बाधक तत्व

योग आसनों का वर्गीकरण एवं योग आसनों के सिद्धान्त

हठयोग प्रदीपिका में वर्णित आसन

हठयोगप्रदीपिका में वर्णित मुद्रायें, बंध

Comments

Popular posts from this blog

Yoga MCQ Questions Answers in Hindi

 Yoga multiple choice questions in Hindi for UGC NET JRF Yoga, QCI Yoga, YCB Exam नोट :- इस प्रश्नपत्र में (25) बहुसंकल्पीय प्रश्न है। प्रत्येक प्रश्न के दो (2) अंक है। सभी प्रश्न अनिवार्य ।   1. किस उपनिषद्‌ में ओंकार के चार चरणों का उल्लेख किया गया है? (1) प्रश्नोपनिषद्‌         (2) मुण्डकोपनिषद्‌ (3) माण्डूक्योपनिषद्‌  (4) कठोपनिषद्‌ 2 योग वासिष्ठ में निम्नलिखित में से किस पर बल दिया गया है? (1) ज्ञान योग  (2) मंत्र योग  (3) राजयोग  (4) भक्ति योग 3. पुरुष और प्रकृति निम्नलिखित में से किस दर्शन की दो मुख्य अवधारणाएं हैं ? (1) वेदांत           (2) सांख्य (3) पूर्व मीमांसा (4) वैशेषिक 4. निम्नांकित में से कौन-सी नाड़ी दस मुख्य नाडियों में शामिल नहीं है? (1) अलम्बुषा  (2) कुहू  (3) कूर्म  (4) शंखिनी 5. योगवासिष्ठानुसार निम्नलिखित में से क्या ज्ञानभूमिका के अन्तर्गत नहीं आता है? (1) शुभेच्छा (2) विचारणा (3) सद्भावना (4) तनुमानसा 6. प्रश्नो...

हठयोग प्रदीपिका में वर्णित प्राणायाम

हठयोग प्रदीपिका में प्राणायाम को कुम्भक कहा है, स्वामी स्वात्माराम जी ने प्राणायामों का वर्णन करते हुए कहा है - सूर्यभेदनमुज्जायी सीत्कारी शीतल्री तथा।  भस्त्रिका भ्रामरी मूर्च्छा प्लाविनीत्यष्टकुंम्भका:।। (हठयोगप्रदीपिका- 2/44) अर्थात् - सूर्यभेदन, उज्जायी, सीत्कारी, शीतली, भस्त्रिका, भ्रामरी, मूर्छा और प्लाविनी में आठ प्रकार के कुम्भक (प्राणायाम) है। इनका वर्णन ऩिम्न प्रकार है 1. सूर्यभेदी प्राणायाम - हठयोग प्रदीपिका में सूर्यभेदन या सूर्यभेदी प्राणायाम का वर्णन इस प्रकार किया गया है - आसने सुखदे योगी बदध्वा चैवासनं ततः।  दक्षनाड्या समाकृष्य बहिस्थं पवन शनै:।।  आकेशादानखाग्राच्च निरोधावधि क्रुंभयेत। ततः शनैः सव्य नाड्या रेचयेत् पवन शनै:।। (ह.प्र. 2/48/49) अर्थात- पवित्र और समतल स्थान में उपयुक्त आसन बिछाकर उसके ऊपर पद्मासन, स्वस्तिकासन आदि किसी आसन में सुखपूर्वक मेरुदण्ड, गर्दन और सिर को सीधा रखते हुए बैठेै। फिर दाहिने नासारन्ध्र अर्थात पिंगला नाडी से शनैः शनैः पूरक करें। आभ्यन्तर कुम्भक करें। कुम्भक के समय मूलबन्ध व जालन्धरबन्ध लगा कर रखें।  यथा शक्ति कुम्भक के प...

घेरण्ड संहिता में वर्णित "प्राणायाम" -- विधि, लाभ एवं सावधानियाँ

घेरण्ड संहिता के अनुसार प्राणायाम घेरण्डसंहिता में महर्षि घेरण्ड ने आठ प्राणायाम (कुम्भको) का वर्णन किया है । प्राण के नियन्त्रण से मन नियन्त्रित होता है। अत: प्रायायाम की आवश्यकता बताई गई है। हठयोग प्रदीपिका की भांति प्राणायामों की संख्या घेरण्डसंहिता में भी आठ बताई गईं है किन्तु दोनो में थोडा अन्तर है। घेरण्डसंहिता मे कहा गया है- सहित: सूर्यभेदश्च उज्जायी शीतली तथा। भस्त्रिका भ्रामरी मूर्च्छा केवली चाष्टकुम्भका।। (घे.सं0 5 / 46) 1. सहित, 2. सूर्य भेदन, 3. उज्जायी, 4. शीतली, 5. भस्त्रिका, 6. भ्रामरी, 7. मूर्च्छा तथा 8. केवली ये आठ कुम्भक (प्राणायाम) कहे गए हैं। प्राणायामों के अभ्यास से शरीर में हल्कापन आता है। 1. सहित प्राणायाम - सहित प्राणायाम दो प्रकार के होते है (i) संगर्भ और (ii) निगर्भ । सगर्भ प्राणायाम में बीज मन्त्र का प्रयोग किया जाता हैँ। और निगर्भ प्राणायाम का अभ्यास बीज मन्त्र रहित होता है। (i) सगर्भ प्राणायाम- इसके अभ्यास के लिये पहले ब्रह्मा पर ध्यान लगाना है, उन पर सजगता को केन्द्रित करते समय उन्हें लाल रंग में देखना है तथा यह कल्पना करनी है कि वे लाल है और रजस गुणों से...

सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति सामान्य परिचय

प्रथम उपदेश- पिण्ड उत्पति विचार सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति अध्याय - 2 (पिण्ड विचार) सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार नौ चक्रो के नाम 1. ब्रहमचक्र - मूलाधार मे स्थित है, कामनाओं की पूर्ति होती हैं। 2. स्वाधिष्ठान चक्र - इससे हम चीजो को आकर्षित कर सकते है। 3. नाभी चक्र - सिद्धि की प्राप्ति होती है। 4. अनाहत चक्र - हृदय में स्थित होता है। 5. कण्ठचक्र - विशुद्धि-संकल्प पूर्ति, आवाज मधुर होती है। 6. तालुचक्र -  घटिका में, जिह्वा के मूल भाग में,  लय सिद्धि प्राप्त होती है। 7. भ्रुचक्र -     आज्ञा चक्र - वाणी की सिद्धि प्राप्त होती है। 8. निर्वाणचक्र - ब्रहमरन्ध्र, सहस्त्रार चक्र, मोक्ष प्राप्ति 9. आकाश चक्र - सहस्त्रारचक्र के ऊपर,  भय- द्वेष की समाप्ति होती है। सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार सोहल आधार (1) पादांगुष्ठ आधार (2) मूलाधार (3) गुदाद्वार आधार (4) मेद् आधार (5) उड्डियान आधार (6) नाभी आधार (7) हृदयाधार (8) कण्ठाधार (9) घटिकाधार (10) तालु आधार (11) जिह्वा आधार (12) भ्रूमध्य आधार (13) नासिका आधार (14) नासामूल कपाट आधार (15) ललाट आधार (16) ब्रहमरंध्र आधार सिद्ध...

हठयोग प्रदीपिका के अनुसार षट्कर्म

हठप्रदीपिका के अनुसार षट्कर्म हठयोगप्रदीपिका हठयोग के महत्वपूर्ण ग्रन्थों में से एक हैं। इस ग्रन्थ के रचयिता योगी स्वात्माराम जी हैं। हठयोग प्रदीपिका के द्वितीय अध्याय में षटकर्मों का वर्णन किया गया है। षटकर्मों का वर्णन करते हुए स्वामी स्वात्माराम  जी कहते हैं - धौतिर्बस्तिस्तथा नेतिस्त्राटकं नौलिकं तथा।  कपालभातिश्चैतानि षट्कर्माणि प्रचक्षते।। (हठयोग प्रदीपिका-2/22) अर्थात- धौति, बस्ति, नेति, त्राटक, नौलि और कपालभोंति ये छ: कर्म हैं। बुद्धिमान योगियों ने इन छः कर्मों को योगमार्ग में करने का निर्देश किया है। इन छह कर्मों के अतिरिक्त गजकरणी का भी हठयोगप्रदीपिका में वर्णन किया गया है। वैसे गजकरणी धौतिकर्म के अन्तर्गत ही आ जाती है। इनका वर्णन निम्नलिखित है 1. धौति-  धौँति क्रिया की विधि और  इसके लाभ एवं सावधानी- धौँतिकर्म के अन्तर्गत हठयोग प्रदीपिका में केवल वस्त्र धौति का ही वर्णन किया गया है। धौति क्रिया का वर्णन करते हुए योगी स्वात्माराम जी कहते हैं- चतुरंगुल विस्तारं हस्तपंचदशायतम। . गुरूपदिष्टमार्गेण सिक्तं वस्त्रं शनैर्गसेत्।।  पुनः प्रत्याहरेच्चैतदुदितं ध...

Pranayama (Kumbhaka) : Hatha Yoga Pradipika

"Pranayama" according to Hatha Yoga Pradipika Pranayama described in Hatha Yoga Pradipika has been called Kumbhaka, Swami Swatmarama ji while describing Pranayama has said - Suryabhedanmujjayi Sitkari Sheetali  tatha. Bhastrika Bhramari Moorchchha Plavnityashtakumbhaka. (H.P- 2/44) सूर्यभेदनमुज्जयी सीतकारी शीतली तथा। भस्त्रिका भ्रामरी मूर्च्छ प्लव्नित्याष्टकुंभका। (हठ योग प्रदीपिका - 2/44) That is, there are eight types of Kumbhak (Pranayama)- Suryabhedan, Ujjayi, Sitkari, Sheetali, Bhastrika, Bhramari, Murcha and Plavini. Their description is as follows- 1. Suryabhedi Pranayama - Describing Suryabhedan or Suryabhedi Pranayama in Hatha Yoga Pradipika, it has been said that - Spreading a suitable seat in a holy and flat place, sit on it comfortably in any posture like Padmasan, Swastikasan etc. and keep the spine, neck and head straight. Then slowly supplement with the right nostril i.e. Pingala Nadi. Do Abhyantar Kumbhak. At the time of Kumbhak, keep Moolabandha and...

हठयोग प्रदीपिका का सामान्य परिचय

हठयोग प्रदीपिका ग्रन्थ के रचयिता स्वामी स्वात्माराम योगी हैँ। इन्होंने हठयोग के चार अंगो का मुख्य रूप से वर्णन किया है तथा इन्ही को चार अध्यायों मे बाँटा गया है। स्वामी स्वात्माराम योगी द्वारा बताए गए योग के चार अंग इस प्रकार है । 1. आसन-  "हठस्थ प्रथमांगत्वादासनं पूर्वमुच्यतै"  कहकर योगी स्वात्माराम जी  ने प्रथम अंग के रुप में आसन का वर्णन किया है। इन आसनो का उद्देश्य स्थैर्य, आरोग्य तथा अंगलाघव बताया गया है   'कुर्यात्तदासनं स्थैर्यमारोग्यं चांगलाघवम् '।  ह.प्र. 1/17 आसनो के अभ्यास से साधक के शरीर मे स्थिरता आ जाती है। चंचलता समाप्त हो जाती हैं. लचीलापन आता है, आरोग्यता आ जाती है, शरीर हल्का हो जाता है 1 हठयोगप्रदीपिका में पन्द्रह आसनों का वर्णन किया गया है हठयोगप्रदीपिका में वर्णित 15 आसनों के नाम 1. स्वस्तिकासन , 2. गोमुखासन , 3. वीरासन , 4. कूर्मासन , 5. कुक्कुटासन . 6. उत्तानकूर्मासन , 7. धनुरासन , 8. मत्स्येन्द्रासन , 9. पश्चिमोत्तानासन , 10. मयूरासन , 11. शवासन , 12. सिद्धासन , 13. पद्मासन , 14. सिंहासन , 15. भद्रासना । 2. प्राणायाम- ...

घेरण्ड संहिता का सामान्य परिचय

  घेरण्ड संहिता महर्षि घेरण्ड और राजा चण्डिकापालि के संवाद रूप में रचित घेरण्ड संहिता महर्षि घेरण्ड की अनुपम कृति है। इस के योग को घटस्थ योग या सप्तांग योग भी कहा गया है। घेरण्ड संहिता के  सात अध्याय है तथा योग के सात अंगो की चर्चा की गई है जो घटशुद्धि के लिए आवश्यक हैं,  घेरण्ड संहिता में वर्णित योग को सप्तांगयोग भी कहा जाता है । शाोधनं दृढता चैव स्थैर्यं धैर्य च लाघवम्।  प्रत्यक्ष च निर्लिप्तं च घटस्य सप्तसाधनम् ।। घे.सं. 9 शोधन, दृढ़ता, स्थिरता, धीरता, लघुता, प्रत्यक्ष तथा निर्लिप्तता । इन सातों के लिए उयायरूप मे शरीर शोधन के सात साधनो को कहा गया है। षटकार्मणा शोधनं च आसनेन् भवेद्दृढम्।   मुद्रया स्थिरता चैव प्रत्याहारेण धीरता।।  प्राणायामाँल्लाघवं च ध्यानात्प्रत्क्षमात्मान:।   समाधिना निर्लिप्तिं च मुक्तिरेव न संशय।। घे.सं. 10-11   अर्थात् षटकर्मों से शरीर का शोधन, आसन से दृढ़ता. मुद्रा से स्थिरता, प्रत्याहार से धीरता, प्राणायाम से लाघवं (हल्कापन), ध्यान से आत्मसाक्षात्कार तथा समाधि से निर्लिप्तभाव प्राप्त करके मुक्ति अवश्य ही हो जाएगी, इसमे ...

घेरण्ड संहिता के अनुसार ध्यान

घेरण्ड संहिता में वर्णित  “ध्यान“  घेरण्ड संहिता के छठे अध्याय में ध्यान को परिभाषित करते हुए महर्षि घेरण्ड कहते हैं कि किसी विषय या वस्तु पर एकाग्रता या चिन्तन की क्रिया 'ध्यान' कहलाती है। जिस प्रकार हम अपने मन के सूक्ष्म अनुभवों को अन्‍तःचक्षु के सामने मन:दृष्टि के सामने स्पष्ट कर सके, यही ध्यान की स्थिति है। ध्यान साधक की कल्पना शक्ति पर भी निर्भर है। ध्यान अभ्यास नहीं है यह एक स्थिति हैं जो बिना किसी अवरोध के अनवरत चलती रहती है। जिस प्रकार तेल को एक बर्तन से दूसरे बर्तन में डालने पर बिना रूकावट के मोटी धारा निकलती है, बिना छलके एक समान स्तर से भरनी शुरू होती है यही ध्यान की स्थिति है। इस स्थिति में किसी भी प्रकार की हलचल नहीं होती। महर्षि घेरण्ड ध्यान के प्रकारों का वर्णन छठे अध्याय के प्रथम सूत्र में करते हुए कहते हैं कि - स्थूलं ज्योतिस्थासूक्ष्मं ध्यानस्य त्रिविधं विदु: । स्थूलं मूर्तिमयं प्रोक्तं ज्योतिस्तेजोमयं तथा । सूक्ष्मं विन्दुमयं ब्रह्म कुण्डली परदेवता ।। (घेरण्ड संहिता  6/1) अर्थात्‌ ध्यान तीन प्रकार का है- स्थूल ध्यान, ज्योतिर्ध्यान और सूक्ष्म ध्यान। स्थू...