योग के साधक तत्व -
हठप्रदीपिका के अनुसार योग के साधक तत्व-
जनसंगपरित्यागात् षडभियोंगः प्रसिद्दयति: || 1/16
1. उत्साह- योग साधना में प्रवृत्त होने के लिए उत्साह रूपी मनोस्थिति का होना आवश्यक है। उत्साह भरे मन से कार्य प्रारभं करने से शरीर, मन व इन्द्रियों में प्राण संचार होकर सभी अंग साधना में कार्यरत होने को प्रेरित हो जाते है। अतः उत्साहरूपी मनोस्थिति योग साधना में सफलता की कुजी है।
2. साहस- योगसाधना मार्ग मे साहस का भी गुण होना चाहिए। साहसी साधक योग की कठिन क्रियांए जैसे- वस्त्रधौति, खेचरी आदि की साधना कर सकता है। पहले से ही भयभीत साधक योग क्रियाओं के मार्ग की और नहीं बढ़ सकता।
3. धैर्य- योगसाधक में घीरता का गुण होना अत्यावश्यक हैं। यदि साधक रातो-रात साधना में सफलता चाहता है तो ऐसा अधीर साधक बाधाओं से घिरकर पथ भ्रष्ट हो जाता है। साधक को गुरूपदेश से संसार की बाधाओं या आन्तरिक स्तर की विपदाओ का धैर्य पूर्वक निराकरण करना चाहिए।
4. तत्वज्ञान- योगमार्ग पर चलने से पहले आवश्यक है कि साधक साधना मार्ग का उचित ज्ञान शास्त्रों व गुरूपदेशों द्वारा ग्रहण करे। भली-भाँति ज्ञान न होने पर साधना मे समय नष्ट होगा व नाना प्रकार की बाधाएं उत्पन्न होकर मन भी विचलित होगा।
5. दृढ़-निश्चय- किसी सांसरिक कार्य को प्रारम्भ करने से पहले दृढ़-निश्चय की भावना आवश्यक है। जहां निश्चय में ढील हुई वहीं मार्ग बाधित हो जायेगा। अतः योगसाधना मार्ग में प्रवृत्त होने से पहले दृढ़-निश्चय की भावना अत्यन्त आवश्यक है।
6. जनसंग परित्याग- सामाजिक व धार्मिक स्तर पर उत्पन्न बाधाओं से बचाव हेतू अधिक जनसम्पर्क त्यागना चाहिए। अधिक जनसम्पर्क से शारीरिक व मानसिक ऊर्जा का ह्रास होता है। योग-साधना हेतु अधिक जनसम्पर्क त्याज्य है।
हठप्रदीपिका में ही अन्यत्र कहा गया है कि-
हठविद्या पर गोप्या योगिनां सिद्धिमिच्छताम
योग में सिद्धि की इच्छा रखने वाले साधको को यह हठविद्या नितान्त गुप्त रखनी चाहिए। गुप्त रखने से यह शक्तिशालिनी होती है, तथा प्रकट करने पर यह शक्तिविहीन हो जाती है।
योगसूत्र के अनुसार योग के साधक तत्व-
'मैत्रीकरूणामुदितोपेक्षाणांसुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम्" यो.सू1/33
मैत्री, करूणा, मुदिता और उपेक्षा- इन चार प्रकार की भावनाओं से भी चित्त शुद्ध होता है। और वृत्तिनिरोध में समर्थ होता है। सुसम्पन्न
पुरुषों में मित्रता की भावना करनी चाहिए, दुखी जनों पर दया की भावना
करें। पुण्यात्मा पुरुषों में प्रसन्नता की भावना करे तथा पाप कर्म करने
के स्वभाव वाले पुरूषों में उदासीनता का भाव रखे। इन भावनाओं से चित्त
शुद्व होता है। शुद्व चित्त शीघ्र ही एकाग्रता को प्राप्त होता है।
संसार में सुखी, दुःखी, पुण्यात्मा और पापी आदि सभी प्रकार के व्यक्ति होत
है। ऐसे व्यक्तियों के प्रति साधरण जन का अपने विचारों के अनुसार राग,
द्वेष आदि उत्पन्न होना स्वाभाविक है। किसी व्यक्ति को सुखी देखकर दूसरे
अनुकूल व्यक्ति का उसमें राग उत्पन्न हो जाता है, प्रतिकूल व्यक्ति को द्वेष व ईर्ष्या आदि। किसी पुण्यात्मा के प्रतिष्ठित जीवन को देखकर अन्य जन
के चित्त में ईर्ष्या आदि का भाव उत्पन्न हो जाता है। उसकी प्रतिष्ठा व आदर
को देखकर दूसरे अनेक जन मन में जलते है, हमारा इतना आदर क्यों नही होता ?
यह ईर्ष्या का भाव है। इसमें प्रेरित होकर ऐसे व्यक्ति पुण्यात्मा में
अनेक मिथ्यादोषों का उद्भावन कर उसे कलंकित करने का प्रयास करते देखे जाते
है। दुःखी को देखकर प्रायः साधारण
जन उससे घृणा करते है, ऐसी भावना व्यक्ति के चित्त को व्यथित एवं मलिन
बनाये रखती है। यह समाज की साधारण व्यावहारिक स्थिति है।
योगमार्ग पर चलने वाले साधक ऐसी परिस्थिति से अपने आपको सदा बचाये रखने का
प्रयास करें। साधक के लिये यह अत्यन्त आवश्यक है कि उसका चित्त ईर्ष्या आदि मलों से सर्वथा रहित हो, यह स्थिति योग में प्रवृत्ति के लिये
अनुकुल होती है। निर्मल-चित्त साधक योग में सफलता प्राप्त करने का अधिकारी
होता है। सुखी जनों को देखकर साधक उनके प्रति मित्रता की भावना बनाये।
मित्र के प्रति कभी ईर्ष्या का भाव उत्पन्न नहीं होता। दुःखी जनों के प्रति
सदा करूणा-दया का भाव, उनका दुःख किस प्रकार दूर किया जा सकता है इसके लिए
उन्हें सन्मार्ग दिखाने का प्रयास करे। इससे साधक के चित्त में उनके प्रति
कभी धृणा का भाव उत्पन्न नही होने पायेगा। इससे दोनों के चित्त में शान्ति
और सांत्वना बनी रहेगी। इसी प्रकार पुण्यात्मा के प्रति साधक हर्ष का
अनुभव करें। योग स्वयं ऊँचे पुण्य का मार्ग है । जब दोनों एक ही पथ के पथिक
हैै तो हर्ष का होना स्वाभाविक है। संसार में सन्मार्ग और सद्दिचार के साथी
सदा मिलते रहें, तो इससे अधिक हर्ष का और क्या विषय होगा। पापात्मा के
प्रति साधक का उपेक्षा भाव रखना सर्वथा उपयुक्त है। ऐस व्यक्तियों को सन्मार्ग पर
लाने के प्रयास प्रायः विपरीत फल ला देते है। पापी पुरुष अपने हितेषियों
को भी उनकी वास्तविकता को न समझते हुए हानि पहुँचाने और उनके कार्यो में
बाधा डालने के लिये प्रयत्नशील बने रहते है। इसलिए ऐसे व्यक्तियों के प्रति
उपेक्षा अर्थात् उदासीनता का भाव श्रेयस्कर होता है। साधक इस प्रकार
विभिन्न व्यक्तियों के प्रति अपनी उक्त भावना को जाग्रत रखकर चित्त को
निर्मल, स्वच्छ और प्रसन्न बनाये रखने में सफल रहता है, जो सम्प्रज्ञात योग
की स्थिति को प्राप्त करने के लिये अत्यन्त उपयोगी है।
वृत्ति निरोध के उपायों के अन्तर्गत महर्षि पतंजलि ने नौ उपायों को उल्लेख किया हैं।
1. प्रथम एवं मुख्य उपाय का वर्णन करते हुए पंतजलि कहते है'-
अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः योगसूत्र 1/12
अर्थात्
अभ्यास और वैराग्य के द्वारा इन वृत्तियों का निरोध होता है। अभ्यास और
वैराग्य पक्षी के दो पंखों की भांति है। जैसे पक्षी दोनों पंखों के द्वारा
ही उड़ सकता है, एक पंख से उड़ पाना सम्भव नहीं है। वैसे ही अभ्यास और
वैराग्य इन दोनों के एक साथ पालन करने से वृत्तियों का निरोध हो जाता है।
कहा गया है-
तत्र स्थितौयत्नोऽभ्यास:। योगसूत्र 1/13
अर्थात् एक स्थिति में लगातार प्रयत्न का नाम अभ्यास कहलाता है। स्थिति का अर्थ
है वृत्तिहीन चित्त की एकाग्रता और यत्न का अर्थ है- उस एकाग्रता के लिये
मानसिक उत्साह तथा दृढ़तापूर्वक यमादि योगांगो का अनुष्ठान |
वैराग्य दो प्रकार का है- पर और अपर। लौकिक और वैदिन दोनों प्रकार के
विषयों में चित्त का तृष्णा रहित हो जाना वैराग्य कहलाता है-
दृष्टवदानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञावैराग्यम्। योगसूत्र 1/15
वनिता, अन्न आदि लौकिक विषय, तथा वेदबोधित पारलौकिक
स्वर्गादि के अमृतपान, अप्सरागमन आदि आनुश्रविक विषय है। इन दोनों से चित्त
का तृष्णारहित हो जाना वैराग्य है। परवैराग्य के विषय में कहा गया है-
तत्परं युरूषख्यातेर्गुणवैतृष्ण्यम्। योगसूत्र 1/16
प्रकृत्ति और पुरुष विषयक भेद का ज्ञान उदित हो जाने सत्वगुण के कार्यरूप
विवक ज्ञान की तृष्णा का अभाव है वह परवैराग्य है। अपरवैराग्य
सम्प्रज्ञातसमाधि का हेतु है और परवैराग्य असम्प्रज्ञातसमाधि का हेतु है।
इस प्रकार अभ्यास और वैराग्य उत्तम कोटि के योग साधको के लिये, चित्तवृत्तिरनिरोध का सर्वोत्म उपाय है। उनमें भी जिस साधक के मन में जितना तीव्रसंवेग होगा, उतना ही वृत्तिनिरोध शीघ्र होगा
तीव्रसंवेगानामासन्न: योगसूत्र 1/21
2. द्वितीय उपाय के रूप में ईश्वरप्रणिधान को माना है। यह एक प्रकार की भक्ति है। महर्षि पतंजलि ने यह साधन उत्तमकोटि के साधकों के लिए बताया है। इस स्थिति के साधकों के लिए सुगम उपाय बताते हुए योगसूत्र में कहा गया है-“ईश्वरप्रणिधानाद्वा' (योगसूत्र 1/23) अर्थात् ईश्वर प्रणिधान के पालन से वृत्तियों का निरोध हो जाता है।
'समाधिसिद्विरीश्वरप्रणिधानात्' (योगसूत्र 2/45)
अर्थात् ईश्वर प्रणिधान के पालन से समाधि की स्थिति, शीघ्र प्राप्त होती है और समाधि की स्थिति में ही वृत्तियों का निरोध सम्भव है।
3. तृतीय उपाय के रूप में ऐसे ही योगियों के लिए भावनाचतुष्टय (मैत्री, करूणा, मुद्रिता और उपेक्षा का पालन भी वृत्ति निरोध में सहायक माना है। इनका वर्णन ऊपर कर दिया गया है।
4. चौथे उपाय के रूप में प्राणायाम को महत्व देते हुए कहा है
प्रच्छर्दन विधारणाभ्यां वा प्राणस्य। (योगसूत्र 1/34)
अर्थात् उदरस्थ वायु को नासिकापुट से बाहर निकालना प्रच्छर्दन और भीतर ही रोके रखने को विधारण कहा है। इसी का नाम रेचक एवं कुम्भक प्राणायाम है। इस प्रकार के प्राणायाम से भी चित्त स्थिर होता है। और समाधि की प्राप्ति होती है।
5. पाँचवे उपाय के रूप में विषयवती वा प्रवृत्ति- (योगसूत्र 1/35) को माना गया है । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश ये पॉच महाभूत है। गन्ध, रस, रूप, स्पर्श, शब्द ये पॉच इनके विषय है। दिव्य और अदिव्य भेद से ये विषय दस प्रकार के हो जाते है। इनसे पॉच दिव्य विषयों का योगशास्त्र प्रतिपादित उपाय द्वारा जो योगियों को साक्षात्कार होता है।
6. छठे उपाय के अन्तर्गत ज्योतिष्मती प्रवृत्ति को ग्रहण किया जाता है। कहा गया है
विशोका वा ज्योतिष्मती। (योगसूत्र 1//36)
चित्त विषयक साक्षात्कार तथा अहंकार विषयक साक्षात्कार विशोका ज्योतिष्मती कहे जाते है। हृदय कमल में संयम करने पर जो चित्त का साक्षात्कार होता है वह चित्तविषयक ज्योतिष्मती प्रवृत्ति कहलाती है। उस प्रवृत्ति के द्वारा भी चित्त प्रसन्न होता है।
7. सांतवा उपाय वीतरागविषयं वा चित्तम्। (योगसूत्र 1/37) है। पूर्वोक्त गन्ध आदि विषयों में संयम करने से चित्त स्थिरता को प्राप्त करता है। वैसे ही दत्ताश्रेय, व्यास, शुक्रदेव, सनकादि आदि वीतराग योंगियो के चित्त को आलम्बन करने से भी चित्त शीघ्र ही स्थिरता को प्राप्त करता है।
8. आठवें उपाय के रूप में स्वप्ननिद्राज्ञानालम्बनं वा । (योगसूत्र 1/38) है। निद्रा सुख में ध्यान लगाने से भी चित्त का शीघ्र ही स्थैर्य हो जाता है।
9. नवम उपाय यथाभिमत ध्यान (योगसूत्र 1/39) कहा गया है। जिस साधक को जो स्वरूप अभीष्ट हो 'उसमें ध्यान करने से चित्त शीघ्र स्थिरता को प्राप्त करता है।
अनभिमत विषय में चित्त कठिनता से स्थिर होता है। इसलिए शिव, शक्ति, विष्णु, गणपति, सूर्य आदि देवताओं में से किसी एक में यदि विशेष रूचि हो तो उसी का ध्यान करने से उसमें स्थिर हुआ चित्त निर्गुण निराकार परमेश्वर में भी स्थिरता को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार चित्त प्रसादन के नौ उपायो का स्पष्ट उल्लेख महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र किया है।
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