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कठोपनिषद

कठोपनिषद (Kathopanishad) -

यह उपनिषद कृष्ण यजुर्वेद की कठ शाखा के अन्तर्गत आता है। इसमें दो अध्याय हैं जिनमें 3-3 वल्लियाँ हैं। पद्यात्मक भाषा शैली में है।
मुख्य विषय- योग की परिभाषा, नचिकेता - यम के बीच संवाद,
आत्मा की प्रकृति, आत्मा का बोध,

कठोपनिषद में योग की परिभाषा :-

प्राण, मन व इन्दियों का एक हो जाना, एकाग्रावस्था को प्राप्त कर लेना, बाह्य विषयों से विमुख होकर इन्द्रियों का मन में और मन का आत्मा मे लग जाना, प्राण का निश्चल हो जाना योग है।

इन्द्रियों की स्थिर धारणा अवस्था ही योग है। इन्द्रियों की चंचलता को समाप्त कर उन्हें स्थिर करना ही योग है।
कठोपनिषद में कहा गया है। “स्थिराम इन्द्रिय धारणाम्‌”

नचिकेता-यम के बीच संवाद (कहानी) -

नचिकेता पुत्र वाजश्रवा
एक बार वाजश्रवा
किसी को गाय दान दे रहे थे, वो गाय बिना दूध वाली थी, तब नचिकेता (वाजश्रवा के पुत्र) ने टोका कि दान में तो अपनी प्रिय वस्तु देते हैं आप ये बिना दूध देने वाली गाय क्यो दान में दे रहे है। वाद विवाद में नचिकेता ने कहा आप मुझे किसे दान में देगे, तब पिता वाजश्रवा को गुस्सा आया और उसने नचिकेता को कहा कि तुम मेरे प्रिय हो और मैं तुम्हें “यमाचार्य' अथवा 'मृत्यु' को दान देता हूँ। 

तब नचिकेता “यम' के पास चले गए, वो घर पर नहीं थे। नचिकेता वहीं पर तीन दिनों तक भुखे प्यासे बैठे रहें। जब यमाचार्य आए तो उन्हें दुःख हुआ उन्होंने नचिकेता को तीन वर मांगने को कहा।
नचिकेता ने यमाचार्य से ये तीन वर मांगे -
1. मेरे पिता का क्रोध शांत हो जाए  
2. स्वर्ग की अग्नि का स्वरूप
3. मृत्यु के पश्चात क्या होता है? (आत्मा जिन्दा रहता है?)

- पिता का क्रोध शांत हो गया-  पहला वर
- दूसरा वर - स्वर्ग की अग्नि त्रि-नचिकेता अग्नि (जो यमाचार्य ने जो उपदेश दिया वह नचिकेता को
ज्यों का त्यों समझ आ गया इसलिए त्रि-नचिकेता को चार आश्रमों के संधि काल में प्राप्त कर सकते हैं:
चार आश्रमों का संधिकाल-
i. ब्रह्मचार्य ii. ग्रहस्थ iii. वानप्रस्थ iv. संन्यास
- तीसरा वर (
मृत्यु के पश्चात क्या होता है) पर यमाचार्य ने कहा यह यह क्या करोगें फालतू का काम है तुम इसके बदले और कुछ भी माँग लो, यमाचार्य ने नचिकेता को बहुत प्रलोभन दिये परंतु नचिकेता नहीं माने, कहा मुझे यहीं जानना है सारे प्रलोभन ठुकरा दिए। तब यमाचार्य ने कहा कि:
जीवन के बाद दो मार्ग है: (आत्मा अमर है तो)
श्रेय- (योग / मोक्ष मार्ग) विद्या
प्रेय- (भोग / संसारिक मार्ग) अविद्या
यमाचार्य ने कहा कि नचिकेता तुमने मृत्यु के बाद क्या होता है यह प्रश्न कर 'श्रेय मार्ग / मोक्ष मार्ग को चुना है। आत्मा / मृत्यु तर्क के योग्य नहीं है।

आत्मा / परमात्मा का स्वरूप स्वभाव-
यह न उत्पन्न होता है ना ही मरता है। इसका कोई कारण नहीं है। यह अज (
अजन्मा), नित्य (नष्ट ना होने वाला), शाश्वत (निरंतर) व पुराण (प्राचीन) हैं। (नोट- यही बात गीता में भी कही गई है)
यह अणु से भी अणु है, सबसे सूक्ष्म है। महत से भी महत्‌ है। इस (आत्मा) का स्थान 'हृदय गुहा' में हैं। अशरीर है। विभु है, सर्वव्यापी है। प्रवचन से प्राप्त नहीं कर सकते। न बंद्धि से प्राप्त कर सकते हैं। न सुनकर प्राप्त कर सकते हैं।
यह जिसका वरण (चुनाव) करता है वह उसे ही मिलता है इसे प्रज्ञान (विशेष ज्ञान) द्वारा प्राप्त कर सकते हैं।
अभ्यास व वैराग्य से प्राप्त कर सकते हैं। निष्कामता से प्राप्त कर सकते हैं।
प्राप्ति के साधन:
i. निष्कामता
ii. शोक से रहित
iii. बुद्धि की निर्मलता
प्राप्ति के बाधक:-
i. दुश्चरित्रता
ii. मन की चंचलता
iii. संशय
iv. अशांति
v. तृष्णा
आत्मा- हृदय में रहता है, अंगुष्ठ मात्रा आकार है।
आत्मा - रथी
शरीर - रथ
बुद्धि - सारथि
मन - लगाम
इन्द्रियाँ - घोड़े
इन्द्रियाँ विषष - मार्ग
जो विज्ञानवान है उसके वश में इंन्द्रियाँ रहती हैं
ईश्वर की उपासना के 2 प्रकार -
i. सगुणोपासना    ii. निर्गुणोपासना

मोक्ष का इच्छुक मुमुक्षु - ईश्वर के निषेधात्मक गुणों को अपने भीतर से निकालना
- मरने के समय को “श्रद्धा काल' कहा जाता है।
कठोपनिषद में शरीर के बारे में-
कठोपनिषद में शरीर को 11 द्वार वाला कहाँ गया है, इसमे 2 जायदा है। (
सामान्य शरीर को नौ द्वारो वाला कहा गया है) 11 द्वार:-
2 आँख + 2 कान + 2 नासिका छिद्र +
1 मुख + 1 मल द्वार 1 मूत्र द्वार = 9  - (सामान्य 9 द्वार वाला शरीर) 1 सिर + 1 नाभि ये 2 इस उपनिषद में ज्यादा है। कुल 11 
10 प्राणों का वर्णन किया गया है। (5+5)

जीव का 24 प्रकार का सामर्थ्य है। प्रकृति को कारण शरीर कहते हैं।
शरीर में 101 नाडियाँ बताई गई हैं। इसमें शरीर को अश्वत्य, जंतु व मर्त्य कहा गया है।
जब इन्द्रियाँ और बुद्धि स्थिर हो जाए 'जीवनमुकतावस्था ' या 'परम्‌गति' (इसमें मन भी बुद्धि के साथ मिल जाताहै) कहते हैं- 5 इन्द्रियाँ + मन + बुद्धि
= परमगति 

आत्मानुभूति की महता-  

योग के अर्भि- प्रभव (शुभ संस्कारों की उत्पत्ति) अव्यय (अशुभ संस्कारों का विनाश)
ब्रह्म की प्राप्ति अस्ति रुप में होती है। जब मनुष्य के हृदय की सारी कामनाएँ हट जाएँ फिर मूर्त्य, अमृत हो जाएगा और परमात्मा की प्राप्ति होगी। जब सारे संशय समाप्त हो जाता है तो वह मृत्युतत्व से अमृतत्व को पाएगा। एकाग्रता से योगी चुस्त व आलस्य मुक्त हो जाता है। वासनाएँ मिटने से निष्काम कर्म करता है व ईश्वर की प्राप्ति होती है। प्राण सुषुम्ना से निकलता है जिससे मोक्षमार्ग मिलता है।

 Continuous.....

10 मुख्य उपनिषद

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