सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

पंचतत्वों का मानव शरीर पर प्रभाव व महत्व

पंचतत्वों का मानव शरीर पर प्रभाव व महत्व

Effect and importance of Panchatatva on human body

छिती जल पावक गगन समीरा, पंचतत्व रचित अधम सरीरा।। अर्थात पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से हमारा (भौतिक) शरीर बना है। इनमें केवल चार ही तत्व पृथ्वी, जल अग्नि और वायु हमारे भोजन की कोटि में आते हैं। रस, रक्त, मांस, भेद, अस्थि, मज्जा, एवं शुक्र इन सात धातुओं से मिलकर बने शरीर को हम देह कहते हैं। या स्थूल शरीर कहते हैं। आकाश, वायु, अग्नि जल और पृथ्वी ये सूक्ष्म भूत हैं। ये सूक्ष्म महाभूत मिलकर ही हमारे शरीर का निर्माण करते हैं ये पाँच तत्व जब प्रकृति में अलग रहते हैं तो सूक्ष्म होने के नाते अति शक्तिशाली होते हैं परन्तु जब वह स्थूल हो जाते हैं तो अपेक्षाकृत कम शक्तिशाली होते हैं। प्रकृति एवं हम में समान तत्व होने पर भी प्राकृतिक हमसे कई ज्यादा शक्तिशाली होती है। अतः हमें प्राकृति एवं उसमें पाए जाने वाले तत्वों में सामंजस्य स्थापित करना आना चाहिए तभी हम अपने अन्दर अधिक शक्ति का विकास कर पायेंगे।

  आकाश तत्व का मानव शरीर पर प्रभाव व महत्व:- Effect and importance of sky element on human body- यह एक अणुविहीन तत्व है, जो उपवास अमाशय को रिक्त रखने से प्राप्त होता हैं। आकाश तत्व अथवा आमाशय की रिक्तिता का एक विशेष महत्व तो यह है कि जब तक पेट में कुछ स्थान खाली न होगा तक तक खाये गये पदार्थों को गति नहीं मिलेगी, जो पाचन के लिए आवश्यक है। वास्तव में जीवन शक्ति के जागरण का सारा श्रेय उपवास अर्थात आकाश तत्व को दिया जाता है। शास्त्रों में कहा गया है कि आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल और जल से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई है। आकाश तत्व शरीर को निर्मल कर उक्त चारों तत्वों को यथास्थान उपयोगी एवं प्रभावकारी रूप में कार्य करने की सुविधा और अवसर प्रदान करता है।

आकाश तत्व पंच महाभूतों में से एक महत्वपूर्ण तत्व है जो अन्य तत्वों को जन्‍म देने वाला भी है और अन्त में सभी तत्वों को अपने भीतर विलीन करने वाला भी है। सबसे सूक्ष्म शक्तिशाली एवं शुद्ध नैसर्गिक साधन आकाश ही है। आकाश का अर्थ है शून्य यानि खालीपन अतः जहां खालीपन है वहीं आकाश तत्व पाया जाता है और जहाँ आकाश तत्व है वहाँ वायु स्वयं आ जाती है खाली जगह में वायु स्वयं अपना स्थान बना लेती है। जिनमें आकाश तत्व की प्रधानता होती है वह लोग बहुत ही प्रसन्‍नचित्त, हल्कापन, स्फूर्ति एवं शक्ति का संचार तथा उसकी अनुभूति कर सकते हैं। इस तत्व के अभाव में वह आलसी, उर्जाविहीन, कमजोर, थकानयुक्त व अप्रसन्‍नचित रहते हैं।

पूर्वकाल में ऋषि, मुनि एवं देवता आदि उपवास के द्वारा अपने अन्दर इस तत्व की वृद्धि करते थे तथा किसी भी स्थान पर क्षण में पहुँच एवं वांछित फल प्राप्त कर सकते थे, उड़ सकते थे जहाँ चाहे जा सकते थे और किसी भी शरीर में प्रवेश कर सकते थे। अतः जो अपने अन्दर इस तत्व की प्रधानता कर लेता है वह सदा आकाश की भांति शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक शक्ति में अविजित रहता है।

ये सम्पूर्ण जगत आकाश से ही उत्पन्न होते हैं। प्रथम आकाश की उत्पत्ति होती है उसके पश्चात वायु, वायु के पश्चात अग्नि, अग्नि से जल, जल से पृथ्वी उत्पन्न हुई और उसी विपरीत क्रम में ये सभी तत्व आकाश तत्व में विलीन हो जाते हैं। आकाश की यह विशेषता है कि विशाल होते हुए भी इतना सूक्ष्म है कि छोटे से छोटे स्थान में भी प्रवेश कर सकता है। जब हम प्रकृति को ठीक तरह समझकर उसके साथ सामंजस्य स्थापित करेंगे तो सभी तत्वों को सही रूप में ग्रहण कर सकेंगे। यदि हम आकाश के सीधे सम्पर्क में नहीं आ सकते तो धीरे-धीरे उसको प्राप्त करने के बारे में सोचना चाहिए। प्रथम ढीले व सूती वस्त्र पहनें, अधिक देर खुले आकाश में रहे तथा शुद्ध वातावरण में बितायें। उपवास रखें, आहार विहार में सुधार द्वारा इस अवस्था को प्राप्त किया जा सकता है। जो व्यक्ति अपने अन्दर आकाश तत्व का विकास कर लेता है। वह आकाश के गुण शब्द को उसी प्रकार पकड़ सकता है जिस प्रकार रेडियो। 

कितने ही योगियों के सम्बन्ध में कहा जाता है कि अमुक योगी जमीन से ऊपर उठ जाता था, पानी पर नंगे पैर चलता था, आग पर चलता था और इच्छानुसार कहीं भी चला जाता था इसी प्रकार उपवासी देखने में कुछ भी नहीं खाता पर वास्तव में वह सब खाता है क्योंकि उसके अन्दर शक्ति स्रोत आकाश का निरन्तर विकास होता है और पूर्ण विकास होता है। पूर्ण विकास होने पर वह प्रभु के निकट रहता है और निरोगी जीवन व्यतीत करता है।

  आजकल के रहन-सहन विशेष कर शहर में छोटे- छोटे कमरों में पूरे घर का सामान रहता ही है साथ ही ड्राइंग रूम में भी इतनी कुर्सी, मेज रखे रहते हैं कि आकाश की गुंजाइश ही नहीं और इसके अलावा वहां बिछे बिस्तरों एवं कालीनों जो महीनों में नीचे से साफ किए जाते हैं ऐसे वातावरण में तो दम घुटने लगता है इसी प्रकार सब गलत आहार विहार से भी हमारे शरीर के अन्दर विजातीय द्रव्य उत्पन्न हो जाता है जिससे तरह-तरह के रोगों का जन्म होता है। आजकल चुस्त एवं कसकर कपड़ा पहनने का रिवाज तेजी से बढ़ता जा रहा है जिससे कि हमारे अन्दर एवं बाहर आकाश तत्व का अभाव होने से हम रोग ग्रसित होते हैं।

Yoga Book in Hindi

Yoga Books in English

Yoga Book for BA, MA, Phd

Gherand Samhita yoga book

Hatha Yoga Pradipika Hindi Book

Patanjali Yoga Sutra Hindi

Shri mad bhagwat geeta book hindi

UGC NET Yoga Book Hindi

UGC NET Paper 2 Yoga Book English

UGC NET Paper 1 Book

QCI Yoga Book 

Yoga book for class 12 cbse

Yoga Books for kids


Yoga Mat   Yoga suit  Yoga Bar   Yoga kit



 वायुतत्व का शरीर पर प्रभाव व महत्व- 

अग्नितत्व का शरीर पर प्रभाव व महत्व

जलतत्व का शरीर पर प्रभाव व महत्व

 पृथ्वीतत्व का शरीर पर प्रभाव व महत्व

पंच तत्वों का सामान्य परिचय

 

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

चित्त | चित्तभूमि | चित्तवृत्ति

 चित्त  चित्त शब्द की व्युत्पत्ति 'चिति संज्ञाने' धातु से हुई है। ज्ञान की अनुभूति के साधन को चित्त कहा जाता है। जीवात्मा को सुख दुःख के भोग हेतु यह शरीर प्राप्त हुआ है। मनुष्य द्वारा जो भी अच्छा या बुरा कर्म किया जाता है, या सुख दुःख का भोग किया जाता है, वह इस शरीर के माध्यम से ही सम्भव है। कहा भी गया  है 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्' अर्थात प्रत्येक कार्य को करने का साधन यह शरीर ही है। इस शरीर में कर्म करने के लिये दो प्रकार के साधन हैं, जिन्हें बाह्यकरण व अन्तःकरण के नाम से जाना जाता है। बाह्यकरण के अन्तर्गत हमारी 5 ज्ञानेन्द्रियां एवं 5 कर्मेन्द्रियां आती हैं। जिनका व्यापार बाहर की ओर अर्थात संसार की ओर होता है। बाह्य विषयों के साथ इन्द्रियों के सम्पर्क से अन्तर स्थित आत्मा को जिन साधनों से ज्ञान - अज्ञान या सुख - दुःख की अनुभूति होती है, उन साधनों को अन्तःकरण के नाम से जाना जाता है। यही अन्तःकरण चित्त के अर्थ में लिया जाता है। योग दर्शन में मन, बुद्धि, अहंकार इन तीनों के सम्मिलित रूप को चित्त के नाम से प्रदर्शित किया गया है। परन्तु वेदान्त दर्शन अन्तःकरण चतुष्टय की

हठयोग का अर्थ , परिभाषा, उद्देश्य

  हठयोग का अर्थ भारतीय चिन्तन में योग मोक्ष प्राप्ति का एक महत्वपूर्ण साधन रहा है, योग की विविध परम्पराओं (ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग, हठयोग) इत्यादि का अन्तिम लक्ष्य भी मोक्ष (समाधि) की प्राप्ति ही है। हठयोग के साधनों के माध्यम से वर्तमान में व्यक्ति स्वास्थ्य लाभ तो करता ही है पर इसके आध्यात्मिक लाभ भी निश्चित रूप से व्यक्ति को मिलते है।  हठयोग- नाम से यह प्रतीत होता है कि यह क्रिया हठ- पूर्वक की जाने वाली है। परन्तु ऐसा नही है अगर हठयोग की क्रिया एक उचित मार्गदर्शन में की जाये तो साधक सहजतापूर्वक इसे कर सकता है। इसके विपरित अगर व्यक्ति बिना मार्गदर्शन के करता है तो इस साधना के विपरित परिणाम भी दिखते है। वास्तव में यह सच है कि हठयोग की क्रियाये कठिन कही जा सकती है जिसके लिए निरन्तरता और दृठता आवश्यक है प्रारम्भ में साधक हठयोग की क्रिया के अभ्यास को देखकर जल्दी करने को तैयार नहीं होता इसलिए एक सहनशील, परिश्रमी और तपस्वी व्यक्ति ही इस साधना को कर सकता है।  संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ में हठयोग शब्द को दो अक्षरों में विभाजित किया है।  1. ह -अर्थात हकार  2. ठ -अर्थात ठकार हकार - का अर्थ

Yoga MCQ Questions Answers in Hindi

 Yoga multiple choice questions in Hindi for UGC NET JRF Yoga, QCI Yoga, YCB Exam नोट :- इस प्रश्नपत्र में (25) बहुसंकल्पीय प्रश्न है। प्रत्येक प्रश्न के दो (2) अंक है। सभी प्रश्न अनिवार्य ।   1. किस उपनिषद्‌ में ओंकार के चार चरणों का उल्लेख किया गया है? (1) प्रश्नोपनिषद्‌         (2) मुण्डकोपनिषद्‌ (3) माण्डूक्योपनिषद्‌  (4) कठोपनिषद्‌ 2 योग वासिष्ठ में निम्नलिखित में से किस पर बल दिया गया है? (1) ज्ञान योग  (2) मंत्र योग  (3) राजयोग  (4) भक्ति योग 3. पुरुष और प्रकृति निम्नलिखित में से किस दर्शन की दो मुख्य अवधारणाएं हैं ? (1) वेदांत           (2) सांख्य (3) पूर्व मीमांसा (4) वैशेषिक 4. निम्नांकित में से कौन-सी नाड़ी दस मुख्य नाडियों में शामिल नहीं है? (1) अलम्बुषा  (2) कुहू  (3) कूर्म  (4) शंखिनी 5. योगवासिष्ठानुसार निम्नलिखित में से क्या ज्ञानभूमिका के अन्तर्गत नहीं आता है? (1) शुभेच्छा (2) विचारणा (3) सद्भावना (4) तनुमानसा 6. प्रश्नोपनिषद्‌ के अनुसार, मनुष्य को विभिन्न लोकों में ले जाने का कार्य कौन करता है? (1) प्राण वायु (2) उदान वायु (3) व्यान वायु (4) समान वायु

आसन का अर्थ एवं परिभाषायें, आसनो के उद्देश्य

आसन का अर्थ आसन शब्द के अनेक अर्थ है जैसे  बैठने का ढंग, शरीर के अंगों की एक विशेष स्थिति, ठहर जाना, शत्रु के विरुद्ध किसी स्थान पर डटे रहना, हाथी के शरीर का अगला भाग, घोड़े का कन्धा, आसन अर्थात जिसके ऊपर बैठा जाता है। संस्कृत व्याकरंण के अनुसार आसन शब्द अस धातु से बना है जिसके दो अर्थ होते है। 1. बैठने का स्थान : जैसे दरी, मृग छाल, कालीन, चादर  2. शारीरिक स्थिति : अर्थात शरीर के अंगों की स्थिति  आसन की परिभाषा हम जिस स्थिति में रहते है वह आसन उसी नाम से जाना जाता है। जैसे मुर्गे की स्थिति को कुक्कुटासन, मयूर की स्थिति को मयूरासन। आसनों को विभिन्न ग्रन्थों में अलग अलग तरीके से परिभाषित किया है। महर्षि पतंजलि के अनुसार आसन की परिभाषा-   महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र के साधन पाद में आसन को परिभाषित करते हुए कहा है। 'स्थिरसुखमासनम्' योगसूत्र 2/46  अर्थात स्थिरता पूर्वक रहकर जिसमें सुख की अनुभूति हो वह आसन है। उक्त परिभाषा का अगर विवेचन करे तो हम कह सकते है शरीर को बिना हिलाए, डुलाए अथवा चित्त में किसी प्रकार का उद्वेग हुए बिना चिरकाल तक निश्चल होकर एक ही स्थिति में सुखपूर्वक बैठने को

योग आसनों का वर्गीकरण एवं योग आसनों के सिद्धान्त

योग आसनों का वर्गीकरण (Classification of Yogaasanas) आसनों की प्रकृति को ध्यान में रखते हुए इन्हें तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है (1) ध्यानात्मक आसन- ये वें आसन है जिनमें बैठकर पूजा पाठ, ध्यान आदि आध्यात्मिक क्रियायें की जाती है। इन आसनों में पद्मासन, सिद्धासन, स्वस्तिकासन, सुखासन, वज्रासन आदि प्रमुख है। (2) व्यायामात्मक आसन- ये वे आसन हैं जिनके अभ्यास से शरीर का व्यायाम तथा संवर्धन होता है। इसीलिए इनको शरीर संवर्धनात्मक आसन भी कहा जाता है। शारीरिक स्वास्थ्य के संरक्षण तथा रोगों की चिकित्सा में भी इन आसनों का महत्व है। इन आसनों में सूर्य नमस्कार, ताडासन,  हस्तोत्तानासन, त्रिकोणासन, कटिचक्रासन आदि प्रमुख है। (3) विश्रामात्मक आसन- शारीरिक व मानसिक थकान को दूर करने के लिए जिन आसनों का अभ्यास किया जाता है, उन्हें विश्रामात्मक आसन कहा जाता है। इन आसनों के अन्तर्गत शवासन, मकरासन, शशांकासन, बालासन आदि प्रमुख है। इनके अभ्यास से शारीरिक थकान दूर होकर साधक को नवीन स्फूर्ति प्राप्त होती है। व्यायामात्मक आसनों के द्वारा थकान उत्पन्न होने पर विश्रामात्मक आसनों का अभ्यास थकान को दूर करके ताजगी

योग के बाधक तत्व

  योग साधना में बाधक तत्व (Elements obstructing yoga practice) हठप्रदीपिका के अनुसार योग के बाधक तत्व- अत्याहार: प्रयासश्च प्रजल्पो नियमाग्रह:। जनसंएरच लौल्य च षड्भिर्योगो विनश्चति।। अर्थात्‌- अधिक भोजन, अधिक श्रम, अधिक बोलना, नियम-पालन में आग्रह, अधिक लोक सम्पर्क तथा मन की चंचलता, यह छ: योग को नष्ट करने वाले तत्व है अर्थात्‌ योग मार्ग में प्रगति के लिए बाधक है। उक्त श्लोकानुसार जो विघ्न बताये गये है, उनकी व्याख्या निम्न प्रकार है 1. अत्याहार-  आहार के अत्यधिक मात्रा में ग्रहण से शरीर की जठराग्नि अधिक मात्रा में खर्च होती है तथा विभिन्न प्रकार के पाचन-संबधी रोग जैसे अपच, कब्ज, अम्लता, अग्निमांघ आदि उत्पन्न होते है। यदि साधक अपनी ऊर्जा साधना में लगाने के स्थान पर पाचन क्रिया हेतू खर्च करता है या पाचन रोगों से निराकरण हेतू षट्कर्म, आसन आदि क्रियाओं के अभ्यास में समय नष्ट करता है तो योगसाधना प्राकृतिक रुप से बाधित होती | अत: शास्त्रों में कहा गया है कि - सुस्निग्धमधुराहारश्चर्तुयांश विवर्जितः । भुज्यते शिवसंप्रीत्यै मिताहार: स उच्यते ।।       अर्थात जो आहार स्निग्ध व मधुर हो और जो परमेश

हठयोग प्रदीपिका के अनुसार षट्कर्म

हठप्रदीपिका के अनुसार षट्कर्म हठयोगप्रदीपिका हठयोग के महत्वपूर्ण ग्रन्थों में से एक हैं। इस ग्रन्थ के रचयिता योगी स्वात्माराम जी हैं। हठयोग प्रदीपिका के द्वितीय अध्याय में षटकर्मों का वर्णन किया गया है। षटकर्मों का वर्णन करते हुए स्वामी स्वात्माराम  जी कहते हैं - धौतिर्बस्तिस्तथा नेतिस्त्राटकं नौलिकं तथा।  कपालभातिश्चैतानि षट्कर्माणि प्रचक्षते।। (हठयोग प्रदीपिका-2/22) अर्थात धौति, बस्ति, नेति, त्राटक, नौलि और कपालभोंति ये छ: कर्म हैं। बुद्धिमान योगियों ने इन छः कर्मों को योगमार्ग में करने का निर्देश किया है। इन छह कर्मों के अतिरिक्त गजकरणी का भी हठयोगप्रदीपिका में वर्णन किया गया है। वैसे गजकरणी धौतिकर्म के अन्तर्गत ही आ जाती है। इनका वर्णन निम्नलिखित है 1. धौति-  धौँति क्रिया की विधि और  इसके लाभ एवं सावधानी- धौँतिकर्म के अन्तर्गत हठयोग प्रदीपिका में केवल वस्त्र धौति का ही वर्णन किया गया है। धौति क्रिया का वर्णन करते हुए योगी स्वात्माराम जी कहते हैं- चतुरंगुल विस्तारं हस्तपंचदशायतम। . गुरूपदिष्टमार्गेण सिक्तं वस्त्रं शनैर्गसेत्।।  पुनः प्रत्याहरेच्चैतदुदितं धौतिकर्म तत्।। (हठयोग प्रद

बंध एवं मुद्रा का अर्थ , परिभाषा, उद्देश्य

  मुद्रा का अर्थ एवं परिभाषा  'मोदन्ते हृष्यन्ति यया सा मुद्रा यन्त्रिता सुवर्णादि धातुमया वा'   अर्थात्‌ जिसके द्वारा सभी व्यक्ति प्रसन्‍न होते हैं वह मुद्रा है जैसे सुवर्णादि बहुमूल्य धातुएं प्राप्त करके व्यक्ति प्रसन्‍नता का अनुभव अवश्य करता है।  'मुद हर्ष' धातु में “रक्‌ प्रत्यय लगाकर मुद्रा शब्दं॑ की निष्पत्ति होती है जिसका अर्थ प्रसन्‍नता देने वाली स्थिति है। धन या रुपये के अर्थ में “मुद्रा' शब्द का प्रयोग भी इसी आशय से किया गया है। कोष में मुद्रा' शब्द के अनेक अर्थ मिलते हैं। जैसे मोहर, छाप, अंगूठी, चिन्ह, पदक, रुपया, रहस्य, अंगों की विशिष्ट स्थिति (हाथ या मुख की मुद्रा)] नृत्य की मुद्रा (स्थिति) आदि।  यौगिक सन्दर्भ में मुद्रा शब्द को 'रहस्य' तथा “अंगों की विशिष्ट स्थिति' के अर्थ में लिया जा सकता है। कुण्डलिनी शक्ति को जागृत करने के लिए जिस विधि का प्रयोग किया जाता है, वह रहस्यमयी ही है। व गोपनीय होने के कारण सार्वजनिक नहीं की जाने वाली विधि है। अतः रहस्य अर्थ उचित है। आसन व प्राणायाम के साथ बंधों का प्रयोग करके विशिष्ट स्थिति में बैठकर 'म

प्राणायाम का अर्थ एवं परिभाषायें, प्राणायामों का वर्गीकरण

प्राणायाम का अर्थ- (Meaning of pranayama) प्राणायाम शब्द, प्राण तथा आयाम दो शब्दों के जोडने से बनता है। प्राण जीवनी शक्ति है और आयाम उसका ठहराव या पड़ाव है। हमारे श्वास प्रश्वास की अनैच्छिक क्रिया निरन्तर अनवरत से चल रही है। इस अनैच्छिक क्रिया को अपने वश में करके ऐच्छिक बना लेने पर श्वास का पूरक करके कुम्भक करना और फिर इच्छानुसार रेचक करना प्राणायाम कहलाता है। प्राणायाम शब्द दो शब्दों से बना है प्राण + आयाम। प्राण वायु का शुद्ध व सात्विक अंश है। अगर प्राण शब्द का विवेचन करे तो प्राण शब्द (प्र+अन+अच) का अर्थ गति, कम्पन, गमन, प्रकृष्टता आदि के रूप में ग्रहण किया जाता है।  छान्न्दोग्योपनिषद कहता है- 'प्राणो वा इदं सर्व भूतं॑ यदिदं किंच।' (3/15/4) प्राण वह तत्व है जिसके होने पर ही सबकी सत्ता है  'प्राणे सर्व प्रतिष्ठितम। (प्रश्नेपनिषद 2/6) तथा प्राण के वश में ही सम्पूर्ण जगत है  “प्राणस्वेदं वशे सर्वम।? (प्रश्नोे. -2/13)  अथर्वद में कहा गया है- प्राणाय नमो यस्य सर्वमिदं वशे।  यो भूतः सर्वेश्वरो यस्मिन् सर्वप्रतिष्ठितम्।॥ (अथर्ववेद 11-4-1) अर्थात उस प्राण को नमस्कार है, जिसके

षटकर्मो का अर्थ, उद्देश्य, उपयोगिता

षटकर्मो का अर्थ-  शोधन क्रिया का अर्थ - Meaning of Body cleansing process 'षट्कर्म' शब्द में दो शब्दों का मेल है षट्+कर्म। षट् का अर्थ है छह (6) तथा कर्म का अर्थ है क्रिया। छह क्रियाओं के समुदाय को षट्कर्म कहा जाता है। यें छह क्रियाएँ योग में शरीर शोधन हेतु प्रयोग में लाई जाती है। इसलिए इन्हें षट्कर्म शब्द या शरीर शोधन की छह क्रियाओं के अर्थ में 'शोधनक्रिया' नाम से कहा जाता है । इन षटकर्मो के नाम - धौति, वस्ति, नेति, त्राटक, नौलि व कपालभाति है। जैसे आयुर्वेद में पंचकर्म चिकित्सा को शोधन चिकित्सा के रूप में स्थान प्राप्त है। उसी प्रकार षट्कर्म को योग में शोधनकर्म के रूप में जाना जाता है । प्राकृतिक चिकित्सा में भी पंचतत्वों के माध्यम से शोधन क्रिया ही की जाती है। योगी स्वात्माराम द्वारा कहा गया है- कर्म षटकमिदं गोप्यं घटशोधनकारकम्।  विचित्रगुणसंधायि पूज्यते योगिपुंगवैः।। (हठयोगप्रदीपिका 2/23) शरीर की शुद्धि के पश्चात् ही साधक आन्तरिक मलों की निवृत्ति करने में सफल होता है। प्राणायाम से पूर्व इनकी आवश्यकता इसलिए भी कही गई है कि मल से पूरित नाड़ियों में प्राण संचरण न हो