Skip to main content

कुण्डलिनी जागरण के उपाय

 
कुण्डलिनी शक्ति के बारे में यह तो निश्चित ही है कि इस कुण्डलिनी शक्ति के द्वारा मनुष्य की चेतना स्तर ऊँचा उठाया जा सकता है, साधक अपनी प्रतिभा को इतना विकसित कर सकता है कि अपने प्राकृतिक स्वभाव से निकटतम सम्बन्ध स्थापित कर वैश्विक चेतना से एकाकार हो सकता है। 

तत्र के अनुसार कुण्डलिनी को कई तरह के उपायों द्वारा जाग्रत किया जा सकता है एक उपाय को छोड़कर, क्योंकि वह है जन्म से यदि किसी की कुण्डलिनी जाग्रत हो। कुण्डलिनी जागरण के उपायों का वर्णन इस प्रकार है।

1. जन्मजात कुण्डलिनी जागरण- आत्मज्ञान सम्पन्न माता पिता के घर में ऐसी सन्तान हो सकती है जिसकी कुण्डलिनी जन्म से ही जाग्रत हो। अगर शिशु का जन्म आंशिक जाग्रति के साथ हो तो उसे संत कहा जाता है। परन्तु कुण्डलिनी के पूर्ण जाग्रति होने पर उसे अवतार या भगवान के पुत्र के रुप में जाना जाता है। जिस बच्चे के जन्म से कुण्डलिनी जाग्रत होती है, उसके विचार उच्च तथा स्पष्ट दृष्टिकोण वाले होते है, यह जीवन के प्रति पूर्णरूप से अनासक्त भाव वाला होता है, उसका दृष्टिकोण असामान्य होता है।
योगाभ्यास के द्वारा मानव अपने जीवन के स्तर को उच्च कर सकता है, क्योंकि मनुष्य के जीन द्वारा ही कलाकारों, बौद्धिक प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तियों, खोजकर्ताओं, वैज्ञानिकों आदि की रचना की जा सकती है, तो इसी प्रकार उच्च योगाभ्यास द्वारा जागृत कुण्डलिनी सम्पन्न व्यक्तियों की रचना भी की जा सकती है।

2. मंत्र द्वारा कुण्डलिनी जागरण- कुण्डलिनी जागरण के दूसरे उपाय में नियमित मंत्र जप आता है। मंत्र जाप एक सरल, निरापद एवं बहुत ही शक्तिशाली मार्ग है, परन्तु यह साधना ऐसी साधना है जिसमें समय अधिक लगता है साथ ही इसमें धैर्य की आवश्यकता होती है। 

इसमें सबसे पहले योग के किसी योग्य गुरू से मंत्र लिया जाता है, जो साधना के मार्ग में पथ प्रदर्शित कर सके। किसी भी मंत्र के निरन्तर अभ्यास से आन्तरिक शक्ति में वृद्धि होती है। इससे जीवन में तटस्थता आती है। जिस प्रकार किसी शान्त जलाशय में कंकड़ फेका जाए तो उसमें तरंगे उत्पन्न होती है। उसी प्रकार मंत्र को लाखों करोड़ों बार दोहराने से मंत्र रूपी समुद्र में तरंगे उठती है और उसका प्रभाव मस्तिष्क पर पड़ता है। इससे शारीरिक,मानसिक और आध्यात्मिक तीनों स्तरों के शुद्धिकरण की प्रक्रिया होती है। मंत्र को कीर्तन के द्वारा जोर से गाकर भी या मानसिक रूप से श्वास के साथ भी दोहराया जा सकता है। सबसे सौम्य तरीका कुण्डलिनी जागरण का यही है।

3. तपस्या द्वारा कुण्डलिनी जागरण- तपस्या द्वारा कुण्डलिनी जागरण तीसरा उपाय है तपस्या को वह चिता या अग्नि कहा जाता है। जिसमें तपकर हमारे शरीर एवं मन के कल्मश कसायों के निष्कासन की प्रक्रिया शुरू होती है। तपस्या के द्वारा शुद्धिकरण होता है।

तपस्या एक मनोभावनात्मक या मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है तपस्या का मनोवैज्ञानिक पहलू बहुत ही महत्वपूर्ण है यदि व्यक्ति की इन्द्रिया भौतिक सुख सुविधा, भोग इत्यादि से तृप्त रहती है तो उसके मस्तिष्क तथा नाड़ी संस्थान के कमजोर रहने के कारण उसका चेतना का, ऊर्जा का स्तर भी कम पाया जाता है। ऐसी स्थिति में तप का मार्ग, अत्यन्त उपयोगी व महत्वपूर्ण फलदायी होता है, और कुण्डलिनी जागरण का मार्ग प्रशस्त करता है।

इस तपस्या द्वारा होने वाले परिवर्तन प्रारम्भ में अपेक्षाकृत भयानक होते हैं। आरम्भ में आसुरी शक्तियों की प्रबलता होती है। कभी कभी अत्यन्त भय लगता है, संसार के प्रति असिक्त, काम वासना क्रशकाय शरीर, ये लक्षण उभर कर आते हैं। परन्तु सिद्धियों के प्राकटय होने पर इन्द्रियों से परे अनुभव अर्थात दूसरे के विचार जाने जा सकते है।

4. जड़ी बूटियों द्वारा कुण्डलिनी जागरण- जड़ी बूटियों द्वारा जागरण चौथा उपाय है। औषधि द्वारा कुण्डलिनी जागरण शक्तिशाली और सबसे आसान उपाय है, किन्तु इसकी जानकारी कम ही लोगों को है तथा यह उपाय सभी लोगों के लिए है भी नहीं, इन औषधियों का प्रयोग गुरू के निर्देशन में ही किया जाना चाहिए। क्योंकि इसके बहुत ही दुष्प्रभाव भी देखने को मिलते है। यही कारण है कि औषधि बहुत ही खतरनाक तथा अविश्वसनीय उपाय माना जाता है।

प्राचीन काल में सोण नामक एक द्रव का उल्लेख वेदों में मिलता है, यह रस एक लता से कृष्ण पक्ष में विशेष दिनों में निकाला जाता था। इसे कुछ दिनों तक मढके में दबाकर पूर्णिमा के दिन निकाल कर तथा छान कर प्रयोग किया जाता था। इससे परम चेतना के जागरण का अनुभव होता था साधको ने औषधियों के प्रयोग से पर्वतों दिव्य आत्माओं, तीर्थ स्थलों, महात्माओं के दर्शनों को प्राप्त किया था।

औषधि द्वारा कुण्डलिनी जागरण में शरीर का तापमान गिर जाता है, चयापचय मंद पड़ जाता है। शरीर स्थिर हो जाता है, इस सभी के परिणामस्वरूप स्नायुओं के कार्य करने के ढंग में परिवर्तन हो जाता है। और इस प्रकार का जागरण अस्थायी होता है, अतः यह पद्धति लुप्त सी हो गयी, इसी कारण यह उपाय आज भी गुप्त है।

5. राजयोग द्वारा कुण्डलिनी जागरण- राजयोग द्वारा कुण्डलिनी जागरण पॉचवी विधि है मन को केन्द्रित करना, जब तक कर्मयोग और भक्तियोग द्वारा कर्मो का क्षय और भावनाएँ शुद्ध न हो जाए तब तक राजयोग द्वारा कुण्डलिनी जागरण नहीं हो सकता, क्योंकि यह बहुत ही कठिन विधि है। इसमें अत्यधिक धैर्य, अनुशासन, समय एवं सुरक्षा की आवश्यकता होती है।

राजयोग द्वारा व्यक्तिगत चेतना वैश्व चेतना में पूर्णरूप विलीन हो जाती है। हठयोग व राजयोग के अभ्यास द्वारा स्थायी व सूक्ष्म अनुभव देखने को मिलते है। साधक में परिवर्तन होने लगते हैं। भूख, काम वासनायें छटने लगती है। सांसारिक, भौतिक पदार्थों से विरक्ति होती है, और अनासक्त भाव जागने लगता है।

6. प्राणायाम द्वारा कुण्डलिनी जागरण- कुण्डलिनी जागरण का छटा उपाय प्राणायाम है। जब कोई साधक किसी शांत व ठंडे स्थान पर गहन प्राणायाम का अभ्यास करता है। जीवन यापन के लिए जितना उचित हो उतना आहार लेता है तब एकाएक विस्फोट की भाँति कुण्डली जागरण होता है, प्राणायाम द्वारा कुण्डलिनी तेजी से सहस्रार तक तुरन्त पहुँच जाती है।

प्राणायाम एक प्रकार से यौगिक अग्नि को प्रज्जवलित करने के लिए है, यह केवल श्वास का अभ्यास नहीं है। इस अग्नि द्वारा कुण्डलिनी जाग्रत होती है लेकिन प्राणायाम का अभ्यास बिना पर्याप्त तैयारी के किया जाये तो उत्पादित ऊर्जा उपर्युक्त केन्द्रों में नहीं पहुँच पाती है, इसलिए प्राण पर नियन्त्रण प्राप्त करने के लिए प्राण को मस्तिष्क के सामने हिस्से में पहुँचाने के लिए ही तीनों बंधों मूल बंध, जालन्धर, उडिडियान बंध का अभ्यास किया जाता है।

प्राणायाम का अभ्यास मन पर स्वतः ही नियन्त्रण प्राप्त कर लेता है। किन्तु प्राणायाम से हुए परिवर्तन से अतिरिक्त ऊर्जा का उत्पादन होता है, सूक्ष्म शरीर का तापमान भी गिर जाता है, और मन का शीघ्र ही रूपान्तरण होता है। इस प्रकार कुण्डलिनी जागरण के कुछ विशेष अनुभव होते है। उन लोगों को डरावने अनुभव होते है जो मानसिक शारीरिक, दार्शनिक, भावनात्मक तौर पर तैयार नहीं होते हैं।

7. क्रियायोग द्वारा कुण्डलिनी जागरण- यह आधुनिक मनुष्य के लिए व्यवहारिक व सबसे सरल विधि है, सात्विक व्यक्ति राजयोग द्वारा कुण्डली जाग्रत कर सकता है किन्तु चंचल मन एवं राजसिक व्यक्ति ऐसा करने में सफल नहीं हो पाते है। जो लोग ग्लानि, कुंठा, तनाव के शिकार होते है ऐसे लोग क्रियायोग के द्वारा कुण्डलिनी जाग्रत कर सकते है। यह उनके लिए उत्तम और प्रभावशाली विधि है।

क्रियायोग द्वारा कुण्डली जागरण विस्फोटक न होकर सौम्य, शालीनता के साथ धीरे धीरे होता है। क्रियायोग द्वारा व्यक्ति अपने को कभी गलत समझता है कभी महान समझता है। वह कभी संसार के प्रति आकर्षित होता है कभी उसे विरक्ति होती है। कभी भूखों की तरह खूब खाने लगता है तो कभी कई दिनों तक भूखा भी रहता है। कभी उसे बहुत नींद आती है कभी रात में भी जागरण करता है। सुप्तावस्था व जागरण के ये लक्षण क्रियायोग द्वारा जागरण में दिखाई देते हैं।

8. तंत्र द्वारा कुण्डलिनी जागरण- जो शिव और शक्ति के सिद्धान्तों को समझते है। जिन्होंने वासनाओं पर विजय प्राप्त कर ली हो। वे ही केवल इस विधि के अधिकारी होते हैं। तांत्रिक दीक्षा द्वारा कुण्डली जागरण बहुत ही गुप्त माना जाता है इस उपाय द्वारा कुण्डली जागरण में गुरू के मार्गदर्शन में कुण्डली जाग्रत होती रहती है। चेतना के विस्तार होने के साथ साथ परिवर्तन होता रहता है इस विशेष विधि में सिर्फ तीन सैकेण्ड में कुण्डली का जागरण और उसका सहस्रार गमन एक साथ ही होते है। इस विधि में बहुत ही कम समय लगता है। परन्तु इस पथ के योग्य व्यक्तियों का मिलना कठिन है। क्योंकि संसार में ऐसे लोग कुछ ही मिलेंगे जिन्होंने काम वासनाओं को परास्त कर उन पर विजय प्राप्त कर ली हो। 

9. शक्तिपात द्वारा कुण्डलिनी जागरण- इस विधि में शक्तिपात द्वारा कुण्डली जागरण होता है इसका प्रयोग गुरू द्वारा किया जाता है। इसके द्वारा जागरण अति शीघ्र क्षणिक व अस्थायी होता है। जब गुरू इसके द्वारा जागरण करता है तब समाधि का अनुभव होने लगता है। व्यक्ति बिना सीखें सभी आसन, प्राणायाम, मुद्रा व बंध इत्यादि का अभ्यास करने लगता है। उसके मंत्र स्वतः सिद्ध हो जाते है शास्त्रों का ज्ञान स्वत: हो जाता है, त्वचा कोमल, कान्तियुक्त व स्थूल शरीर में परिवर्तन होने लगते हैं। आँखें दिव्य व चमकीली तथा शरीर से विशिष्ट प्रकार की गंध उठने लगती है। शक्तिपात स्थूल शरीर से ही नहीं किया जा सकता है। इसे स्पर्श, माला, फूल, रूमाल, फल अथवा खाने की कोई वस्तु इत्यादि के माध्यम से किया जा सकता है। इसमें गुरू चेतना के विकास के स्तर को ध्यान में रखकर शक्तिपात करता है। यह एक आध्यात्मिक उन्नति को प्रकट करता है।

10. आत्मसमर्पण द्वारा कुण्डलिनी जागरण- आत्मसमर्पण कुण्डलिनी जागरण का दसवां रास्ता है इसके लिए साधना विशेष की आवश्कता नहीं होती। प्रकृति पर सब कुछ समर्पित कर दिया जाता है। यह भाव रखकर कि जागरण प्रकृति स्वयं करा रही है इसके लिए मैं उत्तरदायी नहीं हूँ। जो मिल रहा है उसी में सन्तोष करना, स्वीकार करना, इस मार्ग को आत्मसमर्पण के नाम से जाना जाता है।

कैवल्य का स्वरूप

ईश्वर का स्वरूप

 

Comments

Popular posts from this blog

"चक्र " - मानव शरीर में वर्णित शक्ति केन्द्र

7 Chakras in Human Body हमारे शरीर में प्राण ऊर्जा का सूक्ष्म प्रवाह प्रत्येक नाड़ी के एक निश्चित मार्ग द्वारा होता है। और एक विशिष्ट बिन्दु पर इसका संगम होता है। यह बिन्दु प्राण अथवा आत्मिक शक्ति का केन्द्र होते है। योग में इन्हें चक्र कहा जाता है। चक्र हमारे शरीर में ऊर्जा के परिपथ का निर्माण करते हैं। यह परिपथ मेरूदण्ड में होता है। चक्र उच्च तलों से ऊर्जा को ग्रहण करते है तथा उसका वितरण मन और शरीर को करते है। 'चक्र' शब्द का अर्थ-  'चक्र' का शाब्दिक अर्थ पहिया या वृत्त माना जाता है। किन्तु इस संस्कृत शब्द का यौगिक दृष्टि से अर्थ चक्रवात या भँवर से है। चक्र अतीन्द्रिय शक्ति केन्द्रों की ऐसी विशेष तरंगे हैं, जो वृत्ताकार रूप में गतिमान रहती हैं। इन तरंगों को अनुभव किया जा सकता है। हर चक्र की अपनी अलग तरंग होती है। अलग अलग चक्र की तरंगगति के अनुसार अलग अलग रंग को घूर्णनशील प्रकाश के रूप में इन्हें देखा जाता है। योगियों ने गहन ध्यान की स्थिति में चक्रों को विभिन्न दलों व रंगों वाले कमल पुष्प के रूप में देखा। इसीलिए योगशास्त्र में इन चक्रों को 'शरीर का कमल पुष्प” कहा ग...

सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति सामान्य परिचय

प्रथम उपदेश- पिण्ड उत्पति विचार सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति अध्याय - 2 (पिण्ड विचार) सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार नौ चक्रो के नाम 1. ब्रहमचक्र - मूलाधार मे स्थित है, कामनाओं की पूर्ति होती हैं। 2. स्वाधिष्ठान चक्र - इससे हम चीजो को आकर्षित कर सकते है। 3. नाभी चक्र - सिद्धि की प्राप्ति होती है। 4. अनाहत चक्र - हृदय में स्थित होता है। 5. कण्ठचक्र - विशुद्धि-संकल्प पूर्ति, आवाज मधुर होती है। 6. तालुचक्र -  घटिका में, जिह्वा के मूल भाग में,  लय सिद्धि प्राप्त होती है। 7. भ्रुचक्र -     आज्ञा चक्र - वाणी की सिद्धि प्राप्त होती है। 8. निर्वाणचक्र - ब्रहमरन्ध्र, सहस्त्रार चक्र, मोक्ष प्राप्ति 9. आकाश चक्र - सहस्त्रारचक्र के ऊपर,  भय- द्वेष की समाप्ति होती है। सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार सोहल आधार (1) पादांगुष्ठ आधार (2) मूलाधार (3) गुदाद्वार आधार (4) मेद् आधार (5) उड्डियान आधार (6) नाभी आधार (7) हृदयाधार (8) कण्ठाधार (9) घटिकाधार (10) तालु आधार (11) जिह्वा आधार (12) भ्रूमध्य आधार (13) नासिका आधार (14) नासामूल कपाट आधार (15) ललाट आधार (16) ब्रहमरंध्र आधार सिद्ध...

MCQs for UGC NET YOGA (Yoga Upanishads)

1. "योगचूड़ामणि उपनिषद" में कौन-सा मार्ग मोक्ष का साधक बताया गया है? A) भक्तिमार्ग B) ध्यानमार्ग C) कर्ममार्ग D) ज्ञानमार्ग ANSWER= (B) ध्यानमार्ग Check Answer   2. "नादबिंदु उपनिषद" में किस साधना का वर्णन किया गया है? A) ध्यान साधना B) मंत्र साधना C) नादयोग साधना D) प्राणायाम साधना ANSWER= (C) नादयोग साधना Check Answer   3. "योगशिखा उपनिषद" में मोक्ष प्राप्ति का मुख्य साधन क्या बताया गया है? A) योग B) ध्यान C) भक्ति D) ज्ञान ANSWER= (A) योग Check Answer   4. "अमृतनाद उपनिषद" में कौन-सी शक्ति का वर्णन किया गया है? A) प्राण शक्ति B) मंत्र शक्ति C) कुण्डलिनी शक्ति D) चित्त शक्ति ANSWER= (C) कुण्डलिनी शक्ति Check Answer   5. "ध्यानबिंदु उपनिषद" में ध्यान का क...

UGC NET YOGA Upanishads MCQs

1. "योगकुण्डलिनी उपनिषद" में कौन-सी चक्र प्रणाली का वर्णन किया गया है? A) त्रिचक्र प्रणाली B) पंचचक्र प्रणाली C) सप्तचक्र प्रणाली D) दशचक्र प्रणाली ANSWER= (C) सप्तचक्र प्रणाली Check Answer   2. "अमृतबिंदु उपनिषद" में किसका अधिक महत्व बताया गया है? A) आसन की साधना B) ज्ञान की साधना C) तपस्या की साधना D) प्राणायाम की साधना ANSWER= (B) ज्ञान की साधना Check Answer   3. "ध्यानबिंदु उपनिषद" के अनुसार ध्यान का मुख्य उद्देश्य क्या है? A) शारीरिक शक्ति बढ़ाना B) सांसारिक सुख प्राप्त करना C) मानसिक शांति प्राप्त करना D) आत्म-साक्षात्कार ANSWER= (D) आत्म-साक्षात्कार Check Answer   4. "योगतत्त्व उपनिषद" के अनुसार योगी को कौन-सा गुण धारण करना चाहिए? A) सत्य और संयम B) अहंकार C) क्रोध और द्वेष D) लोभ और मोह ...

चित्त विक्षेप | योगान्तराय

चित्त विक्षेपों को ही योगान्तराय ' कहते है जो चित्त को विक्षिप्त करके उसकी एकाग्रता को नष्ट कर देते हैं उन्हें योगान्तराय अथवा योग के विध्न कहा जाता।  'योगस्य अन्तः मध्ये आयान्ति ते अन्तरायाः'।  ये योग के मध्य में आते हैं इसलिये इन्हें योगान्तराय कहा जाता है। विघ्नों से व्यथित होकर योग साधक साधना को बीच में ही छोड़कर चल देते हैं। विध्न आयें ही नहीं अथवा यदि आ जायें तो उनको सहने की शक्ति चित्त में आ जाये, ऐसी दया ईश्वर ही कर सकता है। यह तो सम्भव नहीं कि विध्न न आयें। “श्रेयांसि बहुविध्नानि' शुभकार्यों में विध्न आया ही करते हैं। उनसे टकराने का साहस योगसाधक में होना चाहिए। ईश्वर की अनुकम्पा से यह सम्भव होता है।  व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तिदर्शनालब्धभूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाः (योगसूत्र - 1/30) योगसूत्र के अनुसार चित्त विक्षेपों  या अन्तरायों की संख्या नौ हैं- व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरति, भ्रान्तिदर्शन, अलब्धभूमिकत्व और अनवस्थितत्व। उक्त नौ अन्तराय ही चित्त को विक्षिप्त करते हैं। अतः ये योगविरोधी हैं इन्हें योग के मल...

हठयोग प्रदीपिका का सामान्य परिचय

हठयोग प्रदीपिका ग्रन्थ के रचयिता स्वामी स्वात्माराम योगी हैँ। इन्होंने हठयोग के चार अंगो का मुख्य रूप से वर्णन किया है तथा इन्ही को चार अध्यायों मे बाँटा गया है। स्वामी स्वात्माराम योगी द्वारा बताए गए योग के चार अंग इस प्रकार है । 1. आसन-  "हठस्थ प्रथमांगत्वादासनं पूर्वमुच्यतै"  कहकर योगी स्वात्माराम जी  ने प्रथम अंग के रुप में आसन का वर्णन किया है। इन आसनो का उद्देश्य स्थैर्य, आरोग्य तथा अंगलाघव बताया गया है   'कुर्यात्तदासनं स्थैर्यमारोग्यं चांगलाघवम् '।  ह.प्र. 1/17 आसनो के अभ्यास से साधक के शरीर मे स्थिरता आ जाती है। चंचलता समाप्त हो जाती हैं. लचीलापन आता है, आरोग्यता आ जाती है, शरीर हल्का हो जाता है 1 हठयोगप्रदीपिका में पन्द्रह आसनों का वर्णन किया गया है हठयोगप्रदीपिका में वर्णित 15 आसनों के नाम 1. स्वस्तिकासन , 2. गोमुखासन , 3. वीरासन , 4. कूर्मासन , 5. कुक्कुटासन . 6. उत्तानकूर्मासन , 7. धनुरासन , 8. मत्स्येन्द्रासन , 9. पश्चिमोत्तानासन , 10. मयूरासन , 11. शवासन , 12. सिद्धासन , 13. पद्मासन , 14. सिंहासन , 15. भद्रासना । 2. प्राणायाम- ...

MCQs on “Yoga Upanishads” in Hindi for UGC NET Yoga Paper-2

1. "योगतत्त्व उपनिषद" का मुख्य विषय क्या है? A) हठयोग की साधना B) राजयोग का सिद्धांत C) कर्मयोग का महत्व D) भक्ति योग का वर्णन ANSWER= (A) हठयोग की साधना Check Answer   2. "अमृतनाद उपनिषद" में किस योग पद्धति का वर्णन किया गया है? A) कर्मयोग B) मंत्रयोग C) लययोग D) कुण्डलिनी योग ANSWER= (D) कुण्डलिनी योग Check Answer   3. "योगछूड़ामणि उपनिषद" में मुख्य रूप से किस विषय पर प्रकाश डाला गया है? A) प्राणायाम के भेद B) मोक्ष प्राप्ति का मार्ग C) ध्यान और समाधि D) योगासनों का महत्व ANSWER= (C) ध्यान और समाधि Check Answer   4. "ध्यानबिंदु उपनिषद" में किस ध्यान पद्धति का उल्लेख है? A) त्राटक ध्यान B) अनाहत ध्यान C) सगुण ध्यान D) निर्गुण ध्यान ANSWER= (D) निर्गुण ध्यान Check Answer ...

Information and Communication Technology विषय पर MCQs (Set-3)

  1. "HTTPS" में "P" का अर्थ क्या है? A) Process B) Packet C) Protocol D) Program ANSWER= (C) Protocol Check Answer   2. कौन-सा उपकरण 'डेटा' को डिजिटल रूप में परिवर्तित करता है? A) हब B) मॉडेम C) राउटर D) स्विच ANSWER= (B) मॉडेम Check Answer   3. किस प्रोटोकॉल का उपयोग 'ईमेल' भेजने के लिए किया जाता है? A) SMTP B) HTTP C) FTP D) POP3 ANSWER= (A) SMTP Check Answer   4. 'क्लाउड स्टोरेज' सेवा का एक उदाहरण क्या है? A) Paint B) Notepad C) MS Word D) Google Drive ANSWER= (D) Google Drive Check Answer   5. 'Firewall' का मुख्य कार्य क्या है? A) फाइल्स को एनक्रिप्ट करना B) डेटा को बैकअप करना C) नेटवर्क को सुरक्षित करना D) वायरस को स्कैन करना ANSWER= (C) नेटवर्क को सुरक्षित करना Check Answer   6. 'VPN' का पू...

हठयोगप्रदीपिका में वर्णित मुद्रायें, बंध

  हठयोगप्रदीपिका में वर्णित मुद्रायें, बंध हठयोग प्रदीपिका में मुद्राओं का वर्णन करते हुए स्वामी स्वात्माराम जी ने कहा है महामुद्रा महाबन्धों महावेधश्च खेचरी।  उड़्डीयानं मूलबन्धस्ततो जालंधराभिध:। (हठयोगप्रदीपिका- 3/6 ) करणी विपरीताख्या बज़्रोली शक्तिचालनम्।  इदं हि मुद्रादश्क जरामरणनाशनम्।।  (हठयोगप्रदीपिका- 3/7) अर्थात महामुद्रा, महाबंध, महावेध, खेचरी, उड्डीयानबन्ध, मूलबन्ध, जालन्धरबन्ध, विपरीतकरणी, वज़्रोली और शक्तिचालनी ये दस मुद्रायें हैं। जो जरा (वृद्धा अवस्था) मरण (मृत्यु) का नाश करने वाली है। इनका वर्णन निम्न प्रकार है।  1. महामुद्रा- महामुद्रा का वर्णन करते हुए हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है- पादमूलेन वामेन योनिं सम्पीड्य दक्षिणम्।  प्रसारितं पद कृत्या कराभ्यां धारयेदृढम्।।  कंठे बंधं समारोप्य धारयेद्वायुमूर्ध्वतः।  यथा दण्डहतः सर्पों दंडाकारः प्रजायते  ऋज्वीभूता तथा शक्ति: कुण्डली सहसा भवेतत् ।।  (हठयोगप्रदीपिका- 3/9,10)  अर्थात् बायें पैर को एड़ी को गुदा और उपस्थ के मध्य सीवन पर दृढ़ता से लगाकर दाहिने पैर को फैला कर रखें...