Skip to main content

पुरूष एवं प्रकृति की अवधारणा

पुरुष (आत्मा) की अवधारणा-

पुरूष (आत्मा) योगदर्शन और सांख्यदर्शन में आत्मा के विषय में समान विचारों की झलक मिलती है। अतः सांख्य सम्मत आत्मतत्व विवेचना को योग ने भी स्वीकार किया है। सांख्य में आत्मा नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्तस्वभाव युक्त है। योगभाष्य में भी कहा गया है 

”चितिशक्तिपरिणममिन्यप्रति संक्रमादर्शितविषया शुद्धा चानन्ता सत्वगुपात्मिका चेयम्“ (योगसूत्रभाष्य 1/21)

योग में ”तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम“ सूत्र में आत्मा के द्रष्टा तत्व को प्रतिपादित किया गया है। क्योकि द्रष्टा ही साक्षात्कर्ता होता है। योगदर्गन में आत्मा को कहीं द्रष्टा और कहीं पुरुष की संज्ञा दी गई है। चिति शब्द का प्रयोग भी उसी आत्मा के अर्थ में किया गया है। योगसूत्र में कहा है-

“विशेषदर्शिन आत्मभावभावनानिवृत्तिः (योगसूत्र 4/25) 

अर्थात चित्त और आत्मा के भेद को प्रत्यक्ष (साक्षत्कार) कर लेने वाले योगी के चित्त में आत्मभाव विषयक भावना समाप्त हो जाती है। यहाँ विशेष पद भेद का पर्याय है। जब योगी को समाधि द्वारा प्रकृति और पुरुष के भेद का साक्षात्कार हो जाता है, तब प्राकृत चित्त, देह आदि में आत्मभाव की भावना समाप्त हो जाती है।

इस प्रकार यह निष्कर्ष निकलता है कि योग में आत्मा लिए द्रष्टा और चिति शब्दों का सार्थक प्रयोग किया गया है और उस चित्त की वृत्तियों के निरोध के लिए अष्टांगयोग का निर्धारण, ईश्वरप्रणिधान, अभ्यास तथा वैराग्य आदि का निर्देश किया गया है।

पुरुष क्या है- इस सम्बन्ध में विभिन्न आचार्यो ने भिन्न-भिन्न मान्यताएं दी हैं

शंकराचार्य जी के  मतानुसार- जीव और ब्रह्म अभिन्न हैं 

जीवो ब्रह्मेव नापर:“।

वह ब्रह्म की तरह विभु है। अन्तःकरण सहित अवस्था में वह जीवात्मा कहलाता है और जब ब्रह्म और जीव के अभेद का ज्ञान हो जाता है तो वह मुक्त हो जाता है।

आचार्य रामानुज  जी के  मतानुसार- ये जीव को ब्रह्म का शरीर मानते हैं। यह अणु है। अल्पज़, अल्पशक्तिमान, भोक्ता है।

आचार्य निम्बार्क  जी के  मतानुसार- ये जीव को अणु और प्रत्येक शरीर में भिन्न भिन्न मानते हैं। इसी मत की पुष्टि सांख्य दर्शन से भी होती है।

आचार्य मध्व  जी के  मतानुसार- ये जीव और ब्रह्म में नित्य भेद मानते हैं। सेवक, अल्पज्ञ, परमात्मा के अधीन जीव हैं।

आचार्य वल्लभ जी के  मतानुसार- अणु व ब्रह्म का अंश है शरीर में व्यापक नहीं अपितु हृदय में रहता है

महर्षि दयानन्द  जी के  मतानुसार-  महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश के सातवें समुल्लास में कहा है कि जीवात्मा नित्य और अनादि है। ईश्वर और जीवात्मा दोनों नितान्त भिन्न हैं। यह कार्य करने में स्वतन्त्र व व्यवस्था में परतन्त्र है। यह नित्य व चेतन है अणु है। अल्पज्ञ, कर्म का कर्ता व भोक्ता है।

पुरुष के विषय में सांख्य दर्शन का कथन है- कि पुरुष अनेक है अतः पुरुषबहुत्ववाद की पुष्टि होती है। वास्तव में पुरुष को आत्मा कहा गया है। इसी आधार पर सांख्यदर्शन में कहा गया है कि पुरुष अनेक है क्योंकि प्रतिदिन की दिनचर्या में कोई जन्म लेता है, कोई मृत्यु को प्राप्त होता है, कोई सोता है तो कोई जागता है आदि अनेक गतिविधियों के एक साथ प्रवृत्ति को देख कर अनुमान किया जा सकता है कि पुरुष बहुत अर्थात अनेक हैं क्योंकि यदि पुरुष को केवल एक मान लिया जाए तो विसंगति होगी कि यदि एक सोता है तो सब सोएं। एक जन्म ले तो सभी जन्म ले, एक मृत्यु को प्राप्त होता है तो सभी मृत्यु को प्राप्त होवें, परन्तु ऐसा नहीं होता। अतः पुरुष बहुत्ववाद की सिद्धि होती है।

आत्मा के अस्तित्व के विषय में आस्तिक और नास्तिक दोनों ही दर्शन उदासीन हैं। अहं की अनुभूति सभी को होती है। ऐसी अनुभूति किसी को नहीं होती कि मैं नहीं हूँ। किन्तु आत्मा के अस्तित्व एवं स्वरूप विषयक जितने भी मत प्रचलित हैं, उनका संकलन वेदान्तसार नामक ग्रन्थ में प्राप्त होता है। जिसका संक्षिप्त विवरण निम्नवत् है-
चार्वाक सिद्धान्त के पोषक पुत्र को आत्मा कहते हैं और अपने मत की पुष्टि में 'आत्मा वै जायते पुत्र” इस वाक्य को उद्धृत करते हैं। वे इसका हेतु देते हैं कि पुत्र का सुख दुःख पिता को साक्षात अनुभूत होता है। पुत्र के सुखी होने पर सुखी और दुःखी होने पर दुःखी पिता पुत्र को आत्मत्वेन ही स्वीकार करता है। अति प्राडडतस्तु “आत्मा वै जायते पुत्रः'पुत्र आत्मेति वदति। वेदान्तसार पृ. 182
कुछ अन्य नास्तिक लोग अन्न से परिपुष्ट होने वाले देह को आत्मा कहते हैं तथा अपने कथन को सिद्ध करने के लिये कहते हैं कि जब घर में आग लग जाती है तो मनुष्य पुत्र, पत्नी आदि सभी को छोड़ कर निज देह को बचाने का प्रयास करता है। निजदेह सभी को प्रिय है। अतः देह ही आत्मा है
कुछ लोगों का मानना है कि इन्द्रियां ही आत्मा है। उनका तर्क है कि इन्द्रियों के अभाव में शरीर चल नहीं सकता। मैं काणा हूँ, बहरा हूँ इत्यादि अनुभूति इन्द्रियों को आत्मा सिद्ध करती है
दूसरे चार्वाक इन्द्रियों से ऊपर प्राणों को महत्व देते हुए कहते है कि प्राण के बिना इन्द्रियाँ भी असमर्थ हैं। जब तक प्राण रहते हैं, तभी तक इन्द्रियाँ देखना, सुनना आदि कार्य कर पाती हैं। प्राण के व्याकुल हो जाने पर इन्द्रियाँ भी व्याकुल हो जाती हैं। अतः प्राण ही आत्मा है।

कुछ दार्शनिक कहते हैं कि आत्मा मन को ही कहना उचित है, क्योंकि 'अन्योन्तरात्मा मनोमयः यह श्रुतिप्रमाण है। सुषुप्ति अवस्था में जब मन भी सो जाता है तो प्राणादि की गति भी रुक जाती है। मैं संकल्प करता हूँ, विकल्प करता हूँ, इस अनुभूति में जो संकल्प विकल्प का कर्ता है, वही मन आत्मा है।

प्रभाकर मीमांसक का मत है- कि अज्ञान ही आत्मा है। उनका तर्क है कि सुषुप्ति में इन्द्रिया, प्राण, मन और विज्ञान सभी अज्ञान में लीन हो जाते हैं। जागने पर “मैं सुखपूर्वक सोया, मैंने कुछ नहीं जाना' यह अनुभूति होती है। यह अनुभूति अज्ञान को आत्मा सिद्ध करती है।

शून्यात्मवाद भी एक अहं सिद्धान्त है जिसके अनुसार शून्य तत्व को आत्मा कहा गया है। शून्य का अर्थ है चतुष्कोटि, विनिर्मुक्त, अनिवर्चनीय तत्व शून्यवादी भी सुषुप्ति को दृष्टान्त के रूप में प्रस्तुत करते हैं। वे कहते हैं कि “मैं आज नहीं था।' यह अनुभूति सुषुप्ति काल से जागने पर होती है। यह “न होना' ही शून्य है। इसलिए शून्य ही आत्मा है। 

प्रकृति की अवधारणा-

सांख्य शास्त्र के विविध कार्यों से उनके मूल कारण प्रकृति का अनुमान होता है। सांख्य शास्त्र में 25 तत्वों की मान्यता प्राप्त होती है। जिनकी मूल प्रकृति है, जिसका विशेषणपद प्रधान भी है। उत्पन्न करने वाले को प्रकृति, उत्पन्न होने वाले को विकृति कहा जाता है। अतः प्रकृति सबको उत्पन्न करती है लेकिन किसी से उत्पन्न नहीं होती। महत् आदि (महत्, अहंकार तथा पंचतन्मात्राएं) ये सात प्रकृति से उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न भी करते है अतः इनको प्रकृति-विकृति दोनों माना जाता है। सोलह (पंच कर्मेन्द्रियां, पंच ज़ानेन्द्रियां, पंच महाभूत तथा मन) का समूह केवल उत्पन्न होता है। पुरुष न तो किसी से उत्पन्न होता है, न॑ किसी को उत्पन्न करता है।

इन पच्चीस तत्वों को प्रकृति, विकृति, प्रकृतिविकृति, तथा न प्रकृति न॑ विकृति के भेद से चार भागों में बांटा जाता है।
मूलप्रकृति ही प्रधान है। क्योंकि वह प्रकृति के विकारभूत सातों पदार्थों की मूलभूत कारणरूप है, वह मूल भी है और प्रकृति भी है। अतः मूल प्रकृति कहा है। किसी अन्य से उत्पन्न नहीं होती, इसलिए प्रकृति किसी का विकार नहीं है। प्रकृति को अव्यक्त भी कहा जाता है। वैसे तो अव्यक्त को मानने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए परन्तु किसी विद्यमान वस्तु की अनुपलब्धि के आठ कारण हैं- अत्यन्त दूर होने से, अत्यन्त समीप होने से, इन्द्रियों के नष्ट हो जाने से, मन की अस्थिरता से, सूक्ष्म होने से, किसी वस्तु का व्यवधान होने से, किसी उत्कट द्वारा अभिभूत होने से, अपने सद्दश पदार्थ में मिल जाने से, अतः उक्त हेतुओं से विद्यमान वस्तु की भी उपलब्धि नहीं होती। प्रकृति भी विद्यमान पदार्थ होते हुए अतिसूक्ष्म होने के कारण अनुपलब्ध है। परन्तु उसके स्थूल कार्यों को देख कर उसका अनुमान किया जाता है। 

योगदर्शन सांख्य के सभी सिद्धान्तों को स्वीकार करता है। प्रकृति का स्वरूप उसकी विकृति के स्वरूप वाला भी है तथा उससे भिन्न भी है। अर्थात यदि समानता के पक्ष में विचार किया जाए तो ज्ञात होता है कि सभी व्यक्त कार्य त्रिगुणात्मक हैं। उनमें सत्व, रज और तम गुण पाये जाते हैं। ठीक उसी प्रकार प्रकृति में भी सत्व, रज तथा तम की उपस्थिति कही गई है। इसीलिए प्रकृति का लक्षण इस प्रकार कहा गया है-  

“सत्वरजस्तमसाभ्यां साम्यावस्था प्रकृति:“

दूसरा विशेषण अविवेकी है अर्थात् जिसका कोई विवेक नहीं होता। आशय यह है कि ये गुण हैं और यह अव्यक्त है। ऐसा पृथक् विवेचन नहीं किया जा सकता। जैसे यह गाय है और यह घोड़ा है। जो व्यक्त है, वे ही गुण हैं, जो गुण हैं, वही व्यक्त हैं। इस प्रकार का भेद करने का विवेक प्रकृति में नहीं है, इसलिए इसे अविवेकी कहा जाता है।

तीसरा इस प्रकृति को विषय कहा गया है। विषय का अर्थ है सबके द्वारा उपभोग के योग्य, क्योंकि यह समस्त व्यक्तियों का विषयभूत है।

चौथा विशेषण प्रकृति का यह है कि वह सामान्य है। जैसे पैसे से कोई भी सुविधा सबको प्राप्त होकर सामान्य हो जाती है। ठीक उसी प्रकार यह भी सर्वसाधारण के लिए उपभोग्य है।

पांचवा विशेषण प्रकृति का अचेतन है। कहने का तात्पर्य है कि प्रकृति जड़ है। सुख, दुःख और मोह को प्रकाशित नहीं कर सकती। प्रकृति प्रसवधर्मी है अर्थात उत्पन्न करने के स्वभाववाली है, जैसे प्रकृति से बुद्धि, बुद्धि से अहंकार आदि की उत्पत्ति होती है, अहंकार से 11 इन्द्रियां और 5 तन्मात्राएं उत्पन्न होती है। तन्मात्राओं से 5 महाभूत आकाशादि उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार प्रसवधर्मी पर्यन्त व्यक्त के धर्म कहे गये हैं, ऐसे ही इन धर्मों से भी है।

जब व्यक्त से विरुद्ध धर्मों के विषय में चिन्तन किया जाता है तो ज्ञात होता है कि अव्यक्त अर्थात प्रकृति अहेतुमत्, नित्य, व्यापि, निष्क्रिय, एक, अनाश्रित, निरवयव तथा स्वतन्त्र है। अर्थात व्यक्त हेतुमत हैं, और प्रकृति से अन्यत्र कोई नहीं है जिससे उसकी उत्पत्ति मानी जाये, इसलिये प्रकृति अहेतुमत है। व्यक्त उत्पत्तिमान होने से अनित्य हैं, किन्तु अव्यक्त प्रकृति अहेतुमत होने से नित्य है। क्योंकि भूतादि की तरह वह किसी से उत्पन्न नहीं होती। व्यक्त अव्यापी हैं किन्तु अव्यक्त प्रकृति व्यापी है, क्योंकि वह सर्वगत है। व्यक्त सक्रिय है, क्रियाशील हैं, किन्तु अव्यक्त अक्रिय है क्योंकि वह सर्वगत होने से ही उसकी क्रियाशीलता की आवश्यकता नहीं है। तथा व्यक्त अनेक अर्थात 23 है किन्तु अव्यक्त कारण होने से एक ही है। तीनों लोकों का कारणभूत प्रधान है। इसलिये वह एक है। व्यक्त आश्रित रहता है किन्तु अव्यक्त किसी के आश्रित नहीं रहता क्योंकि वह किसी का भी कार्य नहीं है। प्रधान से दूसरा कोई ऐसा है ही नहीं जिसका कार्य प्रधान को माना जा सके। तथा व्यक्त लिंग है किन्तु अव्यक्त अलिंग है। प्रलय काल में व्यक्तादि अपने कारणों में लीन हो जाते हैं, परन्तु प्रधान का लय नहीं होता, क्योंकि उसका कोई कारण नहीं है। व्यक्त सावयव हैं तथा अव्यक्त प्रकृति निरवयव है शब्द स्पर्श, रूप, रस, गन्ध ये अवयव प्रधान में नहीं होते हैं। व्यक्त परतन्त्र होता है, किन्तु अव्यक्त स्वतन्त्र है किसी के अधीन नहीं रहता, स्वयं अपने में समर्थ होता है।

इस प्रकार के गुण, लक्षणों से युक्त प्रकृति, पुरुष के समक्ष अपने को ठीक उसी प्रकार प्रस्तुत करती है तथा निवृत्त हो जाती है जैसे कोई नर्तकी रंगमंच पर अपना नाच दिखाकर अपना कार्य समाप्त कर उस द्रष्टा के प्रति नृत्य से निवृत्त हो जाती है। प्रकृति भी पुरुष के लिए भोग उपलब्ध कराती रहती है। जब वह मोक्ष उपलब्ध करा देता है तो सदा के लिए निवृत्त होकर उसके लिए कृतकार्य होकर अपने मूल कारण में लीन हो जाती है। उसका प्रयोजन 'मोक्ष' प्रदान करना पूरा हो जाता है।

ईश्वर का स्वरूप

चित्त | चित्तभूमि | चित्तवृत्ति

योगसूत्र का सामान्य परिचय

Comments

Popular posts from this blog

सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति सामान्य परिचय

प्रथम उपदेश- पिण्ड उत्पति विचार सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति अध्याय - 2 (पिण्ड विचार) सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार नौ चक्रो के नाम 1. ब्रहमचक्र - मूलाधार मे स्थित है, कामनाओं की पूर्ति होती हैं। 2. स्वाधिष्ठान चक्र - इससे हम चीजो को आकर्षित कर सकते है। 3. नाभी चक्र - सिद्धि की प्राप्ति होती है। 4. अनाहत चक्र - हृदय में स्थित होता है। 5. कण्ठचक्र - विशुद्धि-संकल्प पूर्ति, आवाज मधुर होती है। 6. तालुचक्र -  घटिका में, जिह्वा के मूल भाग में,  लय सिद्धि प्राप्त होती है। 7. भ्रुचक्र -     आज्ञा चक्र - वाणी की सिद्धि प्राप्त होती है। 8. निर्वाणचक्र - ब्रहमरन्ध्र, सहस्त्रार चक्र, मोक्ष प्राप्ति 9. आकाश चक्र - सहस्त्रारचक्र के ऊपर,  भय- द्वेष की समाप्ति होती है। सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार सोहल आधार (1) पादांगुष्ठ आधार (2) मूलाधार (3) गुदाद्वार आधार (4) मेद् आधार (5) उड्डियान आधार (6) नाभी आधार (7) हृदयाधार (8) कण्ठाधार (9) घटिकाधार (10) तालु आधार (11) जिह्वा आधार (12) भ्रूमध्य आधार (13) नासिका आधार (14) नासामूल कपाट आधार (15) ललाट आधार (16) ब्रहमरंध्र आधार सिद्ध...

घेरण्ड संहिता में वर्णित धौति

घेरण्ड संहिता के अनुसार षट्कर्म- षट्कर्म जैसा नाम से ही स्पष्ट है छः: कर्मो का समूह वे छः कर्म है- 1. धौति 2. वस्ति 3. नेति 4. नौलि 5. त्राटक 6. कपालभाति । घेरण्ड संहिता में षटकर्मो का वर्णन विस्तृत रूप में किया गया है जिनका फल सहित वर्णन निम्न प्रकार है। 1. धौति   घेरण्ड संहिता में वर्णित धौति-   धौति अर्थात धोना (सफाई करना) जैसा कि नाम से ही स्पष्ट हो रहा इससे अन्तःकरण की सफाई की जाती है। इसलिए इसका नाम धौति पड़ा। घेरण्ड संहिता में महर्षि घेरण्ड ने चार प्रकार की धौति का वर्णन किया है- (क) अन्त: धौति  (ख) दन्त धौति (ग) हृद धौति (घ) मूलशोधन (क) अन्त: धौति-   अन्त:का अर्थ आंतरिक या भीतरी तथा धौति का अर्थ है धोना या सफाई करना। वस्तुत: शरीर और मन को विकार रहित बनाने के लिए शुद्धिकरण अत्यन्त आवश्यक है। अन्त: करण की शुद्धि के लिए चार प्रकार की अन्त: धौति बताई गई है- 1. वातसार अन्त: धौति 2. वारिसार अन्त: धौति 3. अग्निसार अन्त: धौति 4. बहिष्कृत अन्त: धौति 1. वातसार अन्त: धौति-  वात अर्थात वायु तत्व या हवा से अन्तःकरण की सफाई करना ही वातसार अन्त: धौति है। महर्षि ...

"चक्र " - मानव शरीर में वर्णित शक्ति केन्द्र

7 Chakras in Human Body हमारे शरीर में प्राण ऊर्जा का सूक्ष्म प्रवाह प्रत्येक नाड़ी के एक निश्चित मार्ग द्वारा होता है। और एक विशिष्ट बिन्दु पर इसका संगम होता है। यह बिन्दु प्राण अथवा आत्मिक शक्ति का केन्द्र होते है। योग में इन्हें चक्र कहा जाता है। चक्र हमारे शरीर में ऊर्जा के परिपथ का निर्माण करते हैं। यह परिपथ मेरूदण्ड में होता है। चक्र उच्च तलों से ऊर्जा को ग्रहण करते है तथा उसका वितरण मन और शरीर को करते है। 'चक्र' शब्द का अर्थ-  'चक्र' का शाब्दिक अर्थ पहिया या वृत्त माना जाता है। किन्तु इस संस्कृत शब्द का यौगिक दृष्टि से अर्थ चक्रवात या भँवर से है। चक्र अतीन्द्रिय शक्ति केन्द्रों की ऐसी विशेष तरंगे हैं, जो वृत्ताकार रूप में गतिमान रहती हैं। इन तरंगों को अनुभव किया जा सकता है। हर चक्र की अपनी अलग तरंग होती है। अलग अलग चक्र की तरंगगति के अनुसार अलग अलग रंग को घूर्णनशील प्रकाश के रूप में इन्हें देखा जाता है। योगियों ने गहन ध्यान की स्थिति में चक्रों को विभिन्न दलों व रंगों वाले कमल पुष्प के रूप में देखा। इसीलिए योगशास्त्र में इन चक्रों को 'शरीर का कमल पुष्प” कहा ग...

घेरण्ड संहिता में वर्णित "प्राणायाम" -- विधि, लाभ एवं सावधानियाँ

घेरण्ड संहिता के अनुसार प्राणायाम घेरण्डसंहिता में महर्षि घेरण्ड ने आठ प्राणायाम (कुम्भको) का वर्णन किया है । प्राण के नियन्त्रण से मन नियन्त्रित होता है। अत: प्रायायाम की आवश्यकता बताई गई है। हठयोग प्रदीपिका की भांति प्राणायामों की संख्या घेरण्डसंहिता में भी आठ बताई गईं है किन्तु दोनो में थोडा अन्तर है। घेरण्डसंहिता मे कहा गया है- सहित: सूर्यभेदश्च उज्जायी शीतली तथा। भस्त्रिका भ्रामरी मूर्च्छा केवली चाष्टकुम्भका।। (घे.सं0 5 / 46) 1. सहित, 2. सूर्य भेदन, 3. उज्जायी, 4. शीतली, 5. भस्त्रिका, 6. भ्रामरी, 7. मूर्च्छा तथा 8. केवली ये आठ कुम्भक (प्राणायाम) कहे गए हैं। प्राणायामों के अभ्यास से शरीर में हल्कापन आता है। 1. सहित प्राणायाम - सहित प्राणायाम दो प्रकार के होते है (i) संगर्भ और (ii) निगर्भ । सगर्भ प्राणायाम में बीज मन्त्र का प्रयोग किया जाता हैँ। और निगर्भ प्राणायाम का अभ्यास बीज मन्त्र रहित होता है। (i) सगर्भ प्राणायाम- इसके अभ्यास के लिये पहले ब्रह्मा पर ध्यान लगाना है, उन पर सजगता को केन्द्रित करते समय उन्हें लाल रंग में देखना है तथा यह कल्पना करनी है कि वे लाल है और रजस गुणों से...

सांख्य दर्शन परिचय, सांख्य दर्शन में वर्णित 25 तत्व

सांख्य दर्शन के प्रणेता महर्षि कपिल है यहाँ पर सांख्य शब्द का अर्थ ज्ञान के अर्थ में लिया गया सांख्य दर्शन में प्रकृति पुरूष सृष्टि क्रम बन्धनों व मोक्ष कार्य - कारण सिद्धान्त का सविस्तार वर्णन किया गया है इसका संक्षेप में वर्णन इस प्रकार है। 1. प्रकृति-  सांख्य दर्शन में प्रकृति को त्रिगुण अर्थात सत्व, रज, तम तीन गुणों के सम्मिलित रूप को त्रिगुण की संज्ञा दी गयी है। सांख्य दर्शन में इन तीन गुणो कों सूक्ष्म तथा अतेनद्रिय माना गया सत्व गुणो का कार्य सुख रजोगुण का कार्य लोभ बताया गया सत्व गुण स्वच्छता एवं ज्ञान का प्रतीक है यह गुण उर्ध्वगमन करने वाला है। इसकी प्रबलता से पुरूष में सरलता प्रीति,अदा,सन्तोष एवं विवेक के सुखद भावो की उत्पत्ति होती है।    रजोगुण दुःख अथवा अशान्ति का प्रतीक है इसकी प्रबलता से पुरूष में मान, मद, वेष तथा क्रोध भाव उत्पन्न होते है।    तमोगुण दुख एवं अशान्ति का प्रतीक है यह गुण अधोगमन करने वाला है तथा इसकी प्रबलता से मोह की उत्पत्ति होती है इस मोह से पुरूष में निद्रा, प्रसाद, आलस्य, मुर्छा, अकर्मण्यता अथवा उदासीनता के भाव उत्पन्न होते है सा...

चित्त विक्षेप | योगान्तराय

चित्त विक्षेपों को ही योगान्तराय ' कहते है जो चित्त को विक्षिप्त करके उसकी एकाग्रता को नष्ट कर देते हैं उन्हें योगान्तराय अथवा योग के विध्न कहा जाता।  'योगस्य अन्तः मध्ये आयान्ति ते अन्तरायाः'।  ये योग के मध्य में आते हैं इसलिये इन्हें योगान्तराय कहा जाता है। विघ्नों से व्यथित होकर योग साधक साधना को बीच में ही छोड़कर चल देते हैं। विध्न आयें ही नहीं अथवा यदि आ जायें तो उनको सहने की शक्ति चित्त में आ जाये, ऐसी दया ईश्वर ही कर सकता है। यह तो सम्भव नहीं कि विध्न न आयें। “श्रेयांसि बहुविध्नानि' शुभकार्यों में विध्न आया ही करते हैं। उनसे टकराने का साहस योगसाधक में होना चाहिए। ईश्वर की अनुकम्पा से यह सम्भव होता है।  व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तिदर्शनालब्धभूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाः (योगसूत्र - 1/30) योगसूत्र के अनुसार चित्त विक्षेपों  या अन्तरायों की संख्या नौ हैं- व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरति, भ्रान्तिदर्शन, अलब्धभूमिकत्व और अनवस्थितत्व। उक्त नौ अन्तराय ही चित्त को विक्षिप्त करते हैं। अतः ये योगविरोधी हैं इन्हें योग के मल...

ज्ञानयोग - ज्ञानयोग के साधन - बहिरंग साधन , अन्तरंग साधन

  ज्ञान व विज्ञान की धारायें वेदों में व्याप्त है । वेद का अर्थ ज्ञान के रूप मे लेते है ‘ज्ञान’ अर्थात जिससे व्यष्टि व समष्टि के वास्तविक स्वरूप का बोध होता है। ज्ञान, विद् धातु से व्युत्पन्न शब्द है जिसका अर्थ किसी भी विषय, पदार्थ आदि को जानना या अनुभव करना होता है। ज्ञान की विशेषता व महत्त्व के विषय में बतलाते हुए कहा गया है "ज्ञानाग्नि सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा" अर्थात जिस प्रकार प्रज्वलित अग्नि ईंधन को जलाकर भस्म कर देती है उसी प्रकार ज्ञान रुपी अग्नि कर्म रूपी ईंधन को भस्म कर देती है। ज्ञानयोग साधना पद्धति, ज्ञान पर आधारित होती है इसीलिए इसको ज्ञानयोग की संज्ञा दी गयी है। ज्ञानयोग पद्धति मे योग का बौद्धिक और दार्शनिक पक्ष समाहित होता है। ज्ञानयोग 'ब्रहासत्यं जगतमिथ्या' के सिद्धान्त के आधार पर संसार में रह कर भी अपने ब्रह्मभाव को जानने का प्रयास करने की विधि है। जब साधक स्वयं को ईश्वर (ब्रहा) के रूप ने जान लेता है 'अहं ब्रह्मास्मि’ का बोध होते ही वह बंधनमुक्त हो जाता है। उपनिषद मुख्यतया इसी ज्ञान का स्रोत हैं। ज्ञानयोग साधना में अभीष्ट लक्ष्य को प्राप्त ...

हठयोग प्रदीपिका में वर्णित प्राणायाम

हठयोग प्रदीपिका में प्राणायाम को कुम्भक कहा है, स्वामी स्वात्माराम जी ने प्राणायामों का वर्णन करते हुए कहा है - सूर्यभेदनमुज्जायी सीत्कारी शीतल्री तथा।  भस्त्रिका भ्रामरी मूर्च्छा प्लाविनीत्यष्टकुंम्भका:।। (हठयोगप्रदीपिका- 2/44) अर्थात् - सूर्यभेदन, उज्जायी, सीत्कारी, शीतली, भस्त्रिका, भ्रामरी, मूर्छा और प्लाविनी में आठ प्रकार के कुम्भक (प्राणायाम) है। इनका वर्णन ऩिम्न प्रकार है 1. सूर्यभेदी प्राणायाम - हठयोग प्रदीपिका में सूर्यभेदन या सूर्यभेदी प्राणायाम का वर्णन इस प्रकार किया गया है - आसने सुखदे योगी बदध्वा चैवासनं ततः।  दक्षनाड्या समाकृष्य बहिस्थं पवन शनै:।।  आकेशादानखाग्राच्च निरोधावधि क्रुंभयेत। ततः शनैः सव्य नाड्या रेचयेत् पवन शनै:।। (ह.प्र. 2/48/49) अर्थात- पवित्र और समतल स्थान में उपयुक्त आसन बिछाकर उसके ऊपर पद्मासन, स्वस्तिकासन आदि किसी आसन में सुखपूर्वक मेरुदण्ड, गर्दन और सिर को सीधा रखते हुए बैठेै। फिर दाहिने नासारन्ध्र अर्थात पिंगला नाडी से शनैः शनैः पूरक करें। आभ्यन्तर कुम्भक करें। कुम्भक के समय मूलबन्ध व जालन्धरबन्ध लगा कर रखें।  यथा शक्ति कुम्भक के प...

कठोपनिषद

कठोपनिषद (Kathopanishad) - यह उपनिषद कृष्ण यजुर्वेद की कठ शाखा के अन्तर्गत आता है। इसमें दो अध्याय हैं जिनमें 3-3 वल्लियाँ हैं। पद्यात्मक भाषा शैली में है। मुख्य विषय- योग की परिभाषा, नचिकेता - यम के बीच संवाद, आत्मा की प्रकृति, आत्मा का बोध, कठोपनिषद में योग की परिभाषा :- प्राण, मन व इन्दियों का एक हो जाना, एकाग्रावस्था को प्राप्त कर लेना, बाह्य विषयों से विमुख होकर इन्द्रियों का मन में और मन का आत्मा मे लग जाना, प्राण का निश्चल हो जाना योग है। इन्द्रियों की स्थिर धारणा अवस्था ही योग है। इन्द्रियों की चंचलता को समाप्त कर उन्हें स्थिर करना ही योग है। कठोपनिषद में कहा गया है। “स्थिराम इन्द्रिय धारणाम्‌” .  नचिकेता-यम के बीच संवाद (कहानी) - नचिकेता पुत्र वाजश्रवा एक बार वाजश्रवा किसी को गाय दान दे रहे थे, वो गाय बिना दूध वाली थी, तब नचिकेता ( वाजश्रवा के पुत्र ) ने टोका कि दान में तो अपनी प्रिय वस्तु देते हैं आप ये बिना दूध देने वाली गाय क्यो दान में दे रहे है। वाद विवाद में नचिकेता ने कहा आप मुझे किसे दान में देगे, तब पिता वाजश्रवा को गुस्सा आया और उसने नचिकेता को कहा कि तुम ...