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पुरूष एवं प्रकृति की अवधारणा

पुरुष (आत्मा) की अवधारणा-

पुरूष (आत्मा) योगदर्शन और सांख्यदर्शन में आत्मा के विषय में समान विचारों की झलक मिलती है। अतः सांख्य सम्मत आत्मतत्व विवेचना को योग ने भी स्वीकार किया है। सांख्य में आत्मा नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्तस्वभाव युक्त है। योगभाष्य में भी कहा गया है 

”चितिशक्तिपरिणममिन्यप्रति संक्रमादर्शितविषया शुद्धा चानन्ता सत्वगुपात्मिका चेयम्“ (योगसूत्रभाष्य 1/21)

योग में ”तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम“ सूत्र में आत्मा के द्रष्टा तत्व को प्रतिपादित किया गया है। क्योकि द्रष्टा ही साक्षात्कर्ता होता है। योगदर्गन में आत्मा को कहीं द्रष्टा और कहीं पुरुष की संज्ञा दी गई है। चिति शब्द का प्रयोग भी उसी आत्मा के अर्थ में किया गया है। योगसूत्र में कहा है-

“विशेषदर्शिन आत्मभावभावनानिवृत्तिः (योगसूत्र 4/25) 

अर्थात चित्त और आत्मा के भेद को प्रत्यक्ष (साक्षत्कार) कर लेने वाले योगी के चित्त में आत्मभाव विषयक भावना समाप्त हो जाती है। यहाँ विशेष पद भेद का पर्याय है। जब योगी को समाधि द्वारा प्रकृति और पुरुष के भेद का साक्षात्कार हो जाता है, तब प्राकृत चित्त, देह आदि में आत्मभाव की भावना समाप्त हो जाती है।

इस प्रकार यह निष्कर्ष निकलता है कि योग में आत्मा लिए द्रष्टा और चिति शब्दों का सार्थक प्रयोग किया गया है और उस चित्त की वृत्तियों के निरोध के लिए अष्टांगयोग का निर्धारण, ईश्वरप्रणिधान, अभ्यास तथा वैराग्य आदि का निर्देश किया गया है।

पुरुष क्या है- इस सम्बन्ध में विभिन्न आचार्यो ने भिन्न-भिन्न मान्यताएं दी हैं

शंकराचार्य जी के  मतानुसार- जीव और ब्रह्म अभिन्न हैं 

जीवो ब्रह्मेव नापर:“।

वह ब्रह्म की तरह विभु है। अन्तःकरण सहित अवस्था में वह जीवात्मा कहलाता है और जब ब्रह्म और जीव के अभेद का ज्ञान हो जाता है तो वह मुक्त हो जाता है।

आचार्य रामानुज  जी के  मतानुसार- ये जीव को ब्रह्म का शरीर मानते हैं। यह अणु है। अल्पज़, अल्पशक्तिमान, भोक्ता है।

आचार्य निम्बार्क  जी के  मतानुसार- ये जीव को अणु और प्रत्येक शरीर में भिन्न भिन्न मानते हैं। इसी मत की पुष्टि सांख्य दर्शन से भी होती है।

आचार्य मध्व  जी के  मतानुसार- ये जीव और ब्रह्म में नित्य भेद मानते हैं। सेवक, अल्पज्ञ, परमात्मा के अधीन जीव हैं।

आचार्य वल्लभ जी के  मतानुसार- अणु व ब्रह्म का अंश है शरीर में व्यापक नहीं अपितु हृदय में रहता है

महर्षि दयानन्द  जी के  मतानुसार-  महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश के सातवें समुल्लास में कहा है कि जीवात्मा नित्य और अनादि है। ईश्वर और जीवात्मा दोनों नितान्त भिन्न हैं। यह कार्य करने में स्वतन्त्र व व्यवस्था में परतन्त्र है। यह नित्य व चेतन है अणु है। अल्पज्ञ, कर्म का कर्ता व भोक्ता है।

पुरुष के विषय में सांख्य दर्शन का कथन है- कि पुरुष अनेक है अतः पुरुषबहुत्ववाद की पुष्टि होती है। वास्तव में पुरुष को आत्मा कहा गया है। इसी आधार पर सांख्यदर्शन में कहा गया है कि पुरुष अनेक है क्योंकि प्रतिदिन की दिनचर्या में कोई जन्म लेता है, कोई मृत्यु को प्राप्त होता है, कोई सोता है तो कोई जागता है आदि अनेक गतिविधियों के एक साथ प्रवृत्ति को देख कर अनुमान किया जा सकता है कि पुरुष बहुत अर्थात अनेक हैं क्योंकि यदि पुरुष को केवल एक मान लिया जाए तो विसंगति होगी कि यदि एक सोता है तो सब सोएं। एक जन्म ले तो सभी जन्म ले, एक मृत्यु को प्राप्त होता है तो सभी मृत्यु को प्राप्त होवें, परन्तु ऐसा नहीं होता। अतः पुरुष बहुत्ववाद की सिद्धि होती है।

आत्मा के अस्तित्व के विषय में आस्तिक और नास्तिक दोनों ही दर्शन उदासीन हैं। अहं की अनुभूति सभी को होती है। ऐसी अनुभूति किसी को नहीं होती कि मैं नहीं हूँ। किन्तु आत्मा के अस्तित्व एवं स्वरूप विषयक जितने भी मत प्रचलित हैं, उनका संकलन वेदान्तसार नामक ग्रन्थ में प्राप्त होता है। जिसका संक्षिप्त विवरण निम्नवत् है-
चार्वाक सिद्धान्त के पोषक पुत्र को आत्मा कहते हैं और अपने मत की पुष्टि में 'आत्मा वै जायते पुत्र” इस वाक्य को उद्धृत करते हैं। वे इसका हेतु देते हैं कि पुत्र का सुख दुःख पिता को साक्षात अनुभूत होता है। पुत्र के सुखी होने पर सुखी और दुःखी होने पर दुःखी पिता पुत्र को आत्मत्वेन ही स्वीकार करता है। अति प्राडडतस्तु “आत्मा वै जायते पुत्रः'पुत्र आत्मेति वदति। वेदान्तसार पृ. 182
कुछ अन्य नास्तिक लोग अन्न से परिपुष्ट होने वाले देह को आत्मा कहते हैं तथा अपने कथन को सिद्ध करने के लिये कहते हैं कि जब घर में आग लग जाती है तो मनुष्य पुत्र, पत्नी आदि सभी को छोड़ कर निज देह को बचाने का प्रयास करता है। निजदेह सभी को प्रिय है। अतः देह ही आत्मा है
कुछ लोगों का मानना है कि इन्द्रियां ही आत्मा है। उनका तर्क है कि इन्द्रियों के अभाव में शरीर चल नहीं सकता। मैं काणा हूँ, बहरा हूँ इत्यादि अनुभूति इन्द्रियों को आत्मा सिद्ध करती है
दूसरे चार्वाक इन्द्रियों से ऊपर प्राणों को महत्व देते हुए कहते है कि प्राण के बिना इन्द्रियाँ भी असमर्थ हैं। जब तक प्राण रहते हैं, तभी तक इन्द्रियाँ देखना, सुनना आदि कार्य कर पाती हैं। प्राण के व्याकुल हो जाने पर इन्द्रियाँ भी व्याकुल हो जाती हैं। अतः प्राण ही आत्मा है।

कुछ दार्शनिक कहते हैं कि आत्मा मन को ही कहना उचित है, क्योंकि 'अन्योन्तरात्मा मनोमयः यह श्रुतिप्रमाण है। सुषुप्ति अवस्था में जब मन भी सो जाता है तो प्राणादि की गति भी रुक जाती है। मैं संकल्प करता हूँ, विकल्प करता हूँ, इस अनुभूति में जो संकल्प विकल्प का कर्ता है, वही मन आत्मा है।

प्रभाकर मीमांसक का मत है- कि अज्ञान ही आत्मा है। उनका तर्क है कि सुषुप्ति में इन्द्रिया, प्राण, मन और विज्ञान सभी अज्ञान में लीन हो जाते हैं। जागने पर “मैं सुखपूर्वक सोया, मैंने कुछ नहीं जाना' यह अनुभूति होती है। यह अनुभूति अज्ञान को आत्मा सिद्ध करती है।

शून्यात्मवाद भी एक अहं सिद्धान्त है जिसके अनुसार शून्य तत्व को आत्मा कहा गया है। शून्य का अर्थ है चतुष्कोटि, विनिर्मुक्त, अनिवर्चनीय तत्व शून्यवादी भी सुषुप्ति को दृष्टान्त के रूप में प्रस्तुत करते हैं। वे कहते हैं कि “मैं आज नहीं था।' यह अनुभूति सुषुप्ति काल से जागने पर होती है। यह “न होना' ही शून्य है। इसलिए शून्य ही आत्मा है। 

प्रकृति की अवधारणा-

सांख्य शास्त्र के विविध कार्यों से उनके मूल कारण प्रकृति का अनुमान होता है। सांख्य शास्त्र में 25 तत्वों की मान्यता प्राप्त होती है। जिनकी मूल प्रकृति है, जिसका विशेषणपद प्रधान भी है। उत्पन्न करने वाले को प्रकृति, उत्पन्न होने वाले को विकृति कहा जाता है। अतः प्रकृति सबको उत्पन्न करती है लेकिन किसी से उत्पन्न नहीं होती। महत् आदि (महत्, अहंकार तथा पंचतन्मात्राएं) ये सात प्रकृति से उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न भी करते है अतः इनको प्रकृति-विकृति दोनों माना जाता है। सोलह (पंच कर्मेन्द्रियां, पंच ज़ानेन्द्रियां, पंच महाभूत तथा मन) का समूह केवल उत्पन्न होता है। पुरुष न तो किसी से उत्पन्न होता है, न॑ किसी को उत्पन्न करता है।

इन पच्चीस तत्वों को प्रकृति, विकृति, प्रकृतिविकृति, तथा न प्रकृति न॑ विकृति के भेद से चार भागों में बांटा जाता है।
मूलप्रकृति ही प्रधान है। क्योंकि वह प्रकृति के विकारभूत सातों पदार्थों की मूलभूत कारणरूप है, वह मूल भी है और प्रकृति भी है। अतः मूल प्रकृति कहा है। किसी अन्य से उत्पन्न नहीं होती, इसलिए प्रकृति किसी का विकार नहीं है। प्रकृति को अव्यक्त भी कहा जाता है। वैसे तो अव्यक्त को मानने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए परन्तु किसी विद्यमान वस्तु की अनुपलब्धि के आठ कारण हैं- अत्यन्त दूर होने से, अत्यन्त समीप होने से, इन्द्रियों के नष्ट हो जाने से, मन की अस्थिरता से, सूक्ष्म होने से, किसी वस्तु का व्यवधान होने से, किसी उत्कट द्वारा अभिभूत होने से, अपने सद्दश पदार्थ में मिल जाने से, अतः उक्त हेतुओं से विद्यमान वस्तु की भी उपलब्धि नहीं होती। प्रकृति भी विद्यमान पदार्थ होते हुए अतिसूक्ष्म होने के कारण अनुपलब्ध है। परन्तु उसके स्थूल कार्यों को देख कर उसका अनुमान किया जाता है। 

योगदर्शन सांख्य के सभी सिद्धान्तों को स्वीकार करता है। प्रकृति का स्वरूप उसकी विकृति के स्वरूप वाला भी है तथा उससे भिन्न भी है। अर्थात यदि समानता के पक्ष में विचार किया जाए तो ज्ञात होता है कि सभी व्यक्त कार्य त्रिगुणात्मक हैं। उनमें सत्व, रज और तम गुण पाये जाते हैं। ठीक उसी प्रकार प्रकृति में भी सत्व, रज तथा तम की उपस्थिति कही गई है। इसीलिए प्रकृति का लक्षण इस प्रकार कहा गया है-  

“सत्वरजस्तमसाभ्यां साम्यावस्था प्रकृति:“

दूसरा विशेषण अविवेकी है अर्थात् जिसका कोई विवेक नहीं होता। आशय यह है कि ये गुण हैं और यह अव्यक्त है। ऐसा पृथक् विवेचन नहीं किया जा सकता। जैसे यह गाय है और यह घोड़ा है। जो व्यक्त है, वे ही गुण हैं, जो गुण हैं, वही व्यक्त हैं। इस प्रकार का भेद करने का विवेक प्रकृति में नहीं है, इसलिए इसे अविवेकी कहा जाता है।

तीसरा इस प्रकृति को विषय कहा गया है। विषय का अर्थ है सबके द्वारा उपभोग के योग्य, क्योंकि यह समस्त व्यक्तियों का विषयभूत है।

चौथा विशेषण प्रकृति का यह है कि वह सामान्य है। जैसे पैसे से कोई भी सुविधा सबको प्राप्त होकर सामान्य हो जाती है। ठीक उसी प्रकार यह भी सर्वसाधारण के लिए उपभोग्य है।

पांचवा विशेषण प्रकृति का अचेतन है। कहने का तात्पर्य है कि प्रकृति जड़ है। सुख, दुःख और मोह को प्रकाशित नहीं कर सकती। प्रकृति प्रसवधर्मी है अर्थात उत्पन्न करने के स्वभाववाली है, जैसे प्रकृति से बुद्धि, बुद्धि से अहंकार आदि की उत्पत्ति होती है, अहंकार से 11 इन्द्रियां और 5 तन्मात्राएं उत्पन्न होती है। तन्मात्राओं से 5 महाभूत आकाशादि उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार प्रसवधर्मी पर्यन्त व्यक्त के धर्म कहे गये हैं, ऐसे ही इन धर्मों से भी है।

जब व्यक्त से विरुद्ध धर्मों के विषय में चिन्तन किया जाता है तो ज्ञात होता है कि अव्यक्त अर्थात प्रकृति अहेतुमत्, नित्य, व्यापि, निष्क्रिय, एक, अनाश्रित, निरवयव तथा स्वतन्त्र है। अर्थात व्यक्त हेतुमत हैं, और प्रकृति से अन्यत्र कोई नहीं है जिससे उसकी उत्पत्ति मानी जाये, इसलिये प्रकृति अहेतुमत है। व्यक्त उत्पत्तिमान होने से अनित्य हैं, किन्तु अव्यक्त प्रकृति अहेतुमत होने से नित्य है। क्योंकि भूतादि की तरह वह किसी से उत्पन्न नहीं होती। व्यक्त अव्यापी हैं किन्तु अव्यक्त प्रकृति व्यापी है, क्योंकि वह सर्वगत है। व्यक्त सक्रिय है, क्रियाशील हैं, किन्तु अव्यक्त अक्रिय है क्योंकि वह सर्वगत होने से ही उसकी क्रियाशीलता की आवश्यकता नहीं है। तथा व्यक्त अनेक अर्थात 23 है किन्तु अव्यक्त कारण होने से एक ही है। तीनों लोकों का कारणभूत प्रधान है। इसलिये वह एक है। व्यक्त आश्रित रहता है किन्तु अव्यक्त किसी के आश्रित नहीं रहता क्योंकि वह किसी का भी कार्य नहीं है। प्रधान से दूसरा कोई ऐसा है ही नहीं जिसका कार्य प्रधान को माना जा सके। तथा व्यक्त लिंग है किन्तु अव्यक्त अलिंग है। प्रलय काल में व्यक्तादि अपने कारणों में लीन हो जाते हैं, परन्तु प्रधान का लय नहीं होता, क्योंकि उसका कोई कारण नहीं है। व्यक्त सावयव हैं तथा अव्यक्त प्रकृति निरवयव है शब्द स्पर्श, रूप, रस, गन्ध ये अवयव प्रधान में नहीं होते हैं। व्यक्त परतन्त्र होता है, किन्तु अव्यक्त स्वतन्त्र है किसी के अधीन नहीं रहता, स्वयं अपने में समर्थ होता है।

इस प्रकार के गुण, लक्षणों से युक्त प्रकृति, पुरुष के समक्ष अपने को ठीक उसी प्रकार प्रस्तुत करती है तथा निवृत्त हो जाती है जैसे कोई नर्तकी रंगमंच पर अपना नाच दिखाकर अपना कार्य समाप्त कर उस द्रष्टा के प्रति नृत्य से निवृत्त हो जाती है। प्रकृति भी पुरुष के लिए भोग उपलब्ध कराती रहती है। जब वह मोक्ष उपलब्ध करा देता है तो सदा के लिए निवृत्त होकर उसके लिए कृतकार्य होकर अपने मूल कारण में लीन हो जाती है। उसका प्रयोजन 'मोक्ष' प्रदान करना पूरा हो जाता है।

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