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कैवल्य का स्वरूप

 कैवल्य की अवधारणा-

भारतीय दर्शन की समस्त शाखाओं में दुःखों की निवृत्ति और परमानन्द प्राप्ति को मोक्ष कहा गया है। योगदर्शन में महर्षि पतंजलि ने इसी मोक्ष को स्वरूपावस्थान या कैवल्य कहा हैबौद्धों के मत में यही मोक्ष 'निर्वाण” पद से जाना  जाता है। जैन इसी मोक्ष को 'आर्हती दशा' कहते हैंन्याय दर्शन मे “अपवर्ग“वैशेषिक दर्शन ने मोक्ष को “नि:श्रेयस' कहा है। सांख्य दर्शन इसी कैवल्य (मोक्ष) को 'सत्वपुरुषान्यताख्याति' या 'प्रकृतिवियोग” के नाम से कहता हैं। मीमांसक 'प्रपंचसम्बन्धविलय' कहते हैं तो वेदान्त में इसी का नाम 'ब्रह्मपदावाप्ति' है।

जन्मजन्मान्तरों के संस्कारों के फलस्वरूप सुख दुःखादि का भोग करते हुए आत्मा को कष्ट की अनुभूति होती है। इसी कष्ट से मुक्ति प्राप्त करना उसका उद्देश्य है।

चार्वाक दर्शन ने मोक्ष की सत्ता और उपयोगिता को स्वीकार किया है। उनके अनुसार देह ही आत्मा है। अतः देह का विनाश ही मोक्ष है। यह मोक्ष शाश्वत है क्योंकि पुनर्जन्म की प्राप्ति नहीं होती। चार्वाक दर्शन में कहा गया है-

यावज्जीवेत्सुखं जीवत्‌ ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत। 

भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।। (सर्वदर्शनसंग्रह पृ. -24)

बौद्ध दार्शनिक त्रिविध दुःख स्वीकार करते हैं दुःख दुःखता, संस्कार दुःखता व परिणाम दुःखता। इन त्रिविध दुःखों से सम्पूर्ण मुक्ति ही मोक्ष या निर्वाण है। यह निर्वाण निषेधात्मक है, विध्यात्मक नही। जैसे दीपक का निर्वाण निषेधात्मक होता है। विशेषतः शून्यवादियों की यही मान्यता है- माध्यमिका वृत्ति (चन्द्रकीर्ति) यह निर्वाण प्रह्मण, प्राप्ति, उच्छेद, निषेध और उत्पत्ति से रहित माना गया है। क्योंकि अभावरूप है और सब कुछ क्षणिक है।


न्यायदर्शन में मोक्ष को अपवर्ग कहा गया है। यह अपवर्ग दुःखों का अत्यन्त अभाव रूप है

सा आत्यन्तिकी दुःखनिवृत्तिरपवर्ग: (सर्वदर्शनसंग्रह पृ. -491)

तदत्यन्तविमोक्षोऽपवर्ग: (न्यायसूत्र 1/1/22)

दुःखों का प्रधान कारण जन्म है। जन्म सकाम कर्मों में प्रवृत्ति से होता है। प्रवृत्ति दोषवशात् होती है और दोषों का कारण है मिथ्याज्ञान। प्रमाणादि षोडश पदार्थों के तत्वज्ञान से मिथ्याज्ञान की निवृत्ति होकर मोक्ष का अधिगम होता है।

वैशेषिक दर्शन में भी कैवल्य का स्वरूप न्याय के समान ही माना गया है। दोनों ही समान तन्त्र कहे जाते हैं। यहाँ कैवल्य मोक्ष को परम पुरुषार्थ कहा गया है तथा उसकी शास्त्रीय संज्ञा “निःश्रेयस' दी गई है 

दुःखात्यन्तोच्छेदापरपर्यायनि:श्रयेसरूपत्वेन परमपुरुषार्थत्वात्  - (सर्वदर्शनसंग्रह पृ.- 447) 

यह भी दुःखों का अभाव रूप है। जैसे अग्नि ईंधन को जलाकर शान्त हो जाती है, कुछ भी शेष नहीं रहता। इसी प्रकार दुःखो का नाश हो जाना कैवल्य है। कैवल्य में सुख नहीं होता।

मीमांसा के अनुसार जीवात्मा के साथ जगत् प्रेम के सम्बन्ध के विलय को मोक्ष कहा जाता है। मीमांसा जीव और जगत दोनों को नित्य मानता हैं। जगत् का प्रलय यहाँ अमान्य है। अतः जगत का विलय तो हो नहीं सकता। केवल प्रपंच के साथ जीव के सम्बन्ध का लय होता है- 

प्रपंचसम्बन्धविलयो मोक्षः  (मीमांसादर्शन;शास्त्रदीपिका, पृ.-358)


आचार्य रामानुज ने भगवान् श्रीहरि के दासत्व की प्राप्ति को ही कैवल्य कहा है। कैवल्य अवस्था में जीवात्मा भगवान का किंकर बनकर वैकुण्ठ में भगवान के चरणों में निवास करता है 

श्रीवैकुण्ठमुपेत्य नित्यमजड़ं तस्मिन् परब्रह्मण:। 

सायुज्यं समवाप्य नन्दति समं तेनैवधन्यः पुमान।

वह ब्रह्म के साथ मिलकर अभिन्न नहीं हो जाता। वह सदा ब्रह्म से पृथक ही रहता है। मोक्ष दशा में विशेष आनन्द कैवल्य का फल है। जीव स्वरूप से नित्य है। ध्रुवानुस्मृति रूप भक्ति ही मोक्ष का साधन है।

आचार्य निम्बार्क के मत में मुक्ति (कैवल्य) का अर्थ ब्रह्मलोक की प्राप्ति है। मुक्ति का एकमात्र साधन भक्ति है। भक्ति का अर्थ है शरणागति या परा- प्रपत्ति। परा प्रपप्ति में भगवान की अनुकूलता का संकल्प लेना, प्रतिकूलता का वर्जन करना, “भगवान ही रक्षा करेंगे' ऐसा विश्वास करना तथा ईश्वर के रक्षकत्व रूप महिमा का वर्णन किया जाता है। भगवान भक्त के कार्पण्य भाव से प्रसन्न होते हैं। प्रसन्न हुए भगवान भक्त को स्वकीय धाम प्रदान करते हैं।

स्वामी दयानन्द दुःखों से मुक्त होने को कैवल्य कहते हैं -जिसका दूसरा नाम मुक्ति भी है

“मु चन्ति पृथग्भवन्ति जनाः यस्यां सा मुक्ति:“ (सत्यार्थ प्रकाश नवम समुल्लास )

मुक्ति की यही सीधी सी परिभाषा है। यह जीवनकाल में भी हो सकती है और मृत्यु काल के बाद भी। जैसे लोक में मनुष्य औषधि आदि का सेवन करके कुछ काल तक रोगों से मुक्त रहता है, वैसे ही उपासना, सत्कर्म आदि के अनुष्ठान से जन्म मरण के चक्र का कुछ कालपर्यन्त निरुद्ध हो जाना मोक्ष है। वे मुक्ति का एक सीमित काल मानते हैं, आत्यन्तिक मुक्ति नहीं। आत्यन्तिक शब्द का वे अत्यधिक अर्थ करते हैं (सत्यार्थ प्रकाश )। महर्षि का कथन है कि अल्पज्ञ और अल्पशक्ति युक्त जीवात्मा का इतना सामर्थ्य नहीं हो सकता कि वह त्रिविध दुःखों से शाश्वत मुक्ति प्राप्त कर सके।
स्वामी दयानन्द जी के अनुसार ”परमेश्वर की आज्ञा पालने, अधर्म, अविद्या, कुसंग, कुसंस्कार, बुरे व्यसनों से अलग रहने और सत्य भाषण, परोपकार, विद्या, पक्षपातरहित न्याय, धर्म की वृद्धि करने, पूर्वोक्त प्रकार से परमेश्वर की स्तुति, पुरुषार्थ और उपासना अर्थात योगाभ्यास करने, विद्या पढ़ने, पढ़ाने और धर्म से पुरुषार्थ कर ज्ञान की उन्नति करने, सबसे उत्तम साधनों को करने और जो कुछ करें, वह सब पक्षपातरहित न्याय धर्मानुसार ही करें। इत्यादि साधनों से मुक्ति और इनसे विपरीत ईश्वर आज्ञा भंग करने आदि काम से बन्धन होता है। (सत्यार्थ प्रकाश) । इसके अतिरिक्त कैवल्य की प्राप्ति के लिए साधनचतुष्टय, अनुबन्ध चतुष्टय, श्रवणचतुष्टय, मैत्री करूणा आदि भावनाचतुष्टय को मुक्ति का साधन स्वीकार किया है।

सांख्य दर्शन के मतानुसार प्रकृति और पुरुष का संयोग ही बन्धन है, जिसे संसार कहा जाता है। तत्वज्ञान से इन दोनों का वियुक्त हो जाना ही मोक्ष है

पुंप्रकृत्योर्वियोगोऽपि योग इत्यभिधीयते।

पुरुष और प्रकृति का संयोग अंधे व लंगड़े के समान है। इस मत के अनुसार बन्धन व मोक्ष प्रकृति का ही होता है, पुरुष में तो उसका उपचार ही होता है। प्रकृति कार्य महत्व के आठ धर्म हैं धर्म-अधर्म, ज्ञान-अज्ञान, वैराग्य-अवैराग्य तथा ऐश्वर्य -नैश्वर्य। इनमें से सात रूपों से तो प्रकृति पुरुष को बाँधती और एक रूप से अर्थात ज्ञान से छोड़ती है

रुपैः सप्भिरेव तु बध्नात्यात्मानमात्मना प्रकृति:। 

सैव च पुरुषार्थ प्रति विमोचयत्येकरूपेण।।  (सां.का.63)

योगदर्शन के अनुसार आत्मा का स्वरूप में अवस्थान ही कैवल्य कहलाता है तथा मोक्ष की शास्त्रीय संज्ञा ही कैवल्य है। मोक्षावस्था में जीवात्मा निजस्वरूप में अवस्थित होता है, यह स्वरूपावस्थान ही कैवल्य है

तदा द्रष्ट: स्वरूपेऽवस्थानम्   (योगसूत्र 1/3)

शान्त, घोर तथा मूढधर्मों से रहित निर्विषय चैतन्यमात्र ही पुरुष का स्वरूप है। जैसे धूल मिट्टी के हट जाने पर स्फटिक मणि या दर्पण अपने स्वच्छ शुद्ध स्वरूप में अवस्थित होता है, वैसे ही वृत्ति के हट जाने पर वृत्तियों के प्रतिबिम्ब से रहित पुरुष अपने स्वरूप में अवस्थित हो जाता है।

प्रकृति और चित्त त्रिगुणात्मक हैं। त्रिगुणात्मक प्रकृति के दो ही प्रयोजन हैं. पुरुष के लिए भोग व अपवर्ग देना। जब दोनों प्रयोजन पूर्ण हो जाते हैं, तो वह निवृत्त हो जाती है। त्रिगुणात्मक होने से शान्त, घोर तथा मूढरूप है। उसके साथ पुरुष को तादात्म्य का अभिमान होने से पुरुष में भी औपाधिक शान्त, घोर और मूढरूप धर्म भासने लगते हैं। जब वृत्तिसहित चित्त अपने कारणरूप प्रकृति में लीन हो जाता है तो पुरुष में जो शान्त, घोरादि धर्म भासते थे, वे नहीं भासते। पुरुष का यह स्वरूप में अवस्थित होना ही कैवल्य की दशा कहलाती है। तत्वज्ञान चित्तवृत्तिनिरोध रूप योग से साध्य है। यह योग अभ्यास और वैराग्य रूप है। क्रियायोग, अष्टांगयोग और ईश्वर प्रणिधानरूप भक्तियोग भी कैवल्य प्राप्ति के अन्य साधन हैं। 

बन्धन और मोक्ष

योगदर्शन के अनुसार प्रकृति और पुरुष का संयोग ही बन्धन है और इन दोनों का वियोग ही मोक्ष है। प्रकृति और पुरुष का संयोग अनादि है। यह संयोग अविद्या के कारण होता है। जब विवेकज्ञान से अविद्या का अभाव हो जाता है। तो प्रकृति और पुरुष के संयोग का भी अभाव हो जाता है। यही मोक्ष या कैवल्य है।

प्रकृति के दो प्रयोजन हैं भोग और मोक्ष। बुद्धि से प्रकृति सर्वप्रथम पुरुष के लिये भोग प्रदान करती है और पुनः मोक्ष प्रदान करती है। जब उसके ये दोनों प्रयोजन सिद्ध हो जाते हैं तो प्रकृति पुरुष का साथ छोड़ देती है। चित्त भी अपने कारण रूप प्रकृति में लीन हो जाता है। योगसूत्रकार महर्षि पतंजलि ने कहा है-

पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तेरिति।। (योगसूत्र 4/34)

अर्थात बुद्धि आदि के रूप में परिणत गुणों का जब भोग और अपवर्ग रूप प्रयोजन सिद्ध हो जाता है तो वे अपने अपने कारणों में लीन हो जाते हैं। यह प्रकृति का कैवल्य है। चितिशक्ति पुरुष वृत्तिसारूप्य की निवृत्ति होने पर स्वरूप में अवस्थित हो जाता है। यह पुरुष का कैवल्य है।
इस प्रकार कैवल्य दो प्रकार का हुआ गुणों का प्रकृति में लय होना और पुरुष का स्वरूप में अवस्थित होना। प्रथम मोक्ष प्रकृति को होता है और दूसरा मोक्ष पुरुष को होता है। प्रकृति पुरुषार्थ से मुक्त हो गयी और पुरुष गुणों से मुक्त हुआ। चितिशक्ति रूप पुरुष का सर्वदा उसी प्रकार से अवस्थित रहना ही पुरुष का कैवल्य है।

कैवल्य के भेद-

कैवल्य या मुक्ति दो प्रकार की है जीवन- मुक्ति तथा विदेह-मुक्ति या आत्यन्तिक मुक्ति। जीवनकाल में तत्वज्ञान होने पर पुरुष का जो स्वरूपावस्थान होता है, वह जीवन-मुक्ति है और मृत्यु के पश्चात देहपात होने पर विदेहमुक्ति होती है। तत्वज्ञान होने पर भी आयु के शेष रहते हुए शरीर संस्कारवश चलता रहता है वह काल जीवन- मुक्तिकाल कहलाता है। उस काल में योगी जो कर्म करता है, वे कर्म न तो शुक्ल होते हैं और न कृष्ण। क्योंकि उन कर्मों से संस्कार नहीं बनते। संस्कार उन्हीं कर्मों से बनते हैं जिनके साथ मन का सम्बन्ध होता है। योगी के कर्म मन से नहीं किये जाते, वे तो पूर्व अभ्यास के कारण स्वचालित यन्त्र के समान स्वयंमेव होते रहते हैं। जैसे कुम्भकार का चक्र दण्ड हटा लेने पर भी पूर्वगति के संस्कार के कारण कुछ देर तक चलता रहता है। गति का संस्कार समाप्त होते ही चक्र स्वयंमेव रुक जाता है। जीवन-मुक्त पुरुष की भी यही दशा है। वह भी पूर्व संस्कारवश देह से जीवित रहता है। आयु समाप्त होते ही वह विदेहमुक्त हो जाता है। और वह फिर जन्म-मरण के चक्ररूप इस संसार में फिर नहीं आता।

कैवल्य प्राप्ति के उपाय-

मोक्ष (कैवल्य) प्राप्ति के उपाय हेतु उपनिषदों में ज्ञान, कर्म और उपासना तीनों साधनों के साथ साथ योग को स्वीकार किया गया है। इन्हीं में से वेदान्तियों ने मात्र ज्ञान को, वैष्णवाचार्यों ने भक्ति को, मीमांसकों ने कर्म को तथा योगियों ने योग का चयन किया है।

उपनिषदों में केवल ज्ञान या केवल कर्म को मोक्ष के साधन के रूप में स्वीकार नहीं माना है, इसके अनेक प्रमाण उपनिषदों में प्राप्त होते हैं कर्मानुष्ठान द्वारा मृत्यु को पार करके ज्ञानानुष्ठान द्वारा मोक्ष की प्राप्ति मानी गई है। प्रणव उपासना व तप को भी साधन रूप में स्वीकार किया है। अन्यत्र शरणागति रूप भक्ति को मोक्ष का उपाय स्वीकार किया गया है। इस प्रकार ज्ञान, कर्म और भक्ति को कैवल्य का साधन स्वीकार किया गया है। केवल ज्ञान अथवा केवल कर्म अथवा उपासना ही इसके लिए पर्याप्त नहीं हैं। योगतत्व को मोक्षोपाय स्वीकार करके उपनिषदों में यहाँ तक कहा है कि योगाग्निमय शरीर वाले साधक को जन्म, मृत्यु और जरा नहीं सताते-

न तस्य रोगो न जरा न मृत्यु प्राप्तस्य यौगाग्निमयं शरीरम्  (श्वेताश्वतरोपनिषद् 2/12)

अतः योग द्वारा अमरत्व प्राप्ति सम्भव है। योग की अन्तिम अवस्था समाधि है। इसके उपरान्त साधक अविद्या आदि पंचक्लेशों से छूटकर संस्कारों को दग्धबीज कर देता है। जिससे संस्कार शेष नहीं रहते और जन्म आयु रूपी फल प्रदान करने में असमर्थ हो जाते हैं। इस प्रकार योग साधना द्वारा साधक जन्म-मरण के बन्धन से छूटकर आनन्द प्राप्त कर लेता है। योगाभ्यासी साधक अष्टांगयोग, क्रियायोग, अभ्यास और वैराग्य के द्वारा उस कैवल्यावस्था को प्राप्त कर लेता है, जहाँ जाकर उसे परमसुख की उपलब्धि होती है। उसे कल्पान्त तक मोक्षानन्द भोग का सामर्थ्य प्राप्त हो जाता है।

असम्प्रज्ञातसमाधि मे प्राप्त सत्वपुरुषान्यताख्यातिरूप विवेकज्ञान ही कैवल्य का एकमात्र उपाय है। यद्यपि अविद्या की निवृत्ति ही मोक्ष का हेतु है किन्तु अविद्या की निवृत्ति विवेकज्ञान द्वारा होती है। अतः विवेकज्ञान ही कैवल्य का उपाय है। महर्षि पतंजलि ने कहा है-

विवेकख्यातिरविप्लवा हानोपायः। (योगसूत्र 2/26)

अर्थात मिथ्याज्ञान रूप विप्लव से रहित विवेकख्याति ही अविद्या की निवृत्ति का तथा कैवल्य का हेतु है। शास्त्रजन्य ज्ञान से अविद्या की निवृत्ति नही होती क्योंकि वह परोक्ष ज्ञान है। विवेकख्याति अपरोक्ष ज्ञान है। इसी से अविद्या की निवृत्ति होती है। इस अवस्था को उपनिषद में कहा गया है कि सत्व, रज और तम रूप त्रिगुणात्मक प्रकृति अजन्मा है। यह त्रिगुणात्मक प्रजाओं को उत्पन्न करती है। उस प्रकृति को एक अजन्मा बद्धपुरुष तो भोगता हुआ अनुताप करता है और दूसरा अजन्मा मुक्तपुरुष भोग ओर मोक्ष देकर कृतकार्य हुई प्रकृति को छोड़ देता है।

योग की परिभाषा


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  ज्ञान व विज्ञान की धारायें वेदों में व्याप्त है । वेद का अर्थ ज्ञान के रूप मे लेते है ‘ज्ञान’ अर्थात जिससे व्यष्टि व समष्टि के वास्तविक स्वरूप का बोध होता है। ज्ञान, विद् धातु से व्युत्पन्न शब्द है जिसका अर्थ किसी भी विषय, पदार्थ आदि को जानना या अनुभव करना होता है। ज्ञान की विशेषता व महत्त्व के विषय में बतलाते हुए कहा गया है "ज्ञानाग्नि सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा" अर्थात जिस प्रकार प्रज्वलित अग्नि ईंधन को जलाकर भस्म कर देती है उसी प्रकार ज्ञान रुपी अग्नि कर्म रूपी ईंधन को भस्म कर देती है। ज्ञानयोग साधना पद्धति, ज्ञान पर आधारित होती है इसीलिए इसको ज्ञानयोग की संज्ञा दी गयी है। ज्ञानयोग पद्धति मे योग का बौद्धिक और दार्शनिक पक्ष समाहित होता है। ज्ञानयोग 'ब्रहासत्यं जगतमिथ्या' के सिद्धान्त के आधार पर संसार में रह कर भी अपने ब्रह्मभाव को जानने का प्रयास करने की विधि है। जब साधक स्वयं को ईश्वर (ब्रहा) के रूप ने जान लेता है 'अहं ब्रह्मास्मि’ का बोध होते ही वह बंधनमुक्त हो जाता है। उपनिषद मुख्यतया इसी ज्ञान का स्रोत हैं। ज्ञानयोग साधना में अभीष्ट लक्ष्य को प्राप्त ...

घेरण्ड संहिता का सामान्य परिचय

  घेरण्ड संहिता महर्षि घेरण्ड और राजा चण्डिकापालि के संवाद रूप में रचित घेरण्ड संहिता महर्षि घेरण्ड की अनुपम कृति है। इस के योग को घटस्थ योग या सप्तांग योग भी कहा गया है। घेरण्ड संहिता के  सात अध्याय है तथा योग के सात अंगो की चर्चा की गई है जो घटशुद्धि के लिए आवश्यक हैं,  घेरण्ड संहिता में वर्णित योग को सप्तांगयोग भी कहा जाता है । शाोधनं दृढता चैव स्थैर्यं धैर्य च लाघवम्।  प्रत्यक्ष च निर्लिप्तं च घटस्य सप्तसाधनम् ।। घे.सं. 9 शोधन, दृढ़ता, स्थिरता, धीरता, लघुता, प्रत्यक्ष तथा निर्लिप्तता । इन सातों के लिए उयायरूप मे शरीर शोधन के सात साधनो को कहा गया है। षटकार्मणा शोधनं च आसनेन् भवेद्दृढम्।   मुद्रया स्थिरता चैव प्रत्याहारेण धीरता।।  प्राणायामाँल्लाघवं च ध्यानात्प्रत्क्षमात्मान:।   समाधिना निर्लिप्तिं च मुक्तिरेव न संशय।। घे.सं. 10-11   अर्थात् षटकर्मों से शरीर का शोधन, आसन से दृढ़ता. मुद्रा से स्थिरता, प्रत्याहार से धीरता, प्राणायाम से लाघवं (हल्कापन), ध्यान से आत्मसाक्षात्कार तथा समाधि से निर्लिप्तभाव प्राप्त करके मुक्ति अवश्य ही हो जाएगी, इसमे ...