Skip to main content

हठयोग का अर्थ , परिभाषा, उद्देश्य


 हठयोग का अर्थ

भारतीय चिन्तन में योग मोक्ष प्राप्ति का एक महत्वपूर्ण साधन रहा है, योग की विविध परम्पराओं (ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग, हठयोग) इत्यादि का अन्तिम लक्ष्य भी मोक्ष (समाधि) की प्राप्ति ही है। हठयोग के साधनों के माध्यम से वर्तमान में व्यक्ति स्वास्थ्य लाभ तो करता ही है पर इसके आध्यात्मिक लाभ भी निश्चित रूप से व्यक्ति को मिलते है। 

हठयोग- नाम से यह प्रतीत होता है कि यह क्रिया हठ- पूर्वक की जाने वाली है। परन्तु ऐसा नही है अगर हठयोग की क्रिया एक उचित मार्गदर्शन में की जाये तो साधक सहजतापूर्वक इसे कर सकता है। इसके विपरित अगर व्यक्ति बिना मार्गदर्शन के करता है तो इस साधना के विपरित परिणाम भी दिखते है। वास्तव में यह सच है कि हठयोग की क्रियाये कठिन कही जा सकती है जिसके लिए निरन्तरता और दृठता आवश्यक है प्रारम्भ में साधक हठयोग की क्रिया के अभ्यास को देखकर जल्दी करने को तैयार नहीं होता इसलिए एक सहनशील, परिश्रमी और तपस्वी व्यक्ति ही इस साधना को कर सकता है। 

संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ में हठयोग शब्द को दो अक्षरों में विभाजित किया है। 

1. ह -अर्थात हकार 

2. ठ -अर्थात ठकार

हकार - का अर्थ है सूर्य तथा ठकार का अर्थ चन्द्र से है। हकार अर्थात सूर्य तथा ठकार अर्थात चन्द्र इन दो नदियों का मिलन ही हठयोग है।

हठयोग की परिभाषा- 

सिद्ध सिद्धान्त संग्रह के अनुसार : 

हकार: कीर्तित: सूर्यष्ठकारश्चन्द्र उच्यते । 

सर्याचन्द्रमसोर्योगात हठयोगो निगयते ॥

अर्थात हकार (सूर्य) तथा ठकार (चन्द्र) नाडी के योग को हठयोग कहते है। 

योगशिखोपनिषद के अनुसार- योगशिखोपनिषद में भी हकार को सूर्य तथा ठकार को चन्द्र मानकर सूर्य और चन्द्र के संयोग को हठयोग कहा गया है। 

हकारेण तु सूर्य: स्यात सकारेणेन्दुरूच्यते। 

सूर्याचन्द्रमसोरैक्यं हढ इव्यमिधीयते ।। 

योगशिखोपनिषद में योग की परिभाषा देते हुए कहा है कि अपान व प्राण, रज व रेतस, सूर्य व चन्द्र तथा जीवात्मा व परमात्मा का मिलन योग है। यह परिभाषा भी हठयोग की सूर्य व चन्द्र के मिलन की स्थिति को प्रकट करती है

योऽपानप्राणयोरैक्यं स्वरजो रेतसोस्तथा।। 

सूर्याचन्द्रमसोयोंगो जीवात्मपरमात्मनोः। 

एवं तु द्वन्द्वजालस्य संयोगो योग उच्यते।।

ह (सूर्य) का अर्थ सूर्य स्वर, दायाँ स्वर, पिंगला स्वर अथवा यमुना तथा ठ (चन्द्र) का अर्थ चन्द्र स्वर, बाँया स्वर, इडा स्वर अथवा गंगा लिया जाता है। दोनों के संयोग से अग्निस्वर, मध्य स्वर, सुषुम्ना स्वर अथवा सरस्वती स्वर चलता है, जिसके कारण ब्रह्मनाड़ी में प्राण का संचरण होने लगता है। इसी ब्रह्मनाड़ी के निचले सिरे के पास कुण्डलिनी शक्ति सुप्तावस्था में स्थित है। जब साधक प्राणायाम करता है तो प्राण के आघात से सुप्त कुण्डलिनी जाग्रत होती है तथा ब्रह्मनाडी में गमन कर जाती है जिससे साधक में अनेकानेक विशिष्टताएँ आ जाती हैं। यह प्रक्रिया इस योग पद्धति में मुख्य है। इसलिए इसे हठयोग कहा गया है। 

यही पद्धति आज आसन, प्राणायाम, षटकर्म, मुद्रा आदि के अभ्यास के कारण सर्वाधिक लोकप्रिय हो रही है। महर्षि पतंजलि के मनोनिग्रह के साधन रूप में इस पद्गति का प्रयोग अनिवार्यतः उपयोगी बताया गया है। 

स्वामी स्वात्माराम जी के अनुसार-

हठयोग प्रदीपिका में स्वामी स्वात्माराम ने हठयोग को परिभाषित करते हुए कहा है कि हठपूर्वक मोक्ष का भेद हठयोग से किया जा सकता है।

उद्घाटयेत् कपा्ट तु तथा कुचिंकया हठात्। 

कुण्डलिन्या तथा योगी मोक्षद्वारं विभेदयेत् ।। (हठ प्रदीपिका- 3/101) 

अर्थात जिस प्रकार चाभी से हठात किवाड़ को खोलते है उसी प्रकार योगी कुण्डलिनी के द्वार (हठात्) मोक्ष द्वार का भेदन करते है।

हठयोग का उद्देश्य / हठयोग की उपयोगिता

हठयोग प्रदीपिका में स्वामी स्वात्माराम जी द्वारा यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि- 'केैवल राजयोगाय हठविद्योपदिश्यते' अर्थात् केवल राजयोग की साधना के लिए ही हठविद्या का उपदेश करता हूँ। हठप्रदीपिका में अन्यत्र भी कहा है कि आसन, प्राणायाम, मुद्राएँ आदि राजयोग की साधना तक पहुँचाने के साधन हैं-

पौठानि कुम्भकाचिञ्ञ दिव्यानि करणानि च। 

सर्वाण्यपि हठाभ्यासे राजयोग फलावचि:।। (हठ प्रदीपिका-1/67) 

यह हठयोग भवताप से तप्त लोगों के लिए आश्रयस्थल् के रूप में है तथा सभी योगाभ्यासियों के लिए आधार है।

अशेषतापतसानां समाश्रयमठे हठः । 

अशेषयोगयुक्तानामाधारकमठौ हठः ।। (हठ प्रदीपिका 1/10) 

इसका अभ्यास करने के पश्चात् अन्य योगप्रविधियों में सहज रूप से सफलता प्राप्त की जा सकती है। कहा गया है कि यह हठविद्या गोपनीय है और प्रकट करने पर डसकी शक्ति क्षीण हो जाती है। 

हठविद्यां परं गोप्या योगिनां सिद्धिमिच्छताम। 

भवेद् वीर्यवती गुप्ता निर्वीर्या तु प्रकाशिता ।। (हठ प्रदीपिका 1/11) 

इसलिए इस विद्या का अभ्यास एकान्त में करना चाहिए जिससे अधिकारी जिज़ासु तथा साधकों के अतिरिक्त सामान्य जन इसकी क्रियाविधि को देखकर स्वयं अभ्यास करके हानिग्रस्त न हों। साथ ही अनाधिकारी जन इसका उपहास न कर सकें। स्मरण रहे कि जिस काल में हठयोगप्रदीपिका की रचना हुई थी, वह काल योग के प्रचार प्रसार का नहीं था। तब साधक ही योगाभ्यास करते थे। सामान्यजन योगाभ्यास को केवल ईश्वरप्राप्ति के उद्देश्य से की जाने वाली साधना के रूप में जानते थे। आज स्थिति बदल गई है। योगाभ्यास जन-जन तक पहुँच गया है तथा प्रचार-प्रसार दिनों दिन प्रगति पर है। लोग इसकी महत्ता को समझ गए है तथा जीवन में ढालने के लिए प्रयत्नशील हो रहे हैं।

हठयोग के उद्देश्य के दृष्टिकोण से विचार करने पर हम देखते हैं कि 'राजयोग साधना की तैयारी के लिए तो हठयोग उपयोगी है ही', इस मुख्य उद्देश्य के साथ अन्य कुछ प्रमुख उद्देश्य भी कहे जा सकते है जैसे स्वास्थ्य का संरक्षण, रोग से मुक्ति, सुप्त चेतना की जागृति, व्यक्तित्व विकास, जीविकोपार्जन तथा आध्यात्मिक उन्नति आदि।
 

स्वास्थ्य का संरक्षण- शरीर स्वस्थ रहे। रोगग्रस्त न हो। इसके लिए भी हम हठयोग के अभ्यासों का आश्रय ले सकते हैं। 'षट्कर्मणा शोधनम', 'आसनेन भवेद दृठम', आदि कहकर षटकर्मों के द्वारा शरीर की शुद्धि करने पर दोषों के सम हो जाने से व्यक्ति सदा स्वस्थ बना रहता है। तथा आसनों के द्वारा मजबूत शरीर प्राप्त होता है  विभिन्न आसनों के अभ्यास से शरीर की मांसपेशियों को मजबूत बनाया जा सकता है तथा प्राणिक ऊर्जा संरक्षण से जीवनी शक्ति को बढ़ाया जा सकता है। शरीर में गति देने से सभी अंग प्रत्यंग चुस्त बने रहते हैं तथा शारीरिक कार्यक्षमता में वृद्धि होती है जिससे शरीर स्वस्थ रहता है। अत: हम कह सकते है कि स्वास्थ्य संरक्षण में हठयोग की महत्वपूर्ण भूमिका है।

रोग से मुक्ति-  हठयोग के अभ्यासों को अब रोग निवारण के लिए भी प्रयुक्त किया जा रहा है। कहा भी गया है-

“आसनेन रुजो हन्ति“। (घेरण्ड संहिता)

 'कुर्यात तदासनं स्थैर्यमारोग्यं चाइहगलाघवम'। (हठ प्रदीपिका- 1/17)

विभिन्न आसनों का शरीर के विभिन्न अंगों पर जो प्रभाव पड़ता है, उससे तत्सम्बन्धी रोग दूर होते हैं। जैसे मत्स्येन्द्रासन का प्रभाव पेट पर अत्यधिक पड़ता है तो उदरविकारों में लाभदायक है। जठराग्नि प्रदीप्त होने के कारण कब्ज, अपच, मन्दाग्नि आदि रोग दूर होते हैं

मत्स्येन्द्रपीठं जठरप्रदीप्तिं प्रचण्डरुग्मण्डलखण्डनास्त्रम् । 

अभ्यासतः कुण्डलिनी प्रबोधं चन्द्रस्थिरत्वं च ददाति पुंसाम् ।। (हठ प्रदीपिका-1/27)

इसी प्रकार षटकर्मों का प्रयोग करके रोगनिवारण किया जा सकता है। जैसे धौति के द्वारा कास, श्वास, प्लीहा सम्बन्धी रोग, कुष्ठ रोग, कफदोष आदि नष्ट होते है- 

कास श्वास प्लीहा कुष्ठ कफरोगाँश्व विंशतिः। 

चोतिकर्मप्रभावेन प्रयान्त्येव न संशयः।। (हठ प्रदीपिका-2/25) 

नेति के द्वारा दृष्टि तेज होती है, दिव्य (सूक्ष्म) दृष्टि प्रदान करती है और स्कन्ध प्रदेश से ऊपर होने वाले रोगसमूहों को शीघ्र नष्ट करती है।

कपालशोधिनी चैव दिव्यदृष्टिप्रदायिनी ।

जत्रूध्वजातरोगोघं नेतिराशु निहन्ति च ।। (हठ प्रदीपिका-2/31)

यद्यपि आधुनिक वैज्ञानिक युग में आयुर्विज्ञान की नई-नई वैज्ञानिक खोज हो रही है। फिर भी अनेक रोग जैसे- मानसिक तनाव, मधुमेह, प्रमेह, उच्च रक्तचाप, निम्न रक्तचाप, साइटिका, कमरदर्द, सर्वाइकल स्पोंडोलाइटिस, आमवात, मोटापा, अर्श आदि अनेक रोगों को दूर करने के लिये तथा रोग प्रतिरोधक क्षमता बढाने के लिये योगाभ्यास कराया जा रहा है।

सुप्त चेतना की जागृति- उचित मार्गदर्शन में हठयोग का अभ्यास करने से शरीर आसानी से वश में हो जाता हैं। जब शरीर स्थिर और मजबूत हो जाता है तो प्राणायाम द्वारा श्वास को नियंत्रित किया जा सकता है। प्राण नियंत्रित होने पर मूलाधार में स्थित शक्ति को ऊर्ध्वगामी कर सकते हैं। प्राण के नियंत्रण से मन भी नियंत्रित हो जाता है। अतः मनोनिग्रह तथा प्राण-अपान संयोग से कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होकर ब्रह्मनाड़ी में गति कर जाती है जिससे साधक को अनेक योग्यताए स्वतः प्रापत हो जाती हैं। अत: हम कह सकते है कि हठयोग के अभ्यास से सुप्त चेतना की जागृति होती है।

व्यक्तित्व विकास- साधक हठयोग के अभ्यासों को अपनाकर निज व्यक्तित्व का विकास करने में समर्थ होता है। उसमें मानवीय गुण स्वतः आ जाते हैं। शरीर गठीला, निरोग, चुस्त, कांतियुक्त तथा गुणों से पूर्ण होकर व्यक्तित्व का निर्माण होता है। ऐसे गुणों को धारण करके उसकी वाणी में मृदुता, आचरण में पवित्रता, व्यवहार में सादगी, स्नेह, आदि का समावेश साधक के व्यक्तित्व में हो जाता है।

जीविकोपार्जन-  आज देश ही नहीं, विदेशो में भी योगाभ्यास जीविकोपार्जन का एक सशक्त माध्यम बन गया है। देश में ही अनेक योग प्रशिक्षण केन्द्र, चिकित्सालय, विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय योग के प्रचार प्रसार में लगे हैं। रोगोपचार के लिए व्यक्तिगत रूप से लोग योग प्रशिक्षक को बुलाकर चिकित्सा ले रहे हैं तथा स्वास्थ्य संरक्षण हेतु प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे हैं। विदेशो में तो भारत से भी अधिक जागरूकता है। अतः जीविकोपार्जन के लिए भी हठयोग को अपनाया जा रहा है।

आध्यात्मिक उन्नति- कुछ लोग वास्तव में जिज्ञासु हैं जो योग द्वारा साधना में सफल होकर साक्षात्कार करना चाहते हैं। उनके लिए तो यह योग है ही। साधक साधना के लिए आसन प्राणायाम आदि का अभ्यास करके दृढता तथा स्थिरता प्राप्त करके ध्यान के लिए तैयार हो जाता है। ध्यान के अभ्यास से समाधि तथा साक्षात्कार की अवस्था तक पहुँचा जा सकता है। अतः आध्यात्मिक उन्नति हेतु भी हठयोग एक साधन है। गुह्य समाजतंत्र में कहा गया है कि यदि ज्ञानप्राप्ति (बोध) न हो तो हठयोग का अभ्यास करें-“यदा न सिद्धयते बोधिहठयोगेन साधयेत्“
अर्थात् पूर्व में बताई गई विधि से यदि बोधिप्राप्त न हो तो हठयोग का आश्रय लेना चाहिए। राजयोग साधना का आधार होने के कारण हठयोग को भी राजयोग के समकक्ष स्थान प्राप्त है। अत: हम कह सकते है कि आध्यात्मिक उन्नति का हठयोग महत्वपूर्ण सोपान है।

हठयोग प्रदीपिका का सामान्य परिचय

घेरण्ड संहिता का सामान्य परिचय

अष्टांग योग


Yoga Book for BA, MA, Phd

Yoga Book Hindi


Yoga Books for kids


Yoga Mat       Yoga suit      Yoga Bar

Comments