Skip to main content

स्वामी विवेकानन्द का जीवन परिचय

स्वामी विवेकानन्द का नाम भारतीय नवजागरण के आन्दोलनों के सूत्रधारों में प्रमुख रूप से लिया जाता है। उन्होंने केवल भारत ही नहीं बल्कि विदेशों तक भारतीय आध्यात्मिकता एवं संस्कृति का प्रचार प्रसार किया। उन्होंने अपने गुरु से आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कर इसे आध्यात्मिक साधना के माध्यम से धर्म जगत में एक नया रूप प्रदान किया। उन्होंने लोगों को संदेश दिया और बताया कि मनुष्य संसार में सबसे ऊपर का प्राणी है। स्वामी विवेकानन्द ने विश्व बन्धुत्व व मानव सेवा को जन जन तक पहुँचा इसे मुक्ति का मार्ग बताया। स्वामी विवेकानन्द ने परमहंस के उस सिद्धान्त को सर्वत्र प्रचारित किया जिसमें कहा गया है ”'सर्वधर्म समन्वय'”। वेद का प्रथम सूत्र है “नर नारायण की सेवा” । समाज की उन्नति और कल्याण के लिए सबसे अधिक आवश्यक है कि देशवासी मनुष्य बनें वे हमेशा यह प्रार्थना करते थे कि "हे ईश्वर! मेरे देश के निवासियों को मनुष्य बनाओ।


स्वामी विवेकानन्द के अनुसार ”शरीर और आत्मा मिलकर मनुष्य बनते हैं। शरीर तो आत्मा का मन्दिर है। सुन्दर मन्दिर में सुन्दर विग्रह के रहने पर 'सोने पर सुहागा' होता है।' इसलिए शरीर रूपी मन्दिर को स्वच्छ बनाओ। हमारे पूर्वज कह गये हैं “शरीरमायं खलु धर्म साधनम” देह मन्दिर और विग्रह आत्मा है। आत्मा ही ईश्वर है तथा आत्मा के प्रति अविश्वास का अर्थ नास्तिकता है।

जन्म एवं पारिवारिक परिचय- स्वामी विवेकानन्द का जन्म 12 जनवरी 1863 ई. को कलकत्ता में मुखर्जी परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम विश्वनाथ व माता का नाम भुवनेश्वरी था। इनके पिता एक स्वच्छन्द प्रवृत्ति के मालिक थे तथा माता सुशिक्षित तथा शालीनता सम्पन्न महिला थी। स्वामी विवेकानन्द के बचपन का नाम वीरेश्वर रखा गया था। परिवार के सभी लोग प्यार से इन्हें वीरे कहते थे। नामकरण के समय इनका नाम नरेन्द्र नाथ रखा गया था। नरेन्द्र बचपन से ही प्रतिभाशाली थे। वे एक अच्छे तैराक, कुशल अश्वारोही, कुशल पहलवान तथा संगीत के अच्छे जानकार थे।

बचपन से ही नरेन्द्र साधु संन्यासियों से काफी प्रभावित होते थे। शायद नरेन्द्र के पूर्व जन्म के संस्कार ही थे कि एक दिन खेल खेल में बालक नरेन्द्र शरीर पर राख लगाकर ध्यान की अवस्था में बैठ गये और वे ध्यान में इतना मग्न हो गये कि अन्य बच्चों के सांप देखकर चिल्लाने पर भी वह ध्यान से नहीं उठे। काफी देर बाद सांप के चले जाने पर परिवार के लोगों ने नरेन्द्र से सांप के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि मुझे कुछ नहीं मालूम। इस घटना से बालक नरेन्द्र के अध्यात्मिक स्तर का दर्शन हो चुका था। इनकी शिक्षा पांच वर्ष की आयु में आरम्भ हुई तथा अत्यन्त कुशाग्र बुद्धि होने के कारण ये सभी विषयों को सफलता से ग्रहण कर लेते थे। 14 वर्ष की आयु में यह अपने पिता के पास मध्य प्रदेश, रायपुर में रहते थे, जहाँ इनके पिता जी इनको व्यवहारिक शिक्षा भी दिया करते थे। 2 वर्ष रायपुर रहने के बाद वह वापस कलकत्ता आ गये तथा अंग्रजी स्कूल में शिक्षा प्राप्त करने लगे। इन्होंने सन्‌ 1884 ई. में बी.ए. की डिग्री प्राप्त की। कालेज में विज्ञान, ज्योतिष, गणित, दर्शन, भारतीय तथा यूरोपियन भाषाओं पर समान अधिकार प्राप्त करके इन्होंने सबको आश्चर्य चकित कर दिया। इसके साथ साथ इन्होंने वेदान्त व अन्य धार्मिक ग्रन्थों का अध्ययन किया। कुछ समय के लिए वे ब्रह्मसमाज के अनुयायी रहे, परन्तु यहां उनकी आध्यात्मिक भूख शान्त नहीं हुई और वे ऐसे महापुरुष की तलाश में जुट गये जो उन्हें ईश्वरीय ज्ञान प्राप्त करा सके।

स्वामी रामकृष्ण परमहंस से सम्पर्क- ईश्वरीय ज्ञान प्राप्त करने की प्रगाढ़ जिज्ञासा ने उनकी भेंट नवम्बर 1880 में स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी से करायी। उन दिनों स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी के प्रति लोगों की बड़ी श्रद्धा थी। पहली ही भेंट में स्वामी रामकृष्ण परमहंस समझ चुके थे कि यह कोई साधारण मनुष्य नहीं है। इनसे मिलकर स्वामी रामकृष्ण जी ने कहा कि मैं बहुत दिनों से तुम्हारी राह देख रहा था और चाह रहा था कि मैं अपनी आत्मा की आन्तरिक अनुभूतियों को किसी योग्य पात्र को सौंप सकूँ। नरेन्द्र भी रामकृष्ण परमहंस जी से मिलकर अति प्रसन्न थे क्योंकि वे जानते थे कि उन्हें अब सद्गुरु मिल गया है। नरेन्द्र ने परमहंस जी से निवेदन किया कि मुझे शान्ति चाहिए। रामकृष्ण परमहंस जी के सम्पर्क में आने का कारण नरेन्द्र की ज्ञान पिपासा ही थी। वे संसार की समस्त नदियों के समुद्र में मिलने की ही भॉति अपने इष्ट से मिलना चाहते थे। नरेन्द्र की जिज्ञासा व ज्ञान स्तर जानकर परमहंस जी ने कहा था "मेरा नरेन्द्र सामान्य मानव नहीं है। वह तो ब्रह्मलोक का ऋषि है। उसमें बाल्मिकी, बुद्ध, शंकर की आत्माऐं प्रवेश कर गयी हैं।'

कुछ दिनों पश्चात पिता की मृत्यु हो जाने पर परिवार के भरण पोषण का दायित्व नरेन्द्र पर आ पड़ा। इस कार्य को पूरा करने के लिए नरेन्द्र ने नौकरी की और कभी कभी परमहंस जी से भी मिलते रहे। गुरु परमहंस जी की कृपा से इनका अभ्यास और वैराग्य दृढ़ होता चला गया जिससे ये निर्विकल्प समाधि तक पहुच गए। स्वामी परमहंस जी ने अपनी मृत्यु से तीन चार दिन पूर्व नरेन्द्र को बुलाकर कहा कि मैंने अपना सबकुछ तुम्हें दे दिया है। अब तुम इस ज्ञान को जन जन तक पहुँचाओं और सभी कार्यों को पूरा करो।

हिमालय भ्रमण- गुरु की मृत्यु पश्चात स्वामी विवेकानन्द ने एक साधना केन्द्र की स्थापना की तथा अपने साथियों और शिष्यों सहित आध्यात्मिक भगवत् भजन में लग गये। पाँच वर्ष पश्चात सन् 1891 में वे अपनी मित्र मण्डली को छोड़कर भ्रमण करने के लिए हिमालय की ओर निकल पड़े। वहाँ विभिन्न सिद्ध महात्माओं से सम्पर्क कर आध्यात्मिक विकास प्राप्त किया। धीरे धीरे उनकी वेदान्त में दृढ़ आस्था हो गयी थी। भारत के विभिन्न प्रान्तों में उनके शिष्यों की संख्या बहुत अधिक हो गयी।

विदेश यात्रा- गुरु ज्ञान के प्रचार प्रसार हेतु स्वामी जी लंका, सिंगापुर, हांगकांग, नागासाकी, ओसाका, टोकियों होते हुए कनाडा गये और वहाँ से शिकागों पहुँचे। इसी दौरान हार्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जे.एच. राइट ने स्वामी जी के भाषणों से प्रभावित होकर तुरन्त आगामी धर्म सभा में भाषण के लिए अवसर दिया।

11 सितम्बर 1893 ई. का दिन एक ऐतिहासिक दिन था। उस दिन भारत के इस महान सन्त ने सभी धर्म प्रतिनिधियों को हिलाकर रख दिया। इस सभा में सभी देशों के प्रतिनिधि अपना भाषण लिखकर लाये थे जबकि स्वामी विवेकानन्द जी ने अलिखित भाषण दिया था।

अपने भाषण कें आरंभ में उन्होंने पाश्चात्य परम्परा के विरुद्ध मेरे अमेरिका निवासी भाईयो तथा बहिनों जैसे ही सम्बोधित किया, वैसे ही हाल के अधिकांश लोग खड़े होकर इस महान सन्त के सम्मान मे कई मिनट तक तालियां बजाते रहे। यह अमेरिका के इतिहास की पहली घटना थी, स्वामी जी का भाषण सुनकर लोगों के अन्दर के तार झंकृत हो उठे। इस भाषण में स्वामी जी ने भगवत गीता और उपनिषदों के ज्ञान का सारांश प्रस्तुत किया। धीरे धीरे अमेरिका में स्वामी जी के भक्तों की संख्या बढती गयी। लगभग तीन वर्ष रहने के पश्चात स्वामी जी 16 सितम्बर 1896 में स्वदेश लौट आये। स्वदेश लौटने पर अपना प्रचार कार्य प्रारम्भ करने के साथ साथ उन्होंने दो मठों की स्थापना की।

रामकृष्ण मिशन की स्थापना- स्वदेश लौटने पर स्वामी जी ने 1 मई 1897 को रामकृष्ण मिशन की स्थापना की, जिसका मुख्य उद्देश्य वेदान्त प्रचार व लोक सेवा करना है। इसी बीच में भारत में महामारी का प्रकोप फैलने पर स्वामी जी ने संन्यासियों की एक मण्डली सेवा कार्य में लगा दी इसी दौरान इन्होंने कई अनाथालय और वेदान्त प्रचार के लिए विद्यालयों की स्थापना की। विदेशों में भी चल रहे आन्दोलनों की प्रगति को देखने के लिए स्वामी जी समय समय पर विदेश भ्रमण पर रहा करते थे। अत्यधिक परिश्रम के कारण इनका स्वास्थ्य गिरने लगा। इन दिनों में वे अक्सर समाधि में लीन रहते थे। समाधि के पश्चात वे शिष्यों को व्याकरण वेद आदि पढ़ाया करते थे। इसी प्रकार आध्यात्मिक और सामाजिक कार्य करते हुए उन्होंने समाधि की अवस्था में इस पंचभौतिक शरीर को त्याग दिया। अपने सामाजिक व आध्यात्मिक कार्यों के लिए वे सदा के लिए भारत की धरोहर के रूप में अमर हो गये। भारत माता के इन सच्चे सपूत को हमारा सत्-सत् नमन्।


स्वामी दयानन्द सरस्वती का जीवन परिचय

गुरु गोरक्षनाथ जी का जीवन परिचय

अष्टांग योग

Comments

Popular posts from this blog

सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति सामान्य परिचय

प्रथम उपदेश- पिण्ड उत्पति विचार सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति अध्याय - 2 (पिण्ड विचार) सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार नौ चक्रो के नाम 1. ब्रहमचक्र - मूलाधार मे स्थित है, कामनाओं की पूर्ति होती हैं। 2. स्वाधिष्ठान चक्र - इससे हम चीजो को आकर्षित कर सकते है। 3. नाभी चक्र - सिद्धि की प्राप्ति होती है। 4. अनाहत चक्र - हृदय में स्थित होता है। 5. कण्ठचक्र - विशुद्धि-संकल्प पूर्ति, आवाज मधुर होती है। 6. तालुचक्र -  घटिका में, जिह्वा के मूल भाग में,  लय सिद्धि प्राप्त होती है। 7. भ्रुचक्र -     आज्ञा चक्र - वाणी की सिद्धि प्राप्त होती है। 8. निर्वाणचक्र - ब्रहमरन्ध्र, सहस्त्रार चक्र, मोक्ष प्राप्ति 9. आकाश चक्र - सहस्त्रारचक्र के ऊपर,  भय- द्वेष की समाप्ति होती है। सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार सोहल आधार (1) पादांगुष्ठ आधार (2) मूलाधार (3) गुदाद्वार आधार (4) मेद् आधार (5) उड्डियान आधार (6) नाभी आधार (7) हृदयाधार (8) कण्ठाधार (9) घटिकाधार (10) तालु आधार (11) जिह्वा आधार (12) भ्रूमध्य आधार (13) नासिका आधार (14) नासामूल कपाट आधार (15) ललाट आधार (16) ब्रहमरंध्र आधार सिद्ध...

चित्त विक्षेप | योगान्तराय

चित्त विक्षेपों को ही योगान्तराय ' कहते है जो चित्त को विक्षिप्त करके उसकी एकाग्रता को नष्ट कर देते हैं उन्हें योगान्तराय अथवा योग के विध्न कहा जाता।  'योगस्य अन्तः मध्ये आयान्ति ते अन्तरायाः'।  ये योग के मध्य में आते हैं इसलिये इन्हें योगान्तराय कहा जाता है। विघ्नों से व्यथित होकर योग साधक साधना को बीच में ही छोड़कर चल देते हैं। विध्न आयें ही नहीं अथवा यदि आ जायें तो उनको सहने की शक्ति चित्त में आ जाये, ऐसी दया ईश्वर ही कर सकता है। यह तो सम्भव नहीं कि विध्न न आयें। “श्रेयांसि बहुविध्नानि' शुभकार्यों में विध्न आया ही करते हैं। उनसे टकराने का साहस योगसाधक में होना चाहिए। ईश्वर की अनुकम्पा से यह सम्भव होता है।  व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तिदर्शनालब्धभूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाः (योगसूत्र - 1/30) योगसूत्र के अनुसार चित्त विक्षेपों  या अन्तरायों की संख्या नौ हैं- व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरति, भ्रान्तिदर्शन, अलब्धभूमिकत्व और अनवस्थितत्व। उक्त नौ अन्तराय ही चित्त को विक्षिप्त करते हैं। अतः ये योगविरोधी हैं इन्हें योग के मल...

"चक्र " - मानव शरीर में वर्णित शक्ति केन्द्र

7 Chakras in Human Body हमारे शरीर में प्राण ऊर्जा का सूक्ष्म प्रवाह प्रत्येक नाड़ी के एक निश्चित मार्ग द्वारा होता है। और एक विशिष्ट बिन्दु पर इसका संगम होता है। यह बिन्दु प्राण अथवा आत्मिक शक्ति का केन्द्र होते है। योग में इन्हें चक्र कहा जाता है। चक्र हमारे शरीर में ऊर्जा के परिपथ का निर्माण करते हैं। यह परिपथ मेरूदण्ड में होता है। चक्र उच्च तलों से ऊर्जा को ग्रहण करते है तथा उसका वितरण मन और शरीर को करते है। 'चक्र' शब्द का अर्थ-  'चक्र' का शाब्दिक अर्थ पहिया या वृत्त माना जाता है। किन्तु इस संस्कृत शब्द का यौगिक दृष्टि से अर्थ चक्रवात या भँवर से है। चक्र अतीन्द्रिय शक्ति केन्द्रों की ऐसी विशेष तरंगे हैं, जो वृत्ताकार रूप में गतिमान रहती हैं। इन तरंगों को अनुभव किया जा सकता है। हर चक्र की अपनी अलग तरंग होती है। अलग अलग चक्र की तरंगगति के अनुसार अलग अलग रंग को घूर्णनशील प्रकाश के रूप में इन्हें देखा जाता है। योगियों ने गहन ध्यान की स्थिति में चक्रों को विभिन्न दलों व रंगों वाले कमल पुष्प के रूप में देखा। इसीलिए योगशास्त्र में इन चक्रों को 'शरीर का कमल पुष्प” कहा ग...

Yoga MCQs with Answers (Set-1)

  1. योग दर्शन के अनुसार, योग का मुख्य उद्देश्य क्या है? A) मानसिक शांति प्राप्त करना B) कर्म का त्याग करना C) चित्त की वृत्तियों का निरोध करना D) शरीर को शक्तिशाली बनाना ANSWER= (C) चित्त की वृत्तियों का निरोध करना Check Answer   2. "अष्टांग योग" का उल्लेख किस योग ग्रंथ में मिलता है? A) योग वशिष्ठ B) पतंजलि योगसूत्र C) गीता D) हठयोग प्रदीपिका ANSWER= (B) पतंजलि योगसूत्र Check Answer   3. प्राणायाम के अभ्यास में प्रमुख तत्व क्या होता है? A) श्वास का नियंत्रण B) ध्यान C) धारणा D) आसन ANSWER= (A) श्वास का नियंत्रण Check Answer   4. "कपालभाति" किस प्रकार का अभ्यास है? A) शिथिलीकरण B) आसन C) ध्यान D) प्राणायाम ANSWER= (D) प्राणायाम Check Answer   5. योग के कितने प्रकार गीता में बताए गए हैं? A) 2 B) 3 C) 4 D) 5 ANSWER= (C) 4 Check Answer ...

चित्त प्रसादन के उपाय

महर्षि पतंजलि ने बताया है कि मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा इन चार प्रकार की भावनाओं से भी चित्त शुद्ध होता है। और साधक वृत्तिनिरोध मे समर्थ होता है 'मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम्' (योगसूत्र 1/33) सुसम्पन्न व्यक्तियों में मित्रता की भावना करनी चाहिए, दुःखी जनों पर दया की भावना करनी चाहिए। पुण्यात्मा पुरुषों में प्रसन्नता की भावना करनी चाहिए तथा पाप कर्म करने के स्वभाव वाले पुरुषों में उदासीनता का भाव रखे। इन भावनाओं से चित्त शुद्ध होता है। शुद्ध चित्त शीघ्र ही एकाग्रता को प्राप्त होता है। संसार में सुखी, दुःखी, पुण्यात्मा और पापी आदि सभी प्रकार के व्यक्ति होते हैं। ऐसे व्यक्तियों के प्रति साधारण जन में अपने विचारों के अनुसार राग. द्वेष आदि उत्पन्न होना स्वाभाविक है। किसी व्यक्ति को सुखी देखकर दूसरे अनुकूल व्यक्ति का उसमें राग उत्पन्न हो जाता है, प्रतिकूल व्यक्ति को द्वेष व ईर्ष्या आदि। किसी पुण्यात्मा के प्रतिष्ठित जीवन को देखकर अन्य जन के चित्त में ईर्ष्या आदि का भाव उत्पन्न हो जाता है। उसकी प्रतिष्ठा व आदर को देखकर दूसरे अनेक...

हठयोग प्रदीपिका के अनुसार षट्कर्म

हठप्रदीपिका के अनुसार षट्कर्म हठयोगप्रदीपिका हठयोग के महत्वपूर्ण ग्रन्थों में से एक हैं। इस ग्रन्थ के रचयिता योगी स्वात्माराम जी हैं। हठयोग प्रदीपिका के द्वितीय अध्याय में षटकर्मों का वर्णन किया गया है। षटकर्मों का वर्णन करते हुए स्वामी स्वात्माराम  जी कहते हैं - धौतिर्बस्तिस्तथा नेतिस्त्राटकं नौलिकं तथा।  कपालभातिश्चैतानि षट्कर्माणि प्रचक्षते।। (हठयोग प्रदीपिका-2/22) अर्थात धौति, बस्ति, नेति, त्राटक, नौलि और कपालभोंति ये छ: कर्म हैं। बुद्धिमान योगियों ने इन छः कर्मों को योगमार्ग में करने का निर्देश किया है। इन छह कर्मों के अतिरिक्त गजकरणी का भी हठयोगप्रदीपिका में वर्णन किया गया है। वैसे गजकरणी धौतिकर्म के अन्तर्गत ही आ जाती है। इनका वर्णन निम्नलिखित है 1. धौति-  धौँति क्रिया की विधि और  इसके लाभ एवं सावधानी- धौँतिकर्म के अन्तर्गत हठयोग प्रदीपिका में केवल वस्त्र धौति का ही वर्णन किया गया है। धौति क्रिया का वर्णन करते हुए योगी स्वात्माराम जी कहते हैं- चतुरंगुल विस्तारं हस्तपंचदशायतम। . गुरूपदिष्टमार्गेण सिक्तं वस्त्रं शनैर्गसेत्।।  पुनः प्रत्याहरेच्चैतदुदितं धौत...

चित्त | चित्तभूमि | चित्तवृत्ति

 चित्त  चित्त शब्द की व्युत्पत्ति 'चिति संज्ञाने' धातु से हुई है। ज्ञान की अनुभूति के साधन को चित्त कहा जाता है। जीवात्मा को सुख दुःख के भोग हेतु यह शरीर प्राप्त हुआ है। मनुष्य द्वारा जो भी अच्छा या बुरा कर्म किया जाता है, या सुख दुःख का भोग किया जाता है, वह इस शरीर के माध्यम से ही सम्भव है। कहा भी गया  है 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्' अर्थात प्रत्येक कार्य को करने का साधन यह शरीर ही है। इस शरीर में कर्म करने के लिये दो प्रकार के साधन हैं, जिन्हें बाह्यकरण व अन्तःकरण के नाम से जाना जाता है। बाह्यकरण के अन्तर्गत हमारी 5 ज्ञानेन्द्रियां एवं 5 कर्मेन्द्रियां आती हैं। जिनका व्यापार बाहर की ओर अर्थात संसार की ओर होता है। बाह्य विषयों के साथ इन्द्रियों के सम्पर्क से अन्तर स्थित आत्मा को जिन साधनों से ज्ञान - अज्ञान या सुख - दुःख की अनुभूति होती है, उन साधनों को अन्तःकरण के नाम से जाना जाता है। यही अन्तःकरण चित्त के अर्थ में लिया जाता है। योग दर्शन में मन, बुद्धि, अहंकार इन तीनों के सम्मिलित रूप को चित्त के नाम से प्रदर्शित किया गया है। परन्तु वेदान्त दर्शन अन्तःकरण चतुष्टय की...

Yoga MCQ Questions Answers in Hindi

 Yoga multiple choice questions in Hindi for UGC NET JRF Yoga, QCI Yoga, YCB Exam नोट :- इस प्रश्नपत्र में (25) बहुसंकल्पीय प्रश्न है। प्रत्येक प्रश्न के दो (2) अंक है। सभी प्रश्न अनिवार्य ।   1. किस उपनिषद्‌ में ओंकार के चार चरणों का उल्लेख किया गया है? (1) प्रश्नोपनिषद्‌         (2) मुण्डकोपनिषद्‌ (3) माण्डूक्योपनिषद्‌  (4) कठोपनिषद्‌ 2 योग वासिष्ठ में निम्नलिखित में से किस पर बल दिया गया है? (1) ज्ञान योग  (2) मंत्र योग  (3) राजयोग  (4) भक्ति योग 3. पुरुष और प्रकृति निम्नलिखित में से किस दर्शन की दो मुख्य अवधारणाएं हैं ? (1) वेदांत           (2) सांख्य (3) पूर्व मीमांसा (4) वैशेषिक 4. निम्नांकित में से कौन-सी नाड़ी दस मुख्य नाडियों में शामिल नहीं है? (1) अलम्बुषा  (2) कुहू  (3) कूर्म  (4) शंखिनी 5. योगवासिष्ठानुसार निम्नलिखित में से क्या ज्ञानभूमिका के अन्तर्गत नहीं आता है? (1) शुभेच्छा (2) विचारणा (3) सद्भावना (4) तनुमानसा 6. प्रश्नो...

UGC NET पेपर-1 Communication विषय पर MCQs (Set-1)

  1. संचार प्रक्रिया का सबसे महत्वपूर्ण घटक कौन सा है? A) स्रोत B) संदेश C) रिसीवर D) फीडबैक ANSWER= (D) फीडबैक Check Answer   2. ‘किसी संदेश का अर्थ समझने में बाधा उत्पन्न करने वाला तत्व’ किसे कहते हैं? A) माध्यम B) शोर (Noise) C) चैनल D) फीडबैक ANSWER= (B) शोर (Noise) Check Answer   3. संचार के कितने मूलभूत प्रकार होते हैं? A) 2 B) 3 C) 4 D) 5 ANSWER= (B) 3 (मौखिक, लिखित, और गैर-मौखिक संचार) Check Answer   4. संचार मॉडल में "कंटेंट कोडिंग" किस चरण में होती है? A) एनकोडिंग B) डिकोडिंग C) फीडबैक D) चैनल चयन ANSWER= (A) एनकोडिंग Check Answer   5. ‘सामूहिक संचार’ (Mass Communication) का प्रमुख उदाहरण क्या है? A) टेलीफोन वार्तालाप B) ईमेल भेजना C) टेलीविजन प्रसारण D) आमने-सामने संवाद ANSWER= (C) टेलीविजन प्रसारण Check Answer   6. ...

सांख्य दर्शन परिचय, सांख्य दर्शन में वर्णित 25 तत्व

सांख्य दर्शन के प्रणेता महर्षि कपिल है यहाँ पर सांख्य शब्द का अर्थ ज्ञान के अर्थ में लिया गया सांख्य दर्शन में प्रकृति पुरूष सृष्टि क्रम बन्धनों व मोक्ष कार्य - कारण सिद्धान्त का सविस्तार वर्णन किया गया है इसका संक्षेप में वर्णन इस प्रकार है। 1. प्रकृति-  सांख्य दर्शन में प्रकृति को त्रिगुण अर्थात सत्व, रज, तम तीन गुणों के सम्मिलित रूप को त्रिगुण की संज्ञा दी गयी है। सांख्य दर्शन में इन तीन गुणो कों सूक्ष्म तथा अतेनद्रिय माना गया सत्व गुणो का कार्य सुख रजोगुण का कार्य लोभ बताया गया सत्व गुण स्वच्छता एवं ज्ञान का प्रतीक है यह गुण उर्ध्वगमन करने वाला है। इसकी प्रबलता से पुरूष में सरलता प्रीति,अदा,सन्तोष एवं विवेक के सुखद भावो की उत्पत्ति होती है।    रजोगुण दुःख अथवा अशान्ति का प्रतीक है इसकी प्रबलता से पुरूष में मान, मद, वेष तथा क्रोध भाव उत्पन्न होते है।    तमोगुण दुख एवं अशान्ति का प्रतीक है यह गुण अधोगमन करने वाला है तथा इसकी प्रबलता से मोह की उत्पत्ति होती है इस मोह से पुरूष में निद्रा, प्रसाद, आलस्य, मुर्छा, अकर्मण्यता अथवा उदासीनता के भाव उत्पन्न होते है सा...