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स्वामी कुवल्यानन्द का जीवन परिचय

स्वामी कुवल्यानन्द जी की जीवनी-  स्वामी कुवल्यानन्द जी का जन्म 30 अगस्त, 1883 को गुजरात के डमोई गांव में हुआ था। यह वह समय था जब भारतवर्ष में देशभक्ति की भावना व क्रान्ति का बिगुल बज रहा था, स्वामी कुवल्यानन्द जी को बचपन में जगन्नाथ गणेंश कहकर पुकारा जाता था। बचपन से ही स्वामी कुवलयानन्द का जीवन कठिन परिस्थितियों से भरा रहा। स्वामी जी अपने विद्यार्थी जीवन में एक मेधावी व कुशाग्र बुद्धि वाले छात्र के रूप में जाने जाते थे। विद्यार्थी जीवन से ही ये देशभक्ति और भारतीय संस्कृति से अत्यन्त प्रभावित थे। इसी कारण वे लोकमान्य तिलक तथा श्री अरविन्द जैसी महान विभूतियों से प्रभावित रहे। एक बार तो विद्यार्थी जीवन छोड़ वे स्वतन्त्रता आन्दोलन में ही कूद पड़े लेकिन सहयोगियों और शुभचिन्तकों के समझाने पर पुनः अपनी शिक्षा जारी रखी। 1903 में उन्होंने मैट्रिक परीक्षा पास कर संस्कृत छात्रवृत्ति भी प्राप्त की। 1907 से 1910 के मध्य स्वामी जी ने शारीरिक शिक्षा के विषय का गहन अध्ययन किया और इस विषय के भारतीय पहलु को भी जाना। 1919 में मालसर के परमहंस माधवदास जी महाराज के संपर्क में आये, जिनसे स्वामी जी ने योग एवं उससे संबन्धित पहलुओं को समझा। योग के अनेक लाभकारी पहलुओं से प्रेरित होकर उन्होंने अपना जीवन योग के प्रचार प्रसार के लिए समर्पित कर दिया और जीवन के निम्न आदर्श बनाकर अध्ययन आदि कार्य में जुट गये।

माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा के क्षेत्र से देशभक्त ढूंडना व एकत्र करना।  

शारीरिक शिक्षा के भारतीय पहलुओं को साधारण शिक्षा से जोड़ना।

विज्ञान व आध्यात्मिकता को एक ही मंच पर प्रस्तुत करना।

स्वामी कुवल्यानन्द जी का यह वैज्ञानिक दृष्टिकोण योग के प्रचार, प्रसार एवं विकास में बहुत ही सार्थक रहा, उनके द्वारा किये गये अनेकों प्रयोगों से योग जैसी रहस्यमय विद्या का सामान्य व्यक्ति के लिए समझना सरल हो गया। परमपूज्य परमहंस माधवदास जी के सानिध्य में योग क्रियाओं संबन्धी ज्ञान प्राप्त करते समय स्वामी जी ने अपने शारीरिक व मानसिक स्तर पर कई आश्चर्यजनक प्रभाव महसूस किये, जिससे उनकी आस्था योग पर और भी दृढ़ हो गई। योग के प्रभाव इतने चमत्कारिक थे कि स्वयं स्वामी जी के पास उनका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं था।

स्वामी कुवल्यानन्द जी ने मानव शरीर रचना व क्रिया से संबन्धित विस्तृत अध्ययन किया एवं समय समय पर नये नये प्रयोग करके अपने ज्ञान का विस्तार करते गये। स्वामी जी शीघ्र ही इस बात से अवगत हो चुके थे कि योग भारत की प्राचीनतम् विद्या है जिससे अनेक प्रकार के लाभ प्राप्त किये जा सकते हैं तथा भारत में ऐसे योगियों की भी कमी नहीं है जिनके पास योग संबन्धी अत्यन्त गोपनीय ज्ञान भरा पडा है। अब यह आवश्यक बन चुका था कि इस योग को आधुनिक विज्ञान के साथ जोड़ कर एक नयी दिशा दी जाए।

तत्कालीन मान्यताएँ यह थी कि योग एक आध्यात्मिक, अतिविशिष्ट एवं सर्वोत्कृष्ट अनुभव है जो वैज्ञानिक प्रयोगों से परे है तथा इस योगविद्या से प्राप्त बहुमूल्य अनुभवों को सामान्य व्यक्तियों से दूर रखा जाए। ऐसी विपरीत परिस्थितियों में स्वामी कुवलयानन्द ने ही योग के वैज्ञानिक दृष्टिकोण की जिज्ञासा को अनुसंधान और प्रयोगों के क्षेत्र में बढाया और शीघ्र ही वे अपनी शोध प्रक्रिया में आगे बढ़ते हुए चरम पर पहुँचे। इसी विचार को अपने जीवन का एकमात्र ध्येय बनाते हुए योग क्रियाओं के वैज्ञानिक विल्लेषण पर कार्य किया। इसी दौरान उन्होंने दो यौगिक क्रियाओं 'उड़्डियान बंध व नौलि क्रिया' पर प्रयोग किये और बताया कि सामान्यतः बड़ी आंत का दाब एवं बाहर का वातावरणीय दाब समान होता है परन्तु नौलि क्रिया के अभ्यास के दौरान बड़ी आंत के भीतर का दबाव बाह्य वातावरण के दबाव की तुलना में कम हो जाता है और इस प्रकार निर्वात की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। स्वामी जी ने इस निर्वात को “निगेटिव प्रेशर' या अपने गुरुदेव के नाम पर 'माधवदास वैक्यूम' कहा है। अपने इस शोध का वर्णन स्वामी जी ने रविन्द्रनाथ टैगोर, जगदीश चन्द्र बोस, डॉ. नाथगिरी आदि ख्याति प्राप्त लोगों के समक्ष प्रस्तुत किया, जिससे स्वामी जी को काफी प्रशंसा मिली। स्वामी जी स्वयं भी इस परिणाम से सकारात्मक थे और आगे चल कर उन्होंने आसन, प्राणायाम, मुद्राएं और अनेको यौगिक क्रियाओं पर अनुसंधान किये।

आधुनिक भारत के योगियों में स्वामी कुवलयानन्द कई विभिन्न दृष्टियों से श्रेष्ठ हैं, स्वामी जी ने कई मिशनों में उत्साह के साथ कार्य किया और यह विचार दिया कि योग मानवता के विकास के लिए अत्यन्त उपयोगी साधन है। स्वामी जी वैज्ञानिक अन्वेषणकर्ता के दृष्टिकोण के साथ साथ भारतीय बौद्धिक एवं पारम्परिक धार्मिक विचारधारा के भी समर्थक थे। स्वामी जी का ईश्वर के प्रति विशेष विश्वास था। वे हमेशा ही ज्ञान, कर्म, भक्ति को प्रचारित करने वाले व्यक्तियों से प्रेरित रहते थे। स्वामी जी अपने व्याख्यानों में प्रेम पूर्वक तरीके से ईश्वरीय भक्ति के विषय में प्रेरणा देते थे। वे अपना प्रत्येक कार्य ईश्वर के प्रति समर्पण एवं प्रार्थना भाव से करते थे, उनकी इस भावना का विचार कैवल्यधाम से प्रकाशित होने वाली पत्रिका योगमीमांसा के प्रत्येक अंक में देखने को मिलता है।

स्वामी कुवलयानन्द जी ने योग को वैज्ञानिक दृष्टिकोण देकर इसे जन साधारण के लिए उपलब्ध कराया। यह वह समय था जब योग केवल साधु संन्यासियों के लिए तथा जंगल में करने की विद्या माना जाता था। स्वामी जी ने योग को एक क्रान्ति का रूप देकर अक्टूबर 1924 में दशहरे के दिन लोनावाला के निकट बालवन नामक गाँव में कैवल्यधाम योग आश्रम की स्थापना की। यहीं उन्होंने कुवलयानन्द नाम भी आत्मसात् किया तथा पूर्ण ऊर्जा एवं धैर्य के साथ अपना कार्य प्रारम्भ किया। स्वामी जी का यह कैवल्यधाम वैज्ञानिक तरीके से योग शिक्षा और चिकित्सा देने वाली प्रथम संस्था है। कैवल्यधाम की स्थापना के तुरंत बाद स्वामी जी ने योग मीमांसा नामक योग पत्रिका का प्रकाशन शुरु किया। इस पत्रिका में योग अनुसंधान संबन्धी लेख छपने के कारण यह योग पत्रिका का रूप में देश विदेश में प्रचलित होती गई। इन सबसे प्रभावित होकर स्वामी जी के आश्रम को अनेक लोगों से आर्थिक सहयोग प्राप्त हुआ।

पोरबंदर के राणा साहब की सहायता से कैवल्यधाम लोनावला में राजा नटवर सिंह पैथोलॉजी लैब की स्थापना की गयी, जिसमें अनेक आधुनिक उपकरणों को लगाया गया। आगे चलकर कैवल्यधाम की शाखा रूपी स्वास्थ्य केन्द्र बम्बई में स्थापित किया गया, जो कि श्रीचुन्नीलाल मेहता की आर्थिक सहायता से प्रारम्भ किया गया जिसका नाम इन्हीं के पुत्र के नाम पर ईश्वरदास चुन्नीलाल यौगिक हैल्थ सेंटर रखा गया। इसी प्रकार सौराष्ट्र की राजकुमारी के आर्थिक सहयोग से कैवल्यधाम आश्रम की एक अन्य शाखा खोली गयी। सन् 1944 में योग साहित्य के शोध और योग प्रचार प्रसार को ध्यान में रखते हुए स्वामी जी ने कैवल्यधाम श्रीमन् माधवयोग मन्दिर समिति की स्थापना की। लोनावला में सन् 1961 में पहला यौगिक अस्पताल स्वामी कुवलयानन्द द्वारा स्थापित किया गया, जिसमें 1963-64 में अस्थमा के ऊपर शोध कार्य किया गया। आधुनिक विज्ञान और प्राचीन योग के सम्मिलित प्रयास से प्रभावित होकर विभिन्न राज्य सरकारों ने स्वामी जी के साथ मिलकर यौगिक अभ्यास कार्यक्रमों का आयोजन किया।

योगविद्या के अलावा स्वामी जी संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान भी थे। अपनी व्यस्त जीवनचर्या के बावजूद कभी कभी श्री कृष्ण के प्रति भावोद्रार स्वरूप कुछ पद्म भी लिखे। इस प्रकार कहा जा सकता है कि योग के प्रचार प्रसार में स्वामी जी ने अतुलनीय योगदान दिया। उनके द्वारा किये गये कार्य ही आज योग विज्ञान विषय के लिए नींव का कार्य कर रहे हैं। 

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