Skip to main content

श्री अरविन्द का जीवन परिचय

श्री अरविन्द की जीवनी- श्री अरविन्द का जन्म कलकत्ता में 15 अगस्त 1872 ई. में हुआ था, इनकी माता का नाम स्वर्णलता और पिता का नाम श्री कृष्णधन घोष था। पिता एक सिविल सर्जन थे। श्रीकृष्णधन इंग्लैण्ड से एम.डी. की उपाधि प्राप्त किये हुए थे। बंगाली भाषा के सर्वमान्य साहित्यकार, मा्डर्न रिव्यू के नियमित लेखक तथा भारतीय राष्ट्रीयता के पुरोधा राजनारायण बोस श्री अरविन्द के नाना थे। 

चार वर्ष की आयु से अरविन्द की प्रारम्भिक शिक्षा दार्जिलिंग के लारेन्टो कान्वेन्ट स्कूल से आरम्भ हुई। माना जाता है कि श्री अरविन्द बाल्यकाल से ही एक होनहार मेधावी छात्र थे। विद्यालय शिक्षा के पश्चात श्री अरविन्द कैम्ब्रिज के किंग्स कालेज गये। 

यहां पर अपनी पढाई पूर्ण करने पर 14 वर्ष के पश्चात श्री अरविन्द ने भारत आकर बड़ौदा के महाराज के यहां भूमि व्यवस्था तथा राजस्व विभाग में कार्य किया। इसके बाद बडौदा के ही एक कालेज में अंग्रेजी के प्राध्यापक नियुक्त हुए और इसी कालेज के प्रधानाचार्य के पद पर प्रोन्नत हुए। श्री अरविन्द अध्यापन के कार्य के साथ साथ “वन्देमातरम' पत्र के सम्पादकीय भी लिखते थे। श्री अरविन्द की विद्वत्ता के कारण ही वे बड़ौदा के शिक्षित वर्ग के प्रेम पात्र बन गये, जन साधारण में श्री अरविन्द की लोकप्रियता इतनी बढ़ चुकी थी कि लोग उन्हें बड़े भैया का सम्मान देने लगे। श्री अरविन्द विवाह अप्रैल 1901 में मृणालिनी देवी के साथ हुआ। 

अनेक भाषाओं के ज्ञाता- श्री अरविन्द ग्रीक के प्रकाण्ड पण्डित थे। उनको लैटिन, फेन्च, जर्मन तथा इटालवी भाषा का बहुत अच्छा ज्ञान था, परन्तु वे भारतीय आर्ष ग्रन्थों से बेहद प्रभावित थे। भारत में इनको भारतीय संस्कृति जानने की इच्छा हुई, इसी कारण इन्होंने भारतीय धर्म ग्रन्थों का अध्ययन किया। जिसके फलस्वरूप भारत का एक दिव्य आध्यात्मिक रूप उनकी आंखों के सामने खड़ा हो गया। इन सब कार्यों के साथ साथ श्री अरविन्द स्वतन्त्रता आन्दोलन से भी जुड़े रहे। 

योगाभ्यास में रुचि- भारतीय संस्कृति के अध्ययन के साथ साथ श्री अरविन्द की योगाभ्यास में भी विशेष रुचि बनने लगी थी और 1904 ई. में इन्होंने योग का अभ्यास प्रारम्भ किया। इसी समय उनकी भेंट लेले से हुई जिनके साथ श्री अरविन्द केवल तीन दिन ही ध्यान का अभ्यास कर पाये। मन की शान्ति तथा विचारों के निरन्तर दबाव से मुक्ति के लिए उन्होंने योगी लेले के अनुदेशों का पालन किया। श्री अरविन्द ने अपने योगाभ्यास के विषय में अपने एक पत्र में लिखा है कि मैंने 1904 में बिना किसी गुरु के ही योगाभ्यास प्रारम्भ कर दिया। 1908 में मुझे एक मराठा योगी से इस दिशा में महत्त्वपूर्ण मार्ग दर्शन प्राप्त हुआ, जिसके फलस्वरूप ही मुझे अपनी साधना के मूलाधार का ज्ञान प्राप्त हुआ।

श्री अरविन्द प्रतिदिन योग का अभ्यास करते थे। परन्तु 5 मई 1908 में श्री अरविन्द को विद्रोही के रूप में पकड़कर एक वर्ष के लिए अंग्रजों ने अलीपुर जेल में डाल दिया। अपने 1 वर्ष के कारावास के दौरान श्री अरविन्द ने अपना समय गीता, उपनिषद आदि आध्यात्मिक ग्रन्थों के अध्ययन में बिताया। इसी दौरान वे अपनी आध्यात्मिक साधना भी करते थे, धीरे धीरे श्री अरविन्द को आत्मज्ञान होने लगा और वह धीरे -धीरे राजनीतिक गतिविधियों से दूर होते चले गये।

संस्था की स्थापना- 4 अप्रैल 1910 ई. में श्री अरविन्द कलकत्ता से चन्द्रनगर होते हुए पाण्डिचेरी पहुंचे। जहां पर उन्होने अपने मित्रों के साथ मिलकर एक आश्रम की स्थापना की। आजकल उस आश्रम में स्थित सौ से अधिक घरों में सैकड़ों आश्रमवासी रहते हैं जो दुग्धशाला, शाक वाटिका तथा पाठशाला आदि आश्रम की अनेक गतिविधियों में कार्यरत रहते हैं। चौदह से अटठारह वर्ष के छात्रों को यहां व्यवसायिक शिक्षा भी प्रदान की जाती है।

1920 में पाल रिचर्ड की पत्नी मीरा श्री अरविन्द के आश्रम में गयी। आश्रम के आदर्शों तथा सिद्धान्तों से प्रभावित हो उन्होंने वहीं रहने की इच्छा की। श्री अरविन्द ने उनको आश्रम का अध्यक्ष बना दिया। आश्रमवासी उन्हें मां कहकर पुकारते थे। प्रत्येक दिन प्रातः काल वह अपने कक्ष से सम्बद्ध खिड़की से इच्छुक भक्तों को दर्शन दिया करती हैं। श्री अरविन्द का यह आश्रम एक सर्वदेशीय आश्रम है। यहां ईसाई, पारसी, मुसलमान तथा अन्य मतों के प्रति आस्थावान लोग भी रहते हैं। श्री अरविन्द अपने भक्तों को प्रतिवर्ष चार बार दर्शन दिया करते थे।

श्री अरविन्द का उद्देश्य- श्री अरविन्द का उद्देश्य किसी व्यक्ति विशेष की मुक्ति मात्र नहीं है। संसार के आध्यात्मिक रूपान्तरण तथा मानसिक, प्राणिक और दैहिक प्रकृति एवं मानवता के जीवन में दिव्य स्वभाव के अवतरण के लिए वह कर्म के माध्यम से ईश्वरीय संकल्प को मूर्तरूप प्रदान करने के पक्षधर थे। श्री अरविन्द का कहना है दैवी आदेश के अनुसार हमें ईश्वर की प्रकृति में विकसित होना तथा उसके सान्निध्य में रहकर उसके प्रकाश एवं उसकी शक्ति का माध्यम बनकर उसके सृष्टि व्यापार का एक उपकरण बनना है। जीवन में जो कुछ भी अशुभ है उससे विलग तथा पवित्र होकर हमें संसार में मानव जाति को रोमांचित तथा अनुप्राणित करने वाले एक विद्युत प्रक्षेपण यन्त्र की भांति काम करना है। इसके परिणाम स्वरूप हम अपने समीपस्थ शत- शत व्यक्तियों को ईश्वरीय प्रकाश, शक्ति तथा आनन्द से पूर्ण कर उन्हें ईश्वरमय बना देंगे। श्री अरविन्द की 'लाईफ डिवाइन' नामक पुस्तक समस्त संसार को चिन्तन की सम्यक् दिशा प्रदान करने वाली एक सशक्त कृति है। इसकी ओजस्विता तथा उपयोगिता सर्वकालिक है।  

मृत्यु- स्नानागार में फिसल कर गिरने के कारण श्री अरविन्द के दांये पैर की हड्डी टूट गई थी। पर्याप्त प्रयत्न करने के बाद ही वे बैशाखी का सहारा लेकर चल सके। श्री अरविन्द ने साधना के साथ साथ लेखन कार्य भी जारी रखा। जीवन के अन्तिम दिनों में इन्हें गुर्दे से सम्बन्धित रोग भी हो गया था, लेकिन बीमारी के बावजूद वे शान्त बने रहते थे। इसी बीमारी के कारण ५ दिसम्बर 1950 ई. को उनका देहान्त हो गया।

अरविन्द भारतीय नवजागरण के सर्वोत्तम देश भक्त, बुद्धि वादियों में सर्वाधिक कुशाग्र बुद्धि और द्रष्टाओं में सर्वाधिक सूक्ष्म द्रष्टा थे। वे भारतीय संस्कृति व आध्यात्मिक ज्ञान को लोगों तक पहुँचाने में सफल रहे। इसके अतिरिक्त उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया कि भारतीय संस्कृति जो समुचित संश्लेषणों में कुशल है, वह प्राच्य तथा पाश्चात्य संस्कृतियों के बीच परस्पर विरोध का दर्शन न कर उनमें तादात्म्य स्थापन कर सकता है। श्री अरविन्द का जीवन दिव्य था। उन्होंने संसार को भी दिव्य जीवन व्यतीत करने का संदेश दिया। उनकी कृति लाईफ डिवाइन में उल्लिखित उनके उपदेश मनुष्य जाति को अनन्त काल तक अनुप्राणित करते रहेंगे।

स्वामी दयानन्द सरस्वती का जीवन परिचय

गुरु गोरक्षनाथ जी का जीवन परिचय

योगसूत्र का सामान्य परिचय

योग का उद्देश्य | योग का महत्व

Comments

Popular posts from this blog

सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति सामान्य परिचय

प्रथम उपदेश- पिण्ड उत्पति विचार सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति अध्याय - 2 (पिण्ड विचार) सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार नौ चक्रो के नाम 1. ब्रहमचक्र - मूलाधार मे स्थित है, कामनाओं की पूर्ति होती हैं। 2. स्वाधिष्ठान चक्र - इससे हम चीजो को आकर्षित कर सकते है। 3. नाभी चक्र - सिद्धि की प्राप्ति होती है। 4. अनाहत चक्र - हृदय में स्थित होता है। 5. कण्ठचक्र - विशुद्धि-संकल्प पूर्ति, आवाज मधुर होती है। 6. तालुचक्र -  घटिका में, जिह्वा के मूल भाग में,  लय सिद्धि प्राप्त होती है। 7. भ्रुचक्र -     आज्ञा चक्र - वाणी की सिद्धि प्राप्त होती है। 8. निर्वाणचक्र - ब्रहमरन्ध्र, सहस्त्रार चक्र, मोक्ष प्राप्ति 9. आकाश चक्र - सहस्त्रारचक्र के ऊपर,  भय- द्वेष की समाप्ति होती है। सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार सोहल आधार (1) पादांगुष्ठ आधार (2) मूलाधार (3) गुदाद्वार आधार (4) मेद् आधार (5) उड्डियान आधार (6) नाभी आधार (7) हृदयाधार (8) कण्ठाधार (9) घटिकाधार (10) तालु आधार (11) जिह्वा आधार (12) भ्रूमध्य आधार (13) नासिका आधार (14) नासामूल कपाट आधार (15) ललाट आधार (16) ब्रहमरंध्र आधार सिद्ध...

चित्त विक्षेप | योगान्तराय

चित्त विक्षेपों को ही योगान्तराय ' कहते है जो चित्त को विक्षिप्त करके उसकी एकाग्रता को नष्ट कर देते हैं उन्हें योगान्तराय अथवा योग के विध्न कहा जाता।  'योगस्य अन्तः मध्ये आयान्ति ते अन्तरायाः'।  ये योग के मध्य में आते हैं इसलिये इन्हें योगान्तराय कहा जाता है। विघ्नों से व्यथित होकर योग साधक साधना को बीच में ही छोड़कर चल देते हैं। विध्न आयें ही नहीं अथवा यदि आ जायें तो उनको सहने की शक्ति चित्त में आ जाये, ऐसी दया ईश्वर ही कर सकता है। यह तो सम्भव नहीं कि विध्न न आयें। “श्रेयांसि बहुविध्नानि' शुभकार्यों में विध्न आया ही करते हैं। उनसे टकराने का साहस योगसाधक में होना चाहिए। ईश्वर की अनुकम्पा से यह सम्भव होता है।  व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तिदर्शनालब्धभूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाः (योगसूत्र - 1/30) योगसूत्र के अनुसार चित्त विक्षेपों  या अन्तरायों की संख्या नौ हैं- व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरति, भ्रान्तिदर्शन, अलब्धभूमिकत्व और अनवस्थितत्व। उक्त नौ अन्तराय ही चित्त को विक्षिप्त करते हैं। अतः ये योगविरोधी हैं इन्हें योग के मल...

"चक्र " - मानव शरीर में वर्णित शक्ति केन्द्र

7 Chakras in Human Body हमारे शरीर में प्राण ऊर्जा का सूक्ष्म प्रवाह प्रत्येक नाड़ी के एक निश्चित मार्ग द्वारा होता है। और एक विशिष्ट बिन्दु पर इसका संगम होता है। यह बिन्दु प्राण अथवा आत्मिक शक्ति का केन्द्र होते है। योग में इन्हें चक्र कहा जाता है। चक्र हमारे शरीर में ऊर्जा के परिपथ का निर्माण करते हैं। यह परिपथ मेरूदण्ड में होता है। चक्र उच्च तलों से ऊर्जा को ग्रहण करते है तथा उसका वितरण मन और शरीर को करते है। 'चक्र' शब्द का अर्थ-  'चक्र' का शाब्दिक अर्थ पहिया या वृत्त माना जाता है। किन्तु इस संस्कृत शब्द का यौगिक दृष्टि से अर्थ चक्रवात या भँवर से है। चक्र अतीन्द्रिय शक्ति केन्द्रों की ऐसी विशेष तरंगे हैं, जो वृत्ताकार रूप में गतिमान रहती हैं। इन तरंगों को अनुभव किया जा सकता है। हर चक्र की अपनी अलग तरंग होती है। अलग अलग चक्र की तरंगगति के अनुसार अलग अलग रंग को घूर्णनशील प्रकाश के रूप में इन्हें देखा जाता है। योगियों ने गहन ध्यान की स्थिति में चक्रों को विभिन्न दलों व रंगों वाले कमल पुष्प के रूप में देखा। इसीलिए योगशास्त्र में इन चक्रों को 'शरीर का कमल पुष्प” कहा ग...

Yoga MCQs with Answers (Set-1)

  1. योग दर्शन के अनुसार, योग का मुख्य उद्देश्य क्या है? A) मानसिक शांति प्राप्त करना B) कर्म का त्याग करना C) चित्त की वृत्तियों का निरोध करना D) शरीर को शक्तिशाली बनाना ANSWER= (C) चित्त की वृत्तियों का निरोध करना Check Answer   2. "अष्टांग योग" का उल्लेख किस योग ग्रंथ में मिलता है? A) योग वशिष्ठ B) पतंजलि योगसूत्र C) गीता D) हठयोग प्रदीपिका ANSWER= (B) पतंजलि योगसूत्र Check Answer   3. प्राणायाम के अभ्यास में प्रमुख तत्व क्या होता है? A) श्वास का नियंत्रण B) ध्यान C) धारणा D) आसन ANSWER= (A) श्वास का नियंत्रण Check Answer   4. "कपालभाति" किस प्रकार का अभ्यास है? A) शिथिलीकरण B) आसन C) ध्यान D) प्राणायाम ANSWER= (D) प्राणायाम Check Answer   5. योग के कितने प्रकार गीता में बताए गए हैं? A) 2 B) 3 C) 4 D) 5 ANSWER= (C) 4 Check Answer ...

चित्त प्रसादन के उपाय

महर्षि पतंजलि ने बताया है कि मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा इन चार प्रकार की भावनाओं से भी चित्त शुद्ध होता है। और साधक वृत्तिनिरोध मे समर्थ होता है 'मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम्' (योगसूत्र 1/33) सुसम्पन्न व्यक्तियों में मित्रता की भावना करनी चाहिए, दुःखी जनों पर दया की भावना करनी चाहिए। पुण्यात्मा पुरुषों में प्रसन्नता की भावना करनी चाहिए तथा पाप कर्म करने के स्वभाव वाले पुरुषों में उदासीनता का भाव रखे। इन भावनाओं से चित्त शुद्ध होता है। शुद्ध चित्त शीघ्र ही एकाग्रता को प्राप्त होता है। संसार में सुखी, दुःखी, पुण्यात्मा और पापी आदि सभी प्रकार के व्यक्ति होते हैं। ऐसे व्यक्तियों के प्रति साधारण जन में अपने विचारों के अनुसार राग. द्वेष आदि उत्पन्न होना स्वाभाविक है। किसी व्यक्ति को सुखी देखकर दूसरे अनुकूल व्यक्ति का उसमें राग उत्पन्न हो जाता है, प्रतिकूल व्यक्ति को द्वेष व ईर्ष्या आदि। किसी पुण्यात्मा के प्रतिष्ठित जीवन को देखकर अन्य जन के चित्त में ईर्ष्या आदि का भाव उत्पन्न हो जाता है। उसकी प्रतिष्ठा व आदर को देखकर दूसरे अनेक...

हठयोग प्रदीपिका के अनुसार षट्कर्म

हठप्रदीपिका के अनुसार षट्कर्म हठयोगप्रदीपिका हठयोग के महत्वपूर्ण ग्रन्थों में से एक हैं। इस ग्रन्थ के रचयिता योगी स्वात्माराम जी हैं। हठयोग प्रदीपिका के द्वितीय अध्याय में षटकर्मों का वर्णन किया गया है। षटकर्मों का वर्णन करते हुए स्वामी स्वात्माराम  जी कहते हैं - धौतिर्बस्तिस्तथा नेतिस्त्राटकं नौलिकं तथा।  कपालभातिश्चैतानि षट्कर्माणि प्रचक्षते।। (हठयोग प्रदीपिका-2/22) अर्थात धौति, बस्ति, नेति, त्राटक, नौलि और कपालभोंति ये छ: कर्म हैं। बुद्धिमान योगियों ने इन छः कर्मों को योगमार्ग में करने का निर्देश किया है। इन छह कर्मों के अतिरिक्त गजकरणी का भी हठयोगप्रदीपिका में वर्णन किया गया है। वैसे गजकरणी धौतिकर्म के अन्तर्गत ही आ जाती है। इनका वर्णन निम्नलिखित है 1. धौति-  धौँति क्रिया की विधि और  इसके लाभ एवं सावधानी- धौँतिकर्म के अन्तर्गत हठयोग प्रदीपिका में केवल वस्त्र धौति का ही वर्णन किया गया है। धौति क्रिया का वर्णन करते हुए योगी स्वात्माराम जी कहते हैं- चतुरंगुल विस्तारं हस्तपंचदशायतम। . गुरूपदिष्टमार्गेण सिक्तं वस्त्रं शनैर्गसेत्।।  पुनः प्रत्याहरेच्चैतदुदितं धौत...

चित्त | चित्तभूमि | चित्तवृत्ति

 चित्त  चित्त शब्द की व्युत्पत्ति 'चिति संज्ञाने' धातु से हुई है। ज्ञान की अनुभूति के साधन को चित्त कहा जाता है। जीवात्मा को सुख दुःख के भोग हेतु यह शरीर प्राप्त हुआ है। मनुष्य द्वारा जो भी अच्छा या बुरा कर्म किया जाता है, या सुख दुःख का भोग किया जाता है, वह इस शरीर के माध्यम से ही सम्भव है। कहा भी गया  है 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्' अर्थात प्रत्येक कार्य को करने का साधन यह शरीर ही है। इस शरीर में कर्म करने के लिये दो प्रकार के साधन हैं, जिन्हें बाह्यकरण व अन्तःकरण के नाम से जाना जाता है। बाह्यकरण के अन्तर्गत हमारी 5 ज्ञानेन्द्रियां एवं 5 कर्मेन्द्रियां आती हैं। जिनका व्यापार बाहर की ओर अर्थात संसार की ओर होता है। बाह्य विषयों के साथ इन्द्रियों के सम्पर्क से अन्तर स्थित आत्मा को जिन साधनों से ज्ञान - अज्ञान या सुख - दुःख की अनुभूति होती है, उन साधनों को अन्तःकरण के नाम से जाना जाता है। यही अन्तःकरण चित्त के अर्थ में लिया जाता है। योग दर्शन में मन, बुद्धि, अहंकार इन तीनों के सम्मिलित रूप को चित्त के नाम से प्रदर्शित किया गया है। परन्तु वेदान्त दर्शन अन्तःकरण चतुष्टय की...

Yoga MCQ Questions Answers in Hindi

 Yoga multiple choice questions in Hindi for UGC NET JRF Yoga, QCI Yoga, YCB Exam नोट :- इस प्रश्नपत्र में (25) बहुसंकल्पीय प्रश्न है। प्रत्येक प्रश्न के दो (2) अंक है। सभी प्रश्न अनिवार्य ।   1. किस उपनिषद्‌ में ओंकार के चार चरणों का उल्लेख किया गया है? (1) प्रश्नोपनिषद्‌         (2) मुण्डकोपनिषद्‌ (3) माण्डूक्योपनिषद्‌  (4) कठोपनिषद्‌ 2 योग वासिष्ठ में निम्नलिखित में से किस पर बल दिया गया है? (1) ज्ञान योग  (2) मंत्र योग  (3) राजयोग  (4) भक्ति योग 3. पुरुष और प्रकृति निम्नलिखित में से किस दर्शन की दो मुख्य अवधारणाएं हैं ? (1) वेदांत           (2) सांख्य (3) पूर्व मीमांसा (4) वैशेषिक 4. निम्नांकित में से कौन-सी नाड़ी दस मुख्य नाडियों में शामिल नहीं है? (1) अलम्बुषा  (2) कुहू  (3) कूर्म  (4) शंखिनी 5. योगवासिष्ठानुसार निम्नलिखित में से क्या ज्ञानभूमिका के अन्तर्गत नहीं आता है? (1) शुभेच्छा (2) विचारणा (3) सद्भावना (4) तनुमानसा 6. प्रश्नो...

UGC NET पेपर-1 Communication विषय पर MCQs (Set-1)

  1. संचार प्रक्रिया का सबसे महत्वपूर्ण घटक कौन सा है? A) स्रोत B) संदेश C) रिसीवर D) फीडबैक ANSWER= (D) फीडबैक Check Answer   2. ‘किसी संदेश का अर्थ समझने में बाधा उत्पन्न करने वाला तत्व’ किसे कहते हैं? A) माध्यम B) शोर (Noise) C) चैनल D) फीडबैक ANSWER= (B) शोर (Noise) Check Answer   3. संचार के कितने मूलभूत प्रकार होते हैं? A) 2 B) 3 C) 4 D) 5 ANSWER= (B) 3 (मौखिक, लिखित, और गैर-मौखिक संचार) Check Answer   4. संचार मॉडल में "कंटेंट कोडिंग" किस चरण में होती है? A) एनकोडिंग B) डिकोडिंग C) फीडबैक D) चैनल चयन ANSWER= (A) एनकोडिंग Check Answer   5. ‘सामूहिक संचार’ (Mass Communication) का प्रमुख उदाहरण क्या है? A) टेलीफोन वार्तालाप B) ईमेल भेजना C) टेलीविजन प्रसारण D) आमने-सामने संवाद ANSWER= (C) टेलीविजन प्रसारण Check Answer   6. ...

सांख्य दर्शन परिचय, सांख्य दर्शन में वर्णित 25 तत्व

सांख्य दर्शन के प्रणेता महर्षि कपिल है यहाँ पर सांख्य शब्द का अर्थ ज्ञान के अर्थ में लिया गया सांख्य दर्शन में प्रकृति पुरूष सृष्टि क्रम बन्धनों व मोक्ष कार्य - कारण सिद्धान्त का सविस्तार वर्णन किया गया है इसका संक्षेप में वर्णन इस प्रकार है। 1. प्रकृति-  सांख्य दर्शन में प्रकृति को त्रिगुण अर्थात सत्व, रज, तम तीन गुणों के सम्मिलित रूप को त्रिगुण की संज्ञा दी गयी है। सांख्य दर्शन में इन तीन गुणो कों सूक्ष्म तथा अतेनद्रिय माना गया सत्व गुणो का कार्य सुख रजोगुण का कार्य लोभ बताया गया सत्व गुण स्वच्छता एवं ज्ञान का प्रतीक है यह गुण उर्ध्वगमन करने वाला है। इसकी प्रबलता से पुरूष में सरलता प्रीति,अदा,सन्तोष एवं विवेक के सुखद भावो की उत्पत्ति होती है।    रजोगुण दुःख अथवा अशान्ति का प्रतीक है इसकी प्रबलता से पुरूष में मान, मद, वेष तथा क्रोध भाव उत्पन्न होते है।    तमोगुण दुख एवं अशान्ति का प्रतीक है यह गुण अधोगमन करने वाला है तथा इसकी प्रबलता से मोह की उत्पत्ति होती है इस मोह से पुरूष में निद्रा, प्रसाद, आलस्य, मुर्छा, अकर्मण्यता अथवा उदासीनता के भाव उत्पन्न होते है सा...