Skip to main content

स्वामी दयानन्द सरस्वती का जीवन परिचय

महर्षि दयानन्द सरस्वती जी का जीवन परिचय - महर्षि दयानन्द जी का जन्म गुजरात प्रान्त के मौरवी नामक राज्य (वर्तमान में राजकोट) के अन्तर्गत “टंकारा' नामक ग्राम में भाद्र मास की कृष्णपक्ष नवमी के दिन सन् 1824 ई. को हुआ था। महर्षि दयानन्द का बचपन का नाम मूलशंकर था। इनके पिता श्री कृष्णजी तिवारी एक विद्वान एवं धार्मिक प्रवृत्ति के ब्राह्मण थे। इनकी माता का नाम अमृताबाई था तथा परिवार के सभी सदस्य शिव के भक्त थे। इनका जन्म मूलनक्षत्र में होने के कारण इनका नाम मूलशंकर रखा गया था। इनका बचपन बड़ा ही खुशहाल रहा। अपनी माता पिता की पहली संतान होने के कारण परिवार के सभी लोग इन्हें बहुत प्यार करते थे।

प्रारम्भिक शिक्षा के अन्तर्गत लगभग पाँच वर्ष की आयु में मूलशंकर को देवनागरी लिपि की शिक्षा दी गयी। बचपन मे ही पिता जी ने इन्हें गायत्री मन्त्र व अनेक श्लोकों को कण्ठस्थ करा दिया था। इनके पिता मूलशंकर को सभी धार्मिक अनुष्ठानों में साथ रखते थे। इस प्रकार इनकी प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही चली तथा आठ वर्ष की आयु तक इन्होंने यजुर्वेद और व्याकरण के कुछ ग्रन्थों को भी कण्ठस्थ कर लिया था।  

बचपन की घटनाएं-  बचपन से किशोरावस्था तक घटी कुछ घटनाओं ने मूलशंकर का जीवन बदल कर रख दिया था। एक बार शिवरात्रि के दिन इनका पूरा परिवार शिव मन्दिर में जाकर रात्रि जागरण कर रहा था। शिव भक्त होने के कारण परिवार के सभी सदस्यों ने व्रत रखा हुआ था। आधी रात होते होते मन्दिर में सभी भक्तजनों को नींद आ गयी परन्तु बालक मूलशंकर शिव जी के दर्शन की अभिलाषा रखे हुए जागता रहा। उन्हें शिव दर्शन तो हुए नहीं, परन्तु उन्होंने देखा कि एक चूहा शिवलिंग पर चढ़कर उछल कूद कर रहा है और पास मेँ रखा प्रसाद आदि खा रहा है। यह दृश्य देखकर बालक मूलशंकर के मन में मूर्तिपूजा के प्रति अनास्था हो गयी। परिवार व पिता के काफी समझाने पर भी बालक मूलशंकर का हृदय परिवर्तित न हो सका।

इस घटना के कुछ दिन पश्चात् इनकी बहन का रोग के कारण देहान्त हो गया। इसके कुछ दिनों के बाद उनके प्रिय चाचा का भी देहान्त हो गया। चाचा व बहन के प्रति मूलशंकर को काफी लगाव था। इसलिए इन दोनों की मृत्यु ने इनके हृदय को विचलित कर दिया। इस कारुणिक घटना ने इनके समक्ष जीवन की अल्पकालिकता एवं मानवीय आकांक्षाओं की अर्थहीनता को अनावृत्त कर दिया। मूलशंकर को स्पष्ट हो चुका था कि यह जीवन एक क्षणिक प्रदर्शन मात्र है। तभी से इनके मन में सच्चे शिव की खोज करने की इच्छा उत्पन्न हो गयी और इनमें वैराग्य उत्पन्न हो गया। पिता ने इनकी इस अवस्था को देख तो मूलशंकर का विवाह करना चाहा तो लगभग 21 वर्ष की आयु में इन्होंने घर त्याग दिया।

संन्यासी जीवन की प्रवृत्ति-  मूलशंकर घर का त्यागकर सयाला नामक एक गांव में गये, जहाँ एक धार्मिक सम्प्रदाय में सम्मिलित होकर उन्होंने गैरिक वस्त्र धारण कर लिये तथा शुद्ध चैतन्य ब्रह्मचारी के नाम से प्रसिद्ध हुए। कुछ समय पश्चात् सिद्धपुर में प्रत्येक वर्ष की तरह आयोजित धार्मिक मेले में मूलशंकर की भेंट एक वैरागी से हुई जो उनके पिताजी का भी परिचित थे। उन वैरागी ने मूलशंकर के पिता को एक पत्र लिखकर मूलशंकर का पता बता दिया। पत्र पाकर उनके पिता तुरन्त सिद्धपुर पहुँचे जहाँ उनकी भेंट मूलशंकर से एक मन्दिर में हुई। पुत्र को गैरिक वस्त्रों में देखकर पिता अपने क्रोध पर काबू न रख सके और तभी मूलशंकर के गैरिक वस्त्र फाड़ डाले और भिक्षापात्र को तोड़ दिया। इसके पश्चात् मूलशंकर को नये वस्त्र देकर उनकी रखवाली के लिए कुछ नौकरों को नियुक्त कर दिया। रात्रि में नौकरों के गहरी नींद के समय मूलशंकर वहां से चले गये। अगले दिन पिता व नौकरों के ढूंढने पर भी मूलशंकर का पता नहीं चला। तदुपरान्त वे सब वापिस घर को लौट गये। इसके पश्चात् मूलशंकर हरिद्वार चले गये और वहाँ स्वामी पूर्णानन्द सरस्वती से संन्यास की दीक्षा ली और यहां पर इनका नाम दयानन्द सरस्वती रखा गया।

सच्चे गुरु की खोज- संन्यास ग्रहण करने के पश्चात् स्वामी दयानन्द जी भारत के सभी धार्मिक स्थलों का भ्रमण करने लगे। सच्चे गुरु से मिलने की चाह में ये सम्पूर्ण हिमालय के भ्रमण के लिए निकल पड़े। काफी प्रयास के बाद भी जब इनकी आध्यात्मिक जिज्ञासा शांत न हुई, तब इन्होंने विभिन्न योगियों से यौगिक क्रियाएं सीखी और छत्तीस वर्ष की आयु में मथुरा आ गये, जहाँ इनकी भेंट प्रख्यात संन्यासी व संस्कृत के, बहुश्रुत विद्वान स्वामी विरजानन्द से हुई । स्वामी विरजानन्द जन्म से अंधे थे तथा वे अत्यन्त रूक्ष व कठोर स्वभाव के सन्त थे और अपना अधिकांश समय ध्यान मेँ व्यतीत करते थे।

स्वामी दयानन्द जी ने इनको अपना सच्चा गुरू मानकर इनसे व्याकरण और आर्ष ग्रन्थों का अध्ययन किया गुरु से ज्ञान प्राप्त करने के बाद एक दिन स्वामी दयानन्द ने हाथ में कुछ लौंग लेकर गुरु को दक्षिणा स्वरूप देकर कहा कि गुरुदेव मैं एक निर्धन व्यक्ति हूँ। मेरे पास आपको देने के लिए इसके अतिरिक्त कुछ और नहीं है। स्वामी विरजानन्द ने कहा तुम्हारे पास जो कुछ भी है, उसे तुम स्वयं से विलग कर लो, जो शिक्षा तुमने प्राप्त की है, उसका समुचित उपयोग करो। सर्वत्र अपने इस ज्ञान का फैलाव करो, क्योंकि हिन्दू अपने धर्म को विस्मृत कर चुके हैं, उनको यथार्थ वैदिक धर्म की शिक्षा दो। गुरु विरजानन्द के यह कथन सुनकर, स्वामी दयानन्द ने अपने गुरु को प्रणाम किया और वैदिक धर्म के पुनरुत्थान के लिए अपने जीवन को समर्पित कर देने की शपथ ग्रहण की और अपने गुरु से विदा लेकर वे तत्काल अपने कार्य में संलग्न हो गये।

वैदिक धर्म का प्रचार- वैदिक धर्म के प्रचार हेतु स्वामी दयानन्द सरस्वती आगरा और ग्वालियर गये जहाँ उन्होंने प्रवचन दिये और उसके पश्चात् जयपुर के लिए रवाना हो गये। जयपुर के महाराज ने उनका श्रद्धा तथा उत्साहपूर्वक स्वागत किया।

स्वामी दयानन्द ने हरिद्वार, वाराणसी तथा कलकत्ता में प्रवचन दिया। वह देवेन्द्रनाथ टैगोर और बाबू केशवचन्द्र सेन से मिले। उन्होंने अपने प्रवचन हिन्दी तथा संस्कृत में दिये, जिनके माध्यम से मूर्ति-पूजा का विरोध किया मूर्ति-पूजा के विरोध में प्रवचन देने के कारण उन्हें रूढ़िवादी हिन्दुओं के क्रोध का सामना करना पड़ा। कई बार तो इन पर जानलेवा प्रहार भी किया गया किन्तु स्वामी दयानन्द वैदिक मत का प्रचार निरन्तर करते रहे। अपने वैदिक धर्म के प्रचार-प्रसार के दौरान उन्होंने लेखन कार्य भी किया तथा सत्यार्थ प्रकाश नामक क्रान्तिकारी ग्रन्थ का सृजन किया।

आर्यसमाज की स्थापना- वैदिक धर्म के प्रचार-प्रसार हेतु स्वामी दयानन्द ने बम्बई में सन् 1875 में आर्यसमाज की स्थापना की जिसके माध्यम से सम्पूर्ण भारतवर्ष में अनेक सामाजिक कार्य किये गये। स्वामी दयानन्द जी के प्रयत्न स्वरूप अनेक विद्यालयों, महाविद्यालयों तथा अनाथालयों की स्थापना हुई। आर्यसमाज द्वारा स्थापित गुरुकुलों में आज भी परम्परागत शिक्षा का कार्य चल रहा है। महर्षि दयानन्द समाज सुधारक के साथ -साथ एक महान योगी होने के कारण निरन्तर योग साधना में लगे रहते थे। विरोधियों द्वारा अनेकों बार विष देने के प्रयास को यौगिक क्रियाओं द्वारा ही असफल किया। स्वामी दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश के साथ साथ ऋग्वेद, यजुर्वेद का भी भाष्य किया। स्वामी दयानन्द के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए इनके विरोधियों की भी संख्या बढ़ती गयी। स्वामी दयानन्द के स्वतन्त्रता की बात करने के कारण अंग्रेजी सरकार भी उनसे नाराज रहती थी। प्रथम स्वाधीनता संग्राम में महारानी लक्ष्मीबाई तथा क्रान्तिवीरों के साथ भारत की स्वाधीनता के लिए भी कार्य किया। उनका कथन था कि विदेशी राज्य चाहे कितना भी अच्छा हो, स्वराज्य से अच्छा नहीं हो सकता। अतः स्वराज्य प्राप्ति के लिए पूर्ण प्रयास किया जाना चाहिए। 

निर्वाण- स्वामी दयानन्द सरस्वती जी जोधपुर के महाराज यशवन्त सिंह के आमंत्रण पर जोधपुर पहुंचे। वहाँ पर राजा को एक वेश्या के साथ देखकर उन्होंने राजा को बहुत फटकारा। इस बात से वह नन्हीजान नामक वेश्या खिन्न हो गई। उसने राजमहल के रसोइये जगन्नाथ को लालच देकर इनके दूध में कांच तथा जहर मिलाकर पिला दिया। स्वामी जी को जब इस बात का पता लगा तो उन्होने रसोइये को अपने पास से पैसे देकर नेपाल भाग जाने को कहा। उन्हें डर था कि मेरे बाद लोग इसे मार डालेंगे। यह बात स्वामी जी की महानता को दर्शाती है कि अपने मारने वाले के प्रति भी उनके मन में दया का भाव था। इसके बाद स्वामी जी का बहुत उपचार किया गया किन्तु कांचमिश्रित विष इतना तेज था कि उसके कारण उनकी स्थिति बिगड़ती चली गई। जोधपुर से उन्हें चिकित्सा के लिए आबू तथा आबू से अजमेर लाया गया परन्तु यहां भी इनकी अवस्था में कोई सुधार नहीं हुआ। इतने तीव्र कष्ट होने पर भी उनके मुख पर किसी प्रकार की वेदना दिखाई नहीं देती थी, जिसको देखकर नास्तिक गुरुदत्त विद्यार्थी भी आस्तिक हो गया था। 

सन 1883 में कार्तिक मास की अमावस्या को स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने संध्या के समय ध्यानावस्था में बैठकर वेदमन्त्रों के उच्चारण के साथ 'प्रभु तेरी इच्छा पूर्ण हो” यह कहकर इस नश्वर शरीर को त्याग दिया।

स्वामी दयानन्द जी की शिक्षाएं - आर्य समाज के नियम व उद्देश्य-

सब सत्यविद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं, उन सबका आदिमूल परमेश्वर है।  

ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्ता, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है।

वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक है। वेद का पढ़ना पढ़ाना और सुनना सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है।

सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए।

सब काम धर्मानुसार अर्थात सत्य और असत्य को विचार करके करने चाहिए।

संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है अर्थात् शारीरिक एवं आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना।

सब मनुष्यों को सामाजिक, सर्वहितकारी नियम पालने में परतन्त्र रहना चाहिए और प्रत्येक हितकारी नियम में सब स्वतन्त्र रहें। 

अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिए। 

सबसे प्रीतिपूर्वक धर्मानुसार यथायोग्य व्यवहार करना चाहिए।


गुरु गोरक्षनाथ जी का जीवन परिचय 

अष्टांग योग

श्रीमद्भगवद्गीता का सामान्य परिचय 

Comments

Popular posts from this blog

सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति सामान्य परिचय

प्रथम उपदेश- पिण्ड उत्पति विचार सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति अध्याय - 2 (पिण्ड विचार) सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार नौ चक्रो के नाम 1. ब्रहमचक्र - मूलाधार मे स्थित है, कामनाओं की पूर्ति होती हैं। 2. स्वाधिष्ठान चक्र - इससे हम चीजो को आकर्षित कर सकते है। 3. नाभी चक्र - सिद्धि की प्राप्ति होती है। 4. अनाहत चक्र - हृदय में स्थित होता है। 5. कण्ठचक्र - विशुद्धि-संकल्प पूर्ति, आवाज मधुर होती है। 6. तालुचक्र -  घटिका में, जिह्वा के मूल भाग में,  लय सिद्धि प्राप्त होती है। 7. भ्रुचक्र -     आज्ञा चक्र - वाणी की सिद्धि प्राप्त होती है। 8. निर्वाणचक्र - ब्रहमरन्ध्र, सहस्त्रार चक्र, मोक्ष प्राप्ति 9. आकाश चक्र - सहस्त्रारचक्र के ऊपर,  भय- द्वेष की समाप्ति होती है। सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार सोहल आधार (1) पादांगुष्ठ आधार (2) मूलाधार (3) गुदाद्वार आधार (4) मेद् आधार (5) उड्डियान आधार (6) नाभी आधार (7) हृदयाधार (8) कण्ठाधार (9) घटिकाधार (10) तालु आधार (11) जिह्वा आधार (12) भ्रूमध्य आधार (13) नासिका आधार (14) नासामूल कपाट आधार (15) ललाट आधार (16) ब्रहमरंध्र आधार सिद्ध...

घेरण्ड संहिता में वर्णित "प्राणायाम" -- विधि, लाभ एवं सावधानियाँ

घेरण्ड संहिता के अनुसार प्राणायाम घेरण्डसंहिता में महर्षि घेरण्ड ने आठ प्राणायाम (कुम्भको) का वर्णन किया है । प्राण के नियन्त्रण से मन नियन्त्रित होता है। अत: प्रायायाम की आवश्यकता बताई गई है। हठयोग प्रदीपिका की भांति प्राणायामों की संख्या घेरण्डसंहिता में भी आठ बताई गईं है किन्तु दोनो में थोडा अन्तर है। घेरण्डसंहिता मे कहा गया है- सहित: सूर्यभेदश्च उज्जायी शीतली तथा। भस्त्रिका भ्रामरी मूर्च्छा केवली चाष्टकुम्भका।। (घे.सं0 5 / 46) 1. सहित, 2. सूर्य भेदन, 3. उज्जायी, 4. शीतली, 5. भस्त्रिका, 6. भ्रामरी, 7. मूर्च्छा तथा 8. केवली ये आठ कुम्भक (प्राणायाम) कहे गए हैं। प्राणायामों के अभ्यास से शरीर में हल्कापन आता है। 1. सहित प्राणायाम - सहित प्राणायाम दो प्रकार के होते है (i) संगर्भ और (ii) निगर्भ । सगर्भ प्राणायाम में बीज मन्त्र का प्रयोग किया जाता हैँ। और निगर्भ प्राणायाम का अभ्यास बीज मन्त्र रहित होता है। (i) सगर्भ प्राणायाम- इसके अभ्यास के लिये पहले ब्रह्मा पर ध्यान लगाना है, उन पर सजगता को केन्द्रित करते समय उन्हें लाल रंग में देखना है तथा यह कल्पना करनी है कि वे लाल है और रजस गुणों से...

Yoga MCQ Questions Answers in Hindi

 Yoga multiple choice questions in Hindi for UGC NET JRF Yoga, QCI Yoga, YCB Exam नोट :- इस प्रश्नपत्र में (25) बहुसंकल्पीय प्रश्न है। प्रत्येक प्रश्न के दो (2) अंक है। सभी प्रश्न अनिवार्य ।   1. किस उपनिषद्‌ में ओंकार के चार चरणों का उल्लेख किया गया है? (1) प्रश्नोपनिषद्‌         (2) मुण्डकोपनिषद्‌ (3) माण्डूक्योपनिषद्‌  (4) कठोपनिषद्‌ 2 योग वासिष्ठ में निम्नलिखित में से किस पर बल दिया गया है? (1) ज्ञान योग  (2) मंत्र योग  (3) राजयोग  (4) भक्ति योग 3. पुरुष और प्रकृति निम्नलिखित में से किस दर्शन की दो मुख्य अवधारणाएं हैं ? (1) वेदांत           (2) सांख्य (3) पूर्व मीमांसा (4) वैशेषिक 4. निम्नांकित में से कौन-सी नाड़ी दस मुख्य नाडियों में शामिल नहीं है? (1) अलम्बुषा  (2) कुहू  (3) कूर्म  (4) शंखिनी 5. योगवासिष्ठानुसार निम्नलिखित में से क्या ज्ञानभूमिका के अन्तर्गत नहीं आता है? (1) शुभेच्छा (2) विचारणा (3) सद्भावना (4) तनुमानसा 6. प्रश्नो...

हठयोग प्रदीपिका के अनुसार षट्कर्म

हठप्रदीपिका के अनुसार षट्कर्म हठयोगप्रदीपिका हठयोग के महत्वपूर्ण ग्रन्थों में से एक हैं। इस ग्रन्थ के रचयिता योगी स्वात्माराम जी हैं। हठयोग प्रदीपिका के द्वितीय अध्याय में षटकर्मों का वर्णन किया गया है। षटकर्मों का वर्णन करते हुए स्वामी स्वात्माराम  जी कहते हैं - धौतिर्बस्तिस्तथा नेतिस्त्राटकं नौलिकं तथा।  कपालभातिश्चैतानि षट्कर्माणि प्रचक्षते।। (हठयोग प्रदीपिका-2/22) अर्थात- धौति, बस्ति, नेति, त्राटक, नौलि और कपालभोंति ये छ: कर्म हैं। बुद्धिमान योगियों ने इन छः कर्मों को योगमार्ग में करने का निर्देश किया है। इन छह कर्मों के अतिरिक्त गजकरणी का भी हठयोगप्रदीपिका में वर्णन किया गया है। वैसे गजकरणी धौतिकर्म के अन्तर्गत ही आ जाती है। इनका वर्णन निम्नलिखित है 1. धौति-  धौँति क्रिया की विधि और  इसके लाभ एवं सावधानी- धौँतिकर्म के अन्तर्गत हठयोग प्रदीपिका में केवल वस्त्र धौति का ही वर्णन किया गया है। धौति क्रिया का वर्णन करते हुए योगी स्वात्माराम जी कहते हैं- चतुरंगुल विस्तारं हस्तपंचदशायतम। . गुरूपदिष्टमार्गेण सिक्तं वस्त्रं शनैर्गसेत्।।  पुनः प्रत्याहरेच्चैतदुदितं ध...

चित्त | चित्तभूमि | चित्तवृत्ति

 चित्त  चित्त शब्द की व्युत्पत्ति 'चिति संज्ञाने' धातु से हुई है। ज्ञान की अनुभूति के साधन को चित्त कहा जाता है। जीवात्मा को सुख दुःख के भोग हेतु यह शरीर प्राप्त हुआ है। मनुष्य द्वारा जो भी अच्छा या बुरा कर्म किया जाता है, या सुख दुःख का भोग किया जाता है, वह इस शरीर के माध्यम से ही सम्भव है। कहा भी गया  है 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्' अर्थात प्रत्येक कार्य को करने का साधन यह शरीर ही है। इस शरीर में कर्म करने के लिये दो प्रकार के साधन हैं, जिन्हें बाह्यकरण व अन्तःकरण के नाम से जाना जाता है। बाह्यकरण के अन्तर्गत हमारी 5 ज्ञानेन्द्रियां एवं 5 कर्मेन्द्रियां आती हैं। जिनका व्यापार बाहर की ओर अर्थात संसार की ओर होता है। बाह्य विषयों के साथ इन्द्रियों के सम्पर्क से अन्तर स्थित आत्मा को जिन साधनों से ज्ञान - अज्ञान या सुख - दुःख की अनुभूति होती है, उन साधनों को अन्तःकरण के नाम से जाना जाता है। यही अन्तःकरण चित्त के अर्थ में लिया जाता है। योग दर्शन में मन, बुद्धि, अहंकार इन तीनों के सम्मिलित रूप को चित्त के नाम से प्रदर्शित किया गया है। परन्तु वेदान्त दर्शन अन्तःकरण चतुष्टय की...

हठयोग प्रदीपिका का सामान्य परिचय

हठयोग प्रदीपिका ग्रन्थ के रचयिता स्वामी स्वात्माराम योगी हैँ। इन्होंने हठयोग के चार अंगो का मुख्य रूप से वर्णन किया है तथा इन्ही को चार अध्यायों मे बाँटा गया है। स्वामी स्वात्माराम योगी द्वारा बताए गए योग के चार अंग इस प्रकार है । 1. आसन-  "हठस्थ प्रथमांगत्वादासनं पूर्वमुच्यतै"  कहकर योगी स्वात्माराम जी  ने प्रथम अंग के रुप में आसन का वर्णन किया है। इन आसनो का उद्देश्य स्थैर्य, आरोग्य तथा अंगलाघव बताया गया है   'कुर्यात्तदासनं स्थैर्यमारोग्यं चांगलाघवम् '।  ह.प्र. 1/17 आसनो के अभ्यास से साधक के शरीर मे स्थिरता आ जाती है। चंचलता समाप्त हो जाती हैं. लचीलापन आता है, आरोग्यता आ जाती है, शरीर हल्का हो जाता है 1 हठयोगप्रदीपिका में पन्द्रह आसनों का वर्णन किया गया है हठयोगप्रदीपिका में वर्णित 15 आसनों के नाम 1. स्वस्तिकासन , 2. गोमुखासन , 3. वीरासन , 4. कूर्मासन , 5. कुक्कुटासन . 6. उत्तानकूर्मासन , 7. धनुरासन , 8. मत्स्येन्द्रासन , 9. पश्चिमोत्तानासन , 10. मयूरासन , 11. शवासन , 12. सिद्धासन , 13. पद्मासन , 14. सिंहासन , 15. भद्रासना । 2. प्राणायाम- ...

सांख्य दर्शन परिचय, सांख्य दर्शन में वर्णित 25 तत्व

सांख्य दर्शन के प्रणेता महर्षि कपिल है यहाँ पर सांख्य शब्द का अर्थ ज्ञान के अर्थ में लिया गया सांख्य दर्शन में प्रकृति पुरूष सृष्टि क्रम बन्धनों व मोक्ष कार्य - कारण सिद्धान्त का सविस्तार वर्णन किया गया है इसका संक्षेप में वर्णन इस प्रकार है। 1. प्रकृति-  सांख्य दर्शन में प्रकृति को त्रिगुण अर्थात सत्व, रज, तम तीन गुणों के सम्मिलित रूप को त्रिगुण की संज्ञा दी गयी है। सांख्य दर्शन में इन तीन गुणो कों सूक्ष्म तथा अतेनद्रिय माना गया सत्व गुणो का कार्य सुख रजोगुण का कार्य लोभ बताया गया सत्व गुण स्वच्छता एवं ज्ञान का प्रतीक है यह गुण उर्ध्वगमन करने वाला है। इसकी प्रबलता से पुरूष में सरलता प्रीति,अदा,सन्तोष एवं विवेक के सुखद भावो की उत्पत्ति होती है।    रजोगुण दुःख अथवा अशान्ति का प्रतीक है इसकी प्रबलता से पुरूष में मान, मद, वेष तथा क्रोध भाव उत्पन्न होते है।    तमोगुण दुख एवं अशान्ति का प्रतीक है यह गुण अधोगमन करने वाला है तथा इसकी प्रबलता से मोह की उत्पत्ति होती है इस मोह से पुरूष में निद्रा, प्रसाद, आलस्य, मुर्छा, अकर्मण्यता अथवा उदासीनता के भाव उत्पन्न होते है सा...

ज्ञानयोग - ज्ञानयोग के साधन - बहिरंग साधन , अन्तरंग साधन

  ज्ञान व विज्ञान की धारायें वेदों में व्याप्त है । वेद का अर्थ ज्ञान के रूप मे लेते है ‘ज्ञान’ अर्थात जिससे व्यष्टि व समष्टि के वास्तविक स्वरूप का बोध होता है। ज्ञान, विद् धातु से व्युत्पन्न शब्द है जिसका अर्थ किसी भी विषय, पदार्थ आदि को जानना या अनुभव करना होता है। ज्ञान की विशेषता व महत्त्व के विषय में बतलाते हुए कहा गया है "ज्ञानाग्नि सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा" अर्थात जिस प्रकार प्रज्वलित अग्नि ईंधन को जलाकर भस्म कर देती है उसी प्रकार ज्ञान रुपी अग्नि कर्म रूपी ईंधन को भस्म कर देती है। ज्ञानयोग साधना पद्धति, ज्ञान पर आधारित होती है इसीलिए इसको ज्ञानयोग की संज्ञा दी गयी है। ज्ञानयोग पद्धति मे योग का बौद्धिक और दार्शनिक पक्ष समाहित होता है। ज्ञानयोग 'ब्रहासत्यं जगतमिथ्या' के सिद्धान्त के आधार पर संसार में रह कर भी अपने ब्रह्मभाव को जानने का प्रयास करने की विधि है। जब साधक स्वयं को ईश्वर (ब्रहा) के रूप ने जान लेता है 'अहं ब्रह्मास्मि’ का बोध होते ही वह बंधनमुक्त हो जाता है। उपनिषद मुख्यतया इसी ज्ञान का स्रोत हैं। ज्ञानयोग साधना में अभीष्ट लक्ष्य को प्राप्त ...

हठयोग प्रदीपिका में वर्णित प्राणायाम

हठयोग प्रदीपिका में प्राणायाम को कुम्भक कहा है, स्वामी स्वात्माराम जी ने प्राणायामों का वर्णन करते हुए कहा है - सूर्यभेदनमुज्जायी सीत्कारी शीतल्री तथा।  भस्त्रिका भ्रामरी मूर्च्छा प्लाविनीत्यष्टकुंम्भका:।। (हठयोगप्रदीपिका- 2/44) अर्थात् - सूर्यभेदन, उज्जायी, सीत्कारी, शीतली, भस्त्रिका, भ्रामरी, मूर्छा और प्लाविनी में आठ प्रकार के कुम्भक (प्राणायाम) है। इनका वर्णन ऩिम्न प्रकार है 1. सूर्यभेदी प्राणायाम - हठयोग प्रदीपिका में सूर्यभेदन या सूर्यभेदी प्राणायाम का वर्णन इस प्रकार किया गया है - आसने सुखदे योगी बदध्वा चैवासनं ततः।  दक्षनाड्या समाकृष्य बहिस्थं पवन शनै:।।  आकेशादानखाग्राच्च निरोधावधि क्रुंभयेत। ततः शनैः सव्य नाड्या रेचयेत् पवन शनै:।। (ह.प्र. 2/48/49) अर्थात- पवित्र और समतल स्थान में उपयुक्त आसन बिछाकर उसके ऊपर पद्मासन, स्वस्तिकासन आदि किसी आसन में सुखपूर्वक मेरुदण्ड, गर्दन और सिर को सीधा रखते हुए बैठेै। फिर दाहिने नासारन्ध्र अर्थात पिंगला नाडी से शनैः शनैः पूरक करें। आभ्यन्तर कुम्भक करें। कुम्भक के समय मूलबन्ध व जालन्धरबन्ध लगा कर रखें।  यथा शक्ति कुम्भक के प...