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गुरु गोरक्षनाथ जी का जीवन परिचय

 महर्षि गोरक्षनाथ जी की जीवनी- महायोगी गोरक्षनाथ ऐसे दिव्य सर्वसिद्ध साधक हैं, जो आज भी अप्रत्यक्ष रूप से योगविद्या का प्रचार प्रसार कर रहे हैं। माना जाता है कि सूक्ष्म सत्ता के रूप में वे हमारा मार्ग दर्शन करने के लिए  हमारे बीच विद्यमान हैं। 

महायोगी गोरक्षननाथ के जन्म के संबन्ध में विभिन्न विद्वानों द्वारा अलौकिक वृतान्तों का वर्णन मिलता है। इनमें प्रायः सर्वमान्य धारणा है कि अवधूत योगी गुरु मत्स्येन्द्रनाथ भिक्षा के लिए एक निर्धन ब्राह्मण सर्वापदयाल के घर जाते हैं। भीतर ब्राह्मणी सरस्वती देवी को दुःख से व्याकुल देखकर उसे एक सुन्दर बालक की माता बनने के लिए भस्म देकर उसे खाने के लिये कहते हैं अवधूत गुरु के जाने पर लोकव्यवहार में शंका से प्रेरित होकर ब्राह्मणी भस्म को गोबर के ढेर में दबा देती है।

लेकिन एक दिन अकस्मात् बारह वर्ष के पश्चात वही अवधूत वेषधारी मत्स्येन्द्रनाथ जी पुनः ब्राह्मणी के यहां आते हैं और वे उस ब्राह्मणी से मिलते हैं और उसको पूर्ववर्ती घटना का स्मरण कराते हैं। तब ब्राह्णी अवधूत वेषधारी को उसी स्थान पर ले जाती है, जहां उसने बारह वर्ष पूर्व वह भस्म फेंक दी थी। योगी की दिव्य साधना से अभिप्रेरित वह भस्म ”अलखनिरंजन“ के शब्द संघात मात्र से 12 वर्ष के सुन्दर गौर वर्ण बालक के रूप में परिणत हो जाती है। तदुपरान्त योगी मत्स्येन्द्रनाथ बालक का नामकरण गोबर से उत्पन्न होने के कारण गोरक्षनाथ कहते हैं। जन्म संदर्भ के फलस्वरूप इनके जन्म को अयोनिज कहते हैं। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से योगी मत्स्येन्द्रनाथ, गुरू गोरक्षनाथ जी के पिता एवं गुरु माने जाते हैं। योगी गोरक्षनाथ जी भी स्वयं इस बात का स्पष्टीकरण कुछ इस प्रकार करते हैं- आदिनाथ नाती मच्छन्दरनाथ पूता। निज तत् निहारे गोरक्ष अवधूता।।  (गोरखबानी पद- 37)

जन्म स्थान की अवधारणा- गुरू गोरक्षनाथ जी के जन्म स्थान के सम्बन्ध में स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलते हैं । डॉ. नागेन्द्र नाथ उपाध्याय ने गुरु गोरक्षनाथ के जन्म स्थान के विषय में लगभग 17 मतों का संकलन किया जिसमें योगी गोरक्षनाथ का जन्म स्थान बंगाल में चन्द्र गिरि ग्राम बताया है।

श्री रामलाल श्रीवास्तव, महायोगी गोरक्षनाथ जी व उनकी तपस्थली के सम्बन्ध में लिखते हैं कि गोरक्षनाथ अवध की परम्परा के अनुसार जायस नामक नगर के एक परम पवित्र ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए थे। जबकि दूसरी मान्यताएं नेपाल के सुदूर ग्राम का संदर्भ देती हैं, कुछ अन्य मत पंजाब का संकेत देते हैं। गोरखपुर के श्री गोरखनाथ मन्दिर में महायोगी अवधूत गोरक्षनाथ जी की भव्य प्रतिमा स्थापित है। कहा जाता है कि त्रेता युग में तपस्या के दौरान योगीराज ने यहाँ "अखण्ड धूना“ प्रज्ज्वलित किया था जो आज भी अनवरत विद्यमान है।

काल निर्णय-  महायोगी गोरक्षनाथ के जन्म व मृत्यु के सम्बन्ध में यूँ तो स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलते। लेकिन कई विद्वानों ने इसे द्वापर, त्रेता एवं कलयुग तीनों में माना है। माना जाता है कि वे अमरयोगी हैं। अधिकांशतः उनका जीवनकाल 7वीं शताब्दी से 12वीं शताब्दी तक माना जाता है, जो प्रायः बहुमान्य है।

महायोगी गुरू गोरक्षनाथ जी की योगसाधना- जैसा कि पूर्ववर्ती विवरण से ज्ञात है कि स्वयं अवधूत गुरु सिद्धयोगी मत्स्येन्द्रनाथ जी उसके गुरु थे तथा महासिद्ध गोरक्षनाथ ने विभिन्न आगमादि कृत्यों एवं योग अभ्यास के बल पर असंख्य सिद्धियां प्राप्त की हुई थी। कल्पद्रुम तन्त्र में गोरक्षनाथ को सिद्ध योगी बताते हुए कहा गया है-

”अहमेवाऽस्मि गोरक्षे मद्रूपं तन्निबोधत। 

योगमार्ग प्रचारार्थ मायारूपमिदं धृतम।।“

नाथ सम्प्रदाय के आविर्भाव के विषय में लिखते हुए डा. कल्याणी मलिक बताती हैं कि सातवीं शताब्दी से 12 वीं शताब्दी तक बौद्ध धर्म का पतन एवं शैव धर्म का अभ्युदय हुआ है तथा कालान्तर में यही शैव सम्प्रदाय कारुणिक, कापालिक, पशुपत, माहेश्वर, लकुलीस में बँट गया। इन सब में शिव को आदि संस्थापक एवं योगियों के योगी कहा है तथा इन्हीं सिद्ध की परम्परा में नाथ सम्प्रदाय का विकास हुआ, जिसके संस्थापक योगी मत्स्येन्द्रताथ जी को माना जाता है तथा इनके बाद गुरू गोरक्षनाथ जी ने इस नाथ सम्प्रदाय को क्रान्ति का रूप देते हुए नई दिशा प्रदान की। जबकि दूसरी ओर डॉ. वेदप्रकाश जुनेजा ने नव नाथों को ही नाथ परम्परा का प्रतिनिधि माना है। जिनके नाम इस प्रकार हैं ॥. आदिनाथ, 2. मत्स्येन्द्रनाथ, 3. जालन्धरनाथ, 4. गोरक्षनाथ, 5. चरपटीनाथ, 6. कानिफा नाथ, 7. चौरंगीनाथ, 8. भर्तृहरि  9. गोपीचन्द।
नाथ साहित्य श्रृंखला में गोरक्षसंहिता, गोरक्ष पद्धति, गोरक्ष सिद्धान्त संग्रह, सिद्ध सिद्धान्त पद्धति,  हठयोग प्रदीपिका, विवेक मार्तण्ड, गोरक्ष सहस्रनाम, अमनस्क योग, घेरण्डसंहिता, अमरौध शासनम्, योग तारावली, महार्थ मंजरी आदि आते हैं।
सिद्ध सिद्धान्त पद्धति में गोरक्षनाथ जी भी अष्टांग योग की चर्चा करते हैं-

यमनियमासन प्राणायाम प्रत्याहार। 

धारणा ध्यान समाधयोऽष्टावंगानि।।“ (सि0सि0प0 2/32)

'योगबीज' नाम ग्रन्थ में गोरक्षनाथ ने योगमार्ग को मुक्ति मार्ग बताते हुए कहा है कि सिद्ध प्रतिपादित योगमार्ग से ही मुक्ति प्राप्त की जा सकती है।  

सर्वसिद्धिकरों मार्गों मायाजालनिड्डन्तम। 

बद्धा येन विमुच्यते नाथ मार्गमतः परम।। (योगबीज 6/7) 

इसी प्रकार महायोगी गोरक्षनाथ जी योग को परिभाषित करते हुए कहते हैं-

“योऽपान प्राणयौरऐक्यं स्थरजो रेतसोस्तथा। 

सूर्याचन्द्रमसोर्योगोद जीवात्मा परमात्मनोः।। 

एवं तु द्वन्द्वजालस्य संयोगो योग उच्यते।। (योगबीज 89/90)
प्राण, अपान, रज एवं वीर्य, सूर्य एवं चन्द्र तथा जीवात्मा और परमात्मा (शिव- शक्ति) का मिलन ही योग है।
महाशक्ति कुण्डलिनी के विषय में गोरक्षनाथ जी वर्णन करते हैं कि यदपि कुण्डलिनी शक्ति अपने मूलरूप में चेतन है तथापि प्रबुद्ध न होने के कारण, सांसारिक द्वन्द्वों में भ्रमित होने के कारण बन्धनकारिणी है तथा जागृत अवस्था में शिव के स्वरूप का ज्ञान कराकर योगियों को मोक्ष प्रदान करती है।
कन्दोर्ध्व कुण्डली शक्ति: सुप्ता मोक्षाय योगिनाम। 

बन्धनाय च मूढानां यस्तां वेत्ति स योगवित्।। (गोरक्षशतक - 56) 

योग विभूतियां- योग साधना के बल पर गोरक्षनाथ जी ने अनेक सिद्धियां प्राप्त की जिनका वर्णन “'गोरखनाथ चरित्र' में भी देंखने को मिलता है। एक कथानुसार राजा भर्तृहरि अपनी रानी पिंगला की मृत्यु हो जानें पर उसके शोक में श्मशान पर पिंगला- पिंगला की रट लगाये हुए थे। जब गोरक्षनाथ ने राजा भर्तृहरि को विलाप करते देखा तो उनके उद्धार हेतु उन्होंने एक मिट्टी का घड़ा तोड़कर वहीं पर घड़ा - घड़ा चिल्लाकर विलाप करने लगे। धीरे धीरे राजा भर्तृहरि की आवाज गोरक्षनाथ जी की आवाज से दबने लगी। इस पर राजा भर्तृहरि गोरक्षनाथ जी के पास जाकर बोले कि क्यों रो रहे हो? ऐसा घड़ा तो और बन जायेगा। गोरक्षनाथ ने उत्तर देते हुए कहा घड़ा तो वैसा नहीं बन सकता, लेकिन पिंगलाएं बन सकती हैं। अकस्मात भर्तहरि के सामने कई पिंगलाए उपस्थित हो गयी। गुरू गोरक्षनाथ जी के यौगिक प्रभाव को देखकर भर्तृहरि मोह से निवृत्त हुए और गोरक्षनाथ जी के शिष्य बन गये।  

ऐसे ही एक अन्य कथानक के अनुसार एक बार गोरक्षनाथ की भेंट कानिफानाथ से हुई | स्वागत के लिये कानिफानाथ ने आम के वृक्ष से कुछ फल अपनी योग शक्ति के द्वारा अपने पास एकत्रित कर लिये। जो स्वयं पेड़ से टूट कर आये थे। दोनों ने फल खाए। खाने के बाद कुछ फल शेष बच गए। इस बात पर गोरक्षनाथ ने कानिफानाथ से कहा इन्हें जहाँ से तोड़ा है, वहीं लगा दो। परिहास में निषेधात्मक उत्तर मिला। तब गोरक्षनाथ ने अपनी अभिमन्त्रित भभूत उन आमों पर डाली। जिससे वह पुनः वृक्षों पर जाकर लटक गये। कानिफानाथ को अपनी विद्या की अल्पता का ज्ञान हुआ।
 

गोरक्षनाथ ने समय समय पर विभिन्न स्थानों पर कठोर साधनाएँ की। जिसमें कुछ का प्रामाणिक विवरण जोधपुर नरेश मानसिंह द्वारा संग्रहीत “श्रीनाथ तीर्थावली' में यथाक्रम मिलता है। भारत में सौराष्ट्र, पंजाब, उत्तराखण्ड, हिमालय के अनेक स्थानों पर, बंगाल, उड़ीसा, कर्नाटक, गोरखपुर, उत्तरप्रदेश, आदि स्थानों पर अगाध तप किया। जिसका विवरण 'नवनाथ चरित्र एवं सिद्धान्त सार' नामक  ग्रन्थों में मिलता है।

इस प्रकार कई ऐसे प्रसंग गुरु गोरक्षनाथ जी के जीवन के संबन्ध में मिलते हैं जिनसे उनकी योगसाधना एवं सिद्धियों के विषय में पता चलता है। महायोगी गोरक्षनाथ जी ने इन्द्रियनिग्रह करके योग साधना के आदर्शों को सामने लाकर संयमपूर्ण जीवन की उच्चता, आडम्बर रहित जीवन की महत्ता तथा चरित्र की परम उच्च महिमा की ओर ध्यान आकृष्ट किया। वास्तव में महायोगी गोरक्षनाथ जी सिद्ध योगी थे जिन्हें जन्म देकर भारतमाता धन्य हुई। महायोगी गोरक्षनाथ ने आध्यात्मिकता, मानवता एवं एकता का मार्ग दिखाने का सराहनीय कार्य किया है।

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योग की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

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