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श्रीमद्भगवद्गीता का सामान्य परिचय

 श्रीमद्भगवद्गीता का सामान्य परिचय

श्रीमद्भगवद्गीता में 18 अध्याय हैं जो महाभारत ग्रन्थ के भीष्मपर्व के 23 से 40 अध्यायों तक की रचना हैं जिससे 700 श्लोक हैं। महाभारत के युद्ध में जब  अर्जुन न युद्धभूमि से अपने नाते रिश्तेदारों, चचेरे - ममेरे भाईयों को अपने सामने युद्ध में खडे  देखा तो अर्जुन युद्धभूमि में धनुष बाण एक तरफ रख कर बैठ जाता है तथा अपने अराध्य सारथी कृष्ण से युद्ध के लिए मना कर देते है ऐसी स्थित में स्वयं योगेश्वर भगवान श्री कृष्ण न अर्जुन को जो शिक्षा दी वह श्रीमद्भगवद्गीता के नाम से प्रचलित है।

समस्त शास्त्रो का सार यह गीता ऐसा ग्रन्थ है जिसमे धर्मशास्त्र, दर्शनशास्त्र, नीतिशास्त्र आदि सभी का समन्वय है। जो व्यक्ति किंकर्तव्यमूढ स्थिति में हताश ओंर निराश होकर बैठ जाए, उसको भी निजकर्तव्य बोध कराकर जीवनमार्ग को प्रशस्त करने वाला ग्रन्थ है।
श्रीमद्भगवद्गीता के अध्यायों के नाम तथा संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार है ।  

1. अर्जुन विषाद योग-

इस अध्याय से 46 श्लोक हैं। अर्जुन दोनो सेनाओं के मध्य खडा होकर युद्ध के लिए तैयार सेना के महारथियों को देखकर मोहग्रस्त हो जाता है कि ये सभी तो मेरे दादा, गुरु, भाई, सम्बन्धी आदि हैं। में इन लोगो से युद्ध कैसे करुँगा।  किंकर्तव्यविमूढ होकर वह हताश और निराश होकर शस्त्र त्यागकर रथ मे ही बैठ जाता है। यह अर्जुनविषाद योग नानक अध्याय की विषयवस्तु है। 

2. सांख्य योग-

इस अध्याय में 72 श्लोक है। इसमे भगवान कृष्ण अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं कि अर्जुन युद्धक्षेत्र मे आकर तुम कैसी कायरों जैसी बातें कर रहे हो यह दुर्बलता छोडकर युद्ध के लिए तैयार हो जाओ। किन्तु अर्जुन तैयार नहीं हुए तो उन्होने कहा कि तुम यह समझते हो कि में पहले नहीं था या तुम नहीँ थे या आगे नहीं रहेंगे। यह आत्मा न तो किसी काल मे जन्म लेता है और न मरता है। यह आत्मा आजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है। शरीर के नष्ट होने पर भी यह नष्ट नहीं होता। जो इसे अविनाशी, अजन्मा, नित्य समझता है। वह कैसे किसी को मारता है या मरवाता है जैसे व्यक्ति पुराने वस्त्रो को उतारकर  नवीन वस्त्रो को धारण करता है और दुःखी नहीं होता। उसी प्रकार जीवात्मा भी पुराने शरीर को त्यागकर नया शरीर धारण करता है। यह आत्मा अजर, अमर है। शस्त्र इसे काट नहीं सकते, आग इसे जला नहीं सकती, पानी इस आत्मा को गीला नही कर सकता, हवा इसे सुखा नहीं सकती। अत: इसके लिए शोक करने की आवश्यकता नहीं है। 

आगे भगवान कहते है यदि तू यह धर्मयुद्ध नहीं करेगा तो पाप तथा अक्रीर्ति प्राप्त करेगा। तू केवल निष्काम भाव से कर्म कर । कर्म करना तेरा अधिकार है। फल तो कर्म के अनुसार स्वत: मिल जाएगा। हे अर्जुन, जो व्यक्ति अनुकूल परिस्थिति में प्रसन्नता प्रकट नहीं करता तथा प्रतिकूल परिस्थिति मे दुःखी नहीं होता। सब कामनाओं का त्यागकर, ममतारहित, अहंकाररहित होकर विचरता है, वही शान्ति को प्राप्त होता है। इसी को प्राप्त करके निर्वाण को प्राप्त कर लेता है।

3. कर्मयोग-

 इस अध्याय में 43 श्लोक हैं जो कर्मयोग का प्रतिपादन करते हैं, प्रत्येक व्यक्ति क्षणभर भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता किन्तु कर्मो को आसक्ति छोडकर करने से उनका फल नहीं भोगना पडता। यही निष्काम कर्मयोग है। श्रेष्ठ पुरुष जो आचरण करते हैं, वैसा ही अन्य लोग भी करते हैं। जैसा मार्ग वह  चुन लेते हैं, वैसा ही अन्य लोग भी उनका अनुसरण करने लगते  है।

यद् यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनाः । 

स यत् प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते। । गीता 3 / 21

4. ज्ञानकर्म संन्यास योग-

 इस अध्याय में कुल 42 श्लोक हैं, इसमे भगवान अर्जुन को योग की परम्परा का ज्ञान देते हैं कि अर्जुन अब तक मेरे और तुम्हारे अनेक जन्म हो चुके हैं, जिन्हे मैं जानता हूँ, पर तू नहीं जानता। जब-जब धर्म की हानि तथा अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं सज्जनों की रक्षा तथा दुष्टों को दण्डित करने के लिए तथा धर्म की स्थापना के लिए उपयुक्त रूप मे प्रकट होता हूँ।

5. कर्मसंन्यास योग-

 इस अध्याय में 28 श्लोक हैं। इसमे संन्यास तथा कर्मयोग का वर्णन करते हुए कहते हैं कि कर्मसंन्यास और कर्मयोग दोनो ही कल्याणकारी हैं। दोनो में कर्मसंन्यास से कर्मयोग सुगम होने के कारण श्रेष्ठ है। सांख्य तथा योग दोनो को अलग नहीं समझना चाहिए। जो व्यक्ति सब कामनाओं से रहित होकर सब कर्मो को प्रभु के अर्पित कर देता है, वह जल मे कमलपत्र की तरह जल से लिप्त नही होता ।

ब्रहाण्याधाय कर्माणि संगं त्यक्त्वा करोति यः। 

लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा। । गीता 5 / 10

6. आत्मसंयम योग-

 इस अध्याय में 47 श्लोक है। इसमे ध्यान योग का वर्णन, उसके उपयुक्त स्थान आदि का निर्देश किया गया है। शुध्द स्थान मे जिस पर कुशा, मृगछाला, वस्त्र बिछे हों, न अधिक ऊँचा न नीचा हो, ऐसे स्थान पर आसन लगाकर बैठे। मन को एकाग्र करके अन्तःकरण की शुद्धि का अभ्यास करें। शरीर, सिर तथा गर्दन सीधी तथा अचल रखें, नासिकाग्र पर दृप्टि रखे, ब्रह्मचर्य व्रत का पालन तथा भयरहित होकर साधऩा करें। न अधिक खाने, न भूखा रहने, न बहुत सोने, न जागने वाले का यह योग सिद्ध नहीँ होता हैै। यथायोग्य नियमित आहार- विहार करने, कर्मो मे यथायोग्य चेष्टा करने, यथायोग्य सोने व जागने वाले का ही यह दुःखो का नाश करने वाला योग सिद्ध होता है। मन को वश में करने के लिए दो ही उपाय हैं अभ्यास और वैराग्य। क्योकि असंयत मन वाला इस योग को प्राप्त नहीं हो सकता। साधना करके जो मोक्षप्राप्त नहीं कर पाता, वह योगी पुन: अच्छे कुल में जन्म लेकर साधना करके कल्याणमार्ग पर बढ़ जाता है। वह नाश को प्राप्त नहीं होता। योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ है, ज्ञानियों से श्रेष्ठ है, सकाम कर्म करने वाले लोगो से भी श्रेष्ठ है। अत: हे अर्जुन तू योगी बन।

 7. ज्ञानविज्ञानयोग 

इस अध्याय में 30 श्लोक हैं। ईश्वर व जगत सम्बन्धी ज्ञान विज्ञान पर चर्चा की गई है। हजारों मनुष्यों से से कोई एक सिद्धि के लिए प्रयास करता है। उन सिद्धि करने वाले हजारों सिद्धों से से कोई एक परायण होकर तत्व को जानता है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन. बुद्धि, अहंकार यह आठ प्रकार की परमात्मा की प्रकृति हैं, जो जड हैं, दूसरी जीवरूपा चेतन प्रकृति है जो जगत को धारण किए है। सम्पूर्ण जगत इन दोनो से ही उत्पन्न हुआ हैं।  भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि अर्जुन मैं ही जगत का मूल कारण हूँ, मुझसे भिन्न अन्य कुछ नही है।चार प्रकार के लोग मुझे भजते हैं  आर्त, अर्थार्थी, जिज्ञासु और ज्ञानी। इन चारो में ज्ञानी श्रेष्ठ है। जिनका मोह नष्ट हो गया है। वे ज्ञानी भक्त मुझे ब्रह्मरूप में भजते हैं, अन्य मुझे नही भजते।

8. अक्षरब्रह्म योग-

इस अध्याय में 28 श्लोक हैं। योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ब्रह्म. अध्यात्म, धर्म आदि से सम्बन्धित अर्जुन के प्रश्नों का उत्तर देते हुए कहते हैं। परम अक्षर ब्रहा है, अपना स्वरुप जीवात्मा अध्यात्म नाम से कहा जाता है। भूतों के भावों को उत्पन्न करने वाला जो त्याग हैं, वह ‘कर्म कहा जाता है। क्षर सब पदार्थ अधिभूत हैं, हिरण्यमय पुरुष अधिदैव हैं तथा मैं स्वयं वासुदेव ही ‘अधियज्ञ‘ हूँ। जो व्यक्ति अन्तकाल से मेरा स्मरण करता हुआ शरीर को त्यागता है, वह मुझे ही प्राप्त होता है ।

9. राजविद्या राजगुहायोग-

 इस अध्याय में 34 श्लोक हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं कल्प के अन्त से सभी भूत मेरी प्रकृति को प्राप्त होते हैं तथा कल्प के आरम्भ में मै ही  उनको फिर उत्पन्न करता हूँ। मेरे द्वारा प्रेरित प्रकृति समस्त जगत को उत्पन्न करती है। जो भक्त मुझे पत्र, पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है, उसे में प्रीतिपूर्वक स्वीकार करता हूँ। इसलिए हे अर्जुन तू जो करता है, खाता है, हवन करता है, दान देता है, जो तप करता है, वह सब कुछ मुझे अर्पित कर। इससे तू कर्तव्यबन्धन से मुक्त हो जाएगा।

10. विभूतियोग-

इस अध्याय में 42 श्लोक हैं। इससे भगवान की विभूति, योगशक्ति तथा प्रभाव सहित भक्तियोग का कथन है, अर्जुन के पूछने पर भगवान के द्वारा अपनी विभूतियों का और योगशक्ति का कथन किया गया है। श्रीकृष्ण कहते हैं, में देवताओं तथा महर्षियो का आदि कारण हूँ, जो मुझे अजन्मा, अनादि और ईश्वर रूप से जानता है, वह सब पापों से मुक्त हो जाता है। सबकी उत्पत्ति का कारण में ही हूँ। अर्जुन द्वारा विभूति तथा योगशक्ति देखने की इच्छा प्रकट करने पर श्रीकृष्ण द्वारा दिव्यविभूतियो को दिखाया जाता है।

11. विश्वरूपदर्शन योग-

इस अध्याय में 55 श्लोक हैं जिनमें भगवान के दिव्यरूपों का वर्णन है। अर्जुन को दिव्यदृप्टि देकर अपने रूपो का दर्शन कराते हैं अनेक मुख, अनेकनेत्र. दिव्य आभूषणों से युक्त, दिव्यशस्त्रो से युक्त, दिव्य माला, वस्त्र, दिव्यगन्ध, दिव्य लेप, सब ओंर मुख किए हुए परमदेव परमेश्वर को देख विस्मय में भरे हुए पुलकित शरीर अर्जुन श्रद्धा भक्तिभाव से सिर झुकाकर प्रणाम करके हाथ जोडकर बोला- मैं आपके शरीर में सम्पूर्ण देवों, भूतों, ब्रहम, महादेव, समस्त शिष्यों तथा आपके अनेक भुजाओं, अनेक मुख, उदर, नेत्रों तथा रूपों वाला देख रहा हूँ जिसका आदि, मध्य तथा अन्त नहीं दिखाई पडता। हे प्रभु आप ही जानने योग्य हैं, आप ही अक्षर, अविनाशी ब्रह्म हैं। सभी धृतराष्ट्र पुत्र, भीष्म, द्रोण, कर्ण आदि आपके मुख मे समायें जा रहे हैं। आप उग्र रुप वाले कौन हैं। भगवान श्रीकृष्ण न कहा लोकों का नाश करने वाला मैं महाकाल हूँ। युद्ध में सभी प्रतिपक्षी योद्धा तुम्हारे द्वारा न मारे जाेने पर भी मारे जाएंगे। क्योकि ये मेरे द्वारा पहले ही मार दिए गए हैं। तू युद्ध मे जीतेगा। अत: युद्ध कर ।

12. भक्तियोग-

इस अध्याय में मात्र 20 श्लोक हैं जिसमे साकार व निराकार उपासकों की श्रेष्ठता का वर्णन किया गया है। भगवान कहते हैं कि यदि तू चित्त को मुझमे लगाने में समर्थ नही है तो अभ्यास कर । यदि अभ्यास मे भी असमर्थ हैं तो मेरे लिए कर्म कर। इस प्रकार मेरे लिए कर्म करता हुआ मुझे ही प्राप्त होगा। अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है, ज्ञान से ध्यान श्रेष्ठ है तथा ध्यान से कर्मफल त्याग श्रेष्ठ है क्योकि उससे तुरन्त शान्ति की प्राप्ति होती है। जो मुझमे ही सुख को प्राप्त करता है, उसको मैं अपनी नौका से स्वयं पार उतार देता हूँ।

13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ योग- 

इस अध्याय में 34 श्लोक हैं जिनमे क्षेत्र तथा क्षेत्रज्ञ का वर्णन किया गया है, अहिंसा, मानहीनता, दम्भहीनता आदि को धारण करले वाला ज्ञानी पुरुष जिसे जानकर अमृततत्व को प्राप्त होता है। वह अनादि परमब्रहम न सत् कहा जाता है, न असत् । वह सब और हाथ, पैर, नेत्र, सिर और मुखवाला है। सब मे व्याप्त है। सब चराचर भूतों के बाहर व अन्दर भी वही कार्य और करण के उत्पन्न करने में हेतु प्रकृति है। सुख दुःखों के भोक्तापन मे हेतु पुरुष है। जो चराचर प्राणी उत्पन्न होते हैं, वे क्षेत्र व क्षेत्रज्ञ के संयोग से ही उत्पन्न होते हैं।

14. गुणत्रय विभाग योग-

इस अध्याय में 27 श्लोक हैं जिनमें प्रकृति के तीनोगुणों का वर्णन किया गया है। प्रकृति ही परमेश्वर की योनि है, उससे ही जड चेतन के संयोग से सब भूतों की उत्पत्ति होती है। प्रकृति गर्भधारण करने वाली माँ तथा परमेश्वर बीज स्थापन करने वाला पिता है। सत्व, रजस व तमस ये तीन गुण प्रकृति के हैं जिन्हें प्रकाशक, तृष्णा आसक्ति तथा आलस्य निद्रा रूप जान। सत्व गुण सुख में, रजोगुण क्रिया में, तथा तमोगुण प्रमाद मे लगाता है। सत्य की वृद्धि से चेतना का ज्ञान, रजोणुण की वृद्धि से लोभ प्रवृत्ति, अशान्ति व भोगविलासता तथा तमोगुण की वृद्धि से अन्तःकरण व इन्दियों मे अप्रकाश, कर्तव्यकर्मो में अप्रवृत्ति, प्रमाद और निद्रा उत्पन्न होते है। जब द्रष्टा इऩ गुणों को ही कर्ता देखता है तथा इनसे परे सच्चिदानन्द परमात्मा को जानता है तो वह जन्मादि को पारकर अमृततत्व को प्राप्त होता है।

15. पुरुषोत्तम योग-

20 श्लोकों वाले इस अध्याय मे संसार वृक्ष, भगवतप्राप्ति के उपाय, परमेश्वर के स्वरूप एवं क्षर, अक्षर एवं पुरुषोत्तम के स्वरुप का वर्णन किया गया हे। ऊपर मूल नीचे शाखा वाले पीपल के वृक्ष को अविनाशी कहते हैं। जिसके पत्ते वेद हैं, उसको जो तत्व से जानता है वह वेद को जानने वाला है। उस संसारवृक्ष को वैराग्य रूप शस्त्र से काटकर परमपद प्राप्त करना चाहिए। जिनकी कामनाएं पूर्ण रूप से नष्ट हो गई हैं, वे सुख दुःख नामक द्वंदों से विमुक्त हो जाते हैं। स्वयंप्रकाश परमपद को सूर्य, चन्द्र, अग्नि आदि प्रकाशित नहीं कर सकते। वही परमेश्वर का धाम है। इन सूर्य, चन्द्र व अग्नि मे जो तेज है, वह उसी परमेश्वर का है। प्राणियो के शरीर क्षर, जीवात्मा अक्षर तथा अविनाशी परमेश्वर पुरुषोत्तम हैं।

16. दैवासुरसम्पद् विभाग योग-

 इस अध्याय मे 24 श्लोक हैं, जिनमे दैवी आसुरी सम्पत्तियों का वर्णन किया गया है। निर्भयता,निर्मलता, दान, इन्दिय दमन, भगवान, देव तथा गुरुजनों की पूजा, वेद शात्रों का पठन-पाठन, स्वाध्याय, तप, अन्तःकरण की सरलता, लोक व शास्त्र विरुद्ध आचरण मे लज्जा, तेज, क्षमा, धैर्य, शुचिता, शत्रुभाव का अभाव आदि दैविसम्पदा कहलाती हैं। दम्भ, अभिमान, क्रोध, कठोरता, अज्ञानता आदि आसुरी सम्पदा कहलाती हैं। काम, क्रोध, लोभ इनको नरक के द्वार कहा है। शास्त्राऩुकूल व्यवहार करना तथा विपरीत व्यवहार का त्याग करना चाहिए।

17 श्रद्धात्रय विभाग योग-

 इस अध्याय मे 28 श्लोक हैं जिनमे सात्विक, राजसी व तामसी श्रद्धा का वर्णन किया गया है। शास्त्रविपरीत घोर तप करने वालों का वर्णन, आहार, यज्ञ, तप व दान के पृथक-पृथक भेदों का वर्णन किया गया है। सात्विक पुरुष देवों को, राजस राक्षसों यक्षों को तथा तामस पुरुष भूत प्रेतो को पूजते हैं। जो दम्भ, कामना आदि से तप करते हैं, वे असुर स्वाभाव होते हैं। आहार भेद भी सात्विक आदि भेद से तीन प्रकार का तथा यज्ञ, तप, दान भी तीन प्रकार के होते हैं। जो जैसी वृति रखता है, वह वैसा ही प्रकार अपनाता है।

18. मोक्ष संन्यास योग-

 इस अध्याय में 78 श्लोक हैं। इसमें त्याग, सांख्य स्रिद्धान्त, वर्णधर्म, पराभक्ति, निष्काम कर्मयोग तथा शरणागति का वर्णन किया गया है। यज्ञ, दान व तप त्याज्य कर्म नहीं हैं, अत: इन्हे अवश्य करना चाहिए । कर्मफल का त्याग करना उचित है। कर्मों की सिद्धि मे सांख्य शास्त्र ने पाँच हेतु बताए है' अधिष्ठान (शरीर), कर्ता (जीवात्मा), करण (इन्द्रियाँ), चेष्ठाएं तथा दैव। ज्ञान-अज्ञान, कर्तव्याकर्तव्य में भेद करने वाली बुद्धि सात्विक, ठीक-ठीक न जानने वाली बुद्धि राजसी, तथा केवल अज्ञान, अधर्म को ही ठीक समझने वाली बुद्धि तामसी कहलाती है। ब्राह्मण, क्षत्रिय. वैश्य, शूद्र के स्वाभाविक धर्म कहे गए हैं। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि 'हे अर्जुन तू मुझमे मन वाला हो, मेरा भक्त हो, मेरा ही पूजन कर, मुझे ही प्रणाम कर । सब धर्मो का त्याग करके केवल मुझ परमेश्वर की शरण में आ जा। मैं तुझे सब पापों से मुक्त कर दूंगा। शोक मत कर’ । अर्जुन कहते हैं कि हे परमेश्वर मेरा मोह नष्ट हो गया है, स्मृति प्राप्त हो गई तथा मैं संशयरहित हो गया हूँ। अब आपके आदेशानुसार कार्य करूँगा। 

इस प्रकार गीता का यह अन्तिम अध्याय पूर्ण होता है। अपने भक्तो की भगवाऩ सब प्रकार से रक्षा करते हैं तथा तत्वज्ञान भी उन्ही की कृपा से प्राप्त होता है। ऐसी इस अध्याय के अन्त मे घोषणा की गई है। 

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  हठयोग का अर्थ भारतीय चिन्तन में योग मोक्ष प्राप्ति का एक महत्वपूर्ण साधन रहा है, योग की विविध परम्पराओं (ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग, हठयोग) इत्यादि का अन्तिम लक्ष्य भी मोक्ष (समाधि) की प्राप्ति ही है। हठयोग के साधनों के माध्यम से वर्तमान में व्यक्ति स्वास्थ्य लाभ तो करता ही है पर इसके आध्यात्मिक लाभ भी निश्चित रूप से व्यक्ति को मिलते है।  हठयोग- नाम से यह प्रतीत होता है कि यह क्रिया हठ- पूर्वक की जाने वाली है। परन्तु ऐसा नही है अगर हठयोग की क्रिया एक उचित मार्गदर्शन में की जाये तो साधक सहजतापूर्वक इसे कर सकता है। इसके विपरित अगर व्यक्ति बिना मार्गदर्शन के करता है तो इस साधना के विपरित परिणाम भी दिखते है। वास्तव में यह सच है कि हठयोग की क्रियाये कठिन कही जा सकती है जिसके लिए निरन्तरता और दृठता आवश्यक है प्रारम्भ में साधक हठयोग की क्रिया के अभ्यास को देखकर जल्दी करने को तैयार नहीं होता इसलिए एक सहनशील, परिश्रमी और तपस्वी व्यक्ति ही इस साधना को कर सकता है।  संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ में हठयोग शब्द को दो अक्षरों में विभाजित किया है।  1. ह -अर्थात हकार  2. ठ -अर्थात ठकार हकार - का अर्थ

कठोपनिषद

कठोपनिषद (Kathopanishad) - यह उपनिषद कृष्ण यजुर्वेद की कठ शाखा के अन्तर्गत आता है। इसमें दो अध्याय हैं जिनमें 3-3 वल्लियाँ हैं। पद्यात्मक भाषा शैली में है। मुख्य विषय- योग की परिभाषा, नचिकेता - यम के बीच संवाद, आत्मा की प्रकृति, आत्मा का बोध, कठोपनिषद में योग की परिभाषा :- प्राण, मन व इन्दियों का एक हो जाना, एकाग्रावस्था को प्राप्त कर लेना, बाह्य विषयों से विमुख होकर इन्द्रियों का मन में और मन का आत्मा मे लग जाना, प्राण का निश्चल हो जाना योग है। इन्द्रियों की स्थिर धारणा अवस्था ही योग है। इन्द्रियों की चंचलता को समाप्त कर उन्हें स्थिर करना ही योग है। कठोपनिषद में कहा गया है। “स्थिराम इन्द्रिय धारणाम्‌” .  नचिकेता-यम के बीच संवाद (कहानी) - नचिकेता पुत्र वाजश्रवा एक बार वाजश्रवा किसी को गाय दान दे रहे थे, वो गाय बिना दूध वाली थी, तब नचिकेता ( वाजश्रवा के पुत्र ) ने टोका कि दान में तो अपनी प्रिय वस्तु देते हैं आप ये बिना दूध देने वाली गाय क्यो दान में दे रहे है। वाद विवाद में नचिकेता ने कहा आप मुझे किसे दान में देगे, तब पिता वाजश्रवा को गुस्सा आया और उसने नचिकेता को कहा कि तुम मेरे

प्राणायाम का अर्थ एवं परिभाषायें, प्राणायामों का वर्गीकरण

प्राणायाम का अर्थ- (Meaning of pranayama) प्राणायाम शब्द, प्राण तथा आयाम दो शब्दों के जोडने से बनता है। प्राण जीवनी शक्ति है और आयाम उसका ठहराव या पड़ाव है। हमारे श्वास प्रश्वास की अनैच्छिक क्रिया निरन्तर अनवरत से चल रही है। इस अनैच्छिक क्रिया को अपने वश में करके ऐच्छिक बना लेने पर श्वास का पूरक करके कुम्भक करना और फिर इच्छानुसार रेचक करना प्राणायाम कहलाता है। प्राणायाम शब्द दो शब्दों से बना है प्राण + आयाम। प्राण वायु का शुद्ध व सात्विक अंश है। अगर प्राण शब्द का विवेचन करे तो प्राण शब्द (प्र+अन+अच) का अर्थ गति, कम्पन, गमन, प्रकृष्टता आदि के रूप में ग्रहण किया जाता है।  छान्न्दोग्योपनिषद कहता है- 'प्राणो वा इदं सर्व भूतं॑ यदिदं किंच।' (3/15/4) प्राण वह तत्व है जिसके होने पर ही सबकी सत्ता है  'प्राणे सर्व प्रतिष्ठितम। (प्रश्नेपनिषद 2/6) तथा प्राण के वश में ही सम्पूर्ण जगत है  “प्राणस्वेदं वशे सर्वम।? (प्रश्नोे. -2/13)  अथर्वद में कहा गया है- प्राणाय नमो यस्य सर्वमिदं वशे।  यो भूतः सर्वेश्वरो यस्मिन् सर्वप्रतिष्ठितम्।॥ (अथर्ववेद 11-4-1) अर्थात उस प्राण को नमस्कार है, जिसके

बंध एवं मुद्रा का अर्थ , परिभाषा, उद्देश्य

  मुद्रा का अर्थ एवं परिभाषा  'मोदन्ते हृष्यन्ति यया सा मुद्रा यन्त्रिता सुवर्णादि धातुमया वा'   अर्थात्‌ जिसके द्वारा सभी व्यक्ति प्रसन्‍न होते हैं वह मुद्रा है जैसे सुवर्णादि बहुमूल्य धातुएं प्राप्त करके व्यक्ति प्रसन्‍नता का अनुभव अवश्य करता है।  'मुद हर्ष' धातु में “रक्‌ प्रत्यय लगाकर मुद्रा शब्दं॑ की निष्पत्ति होती है जिसका अर्थ प्रसन्‍नता देने वाली स्थिति है। धन या रुपये के अर्थ में “मुद्रा' शब्द का प्रयोग भी इसी आशय से किया गया है। कोष में मुद्रा' शब्द के अनेक अर्थ मिलते हैं। जैसे मोहर, छाप, अंगूठी, चिन्ह, पदक, रुपया, रहस्य, अंगों की विशिष्ट स्थिति (हाथ या मुख की मुद्रा)] नृत्य की मुद्रा (स्थिति) आदि।  यौगिक सन्दर्भ में मुद्रा शब्द को 'रहस्य' तथा “अंगों की विशिष्ट स्थिति' के अर्थ में लिया जा सकता है। कुण्डलिनी शक्ति को जागृत करने के लिए जिस विधि का प्रयोग किया जाता है, वह रहस्यमयी ही है। व गोपनीय होने के कारण सार्वजनिक नहीं की जाने वाली विधि है। अतः रहस्य अर्थ उचित है। आसन व प्राणायाम के साथ बंधों का प्रयोग करके विशिष्ट स्थिति में बैठकर 'म