Skip to main content

श्रीमद्भगवद्गीता का सामान्य परिचय

 श्रीमद्भगवद्गीता का सामान्य परिचय

श्रीमद्भगवद्गीता में 18 अध्याय हैं जो महाभारत ग्रन्थ के भीष्मपर्व के 23 से 40 अध्यायों तक की रचना हैं जिससे 700 श्लोक हैं। महाभारत के युद्ध में जब  अर्जुन न युद्धभूमि से अपने नाते रिश्तेदारों, चचेरे - ममेरे भाईयों को अपने सामने युद्ध में खडे  देखा तो अर्जुन युद्धभूमि में धनुष बाण एक तरफ रख कर बैठ जाता है तथा अपने अराध्य सारथी कृष्ण से युद्ध के लिए मना कर देते है ऐसी स्थित में स्वयं योगेश्वर भगवान श्री कृष्ण न अर्जुन को जो शिक्षा दी वह श्रीमद्भगवद्गीता के नाम से प्रचलित है।

समस्त शास्त्रो का सार यह गीता ऐसा ग्रन्थ है जिसमे धर्मशास्त्र, दर्शनशास्त्र, नीतिशास्त्र आदि सभी का समन्वय है। जो व्यक्ति किंकर्तव्यमूढ स्थिति में हताश ओंर निराश होकर बैठ जाए, उसको भी निजकर्तव्य बोध कराकर जीवनमार्ग को प्रशस्त करने वाला ग्रन्थ है।
श्रीमद्भगवद्गीता के अध्यायों के नाम तथा संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार है ।  

1. अर्जुन विषाद योग-

इस अध्याय से 46 श्लोक हैं। अर्जुन दोनो सेनाओं के मध्य खडा होकर युद्ध के लिए तैयार सेना के महारथियों को देखकर मोहग्रस्त हो जाता है कि ये सभी तो मेरे दादा, गुरु, भाई, सम्बन्धी आदि हैं। में इन लोगो से युद्ध कैसे करुँगा।  किंकर्तव्यविमूढ होकर वह हताश और निराश होकर शस्त्र त्यागकर रथ मे ही बैठ जाता है। यह अर्जुनविषाद योग नानक अध्याय की विषयवस्तु है। 

2. सांख्य योग-

इस अध्याय में 72 श्लोक है। इसमे भगवान कृष्ण अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं कि अर्जुन युद्धक्षेत्र मे आकर तुम कैसी कायरों जैसी बातें कर रहे हो यह दुर्बलता छोडकर युद्ध के लिए तैयार हो जाओ। किन्तु अर्जुन तैयार नहीं हुए तो उन्होने कहा कि तुम यह समझते हो कि में पहले नहीं था या तुम नहीँ थे या आगे नहीं रहेंगे। यह आत्मा न तो किसी काल मे जन्म लेता है और न मरता है। यह आत्मा आजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है। शरीर के नष्ट होने पर भी यह नष्ट नहीं होता। जो इसे अविनाशी, अजन्मा, नित्य समझता है। वह कैसे किसी को मारता है या मरवाता है जैसे व्यक्ति पुराने वस्त्रो को उतारकर  नवीन वस्त्रो को धारण करता है और दुःखी नहीं होता। उसी प्रकार जीवात्मा भी पुराने शरीर को त्यागकर नया शरीर धारण करता है। यह आत्मा अजर, अमर है। शस्त्र इसे काट नहीं सकते, आग इसे जला नहीं सकती, पानी इस आत्मा को गीला नही कर सकता, हवा इसे सुखा नहीं सकती। अत: इसके लिए शोक करने की आवश्यकता नहीं है। 

आगे भगवान कहते है यदि तू यह धर्मयुद्ध नहीं करेगा तो पाप तथा अक्रीर्ति प्राप्त करेगा। तू केवल निष्काम भाव से कर्म कर । कर्म करना तेरा अधिकार है। फल तो कर्म के अनुसार स्वत: मिल जाएगा। हे अर्जुन, जो व्यक्ति अनुकूल परिस्थिति में प्रसन्नता प्रकट नहीं करता तथा प्रतिकूल परिस्थिति मे दुःखी नहीं होता। सब कामनाओं का त्यागकर, ममतारहित, अहंकाररहित होकर विचरता है, वही शान्ति को प्राप्त होता है। इसी को प्राप्त करके निर्वाण को प्राप्त कर लेता है।

3. कर्मयोग-

 इस अध्याय में 43 श्लोक हैं जो कर्मयोग का प्रतिपादन करते हैं, प्रत्येक व्यक्ति क्षणभर भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता किन्तु कर्मो को आसक्ति छोडकर करने से उनका फल नहीं भोगना पडता। यही निष्काम कर्मयोग है। श्रेष्ठ पुरुष जो आचरण करते हैं, वैसा ही अन्य लोग भी करते हैं। जैसा मार्ग वह  चुन लेते हैं, वैसा ही अन्य लोग भी उनका अनुसरण करने लगते  है।

यद् यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनाः । 

स यत् प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते। । गीता 3 / 21

4. ज्ञानकर्म संन्यास योग-

 इस अध्याय में कुल 42 श्लोक हैं, इसमे भगवान अर्जुन को योग की परम्परा का ज्ञान देते हैं कि अर्जुन अब तक मेरे और तुम्हारे अनेक जन्म हो चुके हैं, जिन्हे मैं जानता हूँ, पर तू नहीं जानता। जब-जब धर्म की हानि तथा अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं सज्जनों की रक्षा तथा दुष्टों को दण्डित करने के लिए तथा धर्म की स्थापना के लिए उपयुक्त रूप मे प्रकट होता हूँ।

5. कर्मसंन्यास योग-

 इस अध्याय में 28 श्लोक हैं। इसमे संन्यास तथा कर्मयोग का वर्णन करते हुए कहते हैं कि कर्मसंन्यास और कर्मयोग दोनो ही कल्याणकारी हैं। दोनो में कर्मसंन्यास से कर्मयोग सुगम होने के कारण श्रेष्ठ है। सांख्य तथा योग दोनो को अलग नहीं समझना चाहिए। जो व्यक्ति सब कामनाओं से रहित होकर सब कर्मो को प्रभु के अर्पित कर देता है, वह जल मे कमलपत्र की तरह जल से लिप्त नही होता ।

ब्रहाण्याधाय कर्माणि संगं त्यक्त्वा करोति यः। 

लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा। । गीता 5 / 10

6. आत्मसंयम योग-

 इस अध्याय में 47 श्लोक है। इसमे ध्यान योग का वर्णन, उसके उपयुक्त स्थान आदि का निर्देश किया गया है। शुध्द स्थान मे जिस पर कुशा, मृगछाला, वस्त्र बिछे हों, न अधिक ऊँचा न नीचा हो, ऐसे स्थान पर आसन लगाकर बैठे। मन को एकाग्र करके अन्तःकरण की शुद्धि का अभ्यास करें। शरीर, सिर तथा गर्दन सीधी तथा अचल रखें, नासिकाग्र पर दृप्टि रखे, ब्रह्मचर्य व्रत का पालन तथा भयरहित होकर साधऩा करें। न अधिक खाने, न भूखा रहने, न बहुत सोने, न जागने वाले का यह योग सिद्ध नहीँ होता हैै। यथायोग्य नियमित आहार- विहार करने, कर्मो मे यथायोग्य चेष्टा करने, यथायोग्य सोने व जागने वाले का ही यह दुःखो का नाश करने वाला योग सिद्ध होता है। मन को वश में करने के लिए दो ही उपाय हैं अभ्यास और वैराग्य। क्योकि असंयत मन वाला इस योग को प्राप्त नहीं हो सकता। साधना करके जो मोक्षप्राप्त नहीं कर पाता, वह योगी पुन: अच्छे कुल में जन्म लेकर साधना करके कल्याणमार्ग पर बढ़ जाता है। वह नाश को प्राप्त नहीं होता। योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ है, ज्ञानियों से श्रेष्ठ है, सकाम कर्म करने वाले लोगो से भी श्रेष्ठ है। अत: हे अर्जुन तू योगी बन।

 7. ज्ञानविज्ञानयोग 

इस अध्याय में 30 श्लोक हैं। ईश्वर व जगत सम्बन्धी ज्ञान विज्ञान पर चर्चा की गई है। हजारों मनुष्यों से से कोई एक सिद्धि के लिए प्रयास करता है। उन सिद्धि करने वाले हजारों सिद्धों से से कोई एक परायण होकर तत्व को जानता है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन. बुद्धि, अहंकार यह आठ प्रकार की परमात्मा की प्रकृति हैं, जो जड हैं, दूसरी जीवरूपा चेतन प्रकृति है जो जगत को धारण किए है। सम्पूर्ण जगत इन दोनो से ही उत्पन्न हुआ हैं।  भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि अर्जुन मैं ही जगत का मूल कारण हूँ, मुझसे भिन्न अन्य कुछ नही है।चार प्रकार के लोग मुझे भजते हैं  आर्त, अर्थार्थी, जिज्ञासु और ज्ञानी। इन चारो में ज्ञानी श्रेष्ठ है। जिनका मोह नष्ट हो गया है। वे ज्ञानी भक्त मुझे ब्रह्मरूप में भजते हैं, अन्य मुझे नही भजते।

8. अक्षरब्रह्म योग-

इस अध्याय में 28 श्लोक हैं। योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ब्रह्म. अध्यात्म, धर्म आदि से सम्बन्धित अर्जुन के प्रश्नों का उत्तर देते हुए कहते हैं। परम अक्षर ब्रहा है, अपना स्वरुप जीवात्मा अध्यात्म नाम से कहा जाता है। भूतों के भावों को उत्पन्न करने वाला जो त्याग हैं, वह ‘कर्म कहा जाता है। क्षर सब पदार्थ अधिभूत हैं, हिरण्यमय पुरुष अधिदैव हैं तथा मैं स्वयं वासुदेव ही ‘अधियज्ञ‘ हूँ। जो व्यक्ति अन्तकाल से मेरा स्मरण करता हुआ शरीर को त्यागता है, वह मुझे ही प्राप्त होता है ।

9. राजविद्या राजगुहायोग-

 इस अध्याय में 34 श्लोक हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं कल्प के अन्त से सभी भूत मेरी प्रकृति को प्राप्त होते हैं तथा कल्प के आरम्भ में मै ही  उनको फिर उत्पन्न करता हूँ। मेरे द्वारा प्रेरित प्रकृति समस्त जगत को उत्पन्न करती है। जो भक्त मुझे पत्र, पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है, उसे में प्रीतिपूर्वक स्वीकार करता हूँ। इसलिए हे अर्जुन तू जो करता है, खाता है, हवन करता है, दान देता है, जो तप करता है, वह सब कुछ मुझे अर्पित कर। इससे तू कर्तव्यबन्धन से मुक्त हो जाएगा।

10. विभूतियोग-

इस अध्याय में 42 श्लोक हैं। इससे भगवान की विभूति, योगशक्ति तथा प्रभाव सहित भक्तियोग का कथन है, अर्जुन के पूछने पर भगवान के द्वारा अपनी विभूतियों का और योगशक्ति का कथन किया गया है। श्रीकृष्ण कहते हैं, में देवताओं तथा महर्षियो का आदि कारण हूँ, जो मुझे अजन्मा, अनादि और ईश्वर रूप से जानता है, वह सब पापों से मुक्त हो जाता है। सबकी उत्पत्ति का कारण में ही हूँ। अर्जुन द्वारा विभूति तथा योगशक्ति देखने की इच्छा प्रकट करने पर श्रीकृष्ण द्वारा दिव्यविभूतियो को दिखाया जाता है।

11. विश्वरूपदर्शन योग-

इस अध्याय में 55 श्लोक हैं जिनमें भगवान के दिव्यरूपों का वर्णन है। अर्जुन को दिव्यदृप्टि देकर अपने रूपो का दर्शन कराते हैं अनेक मुख, अनेकनेत्र. दिव्य आभूषणों से युक्त, दिव्यशस्त्रो से युक्त, दिव्य माला, वस्त्र, दिव्यगन्ध, दिव्य लेप, सब ओंर मुख किए हुए परमदेव परमेश्वर को देख विस्मय में भरे हुए पुलकित शरीर अर्जुन श्रद्धा भक्तिभाव से सिर झुकाकर प्रणाम करके हाथ जोडकर बोला- मैं आपके शरीर में सम्पूर्ण देवों, भूतों, ब्रहम, महादेव, समस्त शिष्यों तथा आपके अनेक भुजाओं, अनेक मुख, उदर, नेत्रों तथा रूपों वाला देख रहा हूँ जिसका आदि, मध्य तथा अन्त नहीं दिखाई पडता। हे प्रभु आप ही जानने योग्य हैं, आप ही अक्षर, अविनाशी ब्रह्म हैं। सभी धृतराष्ट्र पुत्र, भीष्म, द्रोण, कर्ण आदि आपके मुख मे समायें जा रहे हैं। आप उग्र रुप वाले कौन हैं। भगवान श्रीकृष्ण न कहा लोकों का नाश करने वाला मैं महाकाल हूँ। युद्ध में सभी प्रतिपक्षी योद्धा तुम्हारे द्वारा न मारे जाेने पर भी मारे जाएंगे। क्योकि ये मेरे द्वारा पहले ही मार दिए गए हैं। तू युद्ध मे जीतेगा। अत: युद्ध कर ।

12. भक्तियोग-

इस अध्याय में मात्र 20 श्लोक हैं जिसमे साकार व निराकार उपासकों की श्रेष्ठता का वर्णन किया गया है। भगवान कहते हैं कि यदि तू चित्त को मुझमे लगाने में समर्थ नही है तो अभ्यास कर । यदि अभ्यास मे भी असमर्थ हैं तो मेरे लिए कर्म कर। इस प्रकार मेरे लिए कर्म करता हुआ मुझे ही प्राप्त होगा। अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है, ज्ञान से ध्यान श्रेष्ठ है तथा ध्यान से कर्मफल त्याग श्रेष्ठ है क्योकि उससे तुरन्त शान्ति की प्राप्ति होती है। जो मुझमे ही सुख को प्राप्त करता है, उसको मैं अपनी नौका से स्वयं पार उतार देता हूँ।

13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ योग- 

इस अध्याय में 34 श्लोक हैं जिनमे क्षेत्र तथा क्षेत्रज्ञ का वर्णन किया गया है, अहिंसा, मानहीनता, दम्भहीनता आदि को धारण करले वाला ज्ञानी पुरुष जिसे जानकर अमृततत्व को प्राप्त होता है। वह अनादि परमब्रहम न सत् कहा जाता है, न असत् । वह सब और हाथ, पैर, नेत्र, सिर और मुखवाला है। सब मे व्याप्त है। सब चराचर भूतों के बाहर व अन्दर भी वही कार्य और करण के उत्पन्न करने में हेतु प्रकृति है। सुख दुःखों के भोक्तापन मे हेतु पुरुष है। जो चराचर प्राणी उत्पन्न होते हैं, वे क्षेत्र व क्षेत्रज्ञ के संयोग से ही उत्पन्न होते हैं।

14. गुणत्रय विभाग योग-

इस अध्याय में 27 श्लोक हैं जिनमें प्रकृति के तीनोगुणों का वर्णन किया गया है। प्रकृति ही परमेश्वर की योनि है, उससे ही जड चेतन के संयोग से सब भूतों की उत्पत्ति होती है। प्रकृति गर्भधारण करने वाली माँ तथा परमेश्वर बीज स्थापन करने वाला पिता है। सत्व, रजस व तमस ये तीन गुण प्रकृति के हैं जिन्हें प्रकाशक, तृष्णा आसक्ति तथा आलस्य निद्रा रूप जान। सत्व गुण सुख में, रजोगुण क्रिया में, तथा तमोगुण प्रमाद मे लगाता है। सत्य की वृद्धि से चेतना का ज्ञान, रजोणुण की वृद्धि से लोभ प्रवृत्ति, अशान्ति व भोगविलासता तथा तमोगुण की वृद्धि से अन्तःकरण व इन्दियों मे अप्रकाश, कर्तव्यकर्मो में अप्रवृत्ति, प्रमाद और निद्रा उत्पन्न होते है। जब द्रष्टा इऩ गुणों को ही कर्ता देखता है तथा इनसे परे सच्चिदानन्द परमात्मा को जानता है तो वह जन्मादि को पारकर अमृततत्व को प्राप्त होता है।

15. पुरुषोत्तम योग-

20 श्लोकों वाले इस अध्याय मे संसार वृक्ष, भगवतप्राप्ति के उपाय, परमेश्वर के स्वरूप एवं क्षर, अक्षर एवं पुरुषोत्तम के स्वरुप का वर्णन किया गया हे। ऊपर मूल नीचे शाखा वाले पीपल के वृक्ष को अविनाशी कहते हैं। जिसके पत्ते वेद हैं, उसको जो तत्व से जानता है वह वेद को जानने वाला है। उस संसारवृक्ष को वैराग्य रूप शस्त्र से काटकर परमपद प्राप्त करना चाहिए। जिनकी कामनाएं पूर्ण रूप से नष्ट हो गई हैं, वे सुख दुःख नामक द्वंदों से विमुक्त हो जाते हैं। स्वयंप्रकाश परमपद को सूर्य, चन्द्र, अग्नि आदि प्रकाशित नहीं कर सकते। वही परमेश्वर का धाम है। इन सूर्य, चन्द्र व अग्नि मे जो तेज है, वह उसी परमेश्वर का है। प्राणियो के शरीर क्षर, जीवात्मा अक्षर तथा अविनाशी परमेश्वर पुरुषोत्तम हैं।

16. दैवासुरसम्पद् विभाग योग-

 इस अध्याय मे 24 श्लोक हैं, जिनमे दैवी आसुरी सम्पत्तियों का वर्णन किया गया है। निर्भयता,निर्मलता, दान, इन्दिय दमन, भगवान, देव तथा गुरुजनों की पूजा, वेद शात्रों का पठन-पाठन, स्वाध्याय, तप, अन्तःकरण की सरलता, लोक व शास्त्र विरुद्ध आचरण मे लज्जा, तेज, क्षमा, धैर्य, शुचिता, शत्रुभाव का अभाव आदि दैविसम्पदा कहलाती हैं। दम्भ, अभिमान, क्रोध, कठोरता, अज्ञानता आदि आसुरी सम्पदा कहलाती हैं। काम, क्रोध, लोभ इनको नरक के द्वार कहा है। शास्त्राऩुकूल व्यवहार करना तथा विपरीत व्यवहार का त्याग करना चाहिए।

17 श्रद्धात्रय विभाग योग-

 इस अध्याय मे 28 श्लोक हैं जिनमे सात्विक, राजसी व तामसी श्रद्धा का वर्णन किया गया है। शास्त्रविपरीत घोर तप करने वालों का वर्णन, आहार, यज्ञ, तप व दान के पृथक-पृथक भेदों का वर्णन किया गया है। सात्विक पुरुष देवों को, राजस राक्षसों यक्षों को तथा तामस पुरुष भूत प्रेतो को पूजते हैं। जो दम्भ, कामना आदि से तप करते हैं, वे असुर स्वाभाव होते हैं। आहार भेद भी सात्विक आदि भेद से तीन प्रकार का तथा यज्ञ, तप, दान भी तीन प्रकार के होते हैं। जो जैसी वृति रखता है, वह वैसा ही प्रकार अपनाता है।

18. मोक्ष संन्यास योग-

 इस अध्याय में 78 श्लोक हैं। इसमें त्याग, सांख्य स्रिद्धान्त, वर्णधर्म, पराभक्ति, निष्काम कर्मयोग तथा शरणागति का वर्णन किया गया है। यज्ञ, दान व तप त्याज्य कर्म नहीं हैं, अत: इन्हे अवश्य करना चाहिए । कर्मफल का त्याग करना उचित है। कर्मों की सिद्धि मे सांख्य शास्त्र ने पाँच हेतु बताए है' अधिष्ठान (शरीर), कर्ता (जीवात्मा), करण (इन्द्रियाँ), चेष्ठाएं तथा दैव। ज्ञान-अज्ञान, कर्तव्याकर्तव्य में भेद करने वाली बुद्धि सात्विक, ठीक-ठीक न जानने वाली बुद्धि राजसी, तथा केवल अज्ञान, अधर्म को ही ठीक समझने वाली बुद्धि तामसी कहलाती है। ब्राह्मण, क्षत्रिय. वैश्य, शूद्र के स्वाभाविक धर्म कहे गए हैं। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि 'हे अर्जुन तू मुझमे मन वाला हो, मेरा भक्त हो, मेरा ही पूजन कर, मुझे ही प्रणाम कर । सब धर्मो का त्याग करके केवल मुझ परमेश्वर की शरण में आ जा। मैं तुझे सब पापों से मुक्त कर दूंगा। शोक मत कर’ । अर्जुन कहते हैं कि हे परमेश्वर मेरा मोह नष्ट हो गया है, स्मृति प्राप्त हो गई तथा मैं संशयरहित हो गया हूँ। अब आपके आदेशानुसार कार्य करूँगा। 

इस प्रकार गीता का यह अन्तिम अध्याय पूर्ण होता है। अपने भक्तो की भगवाऩ सब प्रकार से रक्षा करते हैं तथा तत्वज्ञान भी उन्ही की कृपा से प्राप्त होता है। ऐसी इस अध्याय के अन्त मे घोषणा की गई है। 

घेरण्ड संहिता का सामान्य परिचय

योगसूत्र का सामान्य परिचय

Comments

Popular posts from this blog

सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति सामान्य परिचय

प्रथम उपदेश- पिण्ड उत्पति विचार सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति अध्याय - 2 (पिण्ड विचार) सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार नौ चक्रो के नाम 1. ब्रहमचक्र - मूलाधार मे स्थित है, कामनाओं की पूर्ति होती हैं। 2. स्वाधिष्ठान चक्र - इससे हम चीजो को आकर्षित कर सकते है। 3. नाभी चक्र - सिद्धि की प्राप्ति होती है। 4. अनाहत चक्र - हृदय में स्थित होता है। 5. कण्ठचक्र - विशुद्धि-संकल्प पूर्ति, आवाज मधुर होती है। 6. तालुचक्र -  घटिका में, जिह्वा के मूल भाग में,  लय सिद्धि प्राप्त होती है। 7. भ्रुचक्र -     आज्ञा चक्र - वाणी की सिद्धि प्राप्त होती है। 8. निर्वाणचक्र - ब्रहमरन्ध्र, सहस्त्रार चक्र, मोक्ष प्राप्ति 9. आकाश चक्र - सहस्त्रारचक्र के ऊपर,  भय- द्वेष की समाप्ति होती है। सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार सोहल आधार (1) पादांगुष्ठ आधार (2) मूलाधार (3) गुदाद्वार आधार (4) मेद् आधार (5) उड्डियान आधार (6) नाभी आधार (7) हृदयाधार (8) कण्ठाधार (9) घटिकाधार (10) तालु आधार (11) जिह्वा आधार (12) भ्रूमध्य आधार (13) नासिका आधार (14) नासामूल कपाट आधार (15) ललाट आधार (16) ब्रहमरंध्र आधार सिद्ध...

"चक्र " - मानव शरीर में वर्णित शक्ति केन्द्र

7 Chakras in Human Body हमारे शरीर में प्राण ऊर्जा का सूक्ष्म प्रवाह प्रत्येक नाड़ी के एक निश्चित मार्ग द्वारा होता है। और एक विशिष्ट बिन्दु पर इसका संगम होता है। यह बिन्दु प्राण अथवा आत्मिक शक्ति का केन्द्र होते है। योग में इन्हें चक्र कहा जाता है। चक्र हमारे शरीर में ऊर्जा के परिपथ का निर्माण करते हैं। यह परिपथ मेरूदण्ड में होता है। चक्र उच्च तलों से ऊर्जा को ग्रहण करते है तथा उसका वितरण मन और शरीर को करते है। 'चक्र' शब्द का अर्थ-  'चक्र' का शाब्दिक अर्थ पहिया या वृत्त माना जाता है। किन्तु इस संस्कृत शब्द का यौगिक दृष्टि से अर्थ चक्रवात या भँवर से है। चक्र अतीन्द्रिय शक्ति केन्द्रों की ऐसी विशेष तरंगे हैं, जो वृत्ताकार रूप में गतिमान रहती हैं। इन तरंगों को अनुभव किया जा सकता है। हर चक्र की अपनी अलग तरंग होती है। अलग अलग चक्र की तरंगगति के अनुसार अलग अलग रंग को घूर्णनशील प्रकाश के रूप में इन्हें देखा जाता है। योगियों ने गहन ध्यान की स्थिति में चक्रों को विभिन्न दलों व रंगों वाले कमल पुष्प के रूप में देखा। इसीलिए योगशास्त्र में इन चक्रों को 'शरीर का कमल पुष्प” कहा ग...

हठयोग प्रदीपिका में वर्णित प्राणायाम

हठयोग प्रदीपिका में प्राणायाम को कुम्भक कहा है, स्वामी स्वात्माराम जी ने प्राणायामों का वर्णन करते हुए कहा है - सूर्यभेदनमुज्जायी सीत्कारी शीतल्री तथा।  भस्त्रिका भ्रामरी मूर्च्छा प्लाविनीत्यष्टकुंम्भका:।। (हठयोगप्रदीपिका- 2/44) अर्थात् - सूर्यभेदन, उज्जायी, सीत्कारी, शीतली, भस्त्रिका, भ्रामरी, मूर्छा और प्लाविनी में आठ प्रकार के कुम्भक (प्राणायाम) है। इनका वर्णन ऩिम्न प्रकार है 1. सूर्यभेदी प्राणायाम - हठयोग प्रदीपिका में सूर्यभेदन या सूर्यभेदी प्राणायाम का वर्णन इस प्रकार किया गया है - आसने सुखदे योगी बदध्वा चैवासनं ततः।  दक्षनाड्या समाकृष्य बहिस्थं पवन शनै:।।  आकेशादानखाग्राच्च निरोधावधि क्रुंभयेत। ततः शनैः सव्य नाड्या रेचयेत् पवन शनै:।। (ह.प्र. 2/48/49) अर्थात- पवित्र और समतल स्थान में उपयुक्त आसन बिछाकर उसके ऊपर पद्मासन, स्वस्तिकासन आदि किसी आसन में सुखपूर्वक मेरुदण्ड, गर्दन और सिर को सीधा रखते हुए बैठेै। फिर दाहिने नासारन्ध्र अर्थात पिंगला नाडी से शनैः शनैः पूरक करें। आभ्यन्तर कुम्भक करें। कुम्भक के समय मूलबन्ध व जालन्धरबन्ध लगा कर रखें।  यथा शक्ति कुम्भक के प...

सांख्य दर्शन परिचय, सांख्य दर्शन में वर्णित 25 तत्व

सांख्य दर्शन के प्रणेता महर्षि कपिल है यहाँ पर सांख्य शब्द का अर्थ ज्ञान के अर्थ में लिया गया सांख्य दर्शन में प्रकृति पुरूष सृष्टि क्रम बन्धनों व मोक्ष कार्य - कारण सिद्धान्त का सविस्तार वर्णन किया गया है इसका संक्षेप में वर्णन इस प्रकार है। 1. प्रकृति-  सांख्य दर्शन में प्रकृति को त्रिगुण अर्थात सत्व, रज, तम तीन गुणों के सम्मिलित रूप को त्रिगुण की संज्ञा दी गयी है। सांख्य दर्शन में इन तीन गुणो कों सूक्ष्म तथा अतेनद्रिय माना गया सत्व गुणो का कार्य सुख रजोगुण का कार्य लोभ बताया गया सत्व गुण स्वच्छता एवं ज्ञान का प्रतीक है यह गुण उर्ध्वगमन करने वाला है। इसकी प्रबलता से पुरूष में सरलता प्रीति,अदा,सन्तोष एवं विवेक के सुखद भावो की उत्पत्ति होती है।    रजोगुण दुःख अथवा अशान्ति का प्रतीक है इसकी प्रबलता से पुरूष में मान, मद, वेष तथा क्रोध भाव उत्पन्न होते है।    तमोगुण दुख एवं अशान्ति का प्रतीक है यह गुण अधोगमन करने वाला है तथा इसकी प्रबलता से मोह की उत्पत्ति होती है इस मोह से पुरूष में निद्रा, प्रसाद, आलस्य, मुर्छा, अकर्मण्यता अथवा उदासीनता के भाव उत्पन्न होते है सा...

हठयोगप्रदीपिका में वर्णित मुद्रायें, बंध

  हठयोगप्रदीपिका में वर्णित मुद्रायें, बंध हठयोग प्रदीपिका में मुद्राओं का वर्णन करते हुए स्वामी स्वात्माराम जी ने कहा है महामुद्रा महाबन्धों महावेधश्च खेचरी।  उड़्डीयानं मूलबन्धस्ततो जालंधराभिध:। (हठयोगप्रदीपिका- 3/6 ) करणी विपरीताख्या बज़्रोली शक्तिचालनम्।  इदं हि मुद्रादश्क जरामरणनाशनम्।।  (हठयोगप्रदीपिका- 3/7) अर्थात महामुद्रा, महाबंध, महावेध, खेचरी, उड्डीयानबन्ध, मूलबन्ध, जालन्धरबन्ध, विपरीतकरणी, वज़्रोली और शक्तिचालनी ये दस मुद्रायें हैं। जो जरा (वृद्धा अवस्था) मरण (मृत्यु) का नाश करने वाली है। इनका वर्णन निम्न प्रकार है।  1. महामुद्रा- महामुद्रा का वर्णन करते हुए हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है- पादमूलेन वामेन योनिं सम्पीड्य दक्षिणम्।  प्रसारितं पद कृत्या कराभ्यां धारयेदृढम्।।  कंठे बंधं समारोप्य धारयेद्वायुमूर्ध्वतः।  यथा दण्डहतः सर्पों दंडाकारः प्रजायते  ऋज्वीभूता तथा शक्ति: कुण्डली सहसा भवेतत् ।।  (हठयोगप्रदीपिका- 3/9,10)  अर्थात् बायें पैर को एड़ी को गुदा और उपस्थ के मध्य सीवन पर दृढ़ता से लगाकर दाहिने पैर को फैला कर रखें...

घेरण्ड संहिता के अनुसार ध्यान

घेरण्ड संहिता में वर्णित  “ध्यान“  घेरण्ड संहिता के छठे अध्याय में ध्यान को परिभाषित करते हुए महर्षि घेरण्ड कहते हैं कि किसी विषय या वस्तु पर एकाग्रता या चिन्तन की क्रिया 'ध्यान' कहलाती है। जिस प्रकार हम अपने मन के सूक्ष्म अनुभवों को अन्‍तःचक्षु के सामने मन:दृष्टि के सामने स्पष्ट कर सके, यही ध्यान की स्थिति है। ध्यान साधक की कल्पना शक्ति पर भी निर्भर है। ध्यान अभ्यास नहीं है यह एक स्थिति हैं जो बिना किसी अवरोध के अनवरत चलती रहती है। जिस प्रकार तेल को एक बर्तन से दूसरे बर्तन में डालने पर बिना रूकावट के मोटी धारा निकलती है, बिना छलके एक समान स्तर से भरनी शुरू होती है यही ध्यान की स्थिति है। इस स्थिति में किसी भी प्रकार की हलचल नहीं होती। महर्षि घेरण्ड ध्यान के प्रकारों का वर्णन छठे अध्याय के प्रथम सूत्र में करते हुए कहते हैं कि - स्थूलं ज्योतिस्थासूक्ष्मं ध्यानस्य त्रिविधं विदु: । स्थूलं मूर्तिमयं प्रोक्तं ज्योतिस्तेजोमयं तथा । सूक्ष्मं विन्दुमयं ब्रह्म कुण्डली परदेवता ।। (घेरण्ड संहिता  6/1) अर्थात्‌ ध्यान तीन प्रकार का है- स्थूल ध्यान, ज्योतिर्ध्यान और सूक्ष्म ध्यान। स्थू...

हठयोग प्रदीपिका के अनुसार षट्कर्म

हठप्रदीपिका के अनुसार षट्कर्म हठयोगप्रदीपिका हठयोग के महत्वपूर्ण ग्रन्थों में से एक हैं। इस ग्रन्थ के रचयिता योगी स्वात्माराम जी हैं। हठयोग प्रदीपिका के द्वितीय अध्याय में षटकर्मों का वर्णन किया गया है। षटकर्मों का वर्णन करते हुए स्वामी स्वात्माराम  जी कहते हैं - धौतिर्बस्तिस्तथा नेतिस्त्राटकं नौलिकं तथा।  कपालभातिश्चैतानि षट्कर्माणि प्रचक्षते।। (हठयोग प्रदीपिका-2/22) अर्थात- धौति, बस्ति, नेति, त्राटक, नौलि और कपालभोंति ये छ: कर्म हैं। बुद्धिमान योगियों ने इन छः कर्मों को योगमार्ग में करने का निर्देश किया है। इन छह कर्मों के अतिरिक्त गजकरणी का भी हठयोगप्रदीपिका में वर्णन किया गया है। वैसे गजकरणी धौतिकर्म के अन्तर्गत ही आ जाती है। इनका वर्णन निम्नलिखित है 1. धौति-  धौँति क्रिया की विधि और  इसके लाभ एवं सावधानी- धौँतिकर्म के अन्तर्गत हठयोग प्रदीपिका में केवल वस्त्र धौति का ही वर्णन किया गया है। धौति क्रिया का वर्णन करते हुए योगी स्वात्माराम जी कहते हैं- चतुरंगुल विस्तारं हस्तपंचदशायतम। . गुरूपदिष्टमार्गेण सिक्तं वस्त्रं शनैर्गसेत्।।  पुनः प्रत्याहरेच्चैतदुदितं ध...

घेरण्ड संहिता में वर्णित "प्राणायाम" -- विधि, लाभ एवं सावधानियाँ

घेरण्ड संहिता के अनुसार प्राणायाम घेरण्डसंहिता में महर्षि घेरण्ड ने आठ प्राणायाम (कुम्भको) का वर्णन किया है । प्राण के नियन्त्रण से मन नियन्त्रित होता है। अत: प्रायायाम की आवश्यकता बताई गई है। हठयोग प्रदीपिका की भांति प्राणायामों की संख्या घेरण्डसंहिता में भी आठ बताई गईं है किन्तु दोनो में थोडा अन्तर है। घेरण्डसंहिता मे कहा गया है- सहित: सूर्यभेदश्च उज्जायी शीतली तथा। भस्त्रिका भ्रामरी मूर्च्छा केवली चाष्टकुम्भका।। (घे.सं0 5 / 46) 1. सहित, 2. सूर्य भेदन, 3. उज्जायी, 4. शीतली, 5. भस्त्रिका, 6. भ्रामरी, 7. मूर्च्छा तथा 8. केवली ये आठ कुम्भक (प्राणायाम) कहे गए हैं। प्राणायामों के अभ्यास से शरीर में हल्कापन आता है। 1. सहित प्राणायाम - सहित प्राणायाम दो प्रकार के होते है (i) संगर्भ और (ii) निगर्भ । सगर्भ प्राणायाम में बीज मन्त्र का प्रयोग किया जाता हैँ। और निगर्भ प्राणायाम का अभ्यास बीज मन्त्र रहित होता है। (i) सगर्भ प्राणायाम- इसके अभ्यास के लिये पहले ब्रह्मा पर ध्यान लगाना है, उन पर सजगता को केन्द्रित करते समय उन्हें लाल रंग में देखना है तथा यह कल्पना करनी है कि वे लाल है और रजस गुणों से...

Teaching Aptitude MCQ in hindi with Answers

  शिक्षण एवं शोध अभियोग्यता Teaching Aptitude MCQ's with Answers Teaching Aptitude mcq for ugc net, Teaching Aptitude mcq for set exam, Teaching Aptitude mcq questions, Teaching Aptitude mcq in hindi, Teaching aptitude mcq for b.ed entrance Teaching Aptitude MCQ 1. निम्न में से कौन सा शिक्षण का मुख्य उद्देश्य है ? (1) पाठ्यक्रम के अनुसार सूचनायें प्रदान करना (2) छात्रों की चिन्तन शक्ति का विकास करना (3) छात्रों को टिप्पणियाँ लिखवाना (4) छात्रों को परीक्षा के लिए तैयार करना   2. निम्न में से कौन सी शिक्षण विधि अच्छी है ? (1) व्याख्यान एवं श्रुतिलेखन (2) संगोष्ठी एवं परियोजना (3) संगोष्ठी एवं श्रुतिलेखन (4) श्रुतिलेखन एवं दत्तकार्य   3. अध्यापक शिक्षण सामग्री का उपयोग करता है क्योंकि - (1) इससे शिक्षणकार्य रुचिकर बनता है (2) इससे शिक्षणकार्य छात्रों के बोध स्तर का बनता है (3) इससे छात्रों का ध्यान आकर्षित होता है (4) वह इसका उपयोग करना चाहता है   4. शिक्षण का प्रभावी होना किस ब...

घेरण्ड संहिता में वर्णित धौति

घेरण्ड संहिता के अनुसार षट्कर्म- षट्कर्म जैसा नाम से ही स्पष्ट है छः: कर्मो का समूह वे छः कर्म है- 1. धौति 2. वस्ति 3. नेति 4. नौलि 5. त्राटक 6. कपालभाति । घेरण्ड संहिता में षटकर्मो का वर्णन विस्तृत रूप में किया गया है जिनका फल सहित वर्णन निम्न प्रकार है। 1. धौति   घेरण्ड संहिता में वर्णित धौति-   धौति अर्थात धोना (सफाई करना) जैसा कि नाम से ही स्पष्ट हो रहा इससे अन्तःकरण की सफाई की जाती है। इसलिए इसका नाम धौति पड़ा। घेरण्ड संहिता में महर्षि घेरण्ड ने चार प्रकार की धौति का वर्णन किया है- (क) अन्त: धौति  (ख) दन्त धौति (ग) हृद धौति (घ) मूलशोधन (क) अन्त: धौति-   अन्त:का अर्थ आंतरिक या भीतरी तथा धौति का अर्थ है धोना या सफाई करना। वस्तुत: शरीर और मन को विकार रहित बनाने के लिए शुद्धिकरण अत्यन्त आवश्यक है। अन्त: करण की शुद्धि के लिए चार प्रकार की अन्त: धौति बताई गई है- 1. वातसार अन्त: धौति 2. वारिसार अन्त: धौति 3. अग्निसार अन्त: धौति 4. बहिष्कृत अन्त: धौति 1. वातसार अन्त: धौति-  वात अर्थात वायु तत्व या हवा से अन्तःकरण की सफाई करना ही वातसार अन्त: धौति है। महर्षि ...