Skip to main content

कटि स्नान | रीठ स्नान | जल चिकित्सा | प्राकृतिक चिकित्सा

 पंचमहाभूतों (आकाश , वायु , अग्नि , जल तथा पृथ्वी) में जल तत्व दूसरा महत्वपूर्ण तत्व है जिसके शरीर में सम अवस्था (संतुलित अवस्था) में बना रहना अत्यन्त अनिवार्य है। जब तक यह तत्व समअवस्था में रहता है तब तक शरीर स्वस्थ बना रहता है तथा इस तत्व के विकृत होने पर भिन्न भिन्न रोग पैदा होते हैं।

#कटिस्नान #जलचिकित्सा #प्राकृतिकचिकित्सा

कटि स्नान-  

तीव्र रोगों में स्नान जल्दी जल्दी और कई बार तथा जीर्ण रोगों में 1-2 बार ही देना चाहिए। कटि स्नान से सभी रोगों में लाभ पहुँचता है कटि स्नान से पेड्टू की बड़ी हुई गर्मी कम होती है। इस समान से आँतों में रक्त का संचार बढ़ जाता है जिससे वहाँ जमा मल शरीर से बाहर होने में मदद मिलती है।

कटि स्नान पेट को साफ करने के साथ साथ एक यकृत तिलल्ली एवं आंतों के रस स्राव को भी बढ़ाता है। जिससे पाचन शक्ति में वृद्धि होती है। ज्वर, सिरदर्द, भू अवरूढता, कब्ज गैस, बवासीर, पीलिया, मदाग्नि, आंतों की सडान, पेट की गर्मी, अजीर्ण तथा उदर सम्बन्धी रोगों में बहुत ही उपयोगी है।

कटि स्नान के लिये सामग्री- कटि स्नान टब, छोटा तौलिया।

(अ) गर्म कटि स्नान-

पानी का तापमान शरीर के तापमान से कुछ अधिक सहने योग्य अर्थात 100-104 डिग्री से0 हो। इस स्नान को लेने से पूर्व रोगी को ठंडा पानी पिलाना चाहिए तथा सिर पर गीला कपड़ा रख देना चाहिए। स्नान लेते समय रोगी के पैरों को लकड़ी की चौकी पर रखना चाहिए ताकि पैर भीगे नहीं। स्नान लेते समय एक तौलिए से पेट पर मालिश या घर्षण करते रहना चाहिए। पानी के तापमान को बनाए रखने के लिए समय समय पर उसमें गर्म पानी डालते रहना चाहिए। इस स्नान को 5 से 10 मिनट तक देना चाहिए। स्नान के पश्चात रोगी को ठंडे जल से स्नान भी कराना चाहिए।

सावधानियां- उच्च रक्तचाप, कमजोरी और बुखार की स्थिति तथा रजोधर्म में यह स्नान नहीं देना चाहिए।

लाभ- पेट के भीतरी अवयवों की सूजन, दर्द, रजोधर्म के दौरान होने वाले दर्द से राहत मिलती है।

(ब) ठंडा कटि स्नान- 

टब में इतनी मात्रा में पानी भरें ताकि मरीज टब में जब बैठे तो पानी नाभि तक पहुच जाए। मरीज को एक तौलिया देकर उसे पेट पर बॉयी से दांयी ओर को धीरे धीरे रगड़ने को कहना चाहिए। शरीर के वह भाग जो टब के बाहर है वह पूरी तरह से सूखे रहने चाहिए तथा स्नान के दौरान या इसके बाद भी भगना नहीं चाहिए। पैरों को लकड़ी की चौकी पर रखना चाहिए। इस स्नान को 10 से 15 मिनट तक किया जा सकता हे। इस स्नान के बाद रोगी को तेज गति से घूमना चाहिए।

सावधानियां- पेट के अंगों में सूजन और तंत्रिकाओं की दुर्बलता तथा मूत्राशय मलाशय में पीड़ा, कमर में दर्द, बुखार उल्टी या दस्त में इस स्नान को नहीं लेना चाहिए तथा मासिक धर्म के दिनों में भी यह वर्जित है।

लाभ-  ठंडा कटि स्नान से करीब करीब सारी बीमारियोँ मेँ आराम मिलता है। कब्ज, बदहजमी, मोटापे से छुटकारा दिलाता है।

#प्राकृतिकचिकित्सा #कटिस्नान #जलचिकित्सा

(स) गर्म ठण्डा कटि स्नान- (आल्टरनेटिव कटि सस्नान)

इस स्नान के लिए दो टब रखने घाहिए। एक टब में साधारण ठंडा पानी तथा एक में शरीर से थोड़ा गर्म पानी (104 डिग्री0 फा0) लेना चाहिए।

स्नान कराने से पहले रोगी को ठंडा पानी पिला लेना चाहिए। सिर पर गीले कपड़े की एक पट्टी रखनी चाहिए। तथा रोगी को पहले 5 मिनट गर्म पानी के टब में बैठा देना चाहिए। समय होने पर उसे तुरन्त ठंडे पानी के टब में तीन मिनट बैठाना चाहिए और तोौलिये से पेट पर हल्का घर्षण करते रहना चाहिए। गर्म पानी के टब का तापमान बनाए रखने के लिए उसमें गर्म पानी मिलाते रहना चाहिए। तीन मिनट ठण्डे पानी में बैठने के बाद रोगी को गरम पानी के टब में बैठाना चाहिए। इस प्रक्रिया को तीन बार करना चाहिए। इस प्रकार गर्म पानी के टब में तीसरी बार बैठकर स्नान का अंत कर देना चाहिए। स्नान के पश्चात रोगी को ठंडे पानी से स्नान करा देना चाहिए। गर्म कटि स्नान से प्रारम्भ कर ठंडे पर ही समास्त करना चाहिए।

लाभ - इस स्नान से गैस और कब्ज के कारण होने वाले रोगों से निजात मिलती है। तंत्रिकाओं की दुर्बलता के कारण काफी समय से बनी हुई सूजन दूर करने में जननांग मूत्रीय अवयवों में मदद मिलती है।

रीढ स्नान-

रीढ स्नान एक विशेष प्रकार से तैयार टब के द्वारा कराया जाता है। टब के बीचों बीच एक नली होती है जिसमें छोटे छिद्र होते हैं। इन छिद्रों की सहायता से पानी की फहारों से पूरी रीढ़ की मालिश में सहायता मिलती है। इस टब पर मरीज को लेटना पड़ता है। यह बहुत ही सुविधाजनक होता है. कटि समान की भांति यह स्नान भी ठंडे न्यूट्रल और गर्म तापमानों पर कराया जाता है।

(अ) ठंडा रीढ़ स्नान- 

इस स्नान से पहले रोगी के कपड़े हटाकर उसे टब पर इस प्रकार लिटाना चाहिए जिससे कि गर्दन के नीचे से लेकर आखिरी सिरे तक उसकी पूरी रीढ़ इस नली से छूती रहे। रोगी को जूते अवश्य ही पहनाने चाहिए ताकि पैर न भीगें। इस स्नान को कराने के लिए पानी का तापमान 18 से 24 डिग्री0 से0 के बीच होना चाहिए तथा 15 से 20 मिनट ही इस स्नान को रोगी को कराना चाहिए। स्नान की अवधि पूरी होने पर रोगी को व्यायाम या तेज कदम ताल करा कर पुनः शरीर को गर्म कराना चाहिए।

लाभ- ठंडे रीढ़ समान से थकान, उच्च रक्तचाप और तनाव से मुक्ति मिलती है।

सावधानी- सर्वाइकल व लम्बर की समस्या तथा आर्थराइटिस के मरीजों को यह स्नान नहीं करना चाहिए।

(ब) न्यूट्रल रीढ़ स्नान- 

इस स्नान से पहले मरीज को 1 से 2 गिलास पानी पिलाना चाहिए तथा सिर पर ठण्डे पानी का तौलिया रखना चाहिए। इस समान में पानी का तापमान 34 से 36 डिग्री से0 तक रखना चाहिए। यह स्नान ठंडे रीढ स्नान की तरह से ही किया जाता है। स्नान के बाद व्यायाम नहीं करना चाहिए रोगी को आराम कराना चाहिए।

लाभ- इस स्नान से शान्ति, प्रसन्नता व स्फुर्ति से भरकर रोगी अच्छा महसूस करता है। इससे तंत्रिका प्रणाली को, कमर की मांसपेशियों को तथा कमर के निचले हिस्से में होने वाले दर्द की स्थिति में आराम मिलता है। सियाटिका के इलाज में बहुत ही लाभकारी है। |

(स) गर्म रीढ़ स्नान- 

इस स्नान में पानी का तापमान 40 से 45 डिग्री से0 होना चाहिए। इस स्नान को लेने की विधि भी न्यूट्रल रीढ़ स्नान की तरह ही है।

लाभ- इसके द्वारा तंत्रिकाओं को सक्रिय किया जाता है तनाव की स्थिति में यह महत्वपूर्ण योगदान प्रदान करती है। कमर दर्द व सियाटिका में लाभकारी है।

Comments

Popular posts from this blog

"चक्र " - मानव शरीर में वर्णित शक्ति केन्द्र

7 Chakras in Human Body हमारे शरीर में प्राण ऊर्जा का सूक्ष्म प्रवाह प्रत्येक नाड़ी के एक निश्चित मार्ग द्वारा होता है। और एक विशिष्ट बिन्दु पर इसका संगम होता है। यह बिन्दु प्राण अथवा आत्मिक शक्ति का केन्द्र होते है। योग में इन्हें चक्र कहा जाता है। चक्र हमारे शरीर में ऊर्जा के परिपथ का निर्माण करते हैं। यह परिपथ मेरूदण्ड में होता है। चक्र उच्च तलों से ऊर्जा को ग्रहण करते है तथा उसका वितरण मन और शरीर को करते है। 'चक्र' शब्द का अर्थ-  'चक्र' का शाब्दिक अर्थ पहिया या वृत्त माना जाता है। किन्तु इस संस्कृत शब्द का यौगिक दृष्टि से अर्थ चक्रवात या भँवर से है। चक्र अतीन्द्रिय शक्ति केन्द्रों की ऐसी विशेष तरंगे हैं, जो वृत्ताकार रूप में गतिमान रहती हैं। इन तरंगों को अनुभव किया जा सकता है। हर चक्र की अपनी अलग तरंग होती है। अलग अलग चक्र की तरंगगति के अनुसार अलग अलग रंग को घूर्णनशील प्रकाश के रूप में इन्हें देखा जाता है। योगियों ने गहन ध्यान की स्थिति में चक्रों को विभिन्न दलों व रंगों वाले कमल पुष्प के रूप में देखा। इसीलिए योगशास्त्र में इन चक्रों को 'शरीर का कमल पुष्प” कहा ग...

सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति सामान्य परिचय

प्रथम उपदेश- पिण्ड उत्पति विचार सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति अध्याय - 2 (पिण्ड विचार) सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार नौ चक्रो के नाम 1. ब्रहमचक्र - मूलाधार मे स्थित है, कामनाओं की पूर्ति होती हैं। 2. स्वाधिष्ठान चक्र - इससे हम चीजो को आकर्षित कर सकते है। 3. नाभी चक्र - सिद्धि की प्राप्ति होती है। 4. अनाहत चक्र - हृदय में स्थित होता है। 5. कण्ठचक्र - विशुद्धि-संकल्प पूर्ति, आवाज मधुर होती है। 6. तालुचक्र -  घटिका में, जिह्वा के मूल भाग में,  लय सिद्धि प्राप्त होती है। 7. भ्रुचक्र -     आज्ञा चक्र - वाणी की सिद्धि प्राप्त होती है। 8. निर्वाणचक्र - ब्रहमरन्ध्र, सहस्त्रार चक्र, मोक्ष प्राप्ति 9. आकाश चक्र - सहस्त्रारचक्र के ऊपर,  भय- द्वेष की समाप्ति होती है। सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार सोहल आधार (1) पादांगुष्ठ आधार (2) मूलाधार (3) गुदाद्वार आधार (4) मेद् आधार (5) उड्डियान आधार (6) नाभी आधार (7) हृदयाधार (8) कण्ठाधार (9) घटिकाधार (10) तालु आधार (11) जिह्वा आधार (12) भ्रूमध्य आधार (13) नासिका आधार (14) नासामूल कपाट आधार (15) ललाट आधार (16) ब्रहमरंध्र आधार सिद्ध...

अष्टांग योग । महर्षि पतंजलि । योगसूत्र

महर्षि पतंजलि द्वारा रचित योगसूत्र का मुख्य विषय अष्टांग योग प्रयोगात्मक सिद्धान्तों पर आधारित योग के परम लक्ष्य की प्राप्ति हेतु एक साधना पद्धति है।  “अष्टांग' शब्द दो शब्दों के मेल से बना है। (अष्ट + अंग) जिसका अर्थ है आठ अंगों वाला। अर्थात अष्टांगयोग वह साधना मार्ग है जिसमें आठ साधनों का वर्णन मिलता है जिससे साधक अपने शरीर व मन की शुद्धि करके परिणामस्वरूप एकाग्रता भाव को प्राप्त कर समाधिस्थ हो जाता है तथा कैवल्य की प्राप्ति कर लेता है।   " यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टावंगानि  " । (योगसूत्र- 2 /29) अष्टांग योग के आठ अंग इस प्रकार से है- 1. यम 2. नियम 3. आसन 4. प्राणायाम  5. प्रत्याहार  6. धारणा  7. ध्यान  8. समाधि  महर्षि पतंजलि के अष्टांग योग को दो भागों में विभाजित किया जाता है। - 1. बहिरंग योग 2. अन्तरंग योग। 1. यम, 2. नियम, 3. आसन, 4. प्राणायाम 5. प्रत्याहार इन पाँच को बहिरंग योग कहा जाता है। तथा 6. धारणा 7. ध्यान और 8. समाधि इन तीन को अन्तरंग योग कहा जाता है।   बहिरंग योग- 1. यम, 2. नियम, 3. आसन, 4. प्राणायाम 5. प...

हठयोग प्रदीपिका के अनुसार षट्कर्म

हठप्रदीपिका के अनुसार षट्कर्म हठयोगप्रदीपिका हठयोग के महत्वपूर्ण ग्रन्थों में से एक हैं। इस ग्रन्थ के रचयिता योगी स्वात्माराम जी हैं। हठयोग प्रदीपिका के द्वितीय अध्याय में षटकर्मों का वर्णन किया गया है। षटकर्मों का वर्णन करते हुए स्वामी स्वात्माराम  जी कहते हैं - धौतिर्बस्तिस्तथा नेतिस्त्राटकं नौलिकं तथा।  कपालभातिश्चैतानि षट्कर्माणि प्रचक्षते।। (हठयोग प्रदीपिका-2/22) अर्थात- धौति, बस्ति, नेति, त्राटक, नौलि और कपालभोंति ये छ: कर्म हैं। बुद्धिमान योगियों ने इन छः कर्मों को योगमार्ग में करने का निर्देश किया है। इन छह कर्मों के अतिरिक्त गजकरणी का भी हठयोगप्रदीपिका में वर्णन किया गया है। वैसे गजकरणी धौतिकर्म के अन्तर्गत ही आ जाती है। इनका वर्णन निम्नलिखित है 1. धौति-  धौँति क्रिया की विधि और  इसके लाभ एवं सावधानी- धौँतिकर्म के अन्तर्गत हठयोग प्रदीपिका में केवल वस्त्र धौति का ही वर्णन किया गया है। धौति क्रिया का वर्णन करते हुए योगी स्वात्माराम जी कहते हैं- चतुरंगुल विस्तारं हस्तपंचदशायतम। . गुरूपदिष्टमार्गेण सिक्तं वस्त्रं शनैर्गसेत्।।  पुनः प्रत्याहरेच्चैतदुदितं ध...

हठयोगप्रदीपिका में वर्णित मुद्रायें, बंध

  हठयोगप्रदीपिका में वर्णित मुद्रायें, बंध हठयोग प्रदीपिका में मुद्राओं का वर्णन करते हुए स्वामी स्वात्माराम जी ने कहा है महामुद्रा महाबन्धों महावेधश्च खेचरी।  उड़्डीयानं मूलबन्धस्ततो जालंधराभिध:। (हठयोगप्रदीपिका- 3/6 ) करणी विपरीताख्या बज़्रोली शक्तिचालनम्।  इदं हि मुद्रादश्क जरामरणनाशनम्।।  (हठयोगप्रदीपिका- 3/7) अर्थात महामुद्रा, महाबंध, महावेध, खेचरी, उड्डीयानबन्ध, मूलबन्ध, जालन्धरबन्ध, विपरीतकरणी, वज़्रोली और शक्तिचालनी ये दस मुद्रायें हैं। जो जरा (वृद्धा अवस्था) मरण (मृत्यु) का नाश करने वाली है। इनका वर्णन निम्न प्रकार है।  1. महामुद्रा- महामुद्रा का वर्णन करते हुए हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है- पादमूलेन वामेन योनिं सम्पीड्य दक्षिणम्।  प्रसारितं पद कृत्या कराभ्यां धारयेदृढम्।।  कंठे बंधं समारोप्य धारयेद्वायुमूर्ध्वतः।  यथा दण्डहतः सर्पों दंडाकारः प्रजायते  ऋज्वीभूता तथा शक्ति: कुण्डली सहसा भवेतत् ।।  (हठयोगप्रदीपिका- 3/9,10)  अर्थात् बायें पैर को एड़ी को गुदा और उपस्थ के मध्य सीवन पर दृढ़ता से लगाकर दाहिने पैर को फैला कर रखें...

Teaching Aptitude MCQ in hindi with Answers

  शिक्षण एवं शोध अभियोग्यता Teaching Aptitude MCQ's with Answers Teaching Aptitude mcq for ugc net, Teaching Aptitude mcq for set exam, Teaching Aptitude mcq questions, Teaching Aptitude mcq in hindi, Teaching aptitude mcq for b.ed entrance Teaching Aptitude MCQ 1. निम्न में से कौन सा शिक्षण का मुख्य उद्देश्य है ? (1) पाठ्यक्रम के अनुसार सूचनायें प्रदान करना (2) छात्रों की चिन्तन शक्ति का विकास करना (3) छात्रों को टिप्पणियाँ लिखवाना (4) छात्रों को परीक्षा के लिए तैयार करना   2. निम्न में से कौन सी शिक्षण विधि अच्छी है ? (1) व्याख्यान एवं श्रुतिलेखन (2) संगोष्ठी एवं परियोजना (3) संगोष्ठी एवं श्रुतिलेखन (4) श्रुतिलेखन एवं दत्तकार्य   3. अध्यापक शिक्षण सामग्री का उपयोग करता है क्योंकि - (1) इससे शिक्षणकार्य रुचिकर बनता है (2) इससे शिक्षणकार्य छात्रों के बोध स्तर का बनता है (3) इससे छात्रों का ध्यान आकर्षित होता है (4) वह इसका उपयोग करना चाहता है   4. शिक्षण का प्रभावी होना किस ब...

ज्ञानयोग - ज्ञानयोग के साधन - बहिरंग साधन , अन्तरंग साधन

  ज्ञान व विज्ञान की धारायें वेदों में व्याप्त है । वेद का अर्थ ज्ञान के रूप मे लेते है ‘ज्ञान’ अर्थात जिससे व्यष्टि व समष्टि के वास्तविक स्वरूप का बोध होता है। ज्ञान, विद् धातु से व्युत्पन्न शब्द है जिसका अर्थ किसी भी विषय, पदार्थ आदि को जानना या अनुभव करना होता है। ज्ञान की विशेषता व महत्त्व के विषय में बतलाते हुए कहा गया है "ज्ञानाग्नि सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा" अर्थात जिस प्रकार प्रज्वलित अग्नि ईंधन को जलाकर भस्म कर देती है उसी प्रकार ज्ञान रुपी अग्नि कर्म रूपी ईंधन को भस्म कर देती है। ज्ञानयोग साधना पद्धति, ज्ञान पर आधारित होती है इसीलिए इसको ज्ञानयोग की संज्ञा दी गयी है। ज्ञानयोग पद्धति मे योग का बौद्धिक और दार्शनिक पक्ष समाहित होता है। ज्ञानयोग 'ब्रहासत्यं जगतमिथ्या' के सिद्धान्त के आधार पर संसार में रह कर भी अपने ब्रह्मभाव को जानने का प्रयास करने की विधि है। जब साधक स्वयं को ईश्वर (ब्रहा) के रूप ने जान लेता है 'अहं ब्रह्मास्मि’ का बोध होते ही वह बंधनमुक्त हो जाता है। उपनिषद मुख्यतया इसी ज्ञान का स्रोत हैं। ज्ञानयोग साधना में अभीष्ट लक्ष्य को प्राप्त ...

चित्त प्रसादन के उपाय

महर्षि पतंजलि ने बताया है कि मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा इन चार प्रकार की भावनाओं से भी चित्त शुद्ध होता है। और साधक वृत्तिनिरोध मे समर्थ होता है 'मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम्' (योगसूत्र 1/33) सुसम्पन्न व्यक्तियों में मित्रता की भावना करनी चाहिए, दुःखी जनों पर दया की भावना करनी चाहिए। पुण्यात्मा पुरुषों में प्रसन्नता की भावना करनी चाहिए तथा पाप कर्म करने के स्वभाव वाले पुरुषों में उदासीनता का भाव रखे। इन भावनाओं से चित्त शुद्ध होता है। शुद्ध चित्त शीघ्र ही एकाग्रता को प्राप्त होता है। संसार में सुखी, दुःखी, पुण्यात्मा और पापी आदि सभी प्रकार के व्यक्ति होते हैं। ऐसे व्यक्तियों के प्रति साधारण जन में अपने विचारों के अनुसार राग. द्वेष आदि उत्पन्न होना स्वाभाविक है। किसी व्यक्ति को सुखी देखकर दूसरे अनुकूल व्यक्ति का उसमें राग उत्पन्न हो जाता है, प्रतिकूल व्यक्ति को द्वेष व ईर्ष्या आदि। किसी पुण्यात्मा के प्रतिष्ठित जीवन को देखकर अन्य जन के चित्त में ईर्ष्या आदि का भाव उत्पन्न हो जाता है। उसकी प्रतिष्ठा व आदर को देखकर दूसरे अनेक...

चित्त विक्षेप | योगान्तराय

चित्त विक्षेपों को ही योगान्तराय ' कहते है जो चित्त को विक्षिप्त करके उसकी एकाग्रता को नष्ट कर देते हैं उन्हें योगान्तराय अथवा योग के विध्न कहा जाता।  'योगस्य अन्तः मध्ये आयान्ति ते अन्तरायाः'।  ये योग के मध्य में आते हैं इसलिये इन्हें योगान्तराय कहा जाता है। विघ्नों से व्यथित होकर योग साधक साधना को बीच में ही छोड़कर चल देते हैं। विध्न आयें ही नहीं अथवा यदि आ जायें तो उनको सहने की शक्ति चित्त में आ जाये, ऐसी दया ईश्वर ही कर सकता है। यह तो सम्भव नहीं कि विध्न न आयें। “श्रेयांसि बहुविध्नानि' शुभकार्यों में विध्न आया ही करते हैं। उनसे टकराने का साहस योगसाधक में होना चाहिए। ईश्वर की अनुकम्पा से यह सम्भव होता है।  व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तिदर्शनालब्धभूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाः (योगसूत्र - 1/30) योगसूत्र के अनुसार चित्त विक्षेपों  या अन्तरायों की संख्या नौ हैं- व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरति, भ्रान्तिदर्शन, अलब्धभूमिकत्व और अनवस्थितत्व। उक्त नौ अन्तराय ही चित्त को विक्षिप्त करते हैं। अतः ये योगविरोधी हैं इन्हें योग के मल...

Information and Communication Technology विषय पर MCQs (Set-3)

  1. "HTTPS" में "P" का अर्थ क्या है? A) Process B) Packet C) Protocol D) Program ANSWER= (C) Protocol Check Answer   2. कौन-सा उपकरण 'डेटा' को डिजिटल रूप में परिवर्तित करता है? A) हब B) मॉडेम C) राउटर D) स्विच ANSWER= (B) मॉडेम Check Answer   3. किस प्रोटोकॉल का उपयोग 'ईमेल' भेजने के लिए किया जाता है? A) SMTP B) HTTP C) FTP D) POP3 ANSWER= (A) SMTP Check Answer   4. 'क्लाउड स्टोरेज' सेवा का एक उदाहरण क्या है? A) Paint B) Notepad C) MS Word D) Google Drive ANSWER= (D) Google Drive Check Answer   5. 'Firewall' का मुख्य कार्य क्या है? A) फाइल्स को एनक्रिप्ट करना B) डेटा को बैकअप करना C) नेटवर्क को सुरक्षित करना D) वायरस को स्कैन करना ANSWER= (C) नेटवर्क को सुरक्षित करना Check Answer   6. 'VPN' का पू...