Skip to main content

नाड़ी - मानव शरीर में वर्णित नाड़ी

नाड़ी-     (Theory of the nadis in yoga)

भारतीय चिन्तन में सत्य की खोज, मानव कल्याण और मोक्ष की प्राप्ति मुख्य लक्ष्य रहा है। मानव जीवन में ही व्यक्ति योग साधना कर मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है। योग साधना का आधार मानव शरीर है। योगिक दृष्टि से मानव शरीर में नाड़ी, चक्र तथा कुण्डलिनी शक्ति योग साधना का आधार है।

प्राचीन काल से ही हमारे ऋषि मुनियों ने अपने ज्ञान द्वारा प्राणशक्ति का उत्थान किया तथा वे प्राणशक्ति को जाग्रत कर चेतना को विकसित किया करते थे। आज मानव ने अणु को भी तोड़कर परमाणु ऊर्जा हासिल कर ली है। ठीक इसी तरह अगर वह चाहे तो अपने भीतर छिपी ऊर्जा के विशाल भण्डार को जाग्रत कर अपने जीवन को उत्कृष्ट कर सकता है। हमारे ऋषि मुनि प्राचीन काल से ही यह कार्य यौगिक तकनीकों से किया करते थे, और ऊर्जा का उत्पादन बाह्य साधनों से न करके अपने शरीर और मन के भीतर ही किया करते थे।

 जिस प्रकार ऊर्जा प्राप्त करने के लिए जल और वाष्प ऊर्जा केन्द्रों की प्रणाली व्यवस्थित की जाती है ऊपर से जल को गिराकर उसके दवाब के फलस्वरूप नीचे टरबाइन घूमती है, उससे उत्पन्न ताप की सहायता से विधुत निर्माण कर ऊर्जा को संग्राहकों में संचित कर लिया जाता है। उसी प्रकार मानव शरीर में प्राण संचालन का तंत्र जाल फैला है। इस मानव शरीर में श्वास प्रश्वास द्वारा शरीर में प्राण ऊर्जा के क्षेत्र आवेशित होते है। ऊर्जा उत्पादन में हमारी श्वास प्रश्वास की प्रक्रिया अहम भूमिका निभाती हैं। श्वास प्रश्वास द्वारा उत्पादित ऊर्जा को ऊर्जा संग्राहकों, जिन्हें योग की भाषा में चक्र कहा जाता है, में दिशान्तरित कर दिया जाता है।

ऊर्जा संचयन के पश्चात ऊर्जा को विद्युत उत्पादन केन्द्रों से तारो द्वारा उप केन्द्रों को भेजी जाती है। फिर ट्रांसफार्म के द्वारा उनका वोल्टेज घटाकर उसे अलग अलग कार्यों में प्रयुक्त किया जाता है। यही सिद्धान्त भौतिक शरीर और मन द्वारा ऊर्जा उत्पादन पर भी लागू होता है। इनमें बस अन्तर यह है कि बाहर की ऊर्जा विशेष तारों द्वारा तथा यह कार्य नाडियों द्वारा सम्पन्न होता है। नाडियां संवेदनाओं एवं प्राण को प्रवाहित करती है। स्थूल शरीर में इन्हें नर्व के रूप में, जाना जा सकता है जो रक्त प्रवाह में सहायक होती है। परन्तु योग में जो नाडियाँ वर्णित है उन्हें नग्न ओंखों से नहीं देखा जा सकता है। क्योंकि वे अति सूक्ष्म होती है और उनमें सूक्ष्म प्राण शक्ति ही प्रवाहित होती है।

नाड़ी शब्द का अर्थ-  नाड़ी शब्द की व्युत्पप्ति संस्कृत के नाड् शब्द से हुई है। जिसका अर्थ है प्रवाह। सूक्ष्म ध्वनि कम्पनों को भी नाद कहा जाता है। इस तरह नाडियां ध्वनि की सूक्ष्म कम्पनों का प्रवाह होती है। 

उपनिषद में वर्णन है कि समूचे शरीर में नाडियों का विस्तार सिर से लेकर पैर के तलवों तक पाया जाता है। ये नाडियाँ जीवनदायिनी श्वास द्वारा ऊर्जा को पूरे शरीर में प्रवाहित करती है। नाडियां समस्त प्राणी मात्र के जीवन का आधार तथा आत्मशक्ति का स्रोत है। छांन्दोग्य और वृहदारण्यक उपनिषदों में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि शरीर में नाड़ी जाल की अत्यन्त सूक्ष्म रचना होती है। ये नाडियाँ संवेदनाओं, प्राण उद्वेगों आदि को सतत प्रवाहित करती रहती है।  

नाडियों की संख्या- हमारे शरीर में स्थित नाड़ी जाल बहुत विस्तृत है। शास्त्रों के अनुसार शरीर में 72000 नाडियां स्थित है। परन्तु योग विषयक ग्रन्थों में इसकी संख्या में मतभेद पाया जाता है। शिव संहिता के अनुसार हमारे नाभि क्षेत्र से साढ़े तीन लाख नाडियाँ निकलती है।

प्रमुख नाडियाँ - जिस प्रकार किसी भी विद्युत धारा मण्डल (सर्किट) के विद्युत परिचालन के लिए तीन तार (धनात्मक, ऋणात्मक तथा उदासीन) की आवश्यकता पड़ती है। ठीक उसी प्रकार हमारे शरीर में ऊर्जा संचार की व्यवस्था का यह कार्य तीन विशेष नाडियों द्वारा होता है। यह तीन नाडियाँ है इड़ा पिंगला तथा सुषुम्ना योग में इड़ा को ऋणात्मक धारा प्रवाह के रूप में जो कि गत्यात्मक शारीरिक शक्ति कही जाती है। 

जिस प्रकार घरों में विपरीत धाराओं के शार्ट सर्किट से बचने के उद्देश्य से एक भूधृत अर्थिंग तार डाला जाता है जिसका एक सिरा भूमि में गड़ा होता है। इसी प्रकार हमारे शरीर में भी इड़ा तथा पिंगला नाड़ी के शार्ट सर्किट को टालने के उद्देश्य से एक उदासीन अथवा तटस्थ नाड़ी होती है। जिसका एक सिरा मूलाधार में स्थित होता है। इसी को सुषुम्ना नाड़ी कहते हैं। सुषुम्ना नाड़ी का वास्तविक प्रयोजन आध्यात्मिक शक्ति के लिए मार्ग प्रशस्त करना होता है। 

शिव संहिता के अनुसार -

सुषुम्णेडा पिग्डला च गान्धारी हस्तिजिव्हिका। 

कुहु: सरस्वती पूषा शडिवनी च पयस्विनी। 

वारुण्यलम्बुषा चैव विव्श्रोदरी यशस्विनी। 

एतासु तिस्त्रों मुख्यास्स्यु: पिग्डलेडासुषुम्णिका।। (शिवसंहिता द्वितीय पटल -14 15)

अर्थात सुषुम्ना, इड़ा, पिंगला, गंधारी, हस्तिजिव्हा, कुहु, सरस्वती, पूषा, शंखिनी, पयस्विनि, वरूणी, अलम्बुषा, विश्वोदरा और यशस्विनी। इनमें भी तीन मुख्य है इड़ा पिंगला तथा सुषुम्ना। 

वशिष्ट संहिता के अनुसार चौदह नाडिया है- 

नाड़ीनामपि सर्वासां मुख्यां: पुत्र चतुदर्श।। (वशिष्ट संहिता 2-20)

अर्थात हे पुत्र सभी नाडियों में 14 नाडियाँ मुख्य हैं। इन 14 नाडियों के नाम इस प्रकार हैं- 1. इड़ा 2. पिंगला 3. सुषुम्ना 4. गांधारी 5. हस्तिजिव्हा 6. कुहु  7. सरस्वती  8. पूषा  9. शंखिनी 10. पयस्विनी 11. वारूणी  12.अलंबुषा  13.विश्वोदरा 14. यशस्विनी

इन चौदह नाडियों में से तीन नाडियाँ प्रमुख है- 1. इड़ा 2. पिंगला 3. सुषुम्ना 

1. इड़ा नाड़ी-  वायी नासिका द्वारा प्रवाहित होने वाली नाड़ी इड़ा है, जो शीतलता का प्रतीक है। इसके कई अन्य नाम है जैसे चन्द्र, शीत, कफ, अपान, रात्रि, जीव, शक्ति, तामस आदि।

शरीर विज्ञान की दृष्टि से इंड़ा नाड़ी का सम्बन्ध हमारे परानुकम्पी तंत्रिकातंत्र से होता है। इससे हमारे अंगों (कंठ, नाभि के बीच स्थित अंगों) हृदय, फफड़ों तथा पाचन संस्थानों को प्रेरणा जाती है, जिससे मांसपेशियों में शिथिलीकरण होने से तापमान में गिरावट आती है। इसलिए इस नाड़ी की प्रकृति, चित्त को अर्न्तमुखी बनाने वाली तथा शीतल मानी जाती है।

इड़ा नाड़ी का उदगम स्थान रीढ़ की हडडी का अधोभाग 'मूलाधार चक्र' माना जाता है, तथा इसका अन्तशीर्ष आज्ञा चक्र' माना जाता है। इड़ानाडी मूलाधार से बलखाती हुई किसी को स्पर्श किये बिना सभी चक्रों (स्वाधिष्ठान, मणिपुर अनाहत और विशुद्धि) को पार करते हुए ऊपर आज्ञाचक में पहुच कर विलीन हो जाती है।

इडा के प्रवाहित होने से मस्तिष्क का दाया भाग क्रियाशील होता है। इड़ा सुषुम्ना की उपनाड़ी है तथा मनस शक्ति या चन्द्र शक्ति की प्रदायिनी है। इसका रंग नीला होता है।

2. पिंगला नाड़ी- इसका प्रवाह हमारी दायीं नासिका द्वारा होता है। प्राण शक्ति प्रावाहिनी पिंगला नाड़ी को माना जाता है। क्योंकि यह धनात्मक प्राण ऊर्जा को प्रवाहित करती है। प्राण शक्ति की ऊर्जा शरीर में जोश उत्पन्न करती है। इसलिए इसे सूर्य नाड़ी के नाम से जाना जाता है। यह चेतना को बहिर्मुखी भी बनाती है। और शरीर को स्फूर्ति तथा कठोर परिश्रम के लिए तैयार करती है।  पिंगला नाड़ी का सीधा संबंध हमारे शरीर में मेरूदण्ड की दाहिनी ओर स्थित अनुकम्पी नाड़ी संस्थान से होता है। यह शरीर में हृदय की धड़कन तेज कर अतिरिक्त ताप उत्पन्न करती है। इसलिए कहा जाता है कि पिंगला नाड़ी शक्ति तथा उष्णता बढ़ाती है तथा चित्त को बहिर्मुखी बनाने वाली होती है। पिंगला नाड़ी (दाई नासिका) का ताप बायी नासिका इड़ा नाड़ी से अधिक होता है। यह पुरानी यौगिक पद्धति को सिद्ध करता है, इसको कई नामों से जाना जाता है जैसे सूर्य, ग्रीष्म, पित्त, प्राण, ब्रहम, राजस आदि।

मूलाधार चक्र के दाहिने पार्श्व से पिंगला का उदगम होता है यह हर चक्र को पार करते हुए लहराती हुई मेरूदण्ड के सहारे ऊपर उठती है। तथा दाहिने नासिका रन्ध्र के मूल में जहाँ आज्ञा चक्र है वहाँ समाप्त होती है। पिंगला नाड़ी मेरूदण्ड के दाहिने ओर समूचे शरीर को नियमित तथा नियन्त्रित करती है। पिंगला नाड़ी के प्रवाहित होने पर मस्तिष्क का बायाँ भाग क्रियाशील होता है। इस पिंगला नाड़ी का रंग लाल बताया जाता है। पिंगला नाड़ी द्वारा बाहरी शारीरिक कार्यो द्वारा उत्पन्न तनाव और थकावट व दबाव को सहने करने की क्षमता बढ़ाती है।

3. सुषुम्ना नाडी-  हमारा शरीर ऊर्जा प्रवाह के परिप्रेक्ष्य में दो भागों में विभक्त रहता है। धनात्मक तथा ऋणात्मक बलों तथा ऊर्जा प्रवाह के परस्पर खिचाव द्वारा ये भाग नियमित होते है। तीसरा पक्ष मध्य अक्ष जहाँ धनात्मक तथा ऋणात्मक ऊर्जा मिलती हैं। दोनों समान हो जाती है। वहाँ पर ऊर्जा तटस्थ होती है। जो उस अक्ष के ऊपर से नीचे तथा नीचे से ऊपर ऊर्जा प्रवाहित होती है। योग में इस मध्य अक्ष को सुषुम्ना नाड़ी कहा जाता है।

मेरूदण्ड के मूल से सुषुम्ना नाड़ी प्रारम्भ होती है, इसका मार्ग मेरूदण्ड में एक दम सीधा होता है। यह मार्ग में आने वाले सभी चक्रों को भेदते हुए आगे बढ़कर आज्ञाचक्र में इड़ा और पिंगल्रा से जा मिलती है। सुषुम्ना में अपार शक्ति का भण्डार छिपा पड़ा है। यह महत शक्ति ले जाने वाली नाड़ी है। जहाँ इड़ा और पिंगला स्थूल शक्ति का निर्माण करती है। वहीं सूक्ष्म शक्ति का निर्माण सुषुम्ना नाड़ी के द्वारा होता है। सुषुम्ना में असीमित शक्तियों का भण्डार है।
सुषुम्ना जब जाग्रत अवस्था में होती है, तो पूरा मस्तिष्क क्रियाशील हो जाता है। सुषुम्ना की शक्ति जिसे कुण्डलिनी के नाम से जाना जाता है। मूलाधार में स्थित होती है। जब इड़ा व पिंगला नाडी में प्राण एक साथ प्रवाहित होती है तब प्राण और चेतना का अंतर टूट जाता है, एक अवस्था समरूप हो जाती है, तब कुण्डलिनी स्वयं ही सुषुम्ना नाड़ी से आज्ञा चक्र में पहुँच जाती है।
सुषुम्ना नाड़ी द्वारा ही समस्त ज़ानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों में चेतना का संचार होता है। सुषुम्ना नाड़ी का दूसरा नाम ब्रहमनाड़ी भी है। इसका रंग चाँदी के समान होता है। 

चित्त | चित्तभूमि | चित्तवृत्ति

चित्त विक्षेप | योगान्तराय

चित्त प्रसादन के उपाय

Comments

Popular posts from this blog

सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति सामान्य परिचय

प्रथम उपदेश- पिण्ड उत्पति विचार सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति अध्याय - 2 (पिण्ड विचार) सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार नौ चक्रो के नाम 1. ब्रहमचक्र - मूलाधार मे स्थित है, कामनाओं की पूर्ति होती हैं। 2. स्वाधिष्ठान चक्र - इससे हम चीजो को आकर्षित कर सकते है। 3. नाभी चक्र - सिद्धि की प्राप्ति होती है। 4. अनाहत चक्र - हृदय में स्थित होता है। 5. कण्ठचक्र - विशुद्धि-संकल्प पूर्ति, आवाज मधुर होती है। 6. तालुचक्र -  घटिका में, जिह्वा के मूल भाग में,  लय सिद्धि प्राप्त होती है। 7. भ्रुचक्र -     आज्ञा चक्र - वाणी की सिद्धि प्राप्त होती है। 8. निर्वाणचक्र - ब्रहमरन्ध्र, सहस्त्रार चक्र, मोक्ष प्राप्ति 9. आकाश चक्र - सहस्त्रारचक्र के ऊपर,  भय- द्वेष की समाप्ति होती है। सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार सोहल आधार (1) पादांगुष्ठ आधार (2) मूलाधार (3) गुदाद्वार आधार (4) मेद् आधार (5) उड्डियान आधार (6) नाभी आधार (7) हृदयाधार (8) कण्ठाधार (9) घटिकाधार (10) तालु आधार (11) जिह्वा आधार (12) भ्रूमध्य आधार (13) नासिका आधार (14) नासामूल कपाट आधार (15) ललाट आधार (16) ब्रहमरंध्र आधार सिद्ध...

"चक्र " - मानव शरीर में वर्णित शक्ति केन्द्र

7 Chakras in Human Body हमारे शरीर में प्राण ऊर्जा का सूक्ष्म प्रवाह प्रत्येक नाड़ी के एक निश्चित मार्ग द्वारा होता है। और एक विशिष्ट बिन्दु पर इसका संगम होता है। यह बिन्दु प्राण अथवा आत्मिक शक्ति का केन्द्र होते है। योग में इन्हें चक्र कहा जाता है। चक्र हमारे शरीर में ऊर्जा के परिपथ का निर्माण करते हैं। यह परिपथ मेरूदण्ड में होता है। चक्र उच्च तलों से ऊर्जा को ग्रहण करते है तथा उसका वितरण मन और शरीर को करते है। 'चक्र' शब्द का अर्थ-  'चक्र' का शाब्दिक अर्थ पहिया या वृत्त माना जाता है। किन्तु इस संस्कृत शब्द का यौगिक दृष्टि से अर्थ चक्रवात या भँवर से है। चक्र अतीन्द्रिय शक्ति केन्द्रों की ऐसी विशेष तरंगे हैं, जो वृत्ताकार रूप में गतिमान रहती हैं। इन तरंगों को अनुभव किया जा सकता है। हर चक्र की अपनी अलग तरंग होती है। अलग अलग चक्र की तरंगगति के अनुसार अलग अलग रंग को घूर्णनशील प्रकाश के रूप में इन्हें देखा जाता है। योगियों ने गहन ध्यान की स्थिति में चक्रों को विभिन्न दलों व रंगों वाले कमल पुष्प के रूप में देखा। इसीलिए योगशास्त्र में इन चक्रों को 'शरीर का कमल पुष्प” कहा ग...

चित्त विक्षेप | योगान्तराय

चित्त विक्षेपों को ही योगान्तराय ' कहते है जो चित्त को विक्षिप्त करके उसकी एकाग्रता को नष्ट कर देते हैं उन्हें योगान्तराय अथवा योग के विध्न कहा जाता।  'योगस्य अन्तः मध्ये आयान्ति ते अन्तरायाः'।  ये योग के मध्य में आते हैं इसलिये इन्हें योगान्तराय कहा जाता है। विघ्नों से व्यथित होकर योग साधक साधना को बीच में ही छोड़कर चल देते हैं। विध्न आयें ही नहीं अथवा यदि आ जायें तो उनको सहने की शक्ति चित्त में आ जाये, ऐसी दया ईश्वर ही कर सकता है। यह तो सम्भव नहीं कि विध्न न आयें। “श्रेयांसि बहुविध्नानि' शुभकार्यों में विध्न आया ही करते हैं। उनसे टकराने का साहस योगसाधक में होना चाहिए। ईश्वर की अनुकम्पा से यह सम्भव होता है।  व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तिदर्शनालब्धभूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाः (योगसूत्र - 1/30) योगसूत्र के अनुसार चित्त विक्षेपों  या अन्तरायों की संख्या नौ हैं- व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरति, भ्रान्तिदर्शन, अलब्धभूमिकत्व और अनवस्थितत्व। उक्त नौ अन्तराय ही चित्त को विक्षिप्त करते हैं। अतः ये योगविरोधी हैं इन्हें योग के मल...

हठयोग का अर्थ , परिभाषा, उद्देश्य

  हठयोग का अर्थ भारतीय चिन्तन में योग मोक्ष प्राप्ति का एक महत्वपूर्ण साधन रहा है, योग की विविध परम्पराओं (ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग, हठयोग) इत्यादि का अन्तिम लक्ष्य भी मोक्ष (समाधि) की प्राप्ति ही है। हठयोग के साधनों के माध्यम से वर्तमान में व्यक्ति स्वास्थ्य लाभ तो करता ही है पर इसके आध्यात्मिक लाभ भी निश्चित रूप से व्यक्ति को मिलते है।  हठयोग- नाम से यह प्रतीत होता है कि यह क्रिया हठ- पूर्वक की जाने वाली है। परन्तु ऐसा नही है अगर हठयोग की क्रिया एक उचित मार्गदर्शन में की जाये तो साधक सहजतापूर्वक इसे कर सकता है। इसके विपरित अगर व्यक्ति बिना मार्गदर्शन के करता है तो इस साधना के विपरित परिणाम भी दिखते है। वास्तव में यह सच है कि हठयोग की क्रियाये कठिन कही जा सकती है जिसके लिए निरन्तरता और दृठता आवश्यक है प्रारम्भ में साधक हठयोग की क्रिया के अभ्यास को देखकर जल्दी करने को तैयार नहीं होता इसलिए एक सहनशील, परिश्रमी और तपस्वी व्यक्ति ही इस साधना को कर सकता है।  संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ में हठयोग शब्द को दो अक्षरों में विभाजित किया है।  1. ह -अर्थात हकार  2. ठ -अर्थ...

हठयोग प्रदीपिका का सामान्य परिचय

हठयोग प्रदीपिका ग्रन्थ के रचयिता स्वामी स्वात्माराम योगी हैँ। इन्होंने हठयोग के चार अंगो का मुख्य रूप से वर्णन किया है तथा इन्ही को चार अध्यायों मे बाँटा गया है। स्वामी स्वात्माराम योगी द्वारा बताए गए योग के चार अंग इस प्रकार है । 1. आसन-  "हठस्थ प्रथमांगत्वादासनं पूर्वमुच्यतै"  कहकर योगी स्वात्माराम जी  ने प्रथम अंग के रुप में आसन का वर्णन किया है। इन आसनो का उद्देश्य स्थैर्य, आरोग्य तथा अंगलाघव बताया गया है   'कुर्यात्तदासनं स्थैर्यमारोग्यं चांगलाघवम् '।  ह.प्र. 1/17 आसनो के अभ्यास से साधक के शरीर मे स्थिरता आ जाती है। चंचलता समाप्त हो जाती हैं. लचीलापन आता है, आरोग्यता आ जाती है, शरीर हल्का हो जाता है 1 हठयोगप्रदीपिका में पन्द्रह आसनों का वर्णन किया गया है हठयोगप्रदीपिका में वर्णित 15 आसनों के नाम 1. स्वस्तिकासन , 2. गोमुखासन , 3. वीरासन , 4. कूर्मासन , 5. कुक्कुटासन . 6. उत्तानकूर्मासन , 7. धनुरासन , 8. मत्स्येन्द्रासन , 9. पश्चिमोत्तानासन , 10. मयूरासन , 11. शवासन , 12. सिद्धासन , 13. पद्मासन , 14. सिंहासन , 15. भद्रासना । 2. प्राणायाम- ...

हठयोग प्रदीपिका के अनुसार षट्कर्म

हठप्रदीपिका के अनुसार षट्कर्म हठयोगप्रदीपिका हठयोग के महत्वपूर्ण ग्रन्थों में से एक हैं। इस ग्रन्थ के रचयिता योगी स्वात्माराम जी हैं। हठयोग प्रदीपिका के द्वितीय अध्याय में षटकर्मों का वर्णन किया गया है। षटकर्मों का वर्णन करते हुए स्वामी स्वात्माराम  जी कहते हैं - धौतिर्बस्तिस्तथा नेतिस्त्राटकं नौलिकं तथा।  कपालभातिश्चैतानि षट्कर्माणि प्रचक्षते।। (हठयोग प्रदीपिका-2/22) अर्थात- धौति, बस्ति, नेति, त्राटक, नौलि और कपालभोंति ये छ: कर्म हैं। बुद्धिमान योगियों ने इन छः कर्मों को योगमार्ग में करने का निर्देश किया है। इन छह कर्मों के अतिरिक्त गजकरणी का भी हठयोगप्रदीपिका में वर्णन किया गया है। वैसे गजकरणी धौतिकर्म के अन्तर्गत ही आ जाती है। इनका वर्णन निम्नलिखित है 1. धौति-  धौँति क्रिया की विधि और  इसके लाभ एवं सावधानी- धौँतिकर्म के अन्तर्गत हठयोग प्रदीपिका में केवल वस्त्र धौति का ही वर्णन किया गया है। धौति क्रिया का वर्णन करते हुए योगी स्वात्माराम जी कहते हैं- चतुरंगुल विस्तारं हस्तपंचदशायतम। . गुरूपदिष्टमार्गेण सिक्तं वस्त्रं शनैर्गसेत्।।  पुनः प्रत्याहरेच्चैतदुदितं ध...

घेरण्ड संहिता का सामान्य परिचय

  घेरण्ड संहिता महर्षि घेरण्ड और राजा चण्डिकापालि के संवाद रूप में रचित घेरण्ड संहिता महर्षि घेरण्ड की अनुपम कृति है। इस के योग को घटस्थ योग या सप्तांग योग भी कहा गया है। घेरण्ड संहिता के  सात अध्याय है तथा योग के सात अंगो की चर्चा की गई है जो घटशुद्धि के लिए आवश्यक हैं,  घेरण्ड संहिता में वर्णित योग को सप्तांगयोग भी कहा जाता है । शाोधनं दृढता चैव स्थैर्यं धैर्य च लाघवम्।  प्रत्यक्ष च निर्लिप्तं च घटस्य सप्तसाधनम् ।। घे.सं. 9 शोधन, दृढ़ता, स्थिरता, धीरता, लघुता, प्रत्यक्ष तथा निर्लिप्तता । इन सातों के लिए उयायरूप मे शरीर शोधन के सात साधनो को कहा गया है। षटकार्मणा शोधनं च आसनेन् भवेद्दृढम्।   मुद्रया स्थिरता चैव प्रत्याहारेण धीरता।।  प्राणायामाँल्लाघवं च ध्यानात्प्रत्क्षमात्मान:।   समाधिना निर्लिप्तिं च मुक्तिरेव न संशय।। घे.सं. 10-11   अर्थात् षटकर्मों से शरीर का शोधन, आसन से दृढ़ता. मुद्रा से स्थिरता, प्रत्याहार से धीरता, प्राणायाम से लाघवं (हल्कापन), ध्यान से आत्मसाक्षात्कार तथा समाधि से निर्लिप्तभाव प्राप्त करके मुक्ति अवश्य ही हो जाएगी, इसमे ...

हठयोगप्रदीपिका में वर्णित मुद्रायें, बंध

  हठयोगप्रदीपिका में वर्णित मुद्रायें, बंध हठयोग प्रदीपिका में मुद्राओं का वर्णन करते हुए स्वामी स्वात्माराम जी ने कहा है महामुद्रा महाबन्धों महावेधश्च खेचरी।  उड़्डीयानं मूलबन्धस्ततो जालंधराभिध:। (हठयोगप्रदीपिका- 3/6 ) करणी विपरीताख्या बज़्रोली शक्तिचालनम्।  इदं हि मुद्रादश्क जरामरणनाशनम्।।  (हठयोगप्रदीपिका- 3/7) अर्थात महामुद्रा, महाबंध, महावेध, खेचरी, उड्डीयानबन्ध, मूलबन्ध, जालन्धरबन्ध, विपरीतकरणी, वज़्रोली और शक्तिचालनी ये दस मुद्रायें हैं। जो जरा (वृद्धा अवस्था) मरण (मृत्यु) का नाश करने वाली है। इनका वर्णन निम्न प्रकार है।  1. महामुद्रा- महामुद्रा का वर्णन करते हुए हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है- पादमूलेन वामेन योनिं सम्पीड्य दक्षिणम्।  प्रसारितं पद कृत्या कराभ्यां धारयेदृढम्।।  कंठे बंधं समारोप्य धारयेद्वायुमूर्ध्वतः।  यथा दण्डहतः सर्पों दंडाकारः प्रजायते  ऋज्वीभूता तथा शक्ति: कुण्डली सहसा भवेतत् ।।  (हठयोगप्रदीपिका- 3/9,10)  अर्थात् बायें पैर को एड़ी को गुदा और उपस्थ के मध्य सीवन पर दृढ़ता से लगाकर दाहिने पैर को फैला कर रखें...

चित्त | चित्तभूमि | चित्तवृत्ति

 चित्त  चित्त शब्द की व्युत्पत्ति 'चिति संज्ञाने' धातु से हुई है। ज्ञान की अनुभूति के साधन को चित्त कहा जाता है। जीवात्मा को सुख दुःख के भोग हेतु यह शरीर प्राप्त हुआ है। मनुष्य द्वारा जो भी अच्छा या बुरा कर्म किया जाता है, या सुख दुःख का भोग किया जाता है, वह इस शरीर के माध्यम से ही सम्भव है। कहा भी गया  है 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्' अर्थात प्रत्येक कार्य को करने का साधन यह शरीर ही है। इस शरीर में कर्म करने के लिये दो प्रकार के साधन हैं, जिन्हें बाह्यकरण व अन्तःकरण के नाम से जाना जाता है। बाह्यकरण के अन्तर्गत हमारी 5 ज्ञानेन्द्रियां एवं 5 कर्मेन्द्रियां आती हैं। जिनका व्यापार बाहर की ओर अर्थात संसार की ओर होता है। बाह्य विषयों के साथ इन्द्रियों के सम्पर्क से अन्तर स्थित आत्मा को जिन साधनों से ज्ञान - अज्ञान या सुख - दुःख की अनुभूति होती है, उन साधनों को अन्तःकरण के नाम से जाना जाता है। यही अन्तःकरण चित्त के अर्थ में लिया जाता है। योग दर्शन में मन, बुद्धि, अहंकार इन तीनों के सम्मिलित रूप को चित्त के नाम से प्रदर्शित किया गया है। परन्तु वेदान्त दर्शन अन्तःकरण चतुष्टय की...