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नाड़ी

नाड़ी-     (Theory of the nadis in yoga)

भारतीय चिन्तन में सत्य की खोज, मानव कल्याण और मोक्ष की प्राप्ति मुख्य लक्ष्य रहा है। मानव जीवन में ही व्यक्ति योग साधना कर मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है। योग साधना का आधार मानव शरीर है। योगिक दृष्टि से मानव शरीर में नाड़ी, चक्र तथा कुण्डलिनी शक्ति योग साधना का आधार है।

प्राचीन काल से ही हमारे ऋषि मुनियों ने अपने ज्ञान द्वारा प्राणशक्ति का उत्थान किया तथा वे प्राणशक्ति को जाग्रत कर चेतना को विकसित किया करते थे। आज मानव ने अणु को भी तोड़कर परमाणु ऊर्जा हासिल कर ली है। ठीक इसी तरह अगर वह चाहे तो अपने भीतर छिपी ऊर्जा के विशाल भण्डार को जाग्रत कर अपने जीवन को उत्कृष्ट कर सकता है। हमारे ऋषि मुनि प्राचीन काल से ही यह कार्य यौगिक तकनीकों से किया करते थे, और ऊर्जा का उत्पादन बाह्य साधनों से न करके अपने शरीर और मन के भीतर ही किया करते थे।

 जिस प्रकार ऊर्जा प्राप्त करने के लिए जल और वाष्प ऊर्जा केन्द्रों की प्रणाली व्यवस्थित की जाती है ऊपर से जल को गिराकर उसके दवाब के फलस्वरूप नीचे टरबाइन घूमती है, उससे उत्पन्न ताप की सहायता से विधुत निर्माण कर ऊर्जा को संग्राहकों में संचित कर लिया जाता है। उसी प्रकार मानव शरीर में प्राण संचालन का तंत्र जाल फैला है। इस मानव शरीर में श्वास प्रश्वास द्वारा शरीर में प्राण ऊर्जा के क्षेत्र आवेशित होते है। ऊर्जा उत्पादन में हमारी श्वास प्रश्वास की प्रक्रिया अहम भूमिका निभाती हैं। श्वास प्रश्वास द्वारा उत्पादित ऊर्जा को ऊर्जा संग्राहकों, जिन्हें योग की भाषा में चक्र कहा जाता है, में दिशान्तरित कर दिया जाता है।

ऊर्जा संचयन के पश्चात ऊर्जा को विद्युत उत्पादन केन्द्रों से तारो द्वारा उप केन्द्रों को भेजी जाती है। फिर ट्रांसफार्म के द्वारा उनका वोल्टेज घटाकर उसे अलग अलग कार्यों में प्रयुक्त किया जाता है। यही सिद्धान्त भौतिक शरीर और मन द्वारा ऊर्जा उत्पादन पर भी लागू होता है। इनमें बस अन्तर यह है कि बाहर की ऊर्जा विशेष तारों द्वारा तथा यह कार्य नाडियों द्वारा सम्पन्न होता है। नाडियां संवेदनाओं एवं प्राण को प्रवाहित करती है। स्थूल शरीर में इन्हें नर्व के रूप में, जाना जा सकता है जो रक्त प्रवाह में सहायक होती है। परन्तु योग में जो नाडियाँ वर्णित है उन्हें नग्न ओंखों से नहीं देखा जा सकता है। क्योंकि वे अति सूक्ष्म होती है और उनमें सूक्ष्म प्राण शक्ति ही प्रवाहित होती है।

नाड़ी शब्द का अर्थ-  नाड़ी शब्द की व्युत्पप्ति संस्कृत के नाड् शब्द से हुई है। जिसका अर्थ है प्रवाह। सूक्ष्म ध्वनि कम्पनों को भी नाद कहा जाता है। इस तरह नाडियां ध्वनि की सूक्ष्म कम्पनों का प्रवाह होती है। 

उपनिषद में वर्णन है कि समूचे शरीर में नाडियों का विस्तार सिर से लेकर पैर के तलवों तक पाया जाता है। ये नाडियाँ जीवनदायिनी श्वास द्वारा ऊर्जा को पूरे शरीर में प्रवाहित करती है। नाडियां समस्त प्राणी मात्र के जीवन का आधार तथा आत्मशक्ति का स्रोत है। छांन्दोग्य और वृहदारण्यक उपनिषदों में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि शरीर में नाड़ी जाल की अत्यन्त सूक्ष्म रचना होती है। ये नाडियाँ संवेदनाओं, प्राण उद्वेगों आदि को सतत प्रवाहित करती रहती है।  

नाडियों की संख्या- हमारे शरीर में स्थित नाड़ी जाल बहुत विस्तृत है। शास्त्रों के अनुसार शरीर में 72000 नाडियां स्थित है। परन्तु योग विषयक ग्रन्थों में इसकी संख्या में मतभेद पाया जाता है। शिव संहिता के अनुसार हमारे नाभि क्षेत्र से साढ़े तीन लाख नाडियाँ निकलती है।

प्रमुख नाडियाँ - जिस प्रकार किसी भी विद्युत धारा मण्डल (सर्किट) के विद्युत परिचालन के लिए तीन तार (धनात्मक, ऋणात्मक तथा उदासीन) की आवश्यकता पड़ती है। ठीक उसी प्रकार हमारे शरीर में ऊर्जा संचार की व्यवस्था का यह कार्य तीन विशेष नाडियों द्वारा होता है। यह तीन नाडियाँ है इड़ा पिंगला तथा सुषुम्ना योग में इड़ा को ऋणात्मक धारा प्रवाह के रूप में जो कि गत्यात्मक शारीरिक शक्ति कही जाती है। 

जिस प्रकार घरों में विपरीत धाराओं के शार्ट सर्किट से बचने के उद्देश्य से एक भूधृत अर्थिंग तार डाला जाता है जिसका एक सिरा भूमि में गड़ा होता है। इसी प्रकार हमारे शरीर में भी इड़ा तथा पिंगला नाड़ी के शार्ट सर्किट को टालने के उद्देश्य से एक उदासीन अथवा तटस्थ नाड़ी होती है। जिसका एक सिरा मूलाधार में स्थित होता है। इसी को सुषुम्ना नाड़ी कहते हैं। सुषुम्ना नाड़ी का वास्तविक प्रयोजन आध्यात्मिक शक्ति के लिए मार्ग प्रशस्त करना होता है। 

शिव संहिता के अनुसार -

सुषुम्णेडा पिग्डला च गान्धारी हस्तिजिव्हिका। 

कुहु: सरस्वती पूषा शडिवनी च पयस्विनी। 

वारुण्यलम्बुषा चैव विव्श्रोदरी यशस्विनी। 

एतासु तिस्त्रों मुख्यास्स्यु: पिग्डलेडासुषुम्णिका।। (शिवसंहिता द्वितीय पटल -14 15)

अर्थात सुषुम्ना, इड़ा, पिंगला, गंधारी, हस्तिजिव्हा, कुहु, सरस्वती, पूषा, शंखिनी, पयस्विनि, वरूणी, अलम्बुषा, विश्वोदरा और यशस्विनी। इनमें भी तीन मुख्य है इड़ा पिंगला तथा सुषुम्ना। 

वशिष्ट संहिता के अनुसार चौदह नाडिया है- 

नाड़ीनामपि सर्वासां मुख्यां: पुत्र चतुदर्श।। (वशिष्ट संहिता 2-20)

अर्थात हे पुत्र सभी नाडियों में 14 नाडियाँ मुख्य हैं। इन 14 नाडियों के नाम इस प्रकार हैं- 1. इड़ा 2. पिंगला 3. सुषुम्ना 4. गांधारी 5. हस्तिजिव्हा 6. कुहु  7. सरस्वती  8. पूषा  9. शंखिनी 10. पयस्विनी 11. वारूणी  12.अलंबुषा  13.विश्वोदरा 14. यशस्विनी

इन चौदह नाडियों में से तीन नाडियाँ प्रमुख है- 1. इड़ा 2. पिंगला 3. सुषुम्ना 

1. इड़ा नाड़ी-  वायी नासिका द्वारा प्रवाहित होने वाली नाड़ी इड़ा है, जो शीतलता का प्रतीक है। इसके कई अन्य नाम है जैसे चन्द्र, शीत, कफ, अपान, रात्रि, जीव, शक्ति, तामस आदि।

शरीर विज्ञान की दृष्टि से इंड़ा नाड़ी का सम्बन्ध हमारे परानुकम्पी तंत्रिकातंत्र से होता है। इससे हमारे अंगों (कंठ, नाभि के बीच स्थित अंगों) हृदय, फफड़ों तथा पाचन संस्थानों को प्रेरणा जाती है, जिससे मांसपेशियों में शिथिलीकरण होने से तापमान में गिरावट आती है। इसलिए इस नाड़ी की प्रकृति, चित्त को अर्न्तमुखी बनाने वाली तथा शीतल मानी जाती है।

इड़ा नाड़ी का उदगम स्थान रीढ़ की हडडी का अधोभाग 'मूलाधार चक्र' माना जाता है, तथा इसका अन्तशीर्ष आज्ञा चक्र' माना जाता है। इड़ानाडी मूलाधार से बलखाती हुई किसी को स्पर्श किये बिना सभी चक्रों (स्वाधिष्ठान, मणिपुर अनाहत और विशुद्धि) को पार करते हुए ऊपर आज्ञाचक में पहुच कर विलीन हो जाती है।

इडा के प्रवाहित होने से मस्तिष्क का दाया भाग क्रियाशील होता है। इड़ा सुषुम्ना की उपनाड़ी है तथा मनस शक्ति या चन्द्र शक्ति की प्रदायिनी है। इसका रंग नीला होता है।

2. पिंगला नाड़ी- इसका प्रवाह हमारी दायीं नासिका द्वारा होता है। प्राण शक्ति प्रावाहिनी पिंगला नाड़ी को माना जाता है। क्योंकि यह धनात्मक प्राण ऊर्जा को प्रवाहित करती है। प्राण शक्ति की ऊर्जा शरीर में जोश उत्पन्न करती है। इसलिए इसे सूर्य नाड़ी के नाम से जाना जाता है। यह चेतना को बहिर्मुखी भी बनाती है। और शरीर को स्फूर्ति तथा कठोर परिश्रम के लिए तैयार करती है।  पिंगला नाड़ी का सीधा संबंध हमारे शरीर में मेरूदण्ड की दाहिनी ओर स्थित अनुकम्पी नाड़ी संस्थान से होता है। यह शरीर में हृदय की धड़कन तेज कर अतिरिक्त ताप उत्पन्न करती है। इसलिए कहा जाता है कि पिंगला नाड़ी शक्ति तथा उष्णता बढ़ाती है तथा चित्त को बहिर्मुखी बनाने वाली होती है। पिंगला नाड़ी (दाई नासिका) का ताप बायी नासिका इड़ा नाड़ी से अधिक होता है। यह पुरानी यौगिक पद्धति को सिद्ध करता है, इसको कई नामों से जाना जाता है जैसे सूर्य, ग्रीष्म, पित्त, प्राण, ब्रहम, राजस आदि।

मूलाधार चक्र के दाहिने पार्श्व से पिंगला का उदगम होता है यह हर चक्र को पार करते हुए लहराती हुई मेरूदण्ड के सहारे ऊपर उठती है। तथा दाहिने नासिका रन्ध्र के मूल में जहाँ आज्ञा चक्र है वहाँ समाप्त होती है। पिंगला नाड़ी मेरूदण्ड के दाहिने ओर समूचे शरीर को नियमित तथा नियन्त्रित करती है। पिंगला नाड़ी के प्रवाहित होने पर मस्तिष्क का बायाँ भाग क्रियाशील होता है। इस पिंगला नाड़ी का रंग लाल बताया जाता है। पिंगला नाड़ी द्वारा बाहरी शारीरिक कार्यो द्वारा उत्पन्न तनाव और थकावट व दबाव को सहने करने की क्षमता बढ़ाती है।

3. सुषुम्ना नाडी-  हमारा शरीर ऊर्जा प्रवाह के परिप्रेक्ष्य में दो भागों में विभक्त रहता है। धनात्मक तथा ऋणात्मक बलों तथा ऊर्जा प्रवाह के परस्पर खिचाव द्वारा ये भाग नियमित होते है। तीसरा पक्ष मध्य अक्ष जहाँ धनात्मक तथा ऋणात्मक ऊर्जा मिलती हैं। दोनों समान हो जाती है। वहाँ पर ऊर्जा तटस्थ होती है। जो उस अक्ष के ऊपर से नीचे तथा नीचे से ऊपर ऊर्जा प्रवाहित होती है। योग में इस मध्य अक्ष को सुषुम्ना नाड़ी कहा जाता है।

मेरूदण्ड के मूल से सुषुम्ना नाड़ी प्रारम्भ होती है, इसका मार्ग मेरूदण्ड में एक दम सीधा होता है। यह मार्ग में आने वाले सभी चक्रों को भेदते हुए आगे बढ़कर आज्ञाचक्र में इड़ा और पिंगल्रा से जा मिलती है। सुषुम्ना में अपार शक्ति का भण्डार छिपा पड़ा है। यह महत शक्ति ले जाने वाली नाड़ी है। जहाँ इड़ा और पिंगला स्थूल शक्ति का निर्माण करती है। वहीं सूक्ष्म शक्ति का निर्माण सुषुम्ना नाड़ी के द्वारा होता है। सुषुम्ना में असीमित शक्तियों का भण्डार है।
सुषुम्ना जब जाग्रत अवस्था में होती है, तो पूरा मस्तिष्क क्रियाशील हो जाता है। सुषुम्ना की शक्ति जिसे कुण्डलिनी के नाम से जाना जाता है। मूलाधार में स्थित होती है। जब इड़ा व पिंगला नाडी में प्राण एक साथ प्रवाहित होती है तब प्राण और चेतना का अंतर टूट जाता है, एक अवस्था समरूप हो जाती है, तब कुण्डलिनी स्वयं ही सुषुम्ना नाड़ी से आज्ञा चक्र में पहुँच जाती है।
सुषुम्ना नाड़ी द्वारा ही समस्त ज़ानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों में चेतना का संचार होता है। सुषुम्ना नाड़ी का दूसरा नाम ब्रहमनाड़ी भी है। इसका रंग चाँदी के समान होता है। 

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