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चित्त | चित्तभूमि | चित्तवृत्ति


 चित्त 

चित्त शब्द की व्युत्पत्ति 'चिति संज्ञाने' धातु से हुई है। ज्ञान की अनुभूति के साधन को चित्त कहा जाता है। जीवात्मा को सुख दुःख के भोग हेतु यह शरीर प्राप्त हुआ है। मनुष्य द्वारा जो भी अच्छा या बुरा कर्म किया जाता है, या सुख दुःख का भोग किया जाता है, वह इस शरीर के माध्यम से ही सम्भव है। कहा भी गया  है 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्' अर्थात प्रत्येक कार्य को करने का साधन यह शरीर ही है। इस शरीर में कर्म करने के लिये दो प्रकार के साधन हैं, जिन्हें बाह्यकरण व अन्तःकरण के नाम से जाना जाता है। बाह्यकरण के अन्तर्गत हमारी 5 ज्ञानेन्द्रियां एवं 5 कर्मेन्द्रियां आती हैं। जिनका व्यापार बाहर की ओर अर्थात संसार की ओर होता है। बाह्य विषयों के साथ इन्द्रियों के सम्पर्क से अन्तर स्थित आत्मा को जिन साधनों से ज्ञान - अज्ञान या सुख - दुःख की अनुभूति होती है, उन साधनों को अन्तःकरण के नाम से जाना जाता है। यही अन्तःकरण चित्त के अर्थ में लिया जाता है। योग दर्शन में मन, बुद्धि, अहंकार इन तीनों के सम्मिलित रूप को चित्त के नाम से प्रदर्शित किया गया है। परन्तु वेदान्त दर्शन अन्तःकरण चतुष्टय की बात करता है, वेदान्त दर्शन में मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त इन चारों के सम्मिलित रूप को अन्तःकरण नाम दिया गया है। योग दर्शन की ही भांति मन का कार्य संकल्प- विकल्प करना, बुद्धि का कार्य निश्चय करना, अहंकार का कार्य सत्तात्मक भाव लाना व स्वत्व परत्व जोड़ना मानता है। साथ ही वह चित्त का कार्य स्मरण कराना मानता है। व्यवहार में मन, बुद्धि और चित्त को प्रायः पर्यायवाची के रूप में प्रयोग किया जाता है। सांख्य दर्शन भी बुद्धितत्व को चित्त के अर्थ में ही लेता है।

चित्त का स्वरूप- चित्त का स्वरूप अत्यन्त विलक्षण है। यद्यपि चित्त आत्मा से भिन्न तत्व है फिर भी आत्मा से पृथक करके इसको देखना अत्यन्त कठिन है। चित्त प्रकृति का सात्विक परिणाम है। अतः प्रकृति का कार्य है। प्रकृति त्रिगुणात्मक है। अतः चित्त भी त्रिगुणात्मक है। सत्व की प्रधानता होने के कारण इसको प्रकृति का प्रथम परिणाम माना जाता है। सांख्य और योग के मत में चित् चिति, चैतन्य पुरुष और आत्मा ये सब पर्यायवाचक शब्द हैं। चित्त अपने आप में अपरिणामी, कूटस्थ और निष्क्रिय है। इसी चित्त अथवा पुरुष तत्व को भोग और मोक्ष देने के लिए इसके साथ प्रकृति का संयोग होता है। प्रकृति का प्रथम परिणाम रूप बुद्धि या चित्त तत्व ही भोग और मोक्षरूप प्रयोजन की सिद्धि करता है। 


चित के संयोग से बुद्धि चित्त कहलाती है 'चियुक्तं चित्तम' यही चित्त शब्द की व्युत्पत्ति है। 'चियुक्तम्' का अर्थ यह है कि पुरुष के सम्पर्क से बुद्धि चेतनवत् हो जाती है। इसीलिए उसे चित्त कह दिया गया है। चेतनवत् होते ही चित्त में कार्य करने की क्षमता आ जाती है। चित्त के सम्पर्क से पुरुष में यह परिवर्तन आ जाता है कि वह चित्त के किये गये कार्यों को अपना कार्य मान बैठता है। जो कर्तृत्व और भोक्तृत्व चित्त का धर्म था, अहंकारवश पुरुष स्वयं को कर्ता और भोक्ता मान बैठता है।

यद्यपि चित्त एक है, किन्तु त्रिगुणी प्रकृति का परिणाम अनेकविध होने से यह अनेक सा प्रतीत होता है। चित्त को अन्तः करण या अन्तरिन्द्रिय कहा जाता है। योगदर्शन में अन्तःकरण के लिए चित्त शब्द का प्रयोग किया गया है। न्यायदर्शन में अन्तः:करण के लिए मन शब्द का प्रयोग हुआ है। अद्दैत वेदान्त में अन्तःकरण के चार भेद स्वीकार किये गये हैं. मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त।

चित्तभूमि


चित्त में प्रकृति के तीनों गुण सत्व, रज और तम विद्यमान हैं। सबके चित्त एक समान नहीं हैं। व इन तीनों की विभिन्न स्थितियों के कारण चित्त भी विभिन्न स्थितियों वाला हो जाता है। योगदर्शन में चित्त की स्थितियों को  मूढ, क्षिप्त, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध इन पाँच स्थितियों में बॉटा है। जिन्हें चित्त की अवस्थायें या चित्तभूमि के नाम से भी जाना जाता है। 
 
1. मूढ- मूढावस्था पूर्णतया तमोगुणी अवस्था है। तमोगुण का धर्म होता है स्थिति, तमोगुण की प्रधानता होने के कारण चित्त की इस अवस्था में चित्त में अज्ञान बना रहता है। बुद्धि में जड़ता होती है, विषयों के यथार्थ ज्ञान का अभाव होता है। इसी कारण विषयों के प्रति इस अवस्था में मोह उत्पन्न होता है तथा ऐसे चित्त से युक्त जीवात्मा संसार में फंसा रहता है।

2. क्षिप्त- क्षिप्तावस्था पूर्णतया रजोगुणी अवस्था है। इस अवस्था वाला चित्त चंचल बना रहता है। वह निरन्तर विषयों की ओर भागता रहता है। यह रजोगुण की प्रधानता के कारण होता है। क्योंकि रजोगुण का धर्म है क्रियाशीलता इसलिए रजोगुण से युक्त चित्त भी निरन्तर क्रियाशील बना रहता है। वह किसी भी विषय पर स्थिर नहीं हो पाता, एक विषय प्राप्त होने पर वह तुरन्त दूसरे विषय की ओर दौड़ने लगता है। इसी कारण चित्त में दुःख की उत्पत्ति होती है। 
 
3. विक्षिप्त- चित्त की यह अवस्था भी पूर्णतया रजोगुणी होती है। किन्तु कभी कभी इस अवस्था में सत्वगुण का प्रभाव भी उत्पन्न हो जाता है। इस अवस्था में जब चित्त में रजोगुण प्रधान होता तो वह बहिर्मुख होकर विषयों की ओर भागता रहता है और जब कभी सत्वगुण बढ़ जाता है तो चित्त में वैराग्य का भाव उत्पन्न हो जाता है और कुछ समय के लिए चित्त अन्तर्मुखी हो जाता है। किन्तु बार- बार गुणों की अवस्था परिवर्तित होने के कारण चित्त की इस अवस्था में भी स्थिरता का अभाव होता है। इसीलिए इस अवस्था को विक्षिप्तावस्था कहा जाता है। यह अवस्था  मूढावस्था तथा क्षिप्तावस्था से कुछ श्रेष्ठ कही जाती है। 

 
4. एकाग्र- चित्त की एकाग्र अवस्था पूर्णतया सत्वगुणी होती है। रज व तम दोनों न्यून हो जाते हैं। अब रजोगुण केवल सात्विकवृत्ति को क्रियाशील बनाये रखने का कार्य करता है तथा तमोगुण उस सात्विक वृत्ति को स्थिर बनाये रखने का कार्य करता है। जिससे विषयों का यथार्थ ज्ञान चित्त में उत्पन्न होने लगता है। साथ ही वैराग्य भाव दृढ़ होने लगता है तथा चित्त में सुख की उत्पत्ति होती है। ध्यान की यही अवस्था है। इसी अवस्था को सम्प्रज्ञात योग (सम्प्रज्ञात समाधि) भी कहा जाता है। 
 
5. निरुद्ध- चित्त की यह अवस्था त्रिगुणातीत अवस्था ही है। निरन्तर अभ्यास से सभी विषयों का ज्ञान प्राप्त करने पर समस्त वृत्तियाँ समाप्त हो जाती हैं। इस अवस्था में चित्त शान्त हो जाता है। विवेकख्याति वृत्ति भी परवैराग्य द्वारा हटाने के बाद निर्बीज या असम्प्रज्ञात समाधि की स्थिति है। सर्ववृत्तिनिरोध होने के कारण द्रष्टा की स्वरूपस्थिति इस अवस्था के पश्चात आ जाती है। 
 
शास्त्रों में चित्त को स्वच्छ दर्पण के समान या शुद्ध स्फटिक मणि के समान बताया है। जैसे ये दोनों सम्पर्क में आने वाले विषयों के आकार को ग्रहण कर तदाकार हो जाते हैं, उन्हीं के रूप रंग को धारण कर लेते हैं। उसी प्रकार चित्त भी जब इन्द्रियों के माध्यम से विषयों के सम्पर्क में आता है तो वह भी उसी विषय के आकार को ग्रहण कर लेता है। जिसे चित्त का विषयाकार होना या चित्त का परिणाम कहा जाता है।

चित्तवृत्ति

चित्त का रूपान्तरण ही वृत्ति है। चित्त स्फटिक मणि के समान निर्मल तत्व है। उसका अपना कोई आकार नहीं होता। जिस विषय के सम्पर्क में वह आता है उसी के समान आकार को धारण कर लेता है। यह विषयाकारता ही वृत्ति कहलाती है। वृत्ति व्यापार को कहा जाता है। चक्षु आदि इन्द्रियों का अपने रूप आदि विषयों के साथ सम्बन्ध होना व्यापार है। बाह्यकरण चक्षुआदि का जो व्यापार है, वही व्यापार अन्तःकरण चित्त का रहता है।

क्लेशों के कारण वृत्तियों के दो भेद माने गये हैं। परन्तु वास्तव में ये वृत्तियां पाँच है। उन पाँचों वृत्तियों के भी दो दो भेद होते हैं। योगसूत्र में कहा गया है- 
 
वृत्तयः पंचवृतियः क्लिष्टाऽक्लिप्टाः। (योगसूत्र 1/5)
 
अर्थात वृत्तियाँ पाँच प्रकार की हैं, जो क्लेशो को उत्पन और क्लेशो का नाश करने वाली हैं। क्लेश पाँच प्रकार के कहे गये हैं- अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश। अविद्या आदि क्लेशों के सहयोग से इन्द्रियों की विषयों में प्रवृत्ति रूप वृत्तियाँ दुःख आदि को उत्पन्न करती हैं। जिन वृत्तियों के हेतु अविद्या आदि क्लेश नहीं हैं, प्रत्युत आध्यात्मिक भावनाओं से प्रेरणा पाकर इन्द्रिय वृत्तियाँ उभरती हैं वे 'अक्लिष्ट' हैं, दुःख आदि को उत्पन्न करने के बजाय वे उनके नाश करने में सहयोगी होती हैं। ये वृत्तियाँ अभ्यासी को विवेकख्याति की ओर अग्रसर करती हैं, एवं उसे लक्ष्य तक पहुँचाती है। योगसूत्र में महर्षि पतंजलि ने चित्त की पांच वृत्तियाँ बतायी हैं- 1. प्रमाण 2. विपर्यय 3. विकल्प 4. निद्रा 5. स्मृति

“प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतय:।”  (योगसूत्र- 1/6)
 
1. प्रमाण वृत्ति-  प्रमा करणं प्रमाणम् अर्थात प्रमा (ज्ञान) के करण (साधन) को प्रमाण कहते हैं अथवा प्रमीयतेऽनेनेति प्रमाणम् अर्थात जिससे प्रमा ज्ञान होता है। वह प्रमाण कहलाता है अर्थात प्रमा के साधन का नाम प्रमाण है। कहा गया. है-
'प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि  (योगसूत्र- 1/7)

अर्थात प्रमाण वृत्ति तीन प्रकार की है- प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम। 
(क) प्रत्यक्ष प्रमाण- कहा गया है-

इन्द्रियप्रणालिकया चित्तस्य बाह्मवस्तूपरागात् तद्विषया सामान्यविशेषात्मनोऽर्थस्य विशेषावधारणप्रधाना वृत्ति: प्रत्यक्ष प्रमाणम्।

अर्थात इन्द्रियों के द्वारा चित्त का बाह्य विषयों से सम्बन्ध होने से, उनको अपना विषय करने वाली सामान्य विशेषरूप पदार्थ के विशेष अंश को प्रधान रूप से निश्चय करने वाली वृत्ति प्रत्यक्ष प्रमाण कहलाती है अथवा यह भी कह सकते हैं कि इन्द्रिय और वस्तु के सन्निकर्ष से उत्पन्न ज्ञान को प्रत्यक्ष ज्ञान कहते हैं और उसका साधन हमारी इन्द्रियां होती हैं। अतः उस ज्ञान के उत्पन्न होने का कारण हमारी इन्द्रियाँ होने के कारण इन्द्रियों को प्रत्यक्ष प्रमाण कहा जाएगा। कुछ दार्शनिकों का मत है कि सामान्य ही पदार्थ हैं, कुछ कहते हैं कि विशेष ही पदार्थ है और कुछ का मत है कि पदार्थ सामान्य और विशेष से युक्त है। किन्तु सांख्य और योग के अनुसार पदार्थ न तो सामान्य रूप है,न विशेष रूप है और न ही सामान्य विशेष से युक्त है अपितु पदार्थ सामान्यविशेष रूप है। निष्कर्ष यह हुआ कि इन्द्रिय द्वारा घटादि विशेष के आकार वाली जो चित्तवृत्ति है, वह प्रत्यक्ष प्रमाण है। 


(ख) अनुमान प्रमाण- किसी अन्य वस्तु के अनुसार किसी वस्तु का ज्ञान करना अनुमान ज्ञान कहलाता है। कहा गया है-
“अनुमेयस्य तुल्यजातीयेष्वनुवृत्तो भिन्नजातीयेभ्यो व्यावृत्तः सम्बन्धों यस्तद्विषया सामान्यावधारणप्रधाना वृत्तिरनुमानम्“।

अर्थात अग्नि आदि अनुमेय साध्य का, पर्वतादि पक्ष सदृश महानसादि में रहने वाला तथा भिन्नजातीय तड़ागादि में नहीं रहने वाला जो व्याप्तिरूप सम्बन्ध है, तद्विषयक सामान्य अंश का प्रधानरूप से विषय करने वाली जो बुद्धिवृत्ति है, वह अनुमान प्रमाण कहलाती है। जैसे चन्द्र तारागण गति वाले हैं क्योंकि वे एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हैं। जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर नहीं जाता, वह गतिमान नहीं होता, जैसे पर्वत।

सांख्य और योग दोनों ही शास्त्रों ने कारण कार्य भाव संबन्ध को मान्यता प्रदान की है। अतः कहने का तात्पर्य है, कि कार्य के अनुसार कारण और कारण के अनुसार कार्य का ज्ञान करना अनुमान ज्ञान कहलाता है। यह तीन प्रकार का होता है

पूर्ववत- यह अनुमान प्रमाणवृत्ति का एक ऐसा सिद्धान्त है जिसमें कारण के अनुसार कार्य का अनुमान किया जाता है। जैसे यदि काले बादल और आकाशीय बिजली की चमक तथा बादलों की गड़गडाहट सुनाई दे तो भविष्य में होने वाली वर्षा का अनुमान होता है जो कि वर्तमान में इन्द्रियों के द्वारा ग्राह्य नहीं है। इस प्रकार के अनुमान को पूर्ववत (कारण के अनुसार) उत्पन्न होने वाला ज्ञान कहा आएगा।
 
शेषवत- जब कार्य को देखकर कारण का अनुमान किया जाए तो उसे शेषवत अनुमान कहा जाता है। शेष कहने का तात्पर्य कार्य से है। जैसे नदी के मिट्टी मिले एवं बढ़े हुए जल स्तर को देख कर, उसके कारणरूप पर्वतों पर हुई वर्षा का अनुमान किया जाता है। वर्षा एक या दो दिन पहले पर्वतों पर हो चुकी जो कि इन्द्रियों के द्वारा ग्राह्य नहीं है। परन्तु उसका ज्ञान परिणाम को देख कर आज किया जा रहा है। इसी को शेषवत अनुमान कहते हैं।

सामान्यतः दृष्ट- एक बार से अधिक बार देखे गए की संज्ञा सामान्यतः दृष्ट होती है। कहने का तात्पर्य है कि जब किसी कार्य के कारण को अनेक बार देख कर उसका ज्ञान किया जाता है तो फिर वह सामान्य की अवस्था को प्राप्त हो जाता है फिर यदि उसी जाति का कार्य अन्य स्थान पर बिना उपादान कारण के होगा तो उसके उपादान कारण का ज्ञान अनुमान नामक प्रमाण वृत्ति से कर लिया जाएगा। जैसे हम बचपन से ही देखते है कि कुम्हार घट का निर्माण कर रहा है और लोहार लोहे से बने हथियारों का ऐसी अवस्था को अनेक बार देखना सामान्यतः दृष्ट कहा जाता है, अब इसके बाद यदि किसी अन्य घट को हम बाजार में देखते हैं तो अनुमान करेंगे कि इस घट का निर्माता भी कुम्हार ही है या लोहे से बने हथियारों का निर्माता लोहार है। इसी स्थिति को सामान्यतःदृष्ट अनुमान प्रमाण वृत्ति कहा जाता है।

(ग) आगम प्रमाण- जब किसी वस्तु अथवा तत्व के ज्ञान का कारण न तो इन्द्रियां होती है और न ही उनका अनुमान किया जाए तो उस ज्ञान को आगम प्रमाण से सिद्ध किया जाता है जैसे स्वर्ग और नरक आदि। कहा गया है
आप्तेन दृष्टोऽनुमितो वाऽर्थः परत्र स्वबोधसंक्रांतये शब्देनोपदिश्यते शब्दात् तदर्थविषयावृत्तिः श्रोतुरागम:।
 
अर्थात आप्तपुरुष अथवा आप्तग्रन्थों द्वारा प्रत्यक्ष अथवा अनुमान से ज्ञात विषय को दूसरे में ज्ञान उत्पन्न करने के लिये शब्द के द्वारा उपदेश किया जाता है। वहां शब्द से उस अर्थ को विषय करने वाली जो श्रोता की वृत्ति है, वह आगम प्रमाण कहलाती है।

वास्तव में स्वर्ग को चक्षु आदि इन्द्रियों से ग्रहण नहीं किया जा सकता और न ही वह किसी के द्वारा अनुमानित है परन्तु स्वर्ग की मान्यता है। यहां पर आगम प्रमाण की मान्यता पुष्ट होती है। क्योंकि वेदादि ग्रन्थों में अनेक स्थानों पर स्वर्ग और नरक की कल्पना की गई है। इस लिए उसकी सत्ता को मानना अनिवार्य हैं। इस आगम प्रमाण के अन्तर्गत आप्त पुरुष अथवा आप्त ग्रन्थों की भी गणना की जाती है।

2. विपर्यय- मिथ्या ज्ञान को विपर्यय कहते हैं। वह मिथ्या ज्ञान वस्तुतत्व के रूप में प्रतिष्ठित नहीं होता योगदर्शन में कहा गया है- 
“विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम्“  (योगसूत्र 1/8)

अंधकार आदि दोषों के कारण पुरोवर्ती रस्सी को सांप समझना मिथ्याज्ञान है। सांपविषयक चित्तवृत्ति पुरोवर्ती वस्तुतत्व रस्सी के रूप में प्रतिष्ठित नही है। अतः यह चित्तवृत्ति योगदर्शन में विपर्यय नाम से जानी जाती है। इसी प्रकार सीप में चांदी विषयक वृत्ति, देह तथा इन्द्रिय में आत्मविषयक चित्तवृत्ति का नाम विपर्यय है।

3. विकल्प- योगदर्शन में कहा गया है-
शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः  (योगसूत्र 1/9)
वस्तुशून्य होने पर भी शब्दजन्य ज्ञान के प्रभाव से जो व्यवहार देखा जाता है, वह विकल्प वृत्ति है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि शब्द और शब्दज्ञान के अनुसार उभरने वाली चित्त की वृत्ति यदि विषयगत वस्तु से शून्य हो तो विकल्प कहलाती है। किसी शब्द के उच्चारण और उससे होने वाले शब्दज्ञान के अनुसार उसके प्रभाव से सुननेवाले व्यक्ति के चित्त में उभरने वाली वृत्ति को “'विकल्प' कहते हैं। परन्तु जिस आधार पर वह शब्द या शब्द समूह कहा गया है, उसका सदा ही वहाँ अभाव होना आवश्यक है। जैसे एक व्यक्ति ने कहा “पानी से मेरा हाथ जल गया। वस्तुतः पानी से हाथ कभी नहीं जलता, प्रत्युत पानी के साथ संश्लिष्ट अग्नि से हाथ जलता है। पानी में जलाने के सामर्थ्य का सदा अभाव रहता है। जलाने के सामर्थ्यरूप वस्तुसत्ता से पानी सर्वथा शून्य रहता है। फिर भी कहने सुनने वाले दोनों उन्हीं शब्दों को बोलते और सुनते हुए उसका अर्थ समझ जाते हैं। चित्तवृत्ति के अनुसार पुरुष को उसी प्रकार का बोध होता है। ऐसी चित्तवृत्ति को शास्त्र में 'विकल्प' नाम दिया गया है।
 

4. निद्रा- प्रमाण, विपर्यय और विकल्प के समान निद्रा भी एक वृत्ति है, ऐसा सांख्ययोग का सिद्धान्त है। नैयायिक निद्रा को वृत्ति नही मानते हैं। उनके मतानुसार निद्रा ज्ञानाभाव रूप है। निद्रा का स्वरूप महर्षि पतंजलि ने इस प्रकार प्रस्तुत किया है कि अभाव की प्रतीति को विषय करने वाली चित्तवृत्ति का नाम निद्रा है
“अभावप्रत्ययालम्बना वृत्तिनिद्राः“  (योगसूत्र 1/10)
यहां पर ज्ञान के अभाव की प्रतीति समझनी चाहिए। इन्द्रियों से होने वाले ज्ञान का उस अवस्था में अभाव रहता है। यह विवरण सुषुप्ति अवस्था का है। जैसे जाग्रत और स्वप्न अवस्था में इन्द्रिय ज्ञान होते रहते हैं ऐसा ज्ञान सुषुप्ति अवस्था में नहीं होता। तात्पर्य यह है कि “निद्रा' नामक वृत्ति सुषुप्ति अवस्था है। इसको लोक में गाढ़ निद्रा या गहरी नींद कहते हैं। जब व्यक्ति इस निद्रा से जाग उठता है तो कहता है “मैं सुखपूर्वक सोया'। यह ज्ञान निद्रा की अवस्था में होता है। इसी का नाम निद्रा वृत्ति है। निद्रा होने के साथ साथ सुख के अनुभव के कारण इस अवस्था को वृत्ति कहा गया है। 
 
5. स्मृति- पहले अनुभव किये हुए विषय का फिर उभर आना स्मृति नामक चित्तवृत्ति है

“अनुभूतविषयाऽसम्प्रमोष: स्मृति  (योगसूत्र 1/11)

सूत्र के 'असम्प्रमोष:' पद में “मुष्' धातु का प्रयोग है, जिसका अर्थ धातुपाठ में 'स्तेय' चोरी करना, निर्देश किया गया है। अपने अधिकार की किसी वस्तु का अवैधानिक रूप से उठा लिया जाना, अथवा दूर कर दिया जाना। इस पद में 'सम' और "“प्र' दो उपसर्ग हैं, जो धात्वर्थ की उग्रता को अभिव्यक्त करते हैं। एक अधिकार से वस्तु का नितान्त अनाधिकृत रूप में चले जाना। “सम्प्रमोष' पद का नंच के साथ समास कर “असम्प्रमोष' पद से पूर्वक्त अर्थ के पूर्ण विपरीत अर्थ का अभिव्यंजन किया गया है। किसी व्यक्ति के द्वारा अनुभूत विषय का उसके ज्ञान के रूप में पूर्णतया उस व्यक्ति के अधिकार में रहना। विषय की अनुभूति के अनन्तर अनुभवजन्य संस्कार आत्मा में निहित रहते हैं। कालान्तर में अनुकूल निमित्त उपस्थित होने पर संस्कार उभर जाते हैं, जो उस विषय को याद करा देते हैं। इस प्रकार की चित्तवृत्ति का नाम 'स्मृति' है। अनुभूति के समान संस्कार होते हैं और संस्कारों के सदृश ही 'स्मृति' हुआ करती है। स्मृति का विषय सदा वही होता है जो अनुभव का विषय रहा है। बिना अनुभव किये हुए का स्मरण नहीं होता। 
 
उपर्युक्त प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति ये पांच प्रकार की वृत्तियां निरोध करने योग्य हैं क्योंकि ये सुख दुःख और मोहरूप है। सुख, दुःख और मोह तो क्लेशों के ही अन्दर आते हैं। कलेशरूप होने के कारण इन सभी का निरोध आवश्यक है। इन वृत्तियों का निरोध होने पर सम्प्रज्ञात समाधि तथा सम्प्रज्ञात समाधि के द्वारा असम्प्रज्ञात समाधि का लाभ योगियों को होता है। 

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