Skip to main content

अग्नि तत्व का शरीर पर प्रभाव व महत्व

अग्नि तत्व का शरीर पर प्रभाव व महत्व :-

Effect and importance of fire element on body - फलों के द्वारा अग्नि तत्व विशेष रूप से हमें प्राप्त होता है। फलों में जल तत्व की भी भरपूर मात्रा होती है। फल सूर्य की गरमी में पकते हैं जब हम धूप लेते हैं या सूर्य को गरमी से पके हुए फल खाते हैं तो शरीर के अन्दर अग्नि तत्व का समावेश होता है। फल भी दो प्रकार के होते हैं


(अ) रसदार- यह शरीर को शुद्ध करने में अधिक सहायक होते हैं तथा सुपाच्य होते हैं।

(ब) गूदेदार- इनमें पोषक तत्व अपेक्षाकृत अधिक होते हैं। ये अधिक गरिष्ठ माने जाते हैं।
दोनों ही प्रकार के फल पृथ्वी और जल तत्व वाले भोज्य पदार्थों की अपेक्षा अधिक सुपाच्य होते हैं। इन्हें बिना पकाये कच्चा ही खाना चाहिए जैसे-खीरा, ककड़ी, गाजर, टमाटर इत्यादि।

वायु तत्व के बाद अग्नि तत्व का आगमन होता है, जो पंच महाभूत का एक अंग है। इसके अभाव में प्राणी, पशु पक्षी एवं वनस्पति वर्ग आदि का जीवन असम्भव है। क्योंकि इसके अभाव में जीवन को उर्जा, उचित शक्ति आदि का मिलना असम्भव है। इस तत्व के अभाव में पृथ्वी की चुम्बकीय शक्ति और पृथ्वी की उर्वरक शक्ति नहीं बढ़ सकती। संसार के सभी प्राणियों का अस्तित्व ही अग्नि पर टिका हुआ है। 
 
मनुष्य का ओज व तेज वृक्षों में हरियाली एवं पक्षियों में चहचहाहट तथा पशु का टहलना सारी नदियाँ आदि सभी सूर्य से प्रास तत्व अग्नि के कारण हो पाता है। सूर्य में रोगों के निवारण का एक महत्वपूर्ण गुण है। यह हमारे ऋषि मुनि भी मानते थे। सूर्य की रश्मियों से हमें विटामिन डी प्राप्त होता है जो कि हमारी हड्डियों को मजबूत बनाने के लिए बहुत ही अनिवार्य है। इन रश्मियों से हमें उर्जा, शक्ति व स्फूर्ति भी प्राप्त होती है यह रोगाणुओं को नष्ट करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। यही नहीं यह हमारे शरीर से विजातीय द्रवोँ का निष्कासन कर रोगाणुओं और कीटाणुओं से हमारे शरीर को मुक्त रखती है।

 सूर्य सेवन से वात, पित्त एवं कफ से उत्पन्न रोगो को दूर किया जा सकता है। सूर्थ और इसके महत्व को जानकर तथा समझकर आज भी प्रायः सनातन धर्म में सूर्य की उपासना की जाती है। ऐसी मान्यता है कि प्रातः काल के सूर्य रश्मियों में बौद्धिक शक्ति बढाने की क्षमता होती है। सूर्य का प्रकाश जीवनी शक्ति में वृद्धि करता है तथा इसके अभाव में रक्ताभाव हड्डियो की कमजोरी, त्वचा रूखी, कड़ी व मुरझाई हुई दिखाई देती है जबकि सूर्य की किरणों का सेवन करने वालो की त्वचा सतेज, चिकनी स्वस्थ एवं सुन्दर होती है तथा उन्हें कभी भी सूखा रोग नहीं होता अर्थात  यह कहना गलत नहींं होगा कि सूर्य का प्रकाश सभी रोगों का नाश करने वाला है। 
 
सूर्य की रश्मि में पसीना निकालने, मोटापा घटाने की शक्ति होती है। सूर्य रश्मियाँ पाचन प्रणाली को ठीक करती है। खाद्यो, फल, सब्जी, अनाज में जितनी सूर्य रश्मियाँ सतृप्त होती हैं उनमें उतना ही पोषण तत्व, प्राकृतिक लवण, एवं विटामिन पूर्ण एवं अधिक पाया जाता है।

सूर्य किरण हमारी बाह्य और अन्तः ग्रंथियों पर प्रभाव डालकर सन्तुलन पैदा करती है। अतः हमें सूर्य किरणो से प्राप्त अग्नि तत्व की पूर्ति करने के लिए उसका नियमित सेवन करने चाहिए।

आज अग्नि तत्व की प्राप्ति के लिए कई साधन व उपचार की पद्धतियाँ प्रयोग में लाई जा रही हैं। आज जिन रोगों का कारण अग्नि तत्व की कमी है उन्हें दूर करने के लिए विभिन्न उपचार विधियों को प्रयोग किया जाता है जैस-सूर्य किरण चिकित्सा- इसका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार हैं -

सूर्य की किरणो को रंगीन शीशो सेे गुजारकर काम मे लाना- इस काम केे लिये विविध रंगो के शीशे लेेेकर उनमें स्लेट की तरह उनमे चौखटे लगवा लेने चाहिये जब शरीर के किसी रोगी भाग पर किसी रंग की सूर्य किरण का प्रकाश डालना हो तो उसी रंग का शीशा लेकर धूप में बैठकर शरीर के रोगी भाग पर शीशे से सूर्य की उस रंग की किरण पड़ने देना चाहिये सूर्य की रंगीन रश्मियो का स्नान हमेशा नंगे बदन करना अधिक लाभप्रद होता है। सूर्य-किरणें से समूचे शरीर को नहलाना हो तो इसके लिये ऐसा कमरा चुनना चाहिये जिसमें सूर्य प्रकाश खूब आता हो तथा जिसकी खिडकी में रंगीन शीशा आवश्यकतानुसार लगाने या निकालने की व्यवस्था हो जिस रंग का सूर्य प्रकाश शरीर के लिये आयश्यक हो उसे सूर्य के सामने वाली खिड़की में लगाकर बाकि सभी को बन्द कर देना चाहिये ताकि आवश्यक रंग के अलावा अन्य कोई रंग की किरण रोगी पर ना पडे।

सूर्य की रंगीन किरणों का जल मे सम्पुटित करके काम मे लाना- सूर्य की सातो रंगीन किरणों लाल, नारंगी, पीली हरी, आसमानी, नीली एवं बैगनी किरणों को उन्ही रंगो की बोतल के माध्यम से जल में सम्पुटित कर चिकित्सा में प्रयोग किया जाता है बोतलो के रंग सूर्ख और शुद्ध होने पर परिणाम प्रभावकारी होते है यदि रंगीन बोतल या उस रंग की बोतल ना मिल पाये तो सफेद बोतल पर आवश्यक रंग का सिलोफिन कागज लपेटकर उसमे जल को तैयार कर प्रयोग किया जा सकता है। 
 
सर्वप्रथम जल तैयार करने के लिये बोतल को खुब अच्छी तरह साफ कर शुद्ध जल से भर 1/4 भाग खाली छोड देना चाहिये बोतल को उसी रंग के ढक्कन या कार्क से बन्द करने के पश्चात एक लकडी की मेज पर ऐसे स्थान पर रखना चाहिये जहां सुबह 10 बजे से शाम 5 बजे तक उस पर लगातार धूप पड़ती रहे शाम 5 बजे बोतल के खाली भाग में भाप की बूदें दिखायी देंगी जिससे यह स्पष्ट होगा की पानी मे औषधी गुण आ गया है और उसे प्रयोग किया जा सकता है सूर्य तप्त जल को पृथ्वी पर नहीं रखना चाहिये वरना उसका सब गुण पृथ्वी मे मिल जाता है। यह जल 6 से 8 घण्टे मे दवा बन जाता है विभिन्न रंग की बोतल को तैयार करने के लिये उन्हे धूप मे रखते समय इतनी दूर दूर रखना चाहिये की उनकी छाया दूसरी बोतल पर ना पडे तैयार जल को सफेद बोतल मे रखने पर 24 घण्टे तक प्रयोग किया जा सकता है बल्कि उसी रंग की बोतल जिसमे जल तैयार हुआ है उसमे रखने पर 72 घण्टे तक प्रयोग किया जा सकता है। 

सूर्य किरण चिकित्सा में फल और सब्जियो का प्रभाव भी देखा जाता है फल और सब्जियाँ अपने अन्दर सूर्य की किरणों को एकत्र करती रहती है इसलिये इन्हें प्राकृतिक रुप से खाने मे हमे अधिक पोषक तत्व मिलते है हरे रंग की तरकारी व फल गुर्दे चक्षु और चर्मरोग में तथा लाल रंग की सब्जियो का प्रभाव गर्म होता है। बेल मे पीला, नीला दोनो रंगो का प्रयोग होने पर वह आँतों के लिये सर्वोत्तम माना जाता है सर्दी खाँसी और कफ जनित रोग मे गर्म प्रकृति के पदार्थ देने चाहिये।

सूर्य की रंगीन किरणों को वायु के माध्यम से भक्षण भी किया जाता है जिसमें रंगीन खाली बोतल को खूब कडी डॉट लगाकर उसी प्रकार धूप मे रखा जाता है जिस प्रकार बोतल मे जल भरकर उसे तैयार किया जाता है नियम वही रहेगे। इसमे बोतल को लकडी पर सूर्य के प्रकाश मे दिन मे 12 बजे से 1 बजे तक रखने पर बोतल मे बन्द हवा औषधि गुणो युक्त कि जाती है तैयार हवा का नासिका या मुहँ द्वारा रोगी के श्वास के साथ खिचंवाकर उसके रोग को दूर करने के प्रयोग मे लाया जाता है।

सूर्य की रंगीन किरणों का तेल बनाकर प्रयोग करना-  जिस प्रकार जल और हवा को धूूप मे रंगीन बोतलो मे बन्द कर रखने पर तप्त किया जाता है उसी प्रकार ही तेल भी भावित किया जाता है तेल को सूर्य किरणों से भावित करने के लिये उसे केवल 8 धण्टे ही सूर्य प्रकाश मे नही रखा जाता बल्कि गर्मियों मे 30-40 दिन और सर्दियों में 60 दिनो तक प्रतिदिन 6 घन्टे सूर्य के प्रकाश में रखकर तेेेल तैयार किया जाता है। इस प्रकार तिल, गोला, जैतुन, सरसों आदि तेलों तथा गिलसरीन को भी भावित कर विभिन्न रोगों मेे प्रयोग किया जाता है।
 
सूर्य की रंगीन किरणों को मिश्री या दुग्ध शर्करा आदि में भावित कर काम मे लाना भी प्राकृतिक चिकित्सा की एक प्रक्रिया है। मिश्री, शक्कर को सूर्य तप्त कर उन दिनों में विशेष रुप से प्रयोग किया जाता है जिन दिनों सूर्य का प्रकाश नही निकलता। प्राकृतिक चिकित्सा के अनुसार शरीर मे जिस रंग के अभाव के कारण रोग उत्पन्न हुआ है उसी रंग से तप्त जल में भीगे कपड़े की पटटी प्रयोग में करने पर साधारण जल की पटटी से दोगुना लाभ मिलता है। रंगीन किरण तप्त जल से सनी मिट्टी की पटटी का प्रयोग करके रोगो को दूर करना-मिट्टी की पटटी बनाने के लिये रंगीन तप्त जल में तैयार मिट्टी प्रयोग कि जाती है जिससे शीघ्र और अधिक लाभ होता है गर्म मिट्टी के प्रयोग आदि। कई प्रकार के गर्म प्रयोगों के दरा अग्नि तत्व की शरीर में पर्याप्त मात्रा में पूर्ति कर बड़े-बड़े रोगों को दूर किया जा सकता है। 

 
 
 

Comments

Popular posts from this blog

सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति सामान्य परिचय

प्रथम उपदेश- पिण्ड उत्पति विचार सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति अध्याय - 2 (पिण्ड विचार) सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार नौ चक्रो के नाम 1. ब्रहमचक्र - मूलाधार मे स्थित है, कामनाओं की पूर्ति होती हैं। 2. स्वाधिष्ठान चक्र - इससे हम चीजो को आकर्षित कर सकते है। 3. नाभी चक्र - सिद्धि की प्राप्ति होती है। 4. अनाहत चक्र - हृदय में स्थित होता है। 5. कण्ठचक्र - विशुद्धि-संकल्प पूर्ति, आवाज मधुर होती है। 6. तालुचक्र -  घटिका में, जिह्वा के मूल भाग में,  लय सिद्धि प्राप्त होती है। 7. भ्रुचक्र -     आज्ञा चक्र - वाणी की सिद्धि प्राप्त होती है। 8. निर्वाणचक्र - ब्रहमरन्ध्र, सहस्त्रार चक्र, मोक्ष प्राप्ति 9. आकाश चक्र - सहस्त्रारचक्र के ऊपर,  भय- द्वेष की समाप्ति होती है। सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार सोहल आधार (1) पादांगुष्ठ आधार (2) मूलाधार (3) गुदाद्वार आधार (4) मेद् आधार (5) उड्डियान आधार (6) नाभी आधार (7) हृदयाधार (8) कण्ठाधार (9) घटिकाधार (10) तालु आधार (11) जिह्वा आधार (12) भ्रूमध्य आधार (13) नासिका आधार (14) नासामूल कपाट आधार (15) ललाट आधार (16) ब्रहमरंध्र आधार सिद्ध...

चित्त प्रसादन के उपाय

महर्षि पतंजलि ने बताया है कि मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा इन चार प्रकार की भावनाओं से भी चित्त शुद्ध होता है। और साधक वृत्तिनिरोध मे समर्थ होता है 'मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम्' (योगसूत्र 1/33) सुसम्पन्न व्यक्तियों में मित्रता की भावना करनी चाहिए, दुःखी जनों पर दया की भावना करनी चाहिए। पुण्यात्मा पुरुषों में प्रसन्नता की भावना करनी चाहिए तथा पाप कर्म करने के स्वभाव वाले पुरुषों में उदासीनता का भाव रखे। इन भावनाओं से चित्त शुद्ध होता है। शुद्ध चित्त शीघ्र ही एकाग्रता को प्राप्त होता है। संसार में सुखी, दुःखी, पुण्यात्मा और पापी आदि सभी प्रकार के व्यक्ति होते हैं। ऐसे व्यक्तियों के प्रति साधारण जन में अपने विचारों के अनुसार राग. द्वेष आदि उत्पन्न होना स्वाभाविक है। किसी व्यक्ति को सुखी देखकर दूसरे अनुकूल व्यक्ति का उसमें राग उत्पन्न हो जाता है, प्रतिकूल व्यक्ति को द्वेष व ईर्ष्या आदि। किसी पुण्यात्मा के प्रतिष्ठित जीवन को देखकर अन्य जन के चित्त में ईर्ष्या आदि का भाव उत्पन्न हो जाता है। उसकी प्रतिष्ठा व आदर को देखकर दूसरे अनेक...

"चक्र " - मानव शरीर में वर्णित शक्ति केन्द्र

7 Chakras in Human Body हमारे शरीर में प्राण ऊर्जा का सूक्ष्म प्रवाह प्रत्येक नाड़ी के एक निश्चित मार्ग द्वारा होता है। और एक विशिष्ट बिन्दु पर इसका संगम होता है। यह बिन्दु प्राण अथवा आत्मिक शक्ति का केन्द्र होते है। योग में इन्हें चक्र कहा जाता है। चक्र हमारे शरीर में ऊर्जा के परिपथ का निर्माण करते हैं। यह परिपथ मेरूदण्ड में होता है। चक्र उच्च तलों से ऊर्जा को ग्रहण करते है तथा उसका वितरण मन और शरीर को करते है। 'चक्र' शब्द का अर्थ-  'चक्र' का शाब्दिक अर्थ पहिया या वृत्त माना जाता है। किन्तु इस संस्कृत शब्द का यौगिक दृष्टि से अर्थ चक्रवात या भँवर से है। चक्र अतीन्द्रिय शक्ति केन्द्रों की ऐसी विशेष तरंगे हैं, जो वृत्ताकार रूप में गतिमान रहती हैं। इन तरंगों को अनुभव किया जा सकता है। हर चक्र की अपनी अलग तरंग होती है। अलग अलग चक्र की तरंगगति के अनुसार अलग अलग रंग को घूर्णनशील प्रकाश के रूप में इन्हें देखा जाता है। योगियों ने गहन ध्यान की स्थिति में चक्रों को विभिन्न दलों व रंगों वाले कमल पुष्प के रूप में देखा। इसीलिए योगशास्त्र में इन चक्रों को 'शरीर का कमल पुष्प” कहा ग...

चित्त विक्षेप | योगान्तराय

चित्त विक्षेपों को ही योगान्तराय ' कहते है जो चित्त को विक्षिप्त करके उसकी एकाग्रता को नष्ट कर देते हैं उन्हें योगान्तराय अथवा योग के विध्न कहा जाता।  'योगस्य अन्तः मध्ये आयान्ति ते अन्तरायाः'।  ये योग के मध्य में आते हैं इसलिये इन्हें योगान्तराय कहा जाता है। विघ्नों से व्यथित होकर योग साधक साधना को बीच में ही छोड़कर चल देते हैं। विध्न आयें ही नहीं अथवा यदि आ जायें तो उनको सहने की शक्ति चित्त में आ जाये, ऐसी दया ईश्वर ही कर सकता है। यह तो सम्भव नहीं कि विध्न न आयें। “श्रेयांसि बहुविध्नानि' शुभकार्यों में विध्न आया ही करते हैं। उनसे टकराने का साहस योगसाधक में होना चाहिए। ईश्वर की अनुकम्पा से यह सम्भव होता है।  व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तिदर्शनालब्धभूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाः (योगसूत्र - 1/30) योगसूत्र के अनुसार चित्त विक्षेपों  या अन्तरायों की संख्या नौ हैं- व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरति, भ्रान्तिदर्शन, अलब्धभूमिकत्व और अनवस्थितत्व। उक्त नौ अन्तराय ही चित्त को विक्षिप्त करते हैं। अतः ये योगविरोधी हैं इन्हें योग के मल...

MCQs on “Yoga Upanishads” in Hindi for UGC NET Yoga Paper-2

1. "योगतत्त्व उपनिषद" का मुख्य विषय क्या है? A) हठयोग की साधना B) राजयोग का सिद्धांत C) कर्मयोग का महत्व D) भक्ति योग का वर्णन ANSWER= (A) हठयोग की साधना Check Answer   2. "अमृतनाद उपनिषद" में किस योग पद्धति का वर्णन किया गया है? A) कर्मयोग B) मंत्रयोग C) लययोग D) कुण्डलिनी योग ANSWER= (D) कुण्डलिनी योग Check Answer   3. "योगछूड़ामणि उपनिषद" में मुख्य रूप से किस विषय पर प्रकाश डाला गया है? A) प्राणायाम के भेद B) मोक्ष प्राप्ति का मार्ग C) ध्यान और समाधि D) योगासनों का महत्व ANSWER= (C) ध्यान और समाधि Check Answer   4. "ध्यानबिंदु उपनिषद" में किस ध्यान पद्धति का उल्लेख है? A) त्राटक ध्यान B) अनाहत ध्यान C) सगुण ध्यान D) निर्गुण ध्यान ANSWER= (D) निर्गुण ध्यान Check Answer ...

घेरण्ड संहिता के अनुसार ध्यान

घेरण्ड संहिता में वर्णित  “ध्यान“  घेरण्ड संहिता के छठे अध्याय में ध्यान को परिभाषित करते हुए महर्षि घेरण्ड कहते हैं कि किसी विषय या वस्तु पर एकाग्रता या चिन्तन की क्रिया 'ध्यान' कहलाती है। जिस प्रकार हम अपने मन के सूक्ष्म अनुभवों को अन्‍तःचक्षु के सामने मन:दृष्टि के सामने स्पष्ट कर सके, यही ध्यान की स्थिति है। ध्यान साधक की कल्पना शक्ति पर भी निर्भर है। ध्यान अभ्यास नहीं है यह एक स्थिति हैं जो बिना किसी अवरोध के अनवरत चलती रहती है। जिस प्रकार तेल को एक बर्तन से दूसरे बर्तन में डालने पर बिना रूकावट के मोटी धारा निकलती है, बिना छलके एक समान स्तर से भरनी शुरू होती है यही ध्यान की स्थिति है। इस स्थिति में किसी भी प्रकार की हलचल नहीं होती। महर्षि घेरण्ड ध्यान के प्रकारों का वर्णन छठे अध्याय के प्रथम सूत्र में करते हुए कहते हैं कि - स्थूलं ज्योतिस्थासूक्ष्मं ध्यानस्य त्रिविधं विदु: । स्थूलं मूर्तिमयं प्रोक्तं ज्योतिस्तेजोमयं तथा । सूक्ष्मं विन्दुमयं ब्रह्म कुण्डली परदेवता ।। (घेरण्ड संहिता  6/1) अर्थात्‌ ध्यान तीन प्रकार का है- स्थूल ध्यान, ज्योतिर्ध्यान और सूक्ष्म ध्यान। स्थू...

आसन का अर्थ एवं परिभाषायें, आसनो के उद्देश्य

आसन का अर्थ आसन शब्द के अनेक अर्थ है जैसे  बैठने का ढंग, शरीर के अंगों की एक विशेष स्थिति, ठहर जाना, शत्रु के विरुद्ध किसी स्थान पर डटे रहना, हाथी के शरीर का अगला भाग, घोड़े का कन्धा, आसन अर्थात जिसके ऊपर बैठा जाता है। संस्कृत व्याकरंण के अनुसार आसन शब्द अस धातु से बना है जिसके दो अर्थ होते है। 1. बैठने का स्थान : जैसे दरी, मृग छाल, कालीन, चादर  2. शारीरिक स्थिति : अर्थात शरीर के अंगों की स्थिति  आसन की परिभाषा हम जिस स्थिति में रहते है वह आसन उसी नाम से जाना जाता है। जैसे मुर्गे की स्थिति को कुक्कुटासन, मयूर की स्थिति को मयूरासन। आसनों को विभिन्न ग्रन्थों में अलग अलग तरीके से परिभाषित किया है। महर्षि पतंजलि के अनुसार आसन की परिभाषा-   महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र के साधन पाद में आसन को परिभाषित करते हुए कहा है। 'स्थिरसुखमासनम्' योगसूत्र 2/46  अर्थात स्थिरता पूर्वक रहकर जिसमें सुख की अनुभूति हो वह आसन है। उक्त परिभाषा का अगर विवेचन करे तो हम कह सकते है शरीर को बिना हिलाए, डुलाए अथवा चित्त में किसी प्रकार का उद्वेग हुए बिना चिरकाल तक निश्चल होकर एक ही स्थिति में सु...

हठयोग प्रदीपिका में वर्णित प्राणायाम

हठयोग प्रदीपिका में प्राणायाम को कुम्भक कहा है, स्वामी स्वात्माराम जी ने प्राणायामों का वर्णन करते हुए कहा है - सूर्यभेदनमुज्जायी सीत्कारी शीतल्री तथा।  भस्त्रिका भ्रामरी मूर्च्छा प्लाविनीत्यष्टकुंम्भका:।। (हठयोगप्रदीपिका- 2/44) अर्थात् - सूर्यभेदन, उज्जायी, सीत्कारी, शीतली, भस्त्रिका, भ्रामरी, मूर्छा और प्लाविनी में आठ प्रकार के कुम्भक (प्राणायाम) है। इनका वर्णन ऩिम्न प्रकार है 1. सूर्यभेदी प्राणायाम - हठयोग प्रदीपिका में सूर्यभेदन या सूर्यभेदी प्राणायाम का वर्णन इस प्रकार किया गया है - आसने सुखदे योगी बदध्वा चैवासनं ततः।  दक्षनाड्या समाकृष्य बहिस्थं पवन शनै:।।  आकेशादानखाग्राच्च निरोधावधि क्रुंभयेत। ततः शनैः सव्य नाड्या रेचयेत् पवन शनै:।। (ह.प्र. 2/48/49) अर्थात- पवित्र और समतल स्थान में उपयुक्त आसन बिछाकर उसके ऊपर पद्मासन, स्वस्तिकासन आदि किसी आसन में सुखपूर्वक मेरुदण्ड, गर्दन और सिर को सीधा रखते हुए बैठेै। फिर दाहिने नासारन्ध्र अर्थात पिंगला नाडी से शनैः शनैः पूरक करें। आभ्यन्तर कुम्भक करें। कुम्भक के समय मूलबन्ध व जालन्धरबन्ध लगा कर रखें।  यथा शक्ति कुम्भक के प...

Teaching Aptitude MCQ in hindi with Answers

  शिक्षण एवं शोध अभियोग्यता Teaching Aptitude MCQ's with Answers Teaching Aptitude mcq for ugc net, Teaching Aptitude mcq for set exam, Teaching Aptitude mcq questions, Teaching Aptitude mcq in hindi, Teaching aptitude mcq for b.ed entrance Teaching Aptitude MCQ 1. निम्न में से कौन सा शिक्षण का मुख्य उद्देश्य है ? (1) पाठ्यक्रम के अनुसार सूचनायें प्रदान करना (2) छात्रों की चिन्तन शक्ति का विकास करना (3) छात्रों को टिप्पणियाँ लिखवाना (4) छात्रों को परीक्षा के लिए तैयार करना   2. निम्न में से कौन सी शिक्षण विधि अच्छी है ? (1) व्याख्यान एवं श्रुतिलेखन (2) संगोष्ठी एवं परियोजना (3) संगोष्ठी एवं श्रुतिलेखन (4) श्रुतिलेखन एवं दत्तकार्य   3. अध्यापक शिक्षण सामग्री का उपयोग करता है क्योंकि - (1) इससे शिक्षणकार्य रुचिकर बनता है (2) इससे शिक्षणकार्य छात्रों के बोध स्तर का बनता है (3) इससे छात्रों का ध्यान आकर्षित होता है (4) वह इसका उपयोग करना चाहता है   4. शिक्षण का प्रभावी होना किस ब...