Skip to main content

आसन का अर्थ एवं परिभाषायें, आसनो के उद्देश्य

आसन का अर्थ

आसन शब्द के अनेक अर्थ है जैसे  बैठने का ढंग, शरीर के अंगों की एक विशेष स्थिति, ठहर जाना, शत्रु के विरुद्ध किसी स्थान पर डटे रहना, हाथी के शरीर का अगला भाग, घोड़े का कन्धा, आसन अर्थात जिसके ऊपर बैठा जाता है।
संस्कृत व्याकरंण के अनुसार आसन शब्द अस धातु से बना है जिसके दो अर्थ होते है।

1. बैठने का स्थान : जैसे दरी, मृग छाल, कालीन, चादर 

2. शारीरिक स्थिति : अर्थात शरीर के अंगों की स्थिति 

आसन की परिभाषा

हम जिस स्थिति में रहते है वह आसन उसी नाम से जाना जाता है। जैसे मुर्गे की स्थिति को कुक्कुटासन, मयूर की स्थिति को मयूरासन। आसनों को विभिन्न ग्रन्थों में अलग अलग तरीके से परिभाषित किया है।

महर्षि पतंजलि के अनुसार आसन की परिभाषा-  महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र के साधन पाद में आसन को परिभाषित करते हुए कहा है। 'स्थिरसुखमासनम्' योगसूत्र 2/46  अर्थात स्थिरता पूर्वक रहकर जिसमें सुख की अनुभूति हो वह आसन है।
उक्त परिभाषा का अगर विवेचन करे तो हम कह सकते है शरीर को बिना हिलाए, डुलाए अथवा चित्त में किसी प्रकार का उद्वेग हुए बिना चिरकाल तक निश्चल होकर एक ही स्थिति में सुखपूर्वक बैठने को आसन कहते है। इस परिभाषा से स्पष्ट होता है केवल ध्यानात्मक आसन ही इस परिधि में आते दिखाई देते है किन्तु वास्तविकता यह नहीं है। व्यायामात्मक आसन व विश्रामात्मम आसन भी इसी परिभाषा के अन्तर्गत आते है क्योंकि वे आसन भी शरीर को सुखपूर्वक बैठने के लिए तैयार करते है। उन्हीं के द्वारा शरीर निरोग और देर तक बैठने का अभ्यस्त होता है। 

तेजबिन्दु उपनिषद के अनुसार आसन की परिभाषा-   

“सुखनैव भवेत यस्मिन जसं ब्रहमचिन्तनम” जिस स्थिति में बैठकर सुखपूर्वक निरन्तर परम ब्रहम का चिन्तन किया जा सके उसे आसन कहते है।

श्रीमदभगवद्गीता के अनुसार आसन की परिभाषा- भगवान कृष्ण कहते है 

तत्रैकाग्रं मन: कृत्वा यतचिन्तेन्द्रियक्रिय: उपविश्यासने युज्जयाधोगमात्मविशुद्धये 6/12 अर्थात उस आसन पर बैठकर चित्त और इन्द्रियों की क्रियाओं को वश में रखते हुए मन को एकाग्र करके अन्त:करण की शुद्धि के लिए योग का अभ्यास करें। 

सम॑ कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिर: समप्रेक्ष्य नासिकाग्र॑ स्वं दिश श्रानवलोकयन 6/13  काया सिर व गले के समान एवं अचल धारण करके और स्थिर होकर, अपनी नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि जमाकर किसी अन्य दिशा को न देखते हुए किया गया अभ्यास आसन है।

गोरक्षसंहिता के अनुसार आसन की परिभाषा- गोरक्षसंहिता में महर्षि गोरक्षनाथ ने कहा है-

”आसनानि तुतावन्तो पावन्तो जीव जन्तव”
अर्थत जितने जीव जन्तु जिस आसन में बैठते है वह उसी नाम से जाने जाते है।

स्वात्माराम जी के अनुसार आसन की परिभाषा- स्वामी स्वात्मा राम ने हठप्रगदीपिका में कहा है-

“कुर्यात्तदासनं स्थैर्यमारोग्यं चाड.गलाघवम"अर्थात आसन के द्वारा स्थिरता (धैर्य) आरोग्य व शरीर तथा मन को लाघव की प्राप्ति होती है।

तंत्र शास्त्र के अनुसार आसन की परिभाषा- आसनों के माध्यम से व्यक्ति अपने शरीर एवं मन की सीमाओं को बढ़ाता है। 

श्री चरणदास जी के अनुसार आसन की परिभाषा- चरणदास जी कहते है 

”चौरासी लाख आसन जानो योनि की बैठक पहचानो” अर्थात चौरासी लाख जीव जन्तु जिस अवस्था में बैठते है। वह आसन उस नाम से जाना जाता है।

आचार्य नारायण तीर्थ आसन की परिभाषा-आचार्य नारायण तीर्थ कहते है जो स्थिर निश्चल और सुखकर होता है वह आसन है।

विविध परिभाषाओं का अध्ययन करने के बाद हम कह् सकते है कि शरीर, मन व आत्मा की सरल व सुखद अवस्था का नाम ही आसन है।

आसनों का उद्देश्य

आसनों का मुख्य उद्देश्य शारीरिक कष्टों व मानसिक उद्वेगों से मुक्ति पाना है। आसनों से शरीर लचीला बन जाता है। शरीर की मांसपेशियों में खिंचाव आने से उनका लचीलापन बढ़ जाता है तथा सक्रियता में वृद्धि होती है जिससे सम्पूर्ण तंत्रिकातंत्र स्वस्थ हो जाता है। इस प्रक्रिया से गुजरने के बाद शरीर और मन के क्रियाकलापों में सामंजस्य तथा एकरूपता आ जाती है जिसके कारण साधक की कार्यक्षमता बढ़ जाती है। इसलिए आसनों का अभ्यास आवश्यक कहा गया है। 

'आसनेन रुजो हन्ति' कहकर आसनों का 'रोग निवारक रूप प्रस्तुत किया गया है क्योंकि सम्पूर्ण शरीर को सामान्य रूप से विकसित करने के कारण विषाक्त द्रव्यों से मुक्ति मिल जाती है। लेकिन आसन स्वस्थ शरीर को रोगरहित रखते हैं। इसका यह 'रोगों से बचाव का रूप' और भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। रोग आए ही नहीं, यह अच्छा है और रोग आ जाए तो दूर भी किया जा सकता है। 

'आसनेन भवेद दृढम' आसन से शरीर दृढ़ होता हैं, मजबूत होता है तथा बल की वृद्धि होती है। अंगों का समान रूप से विकास होता है। अतः स्वस्थ शरीर के लिए आसन आवश्यक है। 

आसनों को शरीर के स्वास्थ्य की रक्षा तथा रोग हो जाने पर उसकी चिकित्सा के लिए प्रयोग करना तो महत्वपूर्ण है ही, इसका आध्यात्मिक पक्ष और भी अधिक महत्वपूर्ण है। आसनों का उपयोग किए बिना साधना सम्पन्न नहीं हो सकती। शरीरस्थ चक्रों की स्थिति मेरुदण्ड के निचले सिरे से प्रारम्भ होकर ऊध्वगमन करते हुए सहस्त्रार तक है। कुण्डलिनी शक्ति जागृत होकर ऊर्ध्वगमन करती है। अतः मेरुदण्ड को सीधा रखकर, गर्दन तथा सिर को भी उसी प्रकार सीधा रखने से शक्ति के ऊर्ध्वगमन में व्यवधान उत्पन्न नहीं होता और सुगमता से लक्ष्य की प्राप्ति की जा सकती है। यही नहीं शरीर को मजबूत किए बिना बैठने से मेरुदण्ड आगे की ओर झुक जाता है तथा नींद आने लगती है। ऐसी अवस्था में ध्यान किस प्रकार किया जा सकता है लचीला मेरुदण्ड ही स्वस्थ माना जाता है। जिससे समस्त नाड़ियों के साथ सुषम्ना (जो प्रधान नाड़ी है) भी सक्रिय रहती है। अतः सुषुम्ना को गतिशील बनाए रखने के लिए भी आसन का अभ्यास अनिवार्य है। सुषुम्ना की क्रियाशीलता से साधक भौतिक जगत के क्रियाकलापों को भी ठीक विधि से शीघ्रतापूर्वक आल्रस्य रहित होकर कर सकता है। अतः आसन का उपयोग इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए करना भी आवश्यक है।

 Yoga Book in Hindi

Yoga Books in English

Yoga Book for BA, MA, Phd

Gherand Samhita yoga book

Hatha Yoga Pradipika Hindi Book

Patanjali Yoga Sutra Hindi

Shri mad bhagwat geeta book hindi

UGC NET Yoga Book Hindi

UGC NET Paper 2 Yoga Book English

UGC NET Paper 1 Book

QCI Yoga Book 

Yoga book for class 12 cbse

Yoga Books for kids


Yoga Mat   Yoga suit  Yoga Bar   Yoga kit


योग आसनों का वर्गीकरण एवं योग आसनों के सिद्धान्त

 हठयोग प्रदीपिका में वर्णित आसन

हठयोग का अर्थ , परिभाषा, उद्देश्य

षटकर्मो का अर्थ, उद्देश्य, उपयोगिता

 

Comments

Popular posts from this blog

सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति सामान्य परिचय

प्रथम उपदेश- पिण्ड उत्पति विचार सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति अध्याय - 2 (पिण्ड विचार) सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार नौ चक्रो के नाम 1. ब्रहमचक्र - मूलाधार मे स्थित है, कामनाओं की पूर्ति होती हैं। 2. स्वाधिष्ठान चक्र - इससे हम चीजो को आकर्षित कर सकते है। 3. नाभी चक्र - सिद्धि की प्राप्ति होती है। 4. अनाहत चक्र - हृदय में स्थित होता है। 5. कण्ठचक्र - विशुद्धि-संकल्प पूर्ति, आवाज मधुर होती है। 6. तालुचक्र -  घटिका में, जिह्वा के मूल भाग में,  लय सिद्धि प्राप्त होती है। 7. भ्रुचक्र -     आज्ञा चक्र - वाणी की सिद्धि प्राप्त होती है। 8. निर्वाणचक्र - ब्रहमरन्ध्र, सहस्त्रार चक्र, मोक्ष प्राप्ति 9. आकाश चक्र - सहस्त्रारचक्र के ऊपर,  भय- द्वेष की समाप्ति होती है। सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार सोहल आधार (1) पादांगुष्ठ आधार (2) मूलाधार (3) गुदाद्वार आधार (4) मेद् आधार (5) उड्डियान आधार (6) नाभी आधार (7) हृदयाधार (8) कण्ठाधार (9) घटिकाधार (10) तालु आधार (11) जिह्वा आधार (12) भ्रूमध्य आधार (13) नासिका आधार (14) नासामूल कपाट आधार (15) ललाट आधार (16) ब्रहमरंध्र आधार सिद्ध...

चित्त प्रसादन के उपाय

महर्षि पतंजलि ने बताया है कि मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा इन चार प्रकार की भावनाओं से भी चित्त शुद्ध होता है। और साधक वृत्तिनिरोध मे समर्थ होता है 'मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम्' (योगसूत्र 1/33) सुसम्पन्न व्यक्तियों में मित्रता की भावना करनी चाहिए, दुःखी जनों पर दया की भावना करनी चाहिए। पुण्यात्मा पुरुषों में प्रसन्नता की भावना करनी चाहिए तथा पाप कर्म करने के स्वभाव वाले पुरुषों में उदासीनता का भाव रखे। इन भावनाओं से चित्त शुद्ध होता है। शुद्ध चित्त शीघ्र ही एकाग्रता को प्राप्त होता है। संसार में सुखी, दुःखी, पुण्यात्मा और पापी आदि सभी प्रकार के व्यक्ति होते हैं। ऐसे व्यक्तियों के प्रति साधारण जन में अपने विचारों के अनुसार राग. द्वेष आदि उत्पन्न होना स्वाभाविक है। किसी व्यक्ति को सुखी देखकर दूसरे अनुकूल व्यक्ति का उसमें राग उत्पन्न हो जाता है, प्रतिकूल व्यक्ति को द्वेष व ईर्ष्या आदि। किसी पुण्यात्मा के प्रतिष्ठित जीवन को देखकर अन्य जन के चित्त में ईर्ष्या आदि का भाव उत्पन्न हो जाता है। उसकी प्रतिष्ठा व आदर को देखकर दूसरे अनेक...

"चक्र " - मानव शरीर में वर्णित शक्ति केन्द्र

7 Chakras in Human Body हमारे शरीर में प्राण ऊर्जा का सूक्ष्म प्रवाह प्रत्येक नाड़ी के एक निश्चित मार्ग द्वारा होता है। और एक विशिष्ट बिन्दु पर इसका संगम होता है। यह बिन्दु प्राण अथवा आत्मिक शक्ति का केन्द्र होते है। योग में इन्हें चक्र कहा जाता है। चक्र हमारे शरीर में ऊर्जा के परिपथ का निर्माण करते हैं। यह परिपथ मेरूदण्ड में होता है। चक्र उच्च तलों से ऊर्जा को ग्रहण करते है तथा उसका वितरण मन और शरीर को करते है। 'चक्र' शब्द का अर्थ-  'चक्र' का शाब्दिक अर्थ पहिया या वृत्त माना जाता है। किन्तु इस संस्कृत शब्द का यौगिक दृष्टि से अर्थ चक्रवात या भँवर से है। चक्र अतीन्द्रिय शक्ति केन्द्रों की ऐसी विशेष तरंगे हैं, जो वृत्ताकार रूप में गतिमान रहती हैं। इन तरंगों को अनुभव किया जा सकता है। हर चक्र की अपनी अलग तरंग होती है। अलग अलग चक्र की तरंगगति के अनुसार अलग अलग रंग को घूर्णनशील प्रकाश के रूप में इन्हें देखा जाता है। योगियों ने गहन ध्यान की स्थिति में चक्रों को विभिन्न दलों व रंगों वाले कमल पुष्प के रूप में देखा। इसीलिए योगशास्त्र में इन चक्रों को 'शरीर का कमल पुष्प” कहा ग...

चित्त विक्षेप | योगान्तराय

चित्त विक्षेपों को ही योगान्तराय ' कहते है जो चित्त को विक्षिप्त करके उसकी एकाग्रता को नष्ट कर देते हैं उन्हें योगान्तराय अथवा योग के विध्न कहा जाता।  'योगस्य अन्तः मध्ये आयान्ति ते अन्तरायाः'।  ये योग के मध्य में आते हैं इसलिये इन्हें योगान्तराय कहा जाता है। विघ्नों से व्यथित होकर योग साधक साधना को बीच में ही छोड़कर चल देते हैं। विध्न आयें ही नहीं अथवा यदि आ जायें तो उनको सहने की शक्ति चित्त में आ जाये, ऐसी दया ईश्वर ही कर सकता है। यह तो सम्भव नहीं कि विध्न न आयें। “श्रेयांसि बहुविध्नानि' शुभकार्यों में विध्न आया ही करते हैं। उनसे टकराने का साहस योगसाधक में होना चाहिए। ईश्वर की अनुकम्पा से यह सम्भव होता है।  व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तिदर्शनालब्धभूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाः (योगसूत्र - 1/30) योगसूत्र के अनुसार चित्त विक्षेपों  या अन्तरायों की संख्या नौ हैं- व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरति, भ्रान्तिदर्शन, अलब्धभूमिकत्व और अनवस्थितत्व। उक्त नौ अन्तराय ही चित्त को विक्षिप्त करते हैं। अतः ये योगविरोधी हैं इन्हें योग के मल...

MCQs on “Yoga Upanishads” in Hindi for UGC NET Yoga Paper-2

1. "योगतत्त्व उपनिषद" का मुख्य विषय क्या है? A) हठयोग की साधना B) राजयोग का सिद्धांत C) कर्मयोग का महत्व D) भक्ति योग का वर्णन ANSWER= (A) हठयोग की साधना Check Answer   2. "अमृतनाद उपनिषद" में किस योग पद्धति का वर्णन किया गया है? A) कर्मयोग B) मंत्रयोग C) लययोग D) कुण्डलिनी योग ANSWER= (D) कुण्डलिनी योग Check Answer   3. "योगछूड़ामणि उपनिषद" में मुख्य रूप से किस विषय पर प्रकाश डाला गया है? A) प्राणायाम के भेद B) मोक्ष प्राप्ति का मार्ग C) ध्यान और समाधि D) योगासनों का महत्व ANSWER= (C) ध्यान और समाधि Check Answer   4. "ध्यानबिंदु उपनिषद" में किस ध्यान पद्धति का उल्लेख है? A) त्राटक ध्यान B) अनाहत ध्यान C) सगुण ध्यान D) निर्गुण ध्यान ANSWER= (D) निर्गुण ध्यान Check Answer ...

घेरण्ड संहिता के अनुसार ध्यान

घेरण्ड संहिता में वर्णित  “ध्यान“  घेरण्ड संहिता के छठे अध्याय में ध्यान को परिभाषित करते हुए महर्षि घेरण्ड कहते हैं कि किसी विषय या वस्तु पर एकाग्रता या चिन्तन की क्रिया 'ध्यान' कहलाती है। जिस प्रकार हम अपने मन के सूक्ष्म अनुभवों को अन्‍तःचक्षु के सामने मन:दृष्टि के सामने स्पष्ट कर सके, यही ध्यान की स्थिति है। ध्यान साधक की कल्पना शक्ति पर भी निर्भर है। ध्यान अभ्यास नहीं है यह एक स्थिति हैं जो बिना किसी अवरोध के अनवरत चलती रहती है। जिस प्रकार तेल को एक बर्तन से दूसरे बर्तन में डालने पर बिना रूकावट के मोटी धारा निकलती है, बिना छलके एक समान स्तर से भरनी शुरू होती है यही ध्यान की स्थिति है। इस स्थिति में किसी भी प्रकार की हलचल नहीं होती। महर्षि घेरण्ड ध्यान के प्रकारों का वर्णन छठे अध्याय के प्रथम सूत्र में करते हुए कहते हैं कि - स्थूलं ज्योतिस्थासूक्ष्मं ध्यानस्य त्रिविधं विदु: । स्थूलं मूर्तिमयं प्रोक्तं ज्योतिस्तेजोमयं तथा । सूक्ष्मं विन्दुमयं ब्रह्म कुण्डली परदेवता ।। (घेरण्ड संहिता  6/1) अर्थात्‌ ध्यान तीन प्रकार का है- स्थूल ध्यान, ज्योतिर्ध्यान और सूक्ष्म ध्यान। स्थू...

हठयोग प्रदीपिका में वर्णित प्राणायाम

हठयोग प्रदीपिका में प्राणायाम को कुम्भक कहा है, स्वामी स्वात्माराम जी ने प्राणायामों का वर्णन करते हुए कहा है - सूर्यभेदनमुज्जायी सीत्कारी शीतल्री तथा।  भस्त्रिका भ्रामरी मूर्च्छा प्लाविनीत्यष्टकुंम्भका:।। (हठयोगप्रदीपिका- 2/44) अर्थात् - सूर्यभेदन, उज्जायी, सीत्कारी, शीतली, भस्त्रिका, भ्रामरी, मूर्छा और प्लाविनी में आठ प्रकार के कुम्भक (प्राणायाम) है। इनका वर्णन ऩिम्न प्रकार है 1. सूर्यभेदी प्राणायाम - हठयोग प्रदीपिका में सूर्यभेदन या सूर्यभेदी प्राणायाम का वर्णन इस प्रकार किया गया है - आसने सुखदे योगी बदध्वा चैवासनं ततः।  दक्षनाड्या समाकृष्य बहिस्थं पवन शनै:।।  आकेशादानखाग्राच्च निरोधावधि क्रुंभयेत। ततः शनैः सव्य नाड्या रेचयेत् पवन शनै:।। (ह.प्र. 2/48/49) अर्थात- पवित्र और समतल स्थान में उपयुक्त आसन बिछाकर उसके ऊपर पद्मासन, स्वस्तिकासन आदि किसी आसन में सुखपूर्वक मेरुदण्ड, गर्दन और सिर को सीधा रखते हुए बैठेै। फिर दाहिने नासारन्ध्र अर्थात पिंगला नाडी से शनैः शनैः पूरक करें। आभ्यन्तर कुम्भक करें। कुम्भक के समय मूलबन्ध व जालन्धरबन्ध लगा कर रखें।  यथा शक्ति कुम्भक के प...

Teaching Aptitude MCQ in hindi with Answers

  शिक्षण एवं शोध अभियोग्यता Teaching Aptitude MCQ's with Answers Teaching Aptitude mcq for ugc net, Teaching Aptitude mcq for set exam, Teaching Aptitude mcq questions, Teaching Aptitude mcq in hindi, Teaching aptitude mcq for b.ed entrance Teaching Aptitude MCQ 1. निम्न में से कौन सा शिक्षण का मुख्य उद्देश्य है ? (1) पाठ्यक्रम के अनुसार सूचनायें प्रदान करना (2) छात्रों की चिन्तन शक्ति का विकास करना (3) छात्रों को टिप्पणियाँ लिखवाना (4) छात्रों को परीक्षा के लिए तैयार करना   2. निम्न में से कौन सी शिक्षण विधि अच्छी है ? (1) व्याख्यान एवं श्रुतिलेखन (2) संगोष्ठी एवं परियोजना (3) संगोष्ठी एवं श्रुतिलेखन (4) श्रुतिलेखन एवं दत्तकार्य   3. अध्यापक शिक्षण सामग्री का उपयोग करता है क्योंकि - (1) इससे शिक्षणकार्य रुचिकर बनता है (2) इससे शिक्षणकार्य छात्रों के बोध स्तर का बनता है (3) इससे छात्रों का ध्यान आकर्षित होता है (4) वह इसका उपयोग करना चाहता है   4. शिक्षण का प्रभावी होना किस ब...