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मंत्रयोग की अवधारणा, उद्देश्य, मंत्रयोग के प्रकार, मंत्रजप की विधि

मंत्रयोग की अवधारणा

वह शक्ति जो मन को बन्धन से मुक्त कर दे वही मंत्र योग है।“ मंत्र को सामान्य अर्थ ध्वनि कप्पन से लिया जाता है। मंत्रविज्ञान ध्वनि के विद्युत रुपान्तर की अनोखी साधना विधि है।
 “मंत्रजपान्मनालयो मंत्रयोग: “
अर्थात्‌ अभीष्ट मंत्र का जप करते-करते मन जब अपने आराध्य अपने ईष्टदेव के ध्यान में तन्मयता को प्राप्त कर लय भाव को प्राप्त कर लेता है, तब उसी अवस्था को मंत्रयोग के नाम से कहा जाता है।
शास्त्रों में वर्णन मिलता है-
 “मननात्‌ तारयेत्‌ यस्तु स मंत्र परकीर्तित: “ ।
अर्थात्‌ यदि हम जिस ईष्टदेव का मन से स्मरण कर श्रद्धापूर्वक, ध्यान कर मंत्रजप करते है और वह दर्शन देकर हमें इस भवसागर से तार दे तो वही मंत्रयोग है। ईष्टदेव के चिन्तन करने, ध्यान करने तथा उनके मंत्रजप करने से हमारा अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है। मन का मैल धुल कर मन इष्टदेव में रम जाता है अर्थात लय भाव को प्राप्त हो जाता है। तब उस मंत्र मे दिव्य शक्ति का संचार होता है। जिसे जपने मात्र से मनुष्य संसार रूपी भवसागर से पार हो जाता है।
मंत्र जप एक विज्ञान है, अनूठा रहस्य है जिसे आध्यात्म विज्ञानी ही उजागर कर सकते हैं। जहां भौतिक विज्ञानी कहते है कि ध्वनि, विद्युत रूपान्तरण के सिवाय कुछ नहीं हैं। आध्यात्म के विज्ञानी मानते है कि विद्युत और कुछ नहीं है सिवाय ध्वनि के रुपान्तरण के, इस प्रकार विद्युत और ध्वनि एक ही उर्जा के दो रूप है। मंत्र विज्ञान का सच यही है। यह मंत्र रूपी ध्वनि के विद्युत रूपान्तरण के अनोखी विधि है। इस अनोखी विधि को अपनाकर आत्मक्षात्कार किया जा सकता है। 

मंत्रों का उपयोग जप द्वारा किया जाता है इस प्रकिया को जपयोग कहा जाता है। जप मंत्र के शब्दों व जिस आराध्य का जप कर रहे हो उसके चरित्र के स्मरण की एकाग्रता है। श्रृद्धापूर्वक भक्ति पूर्वक किया गया जप अवश्य सिद्धिदायक होता है। जप करते समय जो कुछ भी सोचा जाता है। साधक का जो संकल्प होता है, उसे यदि वह जप के समय सोचता रहे और श्रृद्धा भक्तिपूर्वक अच्छी भावना के साथ जप करें तो मंत्र द्वारा प्राप्त उर्जा मंत्र द्वारा प्राप्त दिव्य शक्ति से साधक का संकल्प सिद्ध होता है। इसके लिए हमें दिव्य भावना श्रद्धा भक्ति व सभी के मंगल की कामना करें तो मंत्र जप अवश्य ही जीवन को उत्कृष्ट बना देता हैं उत्कृष्ट जीवन आत्मक्षात्कार का पथ प्रशस्त कर मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है।

मंत्रयोग के उद्देश्य-  

मन को तामसिक वृत्तियों से मुक्त करना तथा मंत्रजप द्वारा व्यक्तित्व का रूपान्तरण ही जपयोग का उददेश्य है। प्रत्येक मनुष्य स्वार्थपूर्ण इच्छाओं और आकाक्षांओं की पूर्ति में ही जीवन भर लगा रहता है। मनुष्य का मन सदैव एक से दूसरी वस्तु की इच्छा पूर्ति में ही रमा रहता है। सांसारिक भोग विलास की वस्तुओं की प्रवृति इच्छाओं तथा अहंकार की प्रवृति मनुष्य का स्वभाव है। उसको इन्ही प्राकृतिक गुणों से मुक्त कराकर यथार्थ का ज्ञान कराना ही जपयोग का उद्देश्य है। मंत्रजप के द्वारा मानव के व्यक्तित्व का रूपान्तरण, मानसिक, शारीरिक व आध्यात्मिक परिवर्तन ही मंत्र योग का उद्देश्य हैं।

मंत्रयोग के प्रकार-

साधारणतः शास्त्रों में चौदह प्रकार के मंत्रजप का वर्णन मिलता है। जो इस प्रकार है-

1. नित्यजप- जो जप नियमित रूप से नित्यप्रति किया जाता हो उसे नित्यजप कहते हैं।
2. नैमित्तिक जप- नैमित्तिक जप उसे कहा जाता जो किसी के निमित्त किया जाता हो।
3. काम्य जप- जब जप का अनुष्ठान किसी कामना की सिद्धि के लिए किया जाता है उसे काम्य जप कहा जाता है।
4. निषिद्ध जप- किसी को हानि पहुँचाने की दृष्टि से किया गया जप तथा किसी के अपकार के लिए किया जाने वाला जप तथा अशुद्ध उच्चारण पूर्वक किया गया जप निषिद्ध जप है। जप एक लय में नहीं अधिक तीव्रता, अधिक मन्दता से किया गया जप भी निषिद्ध है। और ऐसे जप निष्फल होते है।
5. प्रायश्चित जप- जाने अनजाने में किसी से कोई दोष या अपस्ध हो जाने पर प्रायश्चित कर्म किया जाता है। उन दोषों से चित में जो संस्कार पड गये होते है, उनसे मुक्त होने उन पाप कर्मो से मुक्त होने हेतु जो मंत्र जप आदि किये जाते है, प्रायश्चित जप कहलाते है।
6. चल जप- इस प्रकार के मंत्र जप में स्थिरता नहीं होती उठतें, बैठते, खाते, सोते सभी समय यह जप कियां जा सकता है। इस प्रकार के जप में जीभ व होंठ हिलते है। और यदि हाथ में माला है वह भी हिलती हैं। इस प्रकार चल अवस्था में होते रहने से ही यह चल जप है।
7. अचल जप- इस प्रकार का मंत्रजप आसनबद्ध होकर स्थिरतापूर्वक किया जाता है, अचल जप में अंग प्रत्यंग नही हिलते और भीतर मंत्रजप चलता है, इस प्रकार का जप अचल जप है।
8. मानस जप- केवल मानसिक रूप से बिना कोई अंग-प्रत्यंग के हिले - डुले सूक्ष्मतापूर्वक जो जप किया जाता है। उसे मानसिक जप कहते है।
9. वाचिक जप- मंत्रोचार -पूर्वक जोर - जोर से बोलकर जो जप किये जाते है, वाचिक जप कहलाता है। वाचिक जप से साधक की वाणी में मंत्रोच्चारण से अमोघ शक्ति आ जाती है।
10. अखण्ड जप- ऐसा जप जिसमें देश काल का पवित्र अपवित्र का भी विचार नहीं होता और मंत्र जप बिना खण्डित हुए लगातार चलते रहे, इस प्रकार का जप अखण्ड जप कहा जाता है।
11. अजपा जप- बिना प्रयास कियें श्वास-प्रश्वास के साथ चलते रहने वाले जप को अजपा जप कहा जाता है। जैसे श्वास-प्रश्वास में विराम नही होता है। उसी तरह यह जप भी बिना विराम चलता रहता । जब तक श्वास देह में है।
12. उपांशु जप- इस जप में मंत्रोच्चारण अस्पष्ट होता है। दोनों होंठ हिलतें है. पर शब्द सुनाई नहीं देते है, होंठों से अस्पष्ट ध्वनि पूर्वक जप करना ही उपांशु जप है।
13. प्रदक्षिणा जप- किसी भी देवस्थान, मन्दिर या देवता की प्रदक्षिणा करते समय मंत्र जप किया जाता है। इस प्रकार का जप प्रदक्षिणा जप कहा जाता है।
14. भ्रमर जप- इस प्रकार का मंत्र जप भौरे के गुंजन के समान गुंजन करते हुए किया जाता है। अर्थात्‌ अपने ईष्ट मंत्र का जाप गुनगुनातें हुए करना भ्रमर जप है। 

इन चौदह प्रकार के मंत्र जप में तीन प्रकार के जप श्रेष्ठ माने जाते है। वाचिक जप, उपांशु जप तथा मानसिक जप। 

मंत्रयोग की उपयोगिता तथा महत्व - 

मंत्रयोग अभ्यास से समस्त मानसिक क्रियाए सन्तुलित हो जाती है। जप के समय साधक श्रेष्ठ विचारों का चिन्तन करता है। जिसकों निरन्तर दुहराने से व्यक्ति नकारात्मक विचारों से मुक्त हों  सकारात्मक विचारों वाला हो जाता है।
मंत्रजप के स्पन्दन, जो प्रत्येक शब्द के जपने से उत्पन्न होते है। तथा एक ध्वनि का रूप लेते है। जैसे-जैसे मंत्र की ध्वनि से उत्पन्न स्पन्दन बढ जाते है। हमारे मन के साथ-साथ हमारी चेतना भी इससे प्रभावित होती है। हमारी चेतना के प्रभावित होने से हमारी भावनाओं व चिन्तन प्रकियाओं पर धनात्मक प्रभाव पडता है। जिससे हमारा तंत्रिका तंत्र ठीक ढंग से कार्य करता है। तथा साथ ही साथ हमारा अन्तःस्रावी तंत्र भी तथा उससे निकलने वाले हार्मोन्स का सन्तुलन बना रहता है। जिस कारण व्यक्ति को शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है। स्वस्थ्य शरीर द्वारा ही मानव जीवन के चारों पुरुषार्थ की प्राप्ति की जा सकती है। अपने अभीष्ठ की प्राप्ति की जा सकती है।

शास्त्रों में कहा गया हैं कि मंत्रजप से ईष्ट सिद्धि प्राप्त होती है-

'जपात्‌ सिद्धिर्जपात्‌ सिद्धिर्जपात सिद्धिर्न संशय:'।

अर्थात्‌ मंत्रजप से ही सिद्धि मिलती है। इसमें किंचित मात्र भी संदेह नहीं किया जा सकता है। जितना-जितना जप होता जाता है। उसी अनुसार उतने ही दोष मिटते जातें है। और उसी अनुसार हमारा अन्तःकरण शुद्ध होता जाता है। अन्तःकरण ज्यों-ज्यों शुद्ध होता जाता है। जप साधना भी त्यॉ-त्यों भी बढ़ने लगती है। और उस साधना के परिणाम स्वरूप मनुष्य देवत्व को प्राप्त कर लेता है। एक दिन वह नर से नारायण बन अनेकों सिद्धियों का अधिकारी बनता है। मंत्र में बहुत शक्ति होती है। जाग्रत मंत्र के जप से शीघ्र ही अभीष्ट की सिद्धि मिलती है। प्राचीन काल में अनेकों ऋषि ज्ञानी योगी व भक्त मंत्रजप के द्वारा ही अपने ईष्ट के दर्शन, असीम दैवीय शक्ति, वर प्राप्ति, कामना सिद्धि किया करते थें।
मंत्रयोग की साधना में डाकू रत्नाकर उल्लेखनीय है। जिन्‍होने मंत्रयोग की साधना के द्वारा ब्रह्मर्षि पद प्राप्त किया, महर्षि बाल्मिकी कहलाये और सम्पूर्ण जगत के लिए रामायण जैसे महान ग्रन्थ की रचना की। इसे मंत्रजप का चत्मकार ही कहा जा सकता है। अर्वाचीन काल में भी कितने ही साधको ने मंत्रजप द्वारा अपने ईष्ट की प्राप्ति की (दर्शन किये)। तुलसीदास, सूरदास, मीरा, रामकृष्ण परमहंस आदि साधक मंत्रजप द्वारा महान कोटि साधक हुए।
अतः जिन साधकों को अन्य साधन कठिन प्रतीत होते हों उन्हें चाहिए कि ये मंत्रयोग का आश्रय लें। इस मंत्रयोग के द्वारा शीघ्र ही अभीष्ठ सिद्धि हो जायेगी।
महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र में  मंत्रजप की विधि इस प्रकार बतलायी है-
“तज्जपस्तदर्थ भावनम्‌ ।' योगसूत्र 1,/18
अर्थात्‌ मंत्र का जप अर्थ सहित चिन्तन पूर्वक करना चाहिए । जिस देवता का जप कर रहें हों, उसका ध्यान और चिन्तन करते रहने से ईष्टदेव के दर्शन होते है। तथा उनके साथ वार्तालाप या वरदान प्राप्त करना भी सम्भव हो जाता है।

योग के साधकतत्व

योग के बाधकतत्व

अष्टांग योग

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