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हठयोग प्रदीपिका के अनुसार षट्कर्म

हठप्रदीपिका के अनुसार षट्कर्म

हठयोगप्रदीपिका हठयोग के महत्वपूर्ण ग्रन्थों में से एक हैं। इस ग्रन्थ के रचयिता योगी स्वात्माराम जी हैं। हठयोग प्रदीपिका के द्वितीय अध्याय में षटकर्मों का वर्णन किया गया है। षटकर्मों का वर्णन करते हुए स्वामी स्वात्माराम  जी कहते हैं -

धौतिर्बस्तिस्तथा नेतिस्त्राटकं नौलिकं तथा। 

कपालभातिश्चैतानि षट्कर्माणि प्रचक्षते।। (हठयोग प्रदीपिका-2/22)

अर्थात- धौति, बस्ति, नेति, त्राटक, नौलि और कपालभोंति ये छ: कर्म हैं। बुद्धिमान योगियों ने इन छः कर्मों को योगमार्ग में करने का निर्देश किया है। इन छह कर्मों के अतिरिक्त गजकरणी का भी हठयोगप्रदीपिका में वर्णन किया गया है। वैसे गजकरणी धौतिकर्म के अन्तर्गत ही आ जाती है। इनका वर्णन निम्नलिखित है

1. धौति- धौँति क्रिया की विधि और इसके लाभ एवं सावधानी-

धौँतिकर्म के अन्तर्गत हठयोग प्रदीपिका में केवल वस्त्र धौति का ही वर्णन किया गया है। धौति क्रिया का वर्णन करते हुए योगी स्वात्माराम जी कहते हैं-

चतुरंगुल विस्तारं हस्तपंचदशायतम। .

गुरूपदिष्टमार्गेण सिक्तं वस्त्रं शनैर्गसेत्।। 

पुनः प्रत्याहरेच्चैतदुदितं धौतिकर्म तत्।। (हठयोग प्रदीपिका- 2/24)

अर्थात पन्द्रह हाथ लम्बा व चार अंगुल चौड़ा मुलायम कपडा लेकर तथा उसको गर्म जल में भिगोकर गुरू के निर्देशन में प्रत्येक दिन एक एक हाथ खाने का अभ्यास करें इस वस्त्र को खाते समय एक हाथ वस्त्र को बाहर ही रखें तथा धौति को दांतों में दबाकर नौलि कर्म करें तत्पश्चात धौति को धीरे धीरे बाहर निकालें। धौति बाहर निकालते समय यदि अटकती हुई अनुभव हो तो घबराना नहीं चाहिए। थोड़ा उष्ण जल पीकर पुनः निकालना चाहिए। धौति आसानी से बाहर आ जायेगी। फिर धौति को अच्छी प्रकार धोकर सुखाने के पश्चात उसको लपेटकर रखना चाहिए। यही धौतिकर्म है। 

लाभ- धौतिकर्म के लाभों का वर्णन करते हुए हठयोगप्रदीपिका में कहा गया है-

कासश्वासप्लीहकुष्ठ कफरोगाश्व विंशति:।

धौतिकर्म प्रभावेन प्रयान्त्येव न संशयः।। (हठयोग प्रदीपिका-2/25)

धौति आमाशय को धोकर उसकी पूर्णरूपेण शुद्धि कर देती है। इसी कारण इसे धौति कहा जाता है। हठयोगप्रदीपिका के रचयिता स्वात्माराम योगी जी इसका फल बताते हुए कहते हैं कि इसके अभ्यास से कास (खांसी), श्वास (दमा) आदि रोग दूर होते हैं। प्लीहा के विकार दूर होते हैं। स्वामी चरणदास अपने ग्रन्थ भक्तिसागर में इसके महत्व की ओर संकेत करते हुए कहते हैं कि इसके नियमित अभ्यास करने से कुष्ठ रोग भी ठीक हो जाता है तथा विकृत कफ से उत्पन्न बीस प्रकार के रोग इसके अभ्यास से समाप्त हो जाते हैं

कोढ अठारह न भवें करैं जु नित परभात।

काया होवै शुद्ध ही भजें पित्त कफ रोग।। (भक्तिसागर) 

सावधानी- धौतिक्रिया करते समय बहुत सी सावधानी बरतनी चाहिए। सर्वप्रथम धौति करते समय गुरू का होना अति आवश्यक है। धौति खाते समय अत्यधिक धैर्य की आवश्यकता होती है, मन को दृढ़ करना पड़ता है। धौति निकलने में दिक्कत होने पर गुनगुना नमकीन जल पीएं। धौति को निकालते हुए धीरे-धीरे निकाले, तेजी से निकालने पर खून आदि निकल सकता है। जो लोग धौति को पहली बार कर रहे हैं वह धौति पर घी या शहद लगा सकते हैं। धौति करने से पूर्व रात्रि हल्का भोजन करें या भोजन न करें |

2. बस्ति-  बस्ति क्रिया की विधि और बस्ति क्रिया के लाभ एवं सावधानी-

बस्ति कर्म भी बहुत महत्वपूर्ण कर्म है। आयुर्वेद में भी इसका पंचकर्म के अन्तर्गत वर्णन किया गया है। आधुनिक चिकित्सा में भी इसी को आधार बनाकर एनिमा क्रिया रोगियों को कराई जाती है। हठयोगप्रदीपिका में बस्तिकर्म का वर्णन करते हुए योगी स्वात्माराम जी ने कहा है-

नाभिदघ्न जले पायौ न्यस्तनाल्रोत्कटासनः।

आधाराकुंचनं कुर्यात्क्षालनं वस्तिकर्म तत।। (हठयोग प्रदीपिका-2/26)

अर्थात नदी आदि के जल में उत्कटासन में ऐसे स्थान पर बैठकर जहाँ नाभि तक जल आये, गुदा में कनिष्ठिका अंगुली के बराबर छिद्र वाली बांस की नाल को प्रवेश कराकर मूलाधार का आकुंचन करे, जिससे जल गुदा में प्रवेश कर जाये। फिर नौलिकर्म द्वारा इस पानी को उदर में चलाकर गुदामार्ग से त्याग देना चाहिए। इस प्रकार मलाशय के धोने के कर्म को बस्तिकर्म कहते हैं। यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि नदी आदि का जल गंदा न हो और न बहुत ठण्डा हो, न अधिक गर्म ही हो। आजकल नदियों का पानी अधिकतर प्रदूषित रहता है। इसलिए किसी बड़े टब में जिसमें बैठने पर नाभि तक जल आ जाये उसमें यह क्रिया करनी चाहिए। पानी के साथ गुदा में कोई जीव जन्तु न चला जाये, इसके लिए बॉस की नली के बाहर वाले मुख पर महीन कपड़ा बाँधकर रखना चाहिए। बाँस की नली चिकनी तथा छह अंगुल लम्बी होनी चाहिए। उसमें से चार अंगुल गुदा में प्रवेश करायें तथा दो अंगुल बाहर रखनी चाहिए। इस प्रकार स्वाभाविक रूप से गुदा में जल प्रवेश कराकर बस्तिकर्म करना चाहिए।

लाभ- यह बस्तिकर्म स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण हैं। बस्ति के लाभों का वर्णन करते हुए हठयोगप्रदीपिका में कहा गया है-

गुल्मप्लीहोदरं॑ चापि वातपित्तकफोद्भवा:। 

बस्ति कर्म प्रभावेन क्षीयन्ते सकलामया:।। (हठयोग प्रदीपिका- 2/28)

अर्थात् बस्तिकर्म के प्रभाव से वायु गोला, तिल्ली सम्बन्धी दोष, जलोदर आदि रोग दूर हो जाते हैं और विकृत वात, पित्त व कफ के द्वारा उत्पन्न हुए रोग नष्ट हो जाते हैं।

स्वात्माराम जी कहते है

धात्विंद्रियांतःकरणप्रसादं दण्याच्चकांति दहनप्रदीप्तिम्। 

अशेषदोषोपचयं निहन्यादभ्यस्यमानं जलबस्तिकर्म।। (हठयोग प्रदीपिका-2/29)

अर्थात् बस्तिकर्म करने वाले पुरुष की सभी धातुएँ (रस, रक्त, माँस, भेद. अस्थि, मज्जा, शुक्र) और वाक्, पाणि, पाद, पायु और उपस्थ ये पंच कर्मेंन्द्रिय. श्रोत्र, त्वक्, जिह्वा, प्राण और चक्षु ये पाँच जानेन्द्रियाँ, मन, बुद्धि चित्त और अहंकार रूपी अन्तःकरण ये सभी मलों से रहित हो जाते हैं तथा प्रसन्नता को प्राप्त होते हैं। अर्थात् बस्तिकर्म इनके परिताप, विक्षेप, शोक, मोह आदि रजोगुण व तमोगुण धर्मों को दूर करके सुख का प्रकाश, करके सात्विक धर्मों को प्रकट करता है और शरीर को कांतियुक्त और जठराग्नि को प्रदीप्त कर देता है। यह बस्तिकर्म वात, पित्त एवं कफ से सम्बन्धित दोषों को दूर करता है और उन्हें समान अवस्था में लाकर आरोग्य प्रदान करने वाला हैं। 

सावधानी-  जल बस्ति करते समय यह ध्यान रखें की जल प्रदूषित न हों, गुदा में जो नली डालनी हो वह शुद्ध हो। यदि गुदा में किसी प्रकार का इनफैक्शन आदि हो तो इसका अ भ्यास न करें।

3. नेति- नेति क्रिया की विधि और नेति क्रिया के लाभ एवं सावधानी-

 दूध बिलोने की रई पर लिपटी रस्सी को नेति कहते हैं। उसी प्रकार नासारंध्रों से सूत्र डालकर बिलोचन करने की क्रिया को नेतिकर्म नाम से कहा गया है। हठयोगप्रदीपिका में केवल सूत्रनेति का ही वर्णन किया गया है। जल, दुग्ध, घृत, तेल आदि से भी नेतिक्रिया की जाती है। नेति के विषय मे स्वात्माराम योगी भी कहते हैं।

सूत्रं वितस्तिसुस्निग्धं नासानाले प्रवेशयेत।

मुखान्निर्गमयेच्चैषा नेतिः सिद्धैर्निगध्यते।। (हठयोग प्रदीपिका- 2/30)

अर्थात् एक बालिश्त चिकने सूत्र को नासिका छिद्र में प्रवेश करा करके मुख से निकाल दें। इस कर्म को सिद्धों ने नेतिकर्म कहा है। यहाँ बालिश्त का अर्थ उतने सूत्र से लेना चाहिए जितने सूत्र से सुविधापूर्वक नेति क्रिया हो सके। यह सूत्र दस या पन्न्द्रह तार का होना चाहिए। उस सूत्र के आधे भाग को रस्सी की भांति बाँटकर उस पर मोम लगा लें तथा आधे सूत्र को खुला रखना चाहिए। कागासन में बैठकर उस सूत्र के बिना मोम वाले भाग को उष्ण पानी में भिगोकर तथा मोम वाले भाग पर हल्का सा नमकीन पानी लगाकर जो स्वर चल रहा हो, उस नासाछिद्र में प्रवेश कराते जायें। जब नेति गले में आ जाये तो दो अंगुली मुख में डालकर नेति को पकड़ कर धीरे धीरे मुख से बाहर निकाले। इसी प्रकार दूसरे नासारंध्र से डालकर धीरे धीरे मुख से निकाल लें। जब इस प्रकार निकालने का भली प्रकार अभ्यास हो जाए तो फिर दोनों हाथों से नेति को पकड़ कर नासारंध्रों में धीरे धीरे घर्षण करें। इस नेतिकर्म को क्रमशः दोनों नासारंध्रों से किया जाता है। यह नेतिकर्म सिद्धयोगियों द्वारा बताया गया है।

लाभ- नेतिक्रिया के लाभों का वर्णन करते हुए हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है

कपालशोधिनी चैव दिव्य दृष्टि प्रदायिनी। 

जत्रूर्ध्वजातरोगौघं नेतिराशु निहन्ति च।। (हठयोग प्रदीपिका- 2/31) 

नेति के लाभों का वर्णन करते हुए कहा गया है कि नेति करने से कपाल का शोधन होता है इससे आंखों की रोशनी तेज होती हैं तथा नासिका आदि के मल को दूर करती है। यह साधक को दिव्यदृष्टि प्रदान करती है तथा कन्धों की सन्धि से ऊपर के अंगों से सम्बन्धित रोग समूह को शीघ्र ही नष्ट करती है अर्थात् इस क्रिया के द्वारा आँख, नाक, कान, गला आदि के रोगों का नाश होता है। भक्ति सागर में कहा गया है-

नाक, कान अरु दाँत को रोग न व्यायें कोई। 

निर्मल होवे नैन ही नित नेति करे सोई।। (भक्ति सागर) 

सावधानी- सूत्र नेति को नासिका में धीरे-धीरे डालें, जल्दी न करें अन्यथा नाक कें अंदर से खून निकल सकता हैं। घाव होने पर नेति न करें। सूत्र को अच्छी तरह घी आदि से चिकना कर लें। सूत्र नेति करने से पूर्व हाथ के नाखून आदि काट ले अन्यथा सूत्र को मुंह से बाहर निकालते हुए घाव हो सकता है। सूत्र को गरम पानी से धोए।

4. त्राटक- त्राटक क्रिया की विधि और त्राटक क्रिया के लाभ एवं सावधानी-

 त्राटककर्म योगसाधना का एक मुख्य कर्म माना जाता है। त्राटक क्रिया का वर्णन करते हुए हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है-

निरीक्षेन्निश्चदृशा सूक्ष्मलद्धशा समाहितः। 

अश्रुसंपात पर्यंतमाचार्यैस्त्राटकं स्मृतम्।। (हठयोग प्रदीपिका- 2/32)

अर्थात चित्त को एकाग्र कर निश्चलदृष्टि से सूक्ष्म लक्ष्य अर्थात पदार्थ को तब तक देखे, जब तक आँखों से अश्रुपात न हो जाए। इसी क्रिया के करने को हठयोग के आचार्यों ने त्राटक कहा है। त्राटक के लिए किसी स्थिर आसन में बैठकर तीन चार फुट की दूरी पर आँखों के समानानतर कोई सूक्ष्मलक्ष्य जैसे दीपक की लो या दीवार पर काला या हरा गोल चवन्नी का आकार बनाकर उसे निश्चल दृष्टि से देखना चाहिए। जब आँखें थकने लगें या आँसू आने वाले हो तो कुछ समय के लिए आँखें बन्द रखकर बैठना चाहिए। पुनः इसी क्रिया को दोहराना चाहिए। त्राटक का अभ्यास धीरे धीरे बढ़ाएं। जिनकी आंखें ज्यादा कमजोर हों, उन्हें प्रथम सूत्र नेति, जल नेति का अभ्यास करके अपनी आँखों की स्थिति ठीक करने के पश्चात ही त्राटक क्रिया करनी चाहिए। षटकर्मो में त्राटक एक ऐसी क्रिया है, जिसका शरीर व मन दोनों पर शीघ्र प्रभाव पड़ता है। 

लाभ- त्राटक के लाभों का वर्णन करते हुए हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है-

मोचनं नेतरोगाणां तन्द्रादीनां कपाटकम्। 

यत्रतस्त्राटकं गोप्यं यथा हाटकपेटकम्।। (हठयोग प्रदीपिका- 2/33)

अर्थात इस त्राटक कर्म के अभ्यास से नेत्ररोगों का नाश हो जाता है तथा तन्द्रा आदि के लिए यह कपाट का कार्य करता है। अर्थात् उन्हें शरीर व चित्त में प्रवेश नहीं करने देता। तन्द्रा चित्त की तमोगुण वृत्ति को कहते हैं। इस कर्म के अभ्यास से ये सब समाप्त हो जाते हैं। इस कर्म को योगियों ने इतना महत्वपूर्ण माना है कि जिस प्रकार स्वर्ण की पेटी को छुपाकर रखा जाता है उसी प्रकार यह त्राटककर्म भी गुप्त रखने योग्य है। इसका तात्पर्य यही है कि योग्य अधिकारी को ही इस कर्म को सिखाना चाहिए। क्योंकि यह सम्मोहन शक्ति का विकास करती है और अनधिकारी पुरुष इससे प्राप्त सम्मोहनशक्ति का दुरुपयोग कर सकते हैं।

सावधानी-  त्राटक का अभ्यास धीरे-धीरे बढाना चाहिए, वस्तु की उचित दूरी बनाए रखना आवश्यक है तथा आँखें थक जाने पर आँखों को आराम देना भी अति आवश्यक है।

5. नौलि-  नौलि क्रिया की विधि और नौलि क्रिया के लाभ एवं सावधानी-

 नौलिक्रिया भी षटकर्मों में महत्वपूर्ण कर्म है। इसका वर्णन करते हुए हठयोगप्रदीपिका में कहा गया है- अमंदावर्तवेगेन तुंदे सव्यापसव्यतः। 

नतांसोभ्रामयेदेषा नौलिः सिद्धः प्रचक्षते।। (हठयोग प्रदीपिका-2/34)  

अर्थात जो पुरुष कन्धों को नीचा करके जल- भ्रमर के वेग के समान अपने उदर को दायीं व बायीं ओर से तेजी से घुमाता है। उसके इस कर्म को सिद्धों ने नौलिकर्म कहा है। इसके लिए सर्वप्रथम घुटनों पर हाथ रखकर थोड़ा सामने झुककर, पूरा श्वास बाहर निकालकर उडिडयान बंध लगायें। तत्पश्चात मानसिक शक्ति से पेट के निम्न भाग को ढीला छोड़कर नलों को सामने की ओर इकटठा करें। यह मध्यनौलि कहलाती है। जब इसका अभ्यास हो जाए तब दाहिने हाथ पर दबाब देकर इस क्रिया को करें तो नले दाहिनी ओर हो जायेंगे। जिसे दक्षिणनौलि कहा जाता है। इसी प्रकार बार्यी ओर दबाव देने से वामनौलि हो जायेगी। जब तीनों प्रकार का अभ्यास हो जाये तो फिर इच्छा शक्ति से नौलि को दायें से बायें व बायें से दायें गोलाकार घुमाना चाहिए। इसे नौलिसंचालन क्रिया कहा जाता है। इन सब क्रियाओं को कर ही पूर्ण नोौलि क्रिया कही जाती है।

लाभ- नौलिक्रिया हमारे शरीर के लिए बहुत ही लाभकारी क्रिया है। इसके लाभों का वर्णन करते हुए कहा गया है कि  इससे उदर प्रदेश की सभी व्याधियां जैसे मन्द-जठराग्नि, पाचन सम्बन्धी दोष आदि नष्ट हो जाते हैं। यह उदर के सभी अंगों की मालिश करता है तथा उदर की मांस पेशियों को पुष्ट करता है।

मंदाग्निसंदीपनपाचनादिसंधायिकानंदकारी सदैव। 

अशेषदोषामय शोषणी च हठक्रिया मौलिरियं च नौलि।। (हठयोग प्रदीपिका-2/35)

अर्थात नौलि के अभ्यास से मंदाग्नि दूर होकर पाचन अग्नि प्रदीप्त हो जाती है। जिससे अन्न का पाचन भली प्रकार होने लगता है। नौलि के अभ्यासी को सदैव आनन्द की अनुभूति होती रहती है। वात आदि समस्त दोषों और उनसे उत्पन्न होने वाले रोगों का नाश करती है। यह नौलि क्रिया धोति आदि जो षटकर्म की अन्य क्रियायें हैं, उन सबमें श्रेष्ठ क्रिया है। 

सावधानी- यह अभ्यास थोड़ा कठिन है इसलिए इसका अभ्यास संभल कर करना चाहिए। हार्निया या अल्सर आदि रोगों में इसका अभ्यास नहीं करना चाहिए। जिन व्यक्तियों का पेट अत्यधिक कमजोर हो उन्हें धीरे-धीरे ही इसका अभ्यास करना चाहिए। नौलि को घुमाने के लिये पहले धीरे-धीरे घुमाएं वेग से नहीं।

6. कपालभाति- कपालभाति क्रिया की विधि और कपालभाति क्रिया के लाभ एवं सावधानी-

कपालभाति भी षटकर्मों में महत्वपूर्ण कर्म है। इसकी विधि एवं लाभों का वर्णन करते हुए हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है

भस्त्रावल्लोहकारस्य रेचपूरों ससंभ्रमौं। 

कपालभातिर्विख्याता कफदोषविशोषणी।। (हठयोग प्रदीपिका- 2/36)

अर्थात लौहार की धौकनी के समान तेजी से रेचक और पूरक करने की क्रिया को कपालभाति कहा जाता है। इसमें श्वास को तेजी के साथ बाहर निकालते हैं। श्वास बाहर निकालते समय पेट अन्दर दबाता हैं। श्वास लेने (अन्दर जाने) की क्रिया स्वयमेव होती रहती है। 

लाभ- यह कपालभाति कफ का शोषण करती है। अर्थात कफविकारों को शान्त करती है। कफ बढने पर कफ को तुरन्त नासिकामार्ग से बहार फेंकता है। कपाल प्रदेश का शोधन कर उसे कान्तिमान बनाता है तथा चेहरे पर चमक लाता है।

सावधानी- कपालभाति करते समय केवल नाक का ही प्रयोग करें, मुंह- होठों को बन्द रखें। उच्च रक्तचाप, हृदय आघात वाले व्यक्ति इसका अभ्यास न करें।

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आसन का अर्थ आसन शब्द के अनेक अर्थ है जैसे  बैठने का ढंग, शरीर के अंगों की एक विशेष स्थिति, ठहर जाना, शत्रु के विरुद्ध किसी स्थान पर डटे रहना, हाथी के शरीर का अगला भाग, घोड़े का कन्धा, आसन अर्थात जिसके ऊपर बैठा जाता है। संस्कृत व्याकरंण के अनुसार आसन शब्द अस धातु से बना है जिसके दो अर्थ होते है। 1. बैठने का स्थान : जैसे दरी, मृग छाल, कालीन, चादर  2. शारीरिक स्थिति : अर्थात शरीर के अंगों की स्थिति  आसन की परिभाषा हम जिस स्थिति में रहते है वह आसन उसी नाम से जाना जाता है। जैसे मुर्गे की स्थिति को कुक्कुटासन, मयूर की स्थिति को मयूरासन। आसनों को विभिन्न ग्रन्थों में अलग अलग तरीके से परिभाषित किया है। महर्षि पतंजलि के अनुसार आसन की परिभाषा-   महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र के साधन पाद में आसन को परिभाषित करते हुए कहा है। 'स्थिरसुखमासनम्' योगसूत्र 2/46  अर्थात स्थिरता पूर्वक रहकर जिसमें सुख की अनुभूति हो वह आसन है। उक्त परिभाषा का अगर विवेचन करे तो हम कह सकते है शरीर को बिना हिलाए, डुलाए अथवा चित्त में किसी प्रकार का उद्वेग हुए बिना चिरकाल तक निश्चल होकर एक ही स्थिति में सु...

हठयोग प्रदीपिका में वर्णित प्राणायाम

हठयोग प्रदीपिका में प्राणायाम को कुम्भक कहा है, स्वामी स्वात्माराम जी ने प्राणायामों का वर्णन करते हुए कहा है - सूर्यभेदनमुज्जायी सीत्कारी शीतल्री तथा।  भस्त्रिका भ्रामरी मूर्च्छा प्लाविनीत्यष्टकुंम्भका:।। (हठयोगप्रदीपिका- 2/44) अर्थात् - सूर्यभेदन, उज्जायी, सीत्कारी, शीतली, भस्त्रिका, भ्रामरी, मूर्छा और प्लाविनी में आठ प्रकार के कुम्भक (प्राणायाम) है। इनका वर्णन ऩिम्न प्रकार है 1. सूर्यभेदी प्राणायाम - हठयोग प्रदीपिका में सूर्यभेदन या सूर्यभेदी प्राणायाम का वर्णन इस प्रकार किया गया है - आसने सुखदे योगी बदध्वा चैवासनं ततः।  दक्षनाड्या समाकृष्य बहिस्थं पवन शनै:।।  आकेशादानखाग्राच्च निरोधावधि क्रुंभयेत। ततः शनैः सव्य नाड्या रेचयेत् पवन शनै:।। (ह.प्र. 2/48/49) अर्थात- पवित्र और समतल स्थान में उपयुक्त आसन बिछाकर उसके ऊपर पद्मासन, स्वस्तिकासन आदि किसी आसन में सुखपूर्वक मेरुदण्ड, गर्दन और सिर को सीधा रखते हुए बैठेै। फिर दाहिने नासारन्ध्र अर्थात पिंगला नाडी से शनैः शनैः पूरक करें। आभ्यन्तर कुम्भक करें। कुम्भक के समय मूलबन्ध व जालन्धरबन्ध लगा कर रखें।  यथा शक्ति कुम्भक के प...

Teaching Aptitude MCQ in hindi with Answers

  शिक्षण एवं शोध अभियोग्यता Teaching Aptitude MCQ's with Answers Teaching Aptitude mcq for ugc net, Teaching Aptitude mcq for set exam, Teaching Aptitude mcq questions, Teaching Aptitude mcq in hindi, Teaching aptitude mcq for b.ed entrance Teaching Aptitude MCQ 1. निम्न में से कौन सा शिक्षण का मुख्य उद्देश्य है ? (1) पाठ्यक्रम के अनुसार सूचनायें प्रदान करना (2) छात्रों की चिन्तन शक्ति का विकास करना (3) छात्रों को टिप्पणियाँ लिखवाना (4) छात्रों को परीक्षा के लिए तैयार करना   2. निम्न में से कौन सी शिक्षण विधि अच्छी है ? (1) व्याख्यान एवं श्रुतिलेखन (2) संगोष्ठी एवं परियोजना (3) संगोष्ठी एवं श्रुतिलेखन (4) श्रुतिलेखन एवं दत्तकार्य   3. अध्यापक शिक्षण सामग्री का उपयोग करता है क्योंकि - (1) इससे शिक्षणकार्य रुचिकर बनता है (2) इससे शिक्षणकार्य छात्रों के बोध स्तर का बनता है (3) इससे छात्रों का ध्यान आकर्षित होता है (4) वह इसका उपयोग करना चाहता है   4. शिक्षण का प्रभावी होना किस ब...

MCQs for UGC NET YOGA (Yoga Upanishads)

1. "योगचूड़ामणि उपनिषद" में कौन-सा मार्ग मोक्ष का साधक बताया गया है? A) भक्तिमार्ग B) ध्यानमार्ग C) कर्ममार्ग D) ज्ञानमार्ग ANSWER= (B) ध्यानमार्ग Check Answer   2. "नादबिंदु उपनिषद" में किस साधना का वर्णन किया गया है? A) ध्यान साधना B) मंत्र साधना C) नादयोग साधना D) प्राणायाम साधना ANSWER= (C) नादयोग साधना Check Answer   3. "योगशिखा उपनिषद" में मोक्ष प्राप्ति का मुख्य साधन क्या बताया गया है? A) योग B) ध्यान C) भक्ति D) ज्ञान ANSWER= (A) योग Check Answer   4. "अमृतनाद उपनिषद" में कौन-सी शक्ति का वर्णन किया गया है? A) प्राण शक्ति B) मंत्र शक्ति C) कुण्डलिनी शक्ति D) चित्त शक्ति ANSWER= (C) कुण्डलिनी शक्ति Check Answer   5. "ध्यानबिंदु उपनिषद" में ध्यान का क...