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केनोपनिषद

2. केन- (केनोपनिषद- Kenopanishad) 

यह उपनिषद सामवेद के “तलकवार ब्राह्मण” के 9 वें अध्याय पर है। पहले मंत्र का पहला शब्द 'केनेषितं' यानि केन से शुरू है इसलिए केन उपनिषद कहा जाता है। इसे 'जैमिनी” व “ब्राह्मणो' उपनिषद्‌ भी कहते हैं।  

केनोपनिषद उपनिषद चार खण्डों में विभाजित है। प्रथम व द्वितीय खंड में- गुरु शिष्य परंपरा द्वारा प्रेरक सत्ता के बारे में बताया गया है। तीसरे और चौथे खंड में- देवताओं में अभिमान व देवी ऊमा हेमवती द्वारा "ब्रह्म तत्व' ज्ञान का उल्लेख है। मनुष्य को श्रेय” मार्ग की ओर प्रेरित करना इस उपनिषद का लक्ष्य है। श्रेय (ब्रह्म) को तप, दम व कर्म से अनुभव किया जाता है।
ब्रह्म को ज्ञान द्वारा जानने का प्रयत्न कर सकते हैं। अमरत्व की प्राप्ति ब्रह्म ज्ञान द्वारा होती है।

मुख्य विषय- इन्द्रिया एवं अन्तःकरण, स्व और मानस, सत्य का अनुभव, यक्षोपाख्यान 

अंतर्यामी शक्ति-
सभी इन्द्रियों का मूल परमात्मा है। जो वाणी द्वारा प्रकाशित नहीं होता बल्कि जिससे वाणी का प्रकाश होता है वह ब्रंह्म है।
जो आँखों से नहीं देखा जाता बल्कि जिससे आँखें देखती है वह ब्रह्म है। जो कान से नहीं सुना जाता बल्कि जिससे कान सुनता है वह ब्रह्म हैं। वह ब्रह्म है। जिसका मन से मनन नहीं किया जाता, बल्कि जिससे मनन करता है वह ब्रह्म है। जो प्राण के व्यापार से नहीं आता, जिसमें प्राण अपना व्यापार करता है वह ब्रह्मा है। 5 इन्द्रियाँ जिसे नहीं पा सकती बल्कि वह ब्रह्म 5 इ्न्द्रियों को पा सकता है। ब्रह्म ही परमात्मा या अंतर्यामी कहलाता है। 

इन्द्रियाँ एवं अन्तःकरण- मनुष्य के अधिकार में ज्ञान उपलब्धि/प्राप्ति के दो मुख्य साधन है:

इन्द्रियाँ- इनकी संख्या दस है- 5 ज्ञानेन्द्रियां- जिनसे हमें ज्ञान प्राप्त होता है (आँख, नाक, कान, जिह्वा, त्वचा) + 5 कर्मेन्द्रियां- जिनसे हम कर्म करते है (हाथ, पैर, वाक् (वाणी) पायु, उपस्थ)। इन दस इन्द्रियो को बाह्यकारण कहा जाता है। इन्द्रियों से प्राप्त ज्ञान को 'बोध' कहते हैं। आत्मा से प्राप्त ज्ञान को 'प्रतिबोध' कहते है।

अन्तःकरण- ये चार है- मन, बुद्धि, चित्त व अहंकार  
1. मन:- 5 इंद्रियों से ज्ञान प्राप्त करता है। 5 अन्य से कर्म कराता है इसलिए मन इंद्रियों का राजा है। मन का स्थान हृद्याकाश है। सूक्ष्म ज्ञानेन्द्रियों की जगह, मन
जिससे काम लेता है वह-'मस्तिष्क' है। (संकल्प-विकल्प)
2. बुद्धिः-
i. तार्किक बुद्धि (तर्क करना)।
ii. मेधावी बुद्धि (सत्य पर श्रद्धा व विश्वास उत्पन्न करना) बुद्धि का स्थान मस्तिष्क है।
3. चित्तः- दो भाग है:- i. एक भाग का काम उद्देग (Emotious) पैदा करना।
ii. दूसरा भाग का
कार्य स्मृति (memory), वासना (desire), संस्कार (sacraments) (कर्मों की छाप) है।
4. अहंकार:- 'मै' का भाव।
ii. व्यक्तित्व अहंकार के बिना नहीं।
iii. व्यक्ति के बिना संसार नहीं।

यक्षोपाख्यान- (यक्ष = ब्रह्म) ब्रह्म देवों के लिए विजय हुए परंतु फिर देव बढ़ने लगे व अभिमान करने लगे वो समझने लगे की हम विजय हुए हैं और केवल हमारी महिमा है यह परीक्षा लेने के लिए ब्रह्म 'यक्ष' बनकर देवताओं के सामने प्रकट हुए। तीन देव में श्रेष्ठता के लिए विवाद था वे तीन देव थे- क्रमशः 1. अग्नि (इन्द्रियों का प्रतिक) 2. वायु (इन्द्रियों का प्रतिक) 3. इन्द्र (जीवात्मा का प्रतिक)

सर्वप्रथम 'अग्नि देव' यक्ष के सामने शक्ति प्रदर्शन करने गए यक्ष ने अग्नि देव के सामने एक तिनका रख दिया तथा कहा कि इसे जला दो परंतु अपनी सारी शक्ति लगाने पर भी अग्नि देव तिनके को जला नहीं पाए। ऐसे ही लौट आए। फिर 'वायु देव' गए, वह भी तिनके को हिला तक नहीं पाए। वह भी लौट आए। तब तीसरे नम्बर पर 'इन्द्र देव' गए तब 'यक्ष' अंतर्ध्यान हो गए तब वहाँ पर उमा हेमावती मिलती है इन्द्र उन देवी से पूछते है कि जो अभी यहाँ थे वह कौन थे तब वह देवी इन्द्र को 'यक्ष' के बारे में बताती है कि वो 'ब्रह्म' थे तब इन्द्र और अन्य देवों का अभिमान समाप्त होता है।
उमा हेमवती = बुद्धि का प्रतीक- अतः यहां बताया गया है कि ब्रह्म (यज्ञ) की प्राप्ति बुद्धि के द्वारा ही हो सकती है। ये स्वरूप या प्रतिष्ठा या आधार स्तम्भ है इनसे ब्रह्म को प्राप्त किया जा सकता है। इंद्र से मिलने वाली स्त्री ऊमा हेमावती थी।
तीन देवों को शक्ति “ब्रह्म ' ने दी थी। जीव ब्रह्म को जानने के बाद प्राणिमात्र का प्रिय हो जाता है।

बह्म का स्वरूप- तप - दम - कर्म

 Continued.......

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